आपका जैसा नाम वैसा ही गुण था। आप बाबा की फेवरेट सन्देशी थी। बाबा आपमें श्री लक्ष्मी, श्री नारायण की आत्मा का आह्वान करते थे। आपके द्वारा सतयुगी सृष्टि के अनेक राज खुले। आप बड़ी दीदी मनमोहिनी की लौकिक में छोटी बहन थी। लौकिक-अलौकिक परिवार के कल्याण की आप एक कड़ी बनी। सिन्धी समाज की सेवा में आपने विशेष योगदान दिया और मुंबई गामदेवी सेवाकेन्द्र पर रहकर अपनी सेवायें दी। आप 22 जून, 1996 को अव्यक्त वतनवासी बनी।
इस यज्ञ में चेनराई परिवार से क्वीन मदर और उनकी देवरानी लीलावती जी समर्पित हुई। उनके साथ उनकी दो-दो बेटियाँ, क्वीन मदर की बेटियाँ दीदी मनमोहिनी तथा ब्र.कु. शीलइन्द्रा तथा लीलावती बहन की बेटियाँ-ब्र.कु. बृजशान्ता तथा हरदेवी बहन भी समर्पित हुई।
ब्र.कु. शीलइन्द्रा बहन को प्यार से शील दादी कहते थे। वे बहुत ही अच्छी संदेशी बहन थी और उनके द्वारा अनेक प्रकार के शुभ संदेश हमें मिलते रहे और इस प्रकार से श्रीमत पर चलने में हमें सदा ही मदद मिलती रही।
जब नवंबर, 1968 को वर्ल्ड रिन्युअल स्पिरिचुअल ट्रस्ट का निर्माण हुआ तब यज्ञ की ओर से दादी शीलइन्द्रा को ट्रस्टी के रूप में नियुक्त किया गया। मेरे लिए ट्रस्ट का कारोबार नया था, उसका कोई अनुभव नहीं था। 18 जनवरी, 1969 को ब्रह्मा बाबा के अव्यक्त हो जाने पर ट्रस्ट के कारोबार के संबंध में शील दादी द्वारा मुझे बहुत मदद मिली।
सन् 1971 में विदेश सेवा के प्रारंभ का बीज डालने के लिए, छह आत्माओं का एक ग्रुप डेलीगेट्स के रूप में शिवबाबा ने भेजा, उसमें भाइयों में भ्राता जगदीश जी और मैं तथा बहनों में ब्र.कु. रोजी बहन, ब्र.कु. डॉ. निर्मला बहन, ब्र.कु. ऊषा बहन तथा इस ग्रुप की मुख्य संचालिका के रूप में ब्र.कु. शीलइन्द्रा बहन थीं। विदेश सेवा के दौरान समय प्रति समय अव्यक्त बापदादा की श्रीमत, संदेश के रूप में शील दादी लेकर आती थी। एक छोटा-सा मिसाल बताता हूँ। हम लोग न्यूयार्क में थे और एक संस्था में प्रदर्शनी करने के लिए जा रहे थे। हम लोग लिफ्ट में बैठ चुके थे, इतने में शील दादी को शिवबाबा की टचिंग मिली कि आप लोग मुझे याद किये बिना ही सेवा के कार्यक्रम के लिए जा रहे हो क्योंकि जब हम सब भारत से निकले थे तब अव्यक्त बापदादा की डायरेक्शन थी कि कोई भी सेवा के लिए निकलो तो पहले पाँच मिनट शिवबाबा को याद करके ही निकलो। शील दादी ने हमारी गलती को महसूस किया। हम लोग लिफ्ट छोड़ वापस अपने स्थान पर पहुँच गये और शिवबाबा को याद करने लगे। शिवबाबा ने एक मिनट में शील दादी की बुद्धि की रस्सी अपने पास खींच ली और दादी को हँसते-हँसते कहा कि देखो बच्ची, बाबा ने कैसे आप बच्चों को, याद करने के लिए बुला लिया। तब बाबा ने संदेश में बताया कि यह कोई तुम्हारा भारत नहीं है जहाँ बहुत जिज्ञासु हैं और कोई चीज़ रह जाये तो कोई जिज्ञासु लेकर आ जायेगा। यहाँ तो आपेही पूज्य और आपेही पुजारी बनकर चलना पड़ेगा। आप सबने बाकी सब चीजों की तो तैयारी कर ली है परंतु दीप प्रज्वलन के लिए माचिस की डिब्बी नहीं ली है। जब हमने दादी से यह मैसेज सुना तो अपना सामान देखा, पाया कि मैच बॉक्स नहीं था। हम सब मैच बॉक्स लेकर प्रदर्शनी के स्थान पर गये और बहुत ही अच्छी सेवा हुई।
ऐसा ही एक दूसरा मिसाल है, सन् 1973 में भारत सरकार ने इन्कम टैक्स के कानून में यह परिवर्तन करना चाहा कि हरेक संस्था को जो भी धन दान में मिलता है तो उसके पास हरेक दाता का नाम और पता आदि होना चाहिए। अगर यह बात कानून बनती तो यज्ञ कारोबार में भंडारी-प्रथा खत्म हो जाती किंतु सरकार ने संसद में जब यह बात रखी तब इसके लिए एक संसदीय कमेटी का गठन किया तथा निश्चित किया कि वो जैसा कहेगी वैसा ही करेंगे। संसदीय कमेटी ने 12 अगस्त, 1975 के दिन रिपोर्ट पेश की और कहा कि संस्थाओं में भंडारी प्रथा चालू ही रखनी चाहिए।
13 अगस्त को मैं मधुबन जाने के लिए मुंबई से निकला और 14 अगस्त को हम लोग आपस में इस बारे में मीटिंग कर रहे थे कि भंडारी प्रथा यज्ञ में होनी चाहिए या नहीं। इस बारे में कई राय निकली। उस समय गुलजार दादी आबू में नहीं थी, शील दादी आबू में थी। जब शील दादी को बाबा के पास संदेश प्राप्त करने अर्थ भेजा गया तो अचानक ही शिवबाबा की पधरामणि शील दादी के तन में हो गई। तब बड़ी दीदी ने पहला ही सवाल बाबा को पूछा कि आप अचानक शील बहन के तन में क्यों आ गये। शिवबाबा ने उत्तर दिया कि भंडारी सिस्टम जैसी यज्ञ की बहुत बड़ी बात के बारे में श्रीमत देने के लिए मुझे स्वयं आना ज़रूरी लगा और इस शील बच्ची की बुद्धि की तार बहुत क्लीयर है इसलिए मैं इसके तन में आकर आप बच्चों को श्रीमत देता हूँ। परिणामरूप शिवबाबा की श्रीमत के आधार से भंडारी-प्रथा यज्ञ में चालू रही।
ऐसे ही शील दादी जब लंदन ईश्वरीय सेवार्थ गई तो वहाँ पर ऑक्सफोर्ड रिट्रीट सेन्टर के लिए बात चल रही थी। रिट्रीट का स्थान दादी जानकी सहित सबको पसंद था और इसके बारे में तुरंत निर्णय लेना था। इसलिए शील दादी द्वारा बाबा के पास संदेश भेजा गया और बाबा ने छुट्टी दी, फलस्वरूप ऑक्सफोर्ड रिट्रीट सेन्टर की स्थापना हुई। यहाँ पर मेरा एक निजी अनुभव लिखना चाहता हूँ। मातेश्वरी जी पूना में थी और उन्हें 11 अप्रैल, 1965 को डॉक्टर को दिखाने के लिए मुंबई आना था और 12 अप्रैल को डॉक्टर की अप्वाइंटमेंट थी। परंतु पूना के बहन- भाइयों के प्रेमपूर्वक आग्रह पर मैंने मातेश्वरी जी के डॉक्टर से फोन पर बात करके 19 अप्रैल, 1965 की अप्वाइंटमेंट ली और मातेश्वरी जी 18 अप्रैल को मुंबई हमारे घर पधारी। 19 अप्रैल को मातेश्वरी जी को मेरी लौकिक बड़ी बहन डॉ.अनीला बहन हॉस्पिटल लेकर गई और डॉक्टर ने जो कुछ कहा, उसके फलस्वरूप मेरी बड़ी बहन द्वारा मुझे मालूम पड़ा कि मातेश्वरी जी का कैंसर तीव्र गति से फेफड़ों की ओर आगे बढ़ रहा है और मातेश्वरी जी का जीवन बहुत लंबे समय तक नहीं रहने वाला है। डॉक्टर से प्राप्त यह समाचार सुनने से मुझे बहुत दुख हुआ और मैं दूसरे ही दिन अर्थात् 20 अप्रैल के दिन शील दादी के पास गया और उन्हें कहा कि आप बाबा के पास जाइये और उन्हें नीचे मुझसे मिलने के लिए भेजिए। शील दादी ने मना भी किया कि आप ब्रह्मा बाबा से बात कर लो, ब्रह्मा बाबा कहें तो मैं जाऊँगी। मैंने कहा कि अति आवश्यक है, आप बाबा के पास मेरी अर्जी लेकर जाओ कि रमेश बच्चा नीचे आपसे मिलना चाहता है। अगर बाबा अर्जी स्वीकार करें तो आपके तन में स्वयं पधारें। शील दादी ने कहा कि आप संदेश दे दो, मैं पूछकर आऊँगी। मैंने कहा कि मैं आपको संदेश भी नहीं दे सकता, आप बाबा से पूछिए। शील दादी शिवबाबा के पास गई और अव्यक्त बापदादा की पधरामणि शील दादी के तन में हुई। उसके बाद अव्यक्त बापदादा के साथ मेरा जो दो-ढाई घंटे का डायलाग चला वो तो सारे दैवी परिवार को मालूम ही है। उस दिन हमने मम्मा के भविष्य के बारे में जाना। बाद में मम्मा की ट्रीटमेंट भी हुई और डॉक्टर ने 4 जून, 1965 को आबू जाने की छुट्टी दी। हमारी बड़ी बहन मम्मा के साथ आबू गई और बाद में जब वापस आई तो उन्होंने बताया कि मम्मा की तंदुरुस्ती दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है। तब 17 जून, 1965 को गुरुवार के दिन हमने शील दादी को बाबा के पास यह संदेश ले जाने के लिए कहा कि बाबा हमको किसी भी तरह से मातेश्वरी के अंतिम संस्कार में शामिल होना ही है। हमने आज तक कभी कुछ नहीं माँगा, इतना करें कि हम मातेश्वरी के अंतिम संस्कार में शामिल हो सकें। तब शील बहन ने हम पर गुस्सा किया कि तुम्हारी जीभ से कैसे ये शब्द निकल सकते हैं कि मैं मातेश्वरी के अंतिम संस्कार में पहुँच जाऊँ। मैने शील दादी को कहा कि आपका फर्ज है बाबा के पास संदेश ले जाना, मैं आपको ज्यादा नहीं बता सकता। आज्ञाकारी शील दादी बाबा के पास गई। जवाब में बाबा ने संदेश दिया कि बच्चे ड्रामा में होगा तो तुम अवश्य ही पहुँच जाओगे। 24 जून, 1965 को मातेश्वरी ने शरीर छोड़ा। निर्वैर जी, दादी प्रकाशमणि जी और मुंबई की सीता माता ट्रेन में आबू आने के लिए निकले और हम पाँच लोग- मैं, ऊषा, शील दादी, नारायण दादा और नलिनी बहन दूसरे दिन हवाई जहाज से निकले और टैक्सी द्वारा मेहसाणा पहुँचे। वहाँ से दिल्ली मेल पकड़ आबू रोड़ पहुँचे। बाद में ऊपर श्मशान घाट पहुँचकर मातेश्वरी जी को अंतिम विदाई दी। ऐसी शील दादी प्रति हमारी सादर श्रद्धांजलि !
शीलइन्द्रा दादी, दीदी मनमोहिनी की छोटी बहन थी, कुमारी थी। शुरू में यज्ञ में जब पूरे के पूरे परिवार समर्पित हुए तो दादी का परिवार भी समर्पित हुआ। दादी का लौकिक परिवार बहुत रईस था। दादी सुनाती हैं, हमारी एक कोठी थी। उसमें एक कमरे से दूसरे में जाने में ही आधा घंटा लग जाता था। हमने कभी बालों में कंघी खुद नहीं की, सब नौकर-चाकर करते थे। यज्ञ में समर्पित होने वाले परिवारों में दादी का परिवार सबसे बड़ा था। इसलिए सिंध में हल्ला मच गया। दादी के चाचा लोकूमल पिकेटिंग करने वालों में सबसे आगे थे। ओम मण्डली पर केस भी इन्होंने किया।
शील दादी को बाबा शहजादी कहते थे। दादी सचमुच में शहजादी थी। उनका बोलना-चलना, रहना, विचार सब शहजादी की तरह रॉयल थे। दादी हरेक काम में बिल्कुल एक्यूरेट थी। कहीं जाना होता तो दादी 10 मिनट पहले ही तैयार हो जाती थी। हमेशा एलर्ट रहती थी। दादी की इन्हीं विशेषताओं के कारण बाबा इनको मुंबई का गवर्नर कहता था।
दादी यज्ञ के प्रति बहुत वफादार थीं। शील दादी की लौकिक भाभी कमला चेनराय उस समय मुंबई में जसलोक हॉस्पिटल चलाती थी। बाबा ने दादी को उनकी सेवा के लिए मुंबई भेजा। उन्होंने फिर बाबा को बेगरी पार्ट में धन की मदद की। लौकिक भाई ने मुंबई में सेवा के लिए फ्लैट खरीद कर दिया। बाबा ने क्वीन मदर और शीलइन्द्रा दादी को मुंबई में सेवा के लिए भेजा। दादी जी ने 1970 से 1996 तक मुंबई, गामदेवी सेवाकेन्द्र का बड़ी कुशलता के साथ संचालन किया।
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