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"दादी प्रकाशमणि जी की विशेषतायें "

हम सबकी अति स्नेही ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय की पूर्व कुशल मुख्य प्रशासिका दादी प्रकाशमणि जी ने अपने अलौकिक जीवन की छाप अनेक ब्रह्मा वत्सों पर डाली है, जिन्होंने भी दादी जी की पालना ली है, उन सबके सामने दादी जी की वह मुस्कराती हुई निश्छल मूर्ति सदा ही स्मृति पटल पर घूमती रहती है। दादी जी की अनेकानेक विशेषताओं में से 25 मुख्य विशेषतायें यहाँ लिख रहे हैं। 

1) सदा कौमार्य (पवित्र) जीवन में रहने वाली दादी कुमारका दादी जी का लौकिक नाम रामा था, लेकिन ब्रह्मा बाबा दादी जी की कोमल और पवित्र जीवन को देखकर उन्हें बहुत प्यार से “कुमारका” कहकर बुलाते थे। आलमाइटी बाबा ने दादी जी को प्रकाशमणि नाम दिया। दादी जी लाइट माइट से सम्पन्न चमकती हुई मणि समान पूरे विश्व में अपने दिव्य प्रकाश की किरणें बिखेरती रही । बाबा से मिला हुआ ज्ञान दादी जी के जीवन में प्रैक्टिकल दिखाई देता था।

2) एक वल एक भरोसे में नम्बरवन दादी की बुद्धि कहाँ भी अटकी नहीं। न अटकी, न चटकी, उन्होंने कभी किसी देहधारी को सहारा नहीं बनाया। सदा एक बल, एक भरोसे के आधार पर हर कार्य में सफलता प्राप्त की। उन्होंने अपने मार्ग दर्शन में, एक बल एक भरोसे के आधार पर यज्ञ का इतना बड़ा विस्तार किया। ओम् शान्ति भवन से लेकर, ज्ञान सरोवर, शान्तिवन, मनमोहिनीवन आदि का जो विस्तार हम सब देख रहे हैं, यह उनके दृढ़ संकल्प, एक बल एक भरोसे का प्रत्यक्ष प्रमाण है। वे सम्पूर्ण निश्चयबुद्धि, निश्चित स्थिति में रहती, सदा यही ध्यान रहता कि करनकरावनहार बाबा है, हम निमित्त हैं, उनके बोल व चलन में कभी मैंपन नहीं आया।

3) दुआओं के भण्डार की मालिक दादी जी के पास दुआओं का भण्डार था। वे सदा कहती मुझे तो बाबा की और आप सबकी दुआयें चला रही हैं। दादी जी के पास दुआओं का जैसे भण्डार था। वे सबको समय पर साथ देती, सुख देती, उनके दिल में हर एक के प्रति सहानुभूति थी। उन्होंने अपने संकल्पों को सदा शुद्ध और श्रेष्ठ रखा, इसलिए दुआयें जमा होती रही । अन्तिम समय भी शरीर के हिसाब किताब को दुआओं के बल से सहज पार कर लिया। उन्हें कभी दुःख दर्द की महसूसता नहीं हुई। दादी ने अपने कर्मों से, गुणों से, सम्बन्ध से, सच्चाई सफाई से सबकी दुआयें ले ली। दादी हमेशा कहती मुझे तो बाबा की और आप सबकी दुआयें चला रही हैं। जिसके सिर पर बाबा की दुआओं का हाथ हैं उनका सिर कभी भारी नहीं हो सकता। वे सदा बेफिकर बादशाह रहते हैं।

4) मुरलीधर की मुरली पर अधिकार
बाबा जब अव्यक्त हुए तो दादी जी के ऊपर ज्ञान का कलष रखा और दादी जी को मुरली सुनाने का जैसे अधिकार दे दिया। दादी मुरली को अन्दर में समाकर ऐसा सुनाती जो सबको ज्ञान डांस करा देती। मुरली से ही सबके दिलों को जीत लेती। दादी के अन्दर सदा यही रहता कि कुछ भी हो जाए मैं बाबा की मुरली क्लास में जाकर जरूर सुनाऊं। दादी ने अपने नाम से बाबा का नाम बाला किया।

5) सदा यज्ञ स्नेही और यज्ञ रक्षक
बाबा की, यज्ञ की वा परिवार की कभी कोई निंदा करे, यह दादी सुन नहीं सकती थी। दादी इसे महापाप समझती। दादी सदा यज्ञ रक्षक बनकर रही। उनकी बुद्धि में सदा यही रहता कि यह यज्ञ हमारे यज्ञ पिता का है, इसकी हम सबको मिलकर सम्भाल करनी है। कोई भी ईश्वरीय नियम व मर्यादा का उलघंन कर यज्ञ की वा यज्ञ पिता की कभी निंदा नहीं करानी है। अगर कोई ब्राह्मण कुल की मूल मर्यादाओं का उल्घंन करता तो वे शक्ति रूप बनकर निर्णय लेती। साकार बाबा ने तो अपने आप सब कुछ करके अपने आप को छिपाया, लेकिन दादी ने बाबा को छिपने नहीं दिया। यज्ञ के लिए, बाबा के लिए उनका अति प्यार रहा, इसी प्यार के पीछे उन्होंने पूरे विश्व को कुर्बान करा दिया। इस महान यज्ञ की दादी ने दिल से सम्भाल की, यज्ञ सेवा करने के लिए कितनी आत्माओं को लायक बनाया। शिवबाबा का भण्डारा सदा भरपूर रहे, यही उनका लक्ष्य रहा।

6) कर्मों के बंधन से मुक्त, सदा निर्लिप्त और न्यारी
दादी जी ने शुरू से यही लक्ष्य रखा कि मुझे बाप समान विकर्माजीत, कर्मातीत और अव्यक्त बनना है। वे किसी भी कर्म के बंधन में कभी नहीं बंधी। उनका कुछ भी अपना नहीं। उनकी सदा न्यारी, निर्लिप्त, निर्विकल्प और निरहंकारी स्थिति रही। विघ्नों को वे सदा खेल समझती, कभी किसी विघ्न में घबराई वा मूंझी नहीं, सदा ध्यान रहा कि यह विघ्न आया है हमें और अनुभवी बनाने, आगे बढ़ाने। ऐसे समय पर उन्होंने केवल योग को ही आधार बनाया। यज्ञ के सामने कोई भी पेपर आया तो वे सबको योग में बिठा देती और सफल हो जाती ।

7) सच्चाई और सफाई की प्रतिमूर्ति दादी जी को सच्चाई बहुत पसन्द थी। उन्होंने सच्चे दिल से साहेब को राजी कर लिया और उनके तख्त की अधिकारी बन गई। उनकी सच्ची दिल, सरल स्वभाव, हम सबके दिल दिमाग को ठण्डा करने वाला है। सच्चाई सफाई के कारण दादी जी के चेहरे पर कभी थकावट के चिन्ह नहीं दिखाई दिये। कभी दिमाग गर्म नहीं हुआ। सदा चेहरा फूल जैसा मुस्कराता रहा। दादी सदा स्वच्छ और साफ रही, उनमें अभिमान का कभी अंश नहीं देखा। कभी मैं-पन के आवाज़ में नहीं देखा। यह मेरा है, यह अटैचमेन्ट नहीं देखी। किसी भी प्रकार का अहंकार दादी में नहीं रहा।

8) मान-अपमान, निंदा-स्तुति में समान जैसे ब्रह्मा बाबा ने किया, वह सब दादी ने भी प्रैक्टिकल में किया। दादी से सबका प्यार इसीलिए है क्योंकि वे सदा न्यारी और प्यारी रही देह में रहते हुए निर्लेप रही, मान-अपमान, निंदा-स्तुति का असर उन्हें कभी नहीं हुआ। इतना न्यारा रहना, प्यार से परमात्म प्यार की शक्ति खींचना, यह बड़ी कला है, इसमें दादी नम्बरवन चली गई। जो बाबा मम्मा ने किया, वह दादी ने करके दिखाया। उनकी कोई महिमा करे या ग्लानि, वे सदा मुस्कराती रहती। कभी उनके चेहरे पर कोई फीलिंग वाले चिन्ह नहीं दिखाई देते।

9) गम्भीरता और नम्रता के गुण से परिपूर्ण जैसे मम्मा कुमारी होते भी सबको अपनी माँ लगने लगी, ऐसे दादी जी को भी सब मुन्नी माँ कहते थे। उनमें रूहानियत, गम्भीरता और नम्रता ऐसे झलकती थी, जो कुमारी होते भी माँ बन गई, गुणवान बन गई। बाबा मम्म को जो कहना हो, वह पहले दादी को कहते। दादी के ऊपर बाबा का शुरू से अधिकार रहा है।

10) सदा मैं और मेरेपन से दूर, समर्पण लाइफ
दादी की सदा ऐसी समर्पण लाइफ रही, जो वे मैं मेरेपन से दूर रही। जैसे मम्मा ने कभी किसी की कमियों को नहीं देखा। ऐसे दादी ने भी कभी किसी की कमी नहीं सुनी, न देखी। पालना भी मम्मा बाबा के समान दी। दादी जी सबका ध्यान रखने में हर बात में एक्यूरेट रहने में, जो बाबा सेवा कहे वो तुरंत करने में, जो इशारा मिला वो मन-वाणी – कर्म से पालन करने में दादी नम्बरवन थी। बाबा ने पहले पहले दादी जी को ही जापान और हांगकांग की सेवा पर भेजा।

11) स्वमान में रहने वाली और सबको सम्मान देने वाली दादी अपने स्वमान में सदा रही लेकिन छोटे हों या बड़े, सबको सम्मान दिया। अपने से भी आगे रखा। अपनी मीठी बृजइन्द्रा दादी को, निर्मलशान्ता दादी को, दीदी को… दादी जी ने सदा आगे रखा। पहले आप करने में बड़ी दिल, सच्ची दिल यह दादी का जैसे निजी संस्कार था। दादी सदा आज्ञाकारी, वफादार, इमानदार होकर रही, इसलिए निमित्त बनने की जैसे दादी को गिफ्ट मिल गई।

12) स्वभाव – संस्कार मिलाने में नम्बरवन
बाबा जब अव्यक्त हुए तो पढ़ाने के लिए, मुरली सुनाने के लिए दादी को जिम्मेवारी दी। बाबा के अव्यक्त होने पर दीदी-दादी की ऐसी जोड़ी बनी जो सभी कहते यह शरीर दो हैं लेकिन आत्मा एक है। एक ने कहा दूसरे ने माना । जो बाबा का इशारा मिला, दोनों ने कहा “जी बाबा”। कभी अपनी बुद्धि नहीं चलाई। एक दो को सदा आगे रखा। कभी कोई भाव, स्वभाव, संस्कार के टक्कर में नहीं आई। संस्कार-स्वभाव में जैसे बाबा आ गया। इसी एक धारणा से वह नम्बरवन बन गई।

13) पिताव्रता और पतिव्रता, एकव्रता
किसी भी देहधारी में आंख न जाये, दादी जी ऐसी पिताव्रता और पतिव्रता और एकव्रता बनकर रही, जो बाबा ने कहा वही किया। सेवा में बाबा की राइट हैण्ड बन गई। दिल में सदा बाबा को बसाया, कहीं आंख नहीं डूबी । कोई कितना भी स्नेही, सहयोगी हो, किसी भी देहधारी ने प्रभावित नहीं किया। किसी के प्रभाव में कभी नहीं आई। कोई सहयोग दे और अपना अधिकार रखे, दादी को यह बिल्कुल पसन्द नहीं था।

14) यज्ञ की जिम्मेवार होते भी त्याग और तपस्या की मूर्ति यज्ञ की हर प्रकार की जिम्मेवारी को प्यार से सम्भालते सदा त्याग और तपस्या की मूर्ति बनकर रही। हजारों लाखों के संबंध में आते, सेवा करते सबको सुख, शान्ति, सम्पत्ति दी । सदा अन्तर्मुखी होकर रही । वे एक सेकण्ड भी बाबा से अलग होकर नहीं रही। सदा कहती थी कि मेरे सिर पर मेरे कंधों पर बाबा बैठा है। हम तो उनकी कठपुतलियां हैं, वह हमें नचा रहा है। खेल करा रहा है। मेरे से बाबा को कोई अलग कर नहीं सकता।

15) हर संकल्प, श्वांस और समय को सफल करने और कराने वाली दादी जी को समय का बहुत कदर था । वे सदा कहती संगम की एक एक घड़ी बड़ी अनमोल है, इसे व्यर्थ नहीं गंवाना। दादी ने खुद भी अपना एक एक श्वांस, संकल्प, समय सब सफल किया और दूसरों का भी सफल कराया। कुछ भी निष्फल न जाये। श्वांस श्वांस स्मृति में रहने से वे मजबूत बन गई। सदा मनमनाभव का मन्त्र अन्दर चलता रहा । नम्बरवन में आना हो तो अभी यह समय है, हर एक आ सकता है, यह करके दादी ने दिखाया।

16) अनुभवों की अथॉरिटी के साथ नम्रता का अवतार दादी जी ने ज्ञान और योग की गहराईयों को समझकर उसे अपने अनुभव में उतारा। वे अनुभवों की अथॉरिटी थी। बाबा की शिक्षाओं से दादी जी ने अपना श्रृंगार किया। वे यज्ञ की हर प्रकार की स्थूल सूक्ष्म सेवाओं में सदा आगे रहती, पहले करती फिर दूसरों से करवाती। वे अथॉरिटी होते भी नम्रता का अवतार थी। उनके अथॉरिटी के बोल भी सबको बहुत प्यारे लगते थे। सत्यता की अथॉरिटी होते भी उनके हर बोल में सभ्यता समाई रहती ।

17) निश्चय और विश्वास के आधार पर यज्ञ को आगे बढ़ाया दादी जी का स्वयं में और बाबा में अति विश्वास था। उन्होंने यज्ञ वत्सों में भी विश्वास रखा और उन्हें सब जवाबदारियां देते, आगे बढ़ाती रही। दादी जी को कुछ भूलना नहीं पड़ा। देह सहित सबसे सेकण्ड में नष्टोमोहा बन गई। कभी निश्चय में संशय नहीं आया। इसी कारण उनका फाउण्डेशन मजबूत था । वे कभी किसी भी परिस्थिति में हिली नहीं। अचल अडोल एकरस स्थिति में रही। उनके अटूट विश्वास ने ही आज यज्ञ को इतना आगे बढ़ाया है।

18) दिव्य बुद्धि, दिव्य दृष्टि की वरदानी
दादी जी ने अपनी बुद्धि को बहुत दिव्य और पवित्र रखा। दादी कहती थी हमारी बुद्धि है ही नहीं, बुद्धिवानों की बुद्धि हमारा बाबा है, उसने हमें दिव्य बुद्धि और दिव्य दृष्टि का वरदान दिया है। बुद्धि का अभिमान कभी आ नहीं सकता। इसी विशेषता से दादी जी फालो फादर करने में नम्बरवन रही। उन्हें दिव्य दृष्टि का जैसे वरदान मिला हुआ था। वे ट्रांस में नहीं जाती लेकिन जब भी बाबा के कमरे में जाती तो बाबा उन्हें कोई न कोई सन्देश जरूर देते और वे उसी नशे और निश्चय से कहती कि आज बाबा ने मुझे यह कहा है, इस सेवा के लिए बोला है। अभी यह करना है अथवा यह नहीं करना है। उनकी ही प्रेरणाओं से भारत की हर स्टेट में बड़े-बड़े मेगा प्रोग्राम बहुत सफल हुए।

19) बड़ी दिल, विशाल दिल और सदा रहमदिल दादी जी सदा बड़ी दिल, फ़राख दिल बनकर रही। बाबा के घर में जो भी आता उनकी हर प्रकार से खातिरी करती, बड़ी दिल से सबकी पालना करती। दादी जी विशाल दिल, रहम दिल, स्नेह का सागर बनकर रही। उनका रहम निःस्वार्थ और ज्ञान युक्त था। वे कभी किसी में फंसी नहीं और न अपने में किसी को फंसने दिया। सदा सतगुरू बाबा की श्रीमत को सिरमाथे रख, सम्पन्न और सम्पूर्ण बन गई। हमें भी उनके कदम पर कदम रख समान बनना है।

20) सदा बेहद की बुद्धि और बेहद की भावना
दादी जी सदा कहती हमारे लिए सिर्फ मधुबन नहीं लेकिन सारा ही यज्ञ बाबा का सो हमारा है। देश-विदेश सब बाबा के बच्चे हैं, बाबा का परिवार है, बाबा के सेन्टर्स हैं इसलिए सबके प्रति समान प्यार रहा। बेहद में बुद्धि रही। मधुबन सबका है, यह बाबा की चरित्र भूमि, कर्तव्य भूमि, प्यारी अलौकिक भूमि है, इस पर सबका समान रूप में अधिकार है। ऐसी बेहद की भावना उनके दिल में सदा बनी रही।

21) किसी के अवगुण को चित पर नहीं रखा, सदा गुणग्राही
दादी सदा कहती बाबा ने मुझे ड्युटी दी है कि तुम्हें मेरे सब बच्चों को सम्भालना है। तो मैं समझती हूँ बाबा ने जब मुझे यह ड्यूटी दी है तो सम्भालने के साथ-साथ मुझे सबके साथ चलना भी है, चलाना भी है। मुझे सबके साथ निभाना भी है, मुझे सबका समाना भी है। मैं कभी यह नहीं कह सकती कि यह फलानी या फलाना ऐसा ही है, इसे छोड़ दो.. छोड़ेंगे तो कहाँ जायेगा! न मुझे किसी को छोड़ना है, न किसी से दूर होना है। बाबा का बना है तो उसे हमें सम्भालना है। चलाना है। मैं किसी की खामी को बुद्धि में रखकर नहीं चलाती। मैं यह मंत्र सदा याद रखती हूँ कि किसी का अवगुण चित पर न धरो.. अवगुण चित पर धरने से वैसी ही वृत्ति और व्यवहार हो जाता है। बाबा के हर बच्चे में कोई न कोई विशेष गुण है, इसलिए दादी जी सदा गुणग्राही बनकर रही

22) सदा सन्तुष्टमणि बन सबको सन्तुष्ट करने की भावना दादी जी सदा सन्तुष्टमणि बनकर रही। उनकी बुद्धि में यही रहता कि सब मेरे से सन्तुष्ट रहें। सन्तुष्टता ही मेरे लिए सबकी दुआयें हैं। दादी जी कहती कि मेरी बुद्धि में यही रहता कि हमें सबको सन्तुष्ट करना है। सन्तुष्टता की दुआयें सबसे लेनी हैं, इस धारणा से बुद्धि सदा निश्चित रहती है। सन्तुष्टता ही उदारता है। जितनी उदारता होगी उतना सन्तुष्ट कर सकेंगे। हमें स्वार्थी नहीं बनना है।

23) योगयुक्त, दिव्यता सम्पन्न हर्षित चेहरा
दादी जी का चेहरा सदा योगयुक्त और दिव्यता से सम्पन्न हर्षित दिखाई देता। वे याद की सब्जेक्ट पर पूरा-पूरा अटेन्शन देती। उन्हें सदा यही ध्यान रहता कि जो कर्म मैं करूंगी, मुझे देख सब करेंगे इसलिए वे हर श्रीमत को दृढ़ता के साथ पालन करती, ईश्वरीय मर्यादाओं पर पूर्ण रूप से चलती, इसी से वे मर्यादा पुरुषोत्तम बन गई। वे सदा कहती जितना हम मर्यादाओं में रहेंगे उतना बापदादा की आशीर्वाद मिलेगी। आशीर्वाद मांगने से नहीं मिलती। स्वयं मर्यादा पुरूषोत्तम बनो तो स्वतः परमात्म आशीर्वाद मिलेंगी। मर्यादाओं में रहना ही हमारा सच्चा धर्म (धारणा) है।

24) अतीन्द्रिय सुख के खजाने से सम्पन्न
संगमयुग का विशेष खजाना है अतीन्द्रिय सुख दादी जी सदा उसी सुख की अनुभूति में रहती। इसके लिए उन्होंने न्यारे और प्यारे बनने का बहुत अच्छा बैलेन्स रखा। जितना वे कारोबार में आती उतना ही अन्तर्मुखी रहती। वे सदा परमात्म प्यार में, अतीन्द्रिय सुख की अनुभूतियों में मगन रहती। वे कर्म करते भी सदा उपराम रहती। उनको सदा यही स्मृति रहती कि यह जीवन की अन्तिम यात्रा है, इसलिए हमें सदा व्यर्थ से मुक्त हो उपराम रहना है। अपने संकल्प, श्वांस समय को सफल कर सफलता मूर्त बनना है।

25) लक्ष्य के समान सदा लक्षण धारण करने में नम्बरवन
दादी जी ने शुरू से यही लक्ष्य रखा कि मुझे बाप समान सम्पन्न और सम्पूर्ण बनना है। कर्मातीत बनकर वापस जाना है। हमें अपनी फरिश्ता स्थिति बनानी है। हमें अपने में रूहानियत का इसेन्स जरूर भरना है। भल सेवा हमारी पढ़ाई का एक अंग है, बहुत बड़ी सब्जेक्ट है लेकिन सेवा के साथ-साथ याद का भी इतना ही बैलेन्स रखना है। उन्होंने लक्ष्य प्रमाण लक्षण धारण किया और बाप समान कर्मातीत बन गई।

Adi Ratan - Instruments

The deeper the roots of a tree, the stronger and more durable it is. Similarly, how deep are the roots of renunciation and tapaya of the people who run any organization, that organization is equally powerful, long-lived and free of obstacles. Prajapita Brahma Kumaris Ishwariya Vishwa Vidyalaya is a unique organization in this sense. Each and every founding member of this organization (Adi Ratna), are such ascetics who, keeping themselves, their sacrifices a secret, tirelessly, selflessly under the guidance of the Almighty, did spiritual service for humanity.