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Shivratri ka aadhyatmik rahasya

शिवरात्रि का आध्यात्मिक रहस्य

शिव कौन हैं? शिव के लिए लिंग या ‘ज्योतिर्लिंग’ शब्द का प्रयोग क्यों किया जाता है? शिव के साथ रात्रि का क्या सम्बन्ध है ? कृष्ण के साथ अष्टमी और राम के साथ नवमी तिथि जुड़ी हुई है परन्तु शिव के साथ रात्रि ही जुड़ी है, कोई तिथि क्यों नहीं जुड़ी है? शिव के साथ शालिग्राम कौन हैं ? अन्य सभी देवताओं पर अच्छे और स्वादिष्ट प्रसाद चढ़ाये जाते हैं परन्तु शिव पर अक का फूल और धतूरा ही क्यों चढ़ाया जाता है। क्योंकि शिव की मूर्ति शरीर रहित है परन्तु उनका वाहन नन्दी शरीरधारी क्यों है ? इत्यादि शिवरात्रि से जुड़े प्रश्नों पर विवेकयुक्त और यथार्थ ढंग से वर्तमान परिस्थितियों में चिन्तन करने की आवशयकता है तभी महाशिवरात्रि के पर्व को यथार्थ ढंग से मनाकर संसार को सही दिशा दी जा सकती है एवं मानव मन में व्याप्त अज्ञानता और तमोगुणी आसुरी संस्कारों का शमन किया जा सकता है। ‘महाशिवरात्रि’ के सम्बन्ध में सबसे अनोखी बात यह है कि इसका सम्बन्ध निराकार, अशरीरी परमात्मा से है। जबकि अन्य सभी त्योहारों, पर्वों अथवा जयन्तियों का देवताओं, पौराणिक महापुरुषों के जीवन से सम्बन्ध होता है। अतः शिवरात्रि परमात्मा शिव के इस धरा पर अवतरण की यादगार । परमात्मा शिव, सामान्य मनुष्यों की तरह शरीरधारी नहीं हैं और जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्त है।
गीता में भगवान ने इस सम्बन्ध में कहा है – “जो मुझे मनुष्यों की भांति जन्म लेने और मरने वाला समझते हैं वे मूढ़मति हैं” (अध्याय 6, श्लोक 24, 25) । पुन: वे कहते हैं- “मेरे दिव्य जन्म के रहस्य को न महर्षि, न देवता जानते हैं” (अध्याय 10 श्लोक 2)। इससे स्पष्ट है कि परमात्मा प्रकृति के तत्वों के अधीन कोई सामान्य मनुष्यों की तरह शरीरधारी नहीं हो सकता है । प्रायः सभी धर्मों के लोग निर्विवाद रूप से परमात्मा को ‘ज्योतिर्बिन्दु स्वरूप’ और ‘अशरीरी तथा जन्म-मरण रहित तो स्वीकार करते ही हैं। अतः शिव का अन्य भाषान्तर ‘गॉड’, खुदा ‘ओंकार’ इत्यादि है और ‘शिवरात्रि’ परमात्मा के दिव्य अवतरण दिवस की यादगार है ।

शिव के साथ रात्रि का सम्बन्ध
यह तो सभी धर्मानुयायी मानते ही हैं कि परमात्मा का अवतरण पापाचार, अधर्म और अज्ञानता का विनाश करके सत्य धर्म की स्थापना करने के महान कर्म के निमित्त ही होता है। परमात्मा के अवतरण के काल और कर्म के सम्बन्ध में गीता में कहा गया है:

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजहम्यहम्।। (अध्याय 4, श्लोक – 7)
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः । (अध्याय 4, श्लोक – 8)
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोडर्जुन ।। (अध्याय – 4, श्लोक – 9)

उपर्युक्त से स्पष्ट है कि ज्योतिर्बिन्दु स्वरूप परमात्मा का दिव्य अलौकिक जन्म, धर्मग्लानि के समय अधर्म के विनाश के लिए होता है । यदि वर्तमान सांसारिक परिदृश्य का अवलोकन करें तो चारों ओर व्याप्त काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, भ्रष्टाचार में डूबा समाज अधर्म और धर्मग्लानि का ही समय है। जिस समाज में भ्रष्टाचार, जीवन में शिष्टाचार बन गया हो, उसे धर्मग्लानि का काल नहीं तो और क्या सम्बोधित कर सकते हैं? तो शिव के साथ रात्रि का जो सम्बन्ध है, वह परमात्मा शिव के घोर पापाचार और वर्तमान तमोप्रधान कलियुग में अवतरण की यादगार है। वैसे भी भारतीय दर्शन में ‘रात्रि’ शब्द ‘अज्ञानता’ और ‘विनाशकाल’ का सूचक है । मनु ने कहा है ‘आसीदिदं तमोभूतम् प्रज्ञानम् लक्षणम्’ । अतः फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी या त्रयोदशी रात्रि को मनाई जाने वाली शिवरात्रि महाविनाश से थोड़े समय पूर्व परमात्मा के दिव्य अवतरण की यादगार है। ऐसे ही समय में जब ईश्वरीय ज्ञान प्राय:लोप हो जाता है, तब ज्योतिर्बिंन्दु स्वरूप परमात्मा शिव अधर्म का विनाश करके सत्य धर्म की स्थापना करने के लिए अवतरित होते हैं।

शिवरात्रि का रहस्य
परमात्मा शिव पर यथार्थ रूप से क्या चढ़ाना चाहिए और किस प्रकार से व्रत का पालन करना चाहिए? इसके आध्यात्मिक रहस्य को समझने की आवश्यकता है तभी स्वयं का और सम्पूर्ण विश्व का कल्याण सम्भव है । धतूरा – विकार का, बेर- नफरत घृणा का और बेलपत्र – बुराइयों का प्रतीक है। अतः हमें परमात्मा शिव पर विकारों, विषय- वासना एवं बुरी आदतों को चढ़ाना चाहिए अर्थात् त्याग करना चाहिए। वास्तव में, शिवरात्रि वर्तमान कलियुग के अन्त और सतयुग के प्रारम्भ में बीच के समय ‘संगमयुग’ का नाम है, जब स्वयं निराकार परमपिता शिव, साकार मानव-तन प्रजापिता ब्रह्मा (पौराणिक नाम नन्दीगण ) के तन में अवतरित होकर मनुष्यात्माओं से विकारों और बुराइयों का, ईश्वरीय ज्ञान और राजयोग की शिक्षा देकर त्याग कराते हैं । अतः शिवरात्रि पर विकारों एवं बुराइयों से व्रत रखें। रात्रि जागरण का आध्यात्मिक रहस्य यह है कि परमात्मा शिव के वर्तमान समय के अवतरण के काल में हम अपनी आत्मा की ज्योति को जगायें, अज्ञान – निद्रा में सो न जायें। शिव की बारात का आध्यात्मिक रहस्य यह है परमात्मा शिव मनुष्य आत्माओं को सृष्टि के आदि-मध्य-अन्त, सृष्टि चक्र, कर्मों की यथार्थ समझ एवं गहन गति का ज्ञान देकर अपने निवास स्थान परमधाम ले जाते हैं । वास्तव में बहुरूपी बाराती मनुष्य के विकृत सूक्ष्म संस्कारों का शास्त्रीय रूपक चित्रण हैं । अतः शिवरात्रि के महात्म्य और आध्यात्मिक रहस्य को यथार्थ रीति से समझकर मनाने से ही सर्व मनुष्यात्माओं और संसार का कल्याण हो सकता है।

महाशिवरात्रि का आध्यात्मिक महत्व
भारतीय जन-मानस में यह मान्यता है कि शिव में सृजन और संहार की क्षमता है। उनकी यह भी मान्यता है कि शिव ‘आशुतोष’ हैं अर्थात् जल्दी और सहज ही प्रसन्न हो जाने वाले हैं। इसी भावना को लेकर वे शिव पर जल चढ़ाते और उनकी पूजा करते हैं। परन्तु प्रश्न उठता है कि जीवनभर नित्य शिव की पूजा करते रहने पर भी तथा हर वर्ष श्रद्धापूर्वक शिवरात्रि पर जागरण, व्रत इत्यादि करने पर भी मनुष्य के पाप एवं सन्ताप क्यों नहीं मिटते? उसे मुक्ति और जीवनमुक्ति अथवा शक्ति क्यों नहीं मिलती ? उसे राज्य भाग्य का अमर वरदान क्यों नहीं प्राप्त होता ? आखिर शिव को प्रसन्न करने की सहज विधि क्या है ? शिवरात्रि का वास्तविक रहस्य क्या है ? हम सच्ची शिवरात्रि कैसे मनायें? ‘शिव’ का ‘रात्रि’ के साथ क्या सम्बन्ध है जबकि अन्य देवताओं की पूजा- अर्चना दिन में होती है। शिवरात्रि से जुड़े इन प्रश्नों का उत्तर इसके आध्यात्मिक रहस्य का उद्घाटन करते हैं।

कुछ उलझे हुए प्रश्न
भक्तिकाल में जब हम मंदिर में जाते थे तो देखते थे कि मंदिर के मुख्य स्थान पर मुख्य देवता की मूर्ति स्थापित होती है और मंदिर के एक कोने में शिवलिंग भी अवश्य स्थापित रहता है। मन में सवाल उठता था कि मंदिर का मुख्य देवता चाहे श्री राम हो या श्री कृष्ण, श्री शीतला जी हों या श्री दुर्गा जी लेकिन शिवलिंग की उपस्थिति इतनी अनिवार्य क्यों है ?
दूसरा प्रश्न यह भी उठता था कि देवी-देवताओं के मंदिर रंग-बिरंगे फूलों से, शीशे के कलात्मक टुकड़ों से, संगमरमर से, सोने अथवा चांदी की पॉलिश से या अन्य सजावटी चीजों से आकर्षक बनाए जाते हैं लेकिन शिवलिंग की स्थापना का स्थान बहुत ही साधारण व सादा होता है। ऐसा क्यों? एक अन्य प्रश्न यह भी उठता था कि घर में यदि कोई साधारण सा मेहमान आ जाए या हम किसी के यहाँ जाएं या कोई विशेष उत्सव या पारिवारिक स्नेह मिलन हो तो हम एक-दो का गुलाब, गेंदा या अन्य खुशबूदार फूलों से स्वागत करते हैं, घर की सजावट में भी इन्हीं फूलों को रखते हैं परंतु शिवलिंग पर झाड़-झंखाड़ में उगने वाले रंग-गंध और मूल्यहीन आक-धतूरे के फूल ही चढ़ाये जाते हैं, ऐसा क्यों? यदि मनुष्य का स्वागत आक और धतूरे के फूलों से किया जाये तो शायद वह जीवन-भर के लिए बोलना ही बंद कर दे लेकिन भगवान को यही फूल पसंद क्यों हैं? चौथा प्रश्न यह भी मन में उत्पन्न होता था कि मानव, मानव की ख़ातिरदारी आम, केला, सेब आदि फलों से करता है लेकिन प्रकृति के मालिक भगवान पर साधारण व सस्ते फल बेर चढ़ाए जाते हैं, ऐसा क्यों?

शिव के साथ ‘रात्रि’ का संबंध
शिव के साथ रात्रि शब्द जोड़ने का क्या औचित्य है। किसी बच्चे का जन्म चाहे काली अंधेरी रात में क्यों न हो, उसके निमित्त हर वर्ष मनाए जाने वाले दिन को जन्मदिन ही कहा जाता है, जन्मरात या जन्मरात्रि नहीं। परंतु भगवान के जन्म या अवतरण के साथ रात शब्द का क्या अर्थ है?

परमपिता परमात्मा शिव कहते हैं, हे वत्स, शिवरात्रि में यह जो ‘रात’ शब्द है, यह बारह घंटे वाली हद की रात का परिचायक नहीं है। यदि मेरा आगमन केवल एक ही रात में होता हो तो कितने ही मनुष्य यह शिकायत करेंगे कि ‘प्रभु! उस रात को तो मैं बीमार था या मेरे घर में मेहमान आए थे या मेरे घर में किसी की मृत्यु हो गई थी या मुझे किसी ज़रूरी कार्यवश घर से बाहर रहना पड़ गया था… तो आप उसी रात में क्यों आए ? प्रभु, आप तो हमारी मजबूरियों को जानते थे तो कम-से-कम ऐसी रात में तो आते जब हम थोड़े खाली होते और आपकी आराधना या पूजा कर सकते।’ लेकिन हम जानते हैं कि संसार में कोई भी एक रात ऐसी नहीं हो सकती जिसमें संसार के सब लोग खाली हों। कभी न कभी किसी न किसी को कार्य लगा ही रहता है। इसलिए ईश्वरीय कर्तव्य हद की एक रात में संपन्न हो ही नहीं सकता। सब हदों से पार परमात्मा हद की एक रात्रि में कैसे बँध सकता है? अतः ‘रात्रि’ सृष्टि-चक्र के द्वितीय भाग का परिचायक है। प्रथम आधे भाग को ब्रह्मा का दिन कहते हैं जिसमें सतयुग और त्रेतायुग शामिल हैं और दूसरे आधे भाग को ब्रह्मा की रात्रि कहते हैं जिसमें द्वापर और कलियुग शामिल हैं।
हम यह भी जानते हैं कि जब कोई भी घटना वास्तविक रूप में घटती है तो वह लंबा समय लेती है, जैसे- शादी की तैयारी से लेकर शादी के बाद के रस्म-रिवाज निभाते महीना भर लग जाता है लेकिन वर्षगांठ का उत्सव तो एक-दो घंटे में ही पूरा हो जाता है। इसी तरह बच्चे का जन्म, नामकरण संस्कार और अन्य रस्म अदायगी में लगभग सवा महीना लग जाता है लेकिन जन्मदिन का उत्सव घंटे, दो घंटे में पूरा हो जाता है। भारत की आज़ादी की लड़ाई में भी लगभग सौ साल का अति सक्रिय आंदोलन चला। लेकिन उसके यादगार उत्सव को घंटे, दो घंटे या बारह घंटे तक मनाकर पूरा कर लेते हैं। इसी प्रकार परमात्मा शिव द्वारा सृष्टि को पावन करने का कर्तव्य वास्तव में केवल रात भर नहीं, वर्ष भर नहीं लेकिन लगातार कई वर्षों तक चलता है । ईश्वरीय कर्तव्य का यह संपूर्ण काल ही सच्ची शिवरात्रि है। लेकिन भक्तों द्वारा कई वर्ष चलने वाले ईश्वरीय कर्तव्य की यादगार के रूप में केवल एक रात्रि के जागरण और उपवास आदि द्वारा शिवरात्रि मना ली जाती है।

कलियुग को रात की संज्ञा क्यों?
आमतौर पर यह माना जाता है कि रात के अंधेरे का फायदा उठाकर लोग समाज विरोधी काम करते हैं जैसे- चोरी, हत्या, लूट आदि लेकिन कलियुग में तो ये सभी कुकर्म दिन-दहाड़े होते देखे जा सकते हैं। बीच-चौराहे पर सैकड़ों-हज़ारों की उपस्थिति में चोरी, हत्या, लूट, चोरबाजारी, अपहरण, उठाईगिरी, डराना-धमकाना, शोषण, मार-पीट आदि होते रहते हैं और लोग काठ के उल्लू बने देखते रहते हैं। जैसे- सोए हुए आदमी के क्रिया-कलाप जाम हो जाते हैं, वह किसी को सहयोग नहीं दे पाता, ऐसे मानो सारा समाज सोया हुआ है, निर्जीव-सा है जो कुकर्मों का ज़रा भी विरोध नहीं कर पाता। पुलिस की नाक नीचे अपराध हो जाते हैं। सेना के होते आक्रमण और घुस- पैठ हो जाती है। रक्षा तंत्र का जाल बिछा होने पर भी किसी की भी सुरक्षा कभी भी खतरे में पड़ जाती है, तो ऐसे तमोगुणी समय को दिन होते हुए भी रात का नाम दे दिया गया है और यह उचित भी है।

भगवान का कर्तव्य कलियुग में ही क्यों?
कहा जाता है, परिस्थिति पुरुष को जन्म देती है। कलियुग की परिस्थितियाँ ही भगवान के आगमन का कारण बनती हैं। भगवान को हम बिगड़ी बनाने वाला, दुःखभंजन, हरि, पापकटेश्वर, अवढरदानी, मुक्तेश्वर, खिवैया, रहमदिल, कृपालु आदि नामों से जानते हैं । उनके ये नाम हैं तो ज़रूर उन्होंने ऐसा कर्तव्य भी किया होगा । जैसे- वकील वहाँ जाता जहाँ झगड़ा हो, डॉक्टर को मान्यता वहाँ मिलती जहाँ बीमारी हो, फायर ब्रिगेड का इंतज़ार भी वहाँ होता, जहाँ आग लग गई हो । इसी प्रकार बिगड़ी बनाने वाले की राह भी तब देखी जाती जब सबकी किस्मत बिगड़ गई हो । दुःख की अति में ही दुःखभंजन को याद किया जाता है, तो सवाल उठता है कि दुःख सबसे ज्यादा कब होता है? क्या सतयुग में? नहीं । त्रेता में ? नहीं । द्वापर में ? नहीं। कलियुग में? हाँ। तो भगवान पाप काटने का, नैया पार लगाने का, दुःख मिटाने का, ज्ञान-दान से झोली भरने का, ये सभी कर्तव्य कलियुग के अंत में ही करते हैं । जैसे सूर्य की पहली किरण फूटते ही समय बदल जाता है अर्थात् दिन हो जाता है या दिन उदय हो जाता है, उसी प्रकार भगवान का अवतरण होते ही कलियुग में ही संगमयुग नाम वाले नए युग का प्रारंभ हो जाता है जिसे ज्ञान द्वारा जाग्रत होने वाले ही जान और अनुभव कर पाते हैं ।

परमात्मा शिव की शिक्षाएँ
संगमयुग में भगवान शिव काम, क्रोध आदि सभी विकारों की बलि अपने ऊपर चढ़वाते हैं। सोई हुई आत्मा का ज्ञान द्वारा जागरण कराते हैं। मनमनाभव का महामंत्र अर्थात् निरंतर स्मृतिस्वरूप होने की श्रीमत देते हैं और गलत वृत्तियों का मन से उपवास कराते हैं। ईश्वर पिता के इन आदेशों का ज्यों का त्यों पालन करने वाले कलियुगी कखपन को छोड़कर सतयुगी दैवी बादशाही को प्राप्त कर लेते हैं। तन, मन, धन और जन का 100% सुख पा लेते हैं और 21 जन्मों के लिए उनके भंडारे भरपूर हो जाते हैं।
आज्ञाकारी बच्चों के भंडारे भरपूर करके, नई दुनिया अर्थात् सतयुग की बागडोर उनके हाथों में सौंपकर परमात्मा शिव स्वयं परमधाम लौट जाते हैं और सृष्टि पर दो युगों तक 100% सुख, शांति और पवित्रता का साम्राज्य स्थापित हो जाता है। परमात्मा शिव के इसी कर्तव्य की है यादगार के रूप में देवी-देवताओं के मंदिरों को भी बहुत सुंदर तरीके से सजाया जाता है परंतु शिवलिंग साधारण रूप में ही होता है। देवताओं पर बढ़िया खुशबूदार फूल चढ़ाए जाते लेकिन परमात्मा शिव पर विकारों के प्रतीक आक और धतूरे चढ़ाए जाते क्योंकि देवताओं को बनाने वाला परमात्मा शिव ही है ।

अर्थ का अनर्थ
कालांतर में द्वापर युग के आरंभ में जब भक्ति मार्ग शुरू हुआ तो संगमयुग पर परमात्मा द्वारा किए गए कर्तव्य की यादगार रूप शिवरात्रि मनाई जाने लगी परंतु परमात्मा शिव ने जो शिक्षा दी थी उसके अर्थों का रूपांतरण हो गया। जैसे- एक कहानी सुनाते हैं कि एक मरणासन्न पिता ने अपने पुत्र को बुलाया और कहा कि जीवन में सच्चा सुख प्राप्त करने के लिए हमेशा याद रखना कि दुकान पर अंधेरे में ही जाना और अंधेरे में ही वापिस लौट आना । आज्ञाकारी पुत्र ने पिता की बात की गाँठ बाँध ली। पिता ने शरीर छोड़ दिया, इसके बाद पुत्र प्रतिदिन मुँह अंधेरे उठता, दुकान पर जाता और दुकान को फिर से बंद करके मुँह अंधेरे ही लौट आता । कुछ ही दिनों में पुत्र का दिवाला निकल गया । उसके मन में प्रश्न उठा कि पिता की आज्ञा मानते हुए भी मैं कंगाल क्यों हो गया। गाँव के किसी समझदार बुजुर्ग से जब उसने इस प्रश्न का समाधान मांगा तो उसने समझाया, बेटे, अंधेरे में जाने का मतलब है, सूर्य निकलने से पहले दुकान पर पहुँचना और अंधेरे में लौटने का मतलब है, सूर्य छिपने के बाद दुकान से लौटना । ऐसा करके देख, तेरी बदहाली खुशहाली में बदल जाएगी। पुत्र ने ऐसा ही किया और कुछ ही दिनों में वह मालामाल हो गया।

बनावटी चढ़ावा
शिवरात्रि के संबंध में यही कहानी मनुष्यात्माओं पर भी लागू होती है। हमने भी शिवरात्रि के अर्थों का रूपांतरण कर दिया। सभी विकार मनुष्य के तन, मन, संबंध और संसार को कड़वेपन से भर देते हैं। ये विकार ज़हर समान हैं। भगवान ने इस ज़हर को अपने ऊपर अर्पित करवाया था लेकिन भोले भक्तों ने भीतर के ज़हर को तो अर्पित किया नहीं और प्रकृति के एक ज़हर जैसे कड़वे पौधे आक को शिवलिंग पर अर्पित करने लगे। इसी प्रकार भगवान ने कहा था कि जाति, कुल, धर्म, भाषा, पद, प्रतिष्ठा, रूप, धन, जवानी, विद्या आदि के सभी नशे अथवा अहंकार मेरे पर चढा देना, यहाँ भी हम मनुष्य मात खा गये। भीतर के नशों को अर्पित करने की बजाय हमने प्रकृति की नशीली चीज़ें जैसे- भांग, धतूरे आदि को अर्पित करना शुरू कर दिया। जब हमारा चढ़ावा ही बनावटी है तो हमारी प्राप्तियाँ भी असत्य हो गई अर्थात् भंडारे भरपूर होने की बजाय खाली हो गए।

जैसे- एक बार एक बूढ़ी सास ने अपनी बहू को कहा- बेटा, मेरे पाँव में बहुत दर्द होता है, कभी-कभी दबा दिया कर । बहू ने एक दिन पाँव को हाथ में लिया और एक फोटोग्राफर से फोटो खींचवा लिया। उसके बाद उस फोटो को सास के शयनकक्ष में लगा दिया और कहा कि जब- जब आपके पाँव में दर्द हो, आप समझ लेना कि मैं पाँव दबा रही हूँ। कुछ इसी प्रकार की भूल हमसे भी भगवान की भक्ति के संबंध में हो गई । चढ़ावा तो बनावटी हो ही गया, साथ-साथ हमारी स्मृति भी बनावटी हो गई। भगवान ने कहा था – निरंतर अपना मन मुझमें लगाकर रखना । इससे मन शांत, स्थिर और शक्तिशाली हो जाएगा । हमने इस श्रीमत का भी रूपांतरण कर दिया। शिवपिंडी पर जल से भरा घड़ा लटका दिया। बूंद-बूंद जल शिवलिंग पर चढ़ता रहा और हम खुश हो गए कि मन भगवान पर अर्पित हो रहा है लेकिन वास्तव में मन तो सांसारिक झमेलों में उलझकर अशांत व अस्थिर ही रहा । इस प्रक्रिया से मन शक्तिशाली नहीं बन सका ।

व्रत
भगवान का एक नाम निर्वैर है। वो निर्भय और निर्वैर है और उसने हम मनुष्यों को भी यही सिखाया कि कभी किसी मनुष्य से वैर नहीं रखना अर्थात् दिल के वैर भाव को मुझ पर अर्पण कर देना तो तेरा जीवन खुशियों से भर जाएगा । हमने इस फरमान को भी नासमझी के कारण उलट दिया और वैर के स्थान पर बेर चढ़ाना प्रारंभ कर दिया। क्या नकली चीज़ें फायदा दे सकती हैं? क्या नकली दवाई से बीमारी ठीक हो सकती है? आजकल बाज़ार में बनावटी फल आते हैं और छोटी- छोटी प्लास्टिक की प्लेटें आती हैं जिनके ऊपर फलों के चित्र बने होते हैं। अगर किसी मेहमान के सम्मुख हम बनावटी फल या फलों के चित्र वाली प्लेट रख दें तो क्या वह प्रसन्न हो जाएगा, क्या वह हमें दुआ देगा? तो फिर अर्थ बदली हुई चीज़ें भगवान पर चढ़ाने से भगवान कैसे प्रसन्न हो सकते हैं?
इसी प्रकार परमात्मा पिता ने मन की अनेक प्रकार की चंचल व विकृत वृत्तियों को नियंत्रित करने की श्रीमत दी थी । वृत्तियों के नियंत्रण का व्रत लेने की बात कही थी लेकिन हमने भोजन न खाने का व्रत ले लिया। द्वापर के प्रारंभ में इस व्रत में भी सात्विकता थी । भोजन न खाने के दो फायदे थे । एक तो भूख लगने पर पेट को भोजन न मिलने से हठ के कारण ही सही भगवान की तरफ मन जाता था और दूसरा अन्न से जो भारीपन या स्थूलता आ जाती है उसकी बजाय व्यक्ति हल्का रह सकता था।
आज के युग में ये दोनों बातें पीछे रह गई हैं। अधिकतर साधक भूख के कारण ईश्वर के योगी नहीं लेकिन पेट के योगी बन जाते हैं। बार- बार ध्यान पेट की तरफ जाता कि आज भोजन नहीं किया और दूसरा हल्का रहने की बजाय वे पेट को अन्न के अलावा अन्य कई तरह की चीज़ों से भर लेते हैं और उनके स्वाद का आनंद भी लेते हैं जिस कारण व्रत का असली उद्देश्य लगभग विस्मृत ही हो जाता है। ऐसे व्रत के आधार पर ना तो हम अपने विकारों को और ना ही अन्य विकृतियों को जीत पाते हैं। व्रत का अर्थ है विकारी वृत्ति का नियंत्रण या विकारी वृत्तियों को समाप्त करने का दृढ़ संकल्प। जब हम काम-क्रोध-लोभ की वृत्तियों को तथा ईर्ष्या, द्वेष जैसी दुर्भावनाओं को जीत लेते हैं तभी भगवान हम पर प्रसन्न होकर, हमारे भण्डारे भरपूर करते हैं ।

जागरण
जब किसी व्यक्ति को किसी चीज का ज्ञान हो जाता है, तब ही कहा जाता है कि अब तक तो वह सोया हुआ था, अब जाग गया। नहीं तो बिना ज्ञान के केवल खुली आँखें रख लेने से जो रात्रि जागरण होता है, उससे क्या लाभ? रात को तो चोर उचक्के और डाकू भी जागते हैं। बीमार, भूखे, चिंताग्रस्त लोग भी रात्रि जागरण करते हैं। मेहमानों के इंतज़ार में आवश्यक काम-धंधे निपटाने के लिए या शादी-ब्याह, जन्म आदि परिस्थितियों में भी रात्रि जागरण करना पड़ता है। सच्चा जागरण आँखें खोलने से नहीं बल्कि मन खोलने से होता है ।
जैसे राजा भतृहरि को जब संबंधों की असारता का ज्ञान हुआ तो उसने कहा, अब तक तो मैं सोया हुआ था, अब मेरी नींद खुली है। ऐसे जागरण के लिए आधार बनता है, ईश्वर का प्रेम और वैराग्य । ईश्वरीय प्रेम और वैराग्य के अभाव में यदि हम जागरण करते हैं तो उसमें कई बार स्थूल चीज़ों का सहारा लेना पड़ता है जैसे- चाय, शराब और अन्य नशे की चीज़ें। जागरण तो हो जाता है लेकिन मन सोया ही रहता है और फल प्राप्त नहीं होता ।
मन से जागे हुए व्यक्ति का चिंतन इस प्रकार हो जाता है- मैं एक शुद्ध आत्मा हूँ, मुझ आत्मा का पिता परमपिता परमात्मा शिव है, मैं इस सृष्टि रंगमंच पर मेहमान हूँ । शरीर रूपी वस्त्र धारण कर पार्ट बजाने आई हूँ, मेरा असली घर परमधाम है, विश्व की सर्व आत्माएँ परमात्मा की संतान होने के नाते मेरे भाई-भाई हैं। मन के इस प्रकार जाग जाने से व्यक्ति विकर्मों से मुक्त हो जाता है, मुक्ति- जीवनमुक्ति का अधिकारी बन जाता है, यही सच्चा जागरण है। द्वापर और कलियुग के 2500 वर्षों से भक्त लोग शिवरात्रि पर अज्ञानतावश नकली जागरण करते आ रहे हैं इसलिए शिवरात्रि मनाते हुए भी उनके सुख-शांति और धन के मटके खाली होते जा रहे हैं।

भक्तों की नादानी
एक बार एक आध्यात्मिक कार्यक्रम के बाद प्रसाद बंटने लगा तो एक बच्चे ने पचास रुपये का नकली नोट प्रसाद की थाली में डाल दिया और कहा- कुछ देकर ही तो प्रसाद लेना चाहिए। उपस्थित लोग उसके इस भोलेपन पर हँस पड़े । प्रसाद बांटने वाले ने कहा- कोई बात नहीं, आज नकली नोट चढ़ाएगा, तो कल असली चढ़ाने की आदत भी पड़ जाएगी। हमारी कहानी भी इस बच्चे की तरह ही है । हम भी भगवान पर नकली चीज़ें अर्पण करके शिवरात्रि मना लेने का दावा करते आ रहे हैं। भगवान शिव हमारी इस नादानी को देख-देख मुस्कराते हैं कि कोई बात नहीं, मेरा बच्चा अज्ञानतावश आज ऐसा कर रहा है, पर जब ज्ञान मिल जाएगा तो अवश्य यही असली चीजें भी मुझ पर अर्पण करेगा। अतः सभी भक्तों से हमारा नम्र निवेदन है कि शिवरात्रि के सच्चे आध्यात्मिक रहस्य को जान, वर्तमान समय सृष्टि पर अवतरित चेतन शिव को पहचान, उनसे नाता जोड़ें। जब तक शिव पिता धरती पर कर्तव्यरत हैं, तब तक का सारा समय ही सच्ची शिवरात्रि है । तो यादगार में एक दिन मनाने की बजाय, शिव को जानकर उनके सान्निध्य में हर पल ही सच्ची शिवरात्रि का आनन्द लें और 21 जन्मों के लिए कालकंटक दूर, भंडारे भरपूर का वरदान प्राप्त करें ।

भण्डारे कैसे भरें ?
कई विदेशी लोग प्रश्न उठाते हैं कि शिव की पूजा करते हुए भी भारत के भंडारे खाली हैं और हम विदेशियों के भंडारे भरपूर हैं। हम जानते हैं कि भौतिक संपदा कई बाहर के देशों में बहुत है भले ही वे शिवरात्रि नहीं मनाते। इसका कारण यह है कि भौतिक संपदा प्राप्त करने के लिए कुछ चारित्रिक व नैतिक मूल्य आवश्यक होते हैं जिनका वे पालन करते हैं। उदाहरण के लिए, समय की पाबंदी, कार्यकुशलता, कर्मठता, देश और देश की संपत्ति से प्रेम, स्वच्छता, बौद्धिक एकाग्रता, आविष्कार की प्रवृत्ति, विज्ञान के साधनों की उन्नति आदि-आदि। लेकिन उनके पास केवल भौतिक समृद्धि है, मानसिक शांति उनके पास भी नहीं है। यदि हम परमात्मा शिव द्वारा बताए गए तरीके से शिवरात्रि मनाएं तो हमारे धन-धान्य के भंडारे तो भरपूर होंगे ही, हम मानसिक शांति और स्थिरता को भी प्राप्त करेंगे।
कई बार पूजा-पद्धति में भी वाममार्गीय प्रक्रिया अपना ली जाती है। कई लोग श्मशान घाट में जाकर शंकर देवता की मूर्ति रखकर अनेक प्रकार की तांत्रिक क्रियाएँ करते हैं और कई प्रकार की तामसिक ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करके किसी को गिराने, कष्ट देने या बदला निकालने का गलत कर्म भी करते हैं। पूजा में आई इस विकृति के कारण मनुष्य की स्वार्थपरता बढ़ती है। त्योहारों और उत्सवों को भी स्वार्थसिद्धि का आधार बना लेने के कारण मनुष्य अधिकाधिक पतित और कंगाल होता जाता है। अतः ऐसी वाममार्गीय प्रक्रियाओं, कर्मकाण्डों से सावधान रहने में ही हमारा कल्याण है

शिवरात्रि अर्थात् अज्ञानता के विनाश का पर्व
विश्व की सभी महान विभूतियों के जन्मोत्सव प्रायः दिन के समय ‘जन्मदिन’ के रूप में मनाये जाते हैं परन्तु एक परमात्मा शिव की जयंती ही ऐसी है जिसे जन्मदिन न कहकर ‘शिवरात्रि’ के नाम से पुकारा जाता है। इसका कारण यह है कि निराकार परमात्मा शिव जन्म- मरण से न्यारे अथवा अयोनि हैं। उनका अन्य किसी महापुरुष या देवता की तरह कोई लौकिक या शारीरिक जन्म नहीं होता जो कि उनका जन्मदिन मनाया जाये। कल्याणकारी विश्व पिता ‘शिव’ तो अलौकिक अथवा दिव्य-जन्म लेकर अवतरित होते हैं। उनकी जयंती संज्ञावाचक नहीं, बल्कि कर्तव्यवाचक रूप से ही मनाई जाती है। उनका दिव्य अवतरण विषय-विकारों की कालिमा से लिप्त अज्ञान निद्रा में सोये हुए मनुष्य को जगाने के लिये ही होता है। परमात्मा शिव द्वारा इस ‘अज्ञान रूपी रात्रि’ का अंत किये जाने के आध्यात्मिक रहस्य से ही शिव जयंती को ‘शिवरात्रि’ कहा जाता है।

शिवरात्रि- शिव के दिव्य कर्मों का यादगार
अब प्रश्न उठता है कि परमात्मा शिव जो मनुष्य के चैतन्य बीज रूप हैं तथा जन्म-मरण एवं कर्म बंधनों से सदा मुक्त हैं, जो स्वयं सबके माता-पिता हैं, वे कैसे इस सृष्टि पर दिव्य ज्ञान लेकर अवतरित होते हैं? इसका उत्तर स्वयं भगवान ने दिया है जिसका उल्लेख श्रीमद्भागवत गीता से मिलता है। परमात्मा शिव किसी माता के गर्भ से अपना निजी शरीर धारण करके साधारण मनुष्यों की तरह लौकिक जन्म नहीं लेते हैं। वे तो प्रकृति को अधीन करके अर्थात् ‘परमात्मा’ परकाया प्रवेश करके दिव्य – जन्म लेते हैं जिसको ही ‘अवतार’ कहा जाता है।
परमात्मा शिव का अवतरण कल्पांत अथवा कलियुग के अन्त के घोर अज्ञान – अंधकार अथवा अति धर्मग्लानि के समय एक वृद्ध तन वाले साधारण मानवीय तन में होता है, जिसका नाम उस दिव्य प्रवेशता के पश्चात् ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ पड़ता है। परमात्मा शिव उस ब्रह्मा के मुख द्वारा ही बहुत काल से प्रायः लुप्त हो चुके ‘ईश्वरीय ज्ञान’ तथा ‘सहज राजयोग’ की शिक्षा देते हैं, जिसे वह व्यक्ति (ब्रह्मा) स्वयं भी धारण करके अपने जीवन को कमल पुष्प के समान पवित्र बनाकर नर से श्री नारायण (सतयुगी विश्व महाराजकुमार श्रीकृष्ण) पद की प्राप्ति करता है। इस प्रकार कलियुग के अंत वाले ब्रह्मा ही तो सतयुग की आदि में विष्णु अर्थात् (श्रीकृष्ण) बनते हैं। जो सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग का पूरा चक्कर लगाकर अगले कल्प के अंत में पुनः ब्रह्मा बन जाते हैं। इसलिए ‘ब्रह्मा सो विष्णु’ ‘विष्णु सो ब्रह्मा’ की उक्ति प्रसिद्ध है। सतयुग और त्रेता रूपी सुखधाम अथवा स्वर्ग को ब्रह्मा का दिन और द्वापर तथा कलियुग रूपी दुःखधाम अथवा नर्क को ‘ब्रह्मा की रात्रि’ इसी रहस्य के कारण कहा जाता है । यही ब्रह्मा भगवान शिव के भाग्यशाली शरीर रूपी रथ होने के कारण ‘भगीरथ’ अथवा शिव के ‘नंदीगण’ इत्यादि नामों में भी प्रसिद्ध है ।

शिवरात्रि और नवरात्रि
नवरात्रि में यज्ञ रचकर दुर्गा, अम्बा इत्यादि शक्तियों अथवा 108 कन्याओं का पूजन होता है भारत में 108 शालिग्रामों तथा 108 दानों की रूद्राक्ष माला और वैजयन्ती माला का भी पूजन स्मरण चला आता है। ये 108 शालिग्राम तथा माला के मणके उन पवित्र आत्माओं अथवा शिव शक्तियों के प्रतीक हैं, जिन्हें परमात्मा शिव ने प्रजापिता ब्रह्मा के मुख कमल से ईश्वरीय ज्ञान सुनाकर मुख वंशावली चैतन्य ज्ञान गंगायें बनाकर भारत को पतित से पावन बनाया था । ज्ञान सागर, सर्वशक्तिमान परमात्मा शिव से ही ब्रह्माकुमारों ने ज्ञान और योग की शक्ति धारण की थी ।
माला का युगल दाना (मेरु) ब्रह्मा एवं सरस्वती का द्योतक है और इसका फूल निराकार ज्योति स्वरूप परमात्मा शिव का प्रतीक है । ईश्वरीय ज्ञान और सहज राजयोग के बल से शिव शक्तियों ने विकारों अर्थात् आसुरी संस्कारों पर विजय प्राप्त की थी इसलिए उन्हें ‘असुर निकन्दनी’ भी कहा जाता है। ज्ञान सागर परमात्मा शिव से अमृत कलश प्राप्त करके अज्ञानता में पड़े मृत प्रायः नर- नारियों को अमर पद दिलाने की ईश्वरीय सेवा करने के कारण ही शिव शक्तियों का पूजन होता है और उन्हें ‘वंदे मातरम्’ अथवा ‘भारत माता शक्ति अवतार’ कहकर इनकी वंदना की जाती है । परमात्मा शिव तथा प्रजापिता ब्रह्मा के साथ सहयोगी होकर इस पतित सृष्टि का पावन सृष्टि अम्बा, सरस्वती, दुर्गा, गंगा, यमुना इत्यादि नामों से विख्यात होती हैं। वे चैतन्य ज्ञान – गंगायें ही भारत के जन- मन को शिवज्ञान द्वारा पालन करती हैं। महाकालेश्वर शिव ब्रह्मा द्वारा स्थापना पूरी होते ही महादेव शंकर द्वारा कलियुगी सृष्टि का महाविनाश कर सभी मनुष्यात्माओं को शरीर मुक्त करके शिवलोक (परलोक) ले जाते हैं। इस अत्यन्त महत्वपूर्ण वृत्तान्त का स्मरणोत्सव होने हेतु शिवरात्रि भारत का सबसे बड़ा त्योहार है अर्थात् कलियुग को स्वर्ग बनाने का कार्य करने के कारण ही इन शिव शक्तियों के यादगार नवरात्रि का शिवरात्रि से घनिष्ठ सम्बन्ध है । वर्तमान समय परमात्मा शिव, प्रजापिता ब्रह्मा तथा शिव शक्तियों के दिव्य एवं अलौकिक कर्तव्य की पुनरावृत्ति हो रही है। इसमें सहयोगी बनकर कोई भी मनुष्यात्मा आने वाले सतयुगी दैवी स्वराज्य में अपना ईश्वरीय जन्मसिद्ध अधिकार भविष्य 21 जन्मों (2,500 वर्ष) के लिए प्राप्त कर सकती है ।

शिवरात्रि ही ‘हीरे – तुल्य’ जयन्ती है

संसार में जिस किसी भी व्यक्ति का जन्मदिन लोग मनाते हैं, उसकी जीवन कहानी के बारे में भी वे थोड़ा-बहुत तो जानते ही हैं। उदाहरण के तौर पर विवेकानन्द या महात्मा बुद्ध की जयन्ती मनाने वाले लोग भी उनके जीवन-वृत्त को जानते हैं और उनके जन्मोत्सव के दिन उसका विशेष वर्णन करके वे उन महात्माओं के जीवन से गुण ग्रहण करने की चेष्टा भी करते हैं । परन्तु शिवरात्रि के दिन तो लोग केवल जागरण, उपवास तथा शिव की पूजा ही कर डालते हैं, वे शिव के अलौकिक जन्म और कर्तव्यों से तो अपरिचित ही हैं, वरना यदि वे काल-कंटक दूर करने वाले, सब भण्डारे भरपूर करने वाले, संकटमोचन शिव को जानते तो आज सबके भण्डारे भरपूर होते और संसार से काल – कंटक दूर होते । आप देखते हैं कि शिव के जो चित्र मिलते हैं अथवा शिव की जो मूर्तियाँ स्थापित हुई हैं, अन्य सभी से विलक्षण हैं। वे न पुरुष हैं, न स्त्री रूप बल्कि अंगुष्ठाकार, अण्डाकार अथवा बिन्दु का वृहदाकार हैं । अवश्य ही ‘शिव’ अन्य सभी माननीय व्यक्तियों से न्यारे ही कोई परम माननीय हैं। अतः प्रश्न उठता है कि शिव कौन हैं, उनका पूर्ण परिचय क्या है, उन्होंने कब और कैसे इस मनुष्य लोक में आकर कर्तव्य किये हैं?
विवेकानन्द, बुद्ध आदि तो शरीरधारी व्यक्ति हुए हैं, उनके बारे में तो लोग जानते हैं कि उनके माता-पिता और शिक्षक आदि कौन थे और उन्होंने आज से कितने वर्ष पूर्व जन्म लिया, वे कितने वर्ष जीवित रहे तथा उन्होंने अपने जीवन काल में क्या-क्या विशेष कर्तव्य किये । परन्तु, शिव की तो प्रतिमा ही गोल-सी बिन्दु रूप है, उसका तो कोई शारीरिक आकार ही नहीं है, उसके तो कोई माता- पिता या शिक्षक आदि नहीं थे, तब भला शिव ने कैसे जन्म लिया होगा, कौन-सा साकार रूप धारण किया होगा और कैसे कर्तव्य किया होगा? मनुष्य को इस पहेली का हल जानना चाहिए। एक और विचारणीय बात यह है कि शिव के जन्मकाल को ‘शिवरात्रि’ नाम से लोग मनाते हैं। भला ‘रात्रि’ शब्द पर क्यों ज़ोर दिया गया है? यदि अन्य किसी महान व्यक्ति का जन्म, रात्रिकाल में हुआ भी हो और मनाया भी जाता हो तो भी उसके जन्मोत्सव का नाम ‘शिवरात्रि’ की भांति ‘रात्रि’ शब्द को नहीं लिये रहता। अतः यह भी जानने योग्य रहस्य है कि शिव के प्रसंग में ‘रात्रि’ शब्द का क्या विशेष भाव और महत्व है और रात्रि शब्द पर क्यों ज़ोर दिया गया है जबकि शिव प्रतिमा से विदित होता है कि शिव का कोई शारीरिक रूप नहीं है तो शिव के लिए दिन और रात का क्या भेद ? पुनश्च अन्य महान व्यक्तियों के बारे में तो लोग यह भी जानते हैं कि उन्होंने शरीर कब और किन परिस्थितियों में या किस आयु में छोड़ा परन्तु शिव को लोग ‘अमरनाथ’, ‘अजन्मा’ तथा ‘मृत्युन्जय’ मानते हुए भी उसका जन्मोत्सव मनाते हैं, यह भला कैसे?

इसके अतिरिक्त आप देखेंगे कि विवेकानन्द, बुद्ध आदि के चार-छ: से अधिक नाम नहीं हैं। परन्तु शिव, जिनके जन्म के उपलक्ष्य में शिवरात्रि मनाई जाती है, उसके सहस्त्रों नाम हैं, जैसे कि अमरनाथ, सोमनाथ, विश्वेश्वर, पशुपतिनाथ आदि आदि । स्पष्ट है कि ये नाम गुणवाचक, कर्तव्यवाचक या परिचयवाचक हैं। ये सभी नाम ऐश्वर्य, शक्ति, उत्तमता और उच्च कर्तव्यों को बताने वाले हैं। अन्य किसी के भी पापकटेश्वर, मुक्तेश्वर, पशुपतिनाथ आदि ऐसे नाम नहीं हैं। भला इन नामों वाला शिव कौन है? उसका पूर्ण परिचय क्या है? जो ऐसा विलक्षण और न्यारा है, उसकी आश्चर्यजनक जीवन कहानी को जानना तो चाहिए।

शिव के नामों से शिव का परिचय
शिव के जितने भी नाम हैं, वे सभी उसके स्वरूप का परिचय देते हैं। उदाहरण के तौर पर ‘पशुपति’ नाम को लीजिए। इस नाम से नेपाल में शिव का एक प्रमुख और अति प्रसिद्ध मन्दिर भी है । वहाँ के राजा और राजकुल के अन्य सभी लोग भी उस मन्दिर में स्थापित शिव को अपना इष्ट मानते हैं। भारत के लोग भी पशुपतिनाथ के मन्दिर के लिए भारत-नेपाल मैत्री के लक्ष्य से इस मन्दिर के लिए अपनी भेंट करते हैं। भला शिव को ‘पशुपति’ क्यों कहा गया है?
यहाँ ‘पशु’ शब्द गाय या भैंस – जैसे किसी पशु का वाचक नहीं है, बल्कि ‘आत्मा’ शब्द का वाचक है । भारत तथा विदेशों में जो शैव मत के लोग हैं, उनके मत में आत्मा को ‘पशु’ कहा गया है क्योंकि ‘पशु’ का अर्थ है ‘वन्धा हुआ’ और आत्मा चूंकि माया या प्रकृति के बन्धन में है, इसलिए ‘पशु’ है। परमात्मा शिव बन्धन से सदा मुक्त हैं और आत्माओं रूपी पशुओं को माया रूपी पाश से मुक्त करने वाले हैं, उनका गायन पूजन है। इसलिए ही उन्हें ‘शिव’ भी कहा गया है, क्योंकि ‘शिव’ का अर्थ ‘कल्याण’ है और आत्मा का कल्याण या निस्तारा जिस द्वारा होता है वही ‘शिव’ हैं। उन्हीं शिव को ‘त्रिभुवनेश्वर’ अथवा ‘सर्वेश्वर’ भी कहा गया है। क्योंकि तीनों भुवनों या लोक में रहने वाले सर्व जीव-प्राणियों या देवी – देवताओं के एकमात्र ईश्वर या परम माननीय भी शिव ही हैं । अन्य सभी तो शरीरधारी हैं और ‘रचना’ हैं, शिव ही बिन्दु रूप, अशरीरी, तेजराशि और ‘ रचयिता’ अथवा परमपिता हैं। अन्य सभी उनके वश में हैं, इसलिए उनका नाम ‘शिव’ है।

शिव की प्रतिमा विन्दु के वृहदाकार वाली क्यों?
भारत के मन्दिरों में जब हम जाते हैं तो देखते हैं कि सभी देवताओं की पूजा मूर्तियों में होती है, लिंग में या बिन्दु रूप में नहीं । परन्तु शिव का स्मरण चिन्ह बिन्दु-जैसे आकार वाला होता है, ऐसा क्यों है? स्पष्ट है कि अन्य सभी देवी-देवता इत्यादि तो शरीरधारी हैं, वे अपने गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार अपनी कोई काया लेते हैं परन्तु ‘शिव’ अशरीरी परमात्मा हैं, इसलिए उनका कोई कायिक (Corporeal) रूप नहीं है। ज्योति – बिन्दु शिव वास्तव में ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के भी रचयिता हैं इसलिए उन्हें ‘त्रिमूर्ति’ कहा जाता है और ‘त्रयम्बकेश्वर’ भी । मुम्बई के निकट ऐलीफेन्टा में ‘त्रिमूर्ति’ नाम से जो उनका चित्र चित्रण मिलता है उनमें उन्हें ब्रह्मा, विष्णु और शंकर, इन तीनों देवों के रचयिता के रूप में दिखाया गया है और उदयपुर में जो ‘एकनाथ’ का प्रसिद्ध मन्दिर है, उसमें भी ऊपर शिव और नीचे तीन देवों की प्रतिमा है। अतः ‘शिवरात्रि’ का त्योहार त्रिदेव के भी रचयिता स्वयं परमात्मा से सम्बन्धित उत्सव है । इतना उच्च है यह त्योहार !
अब प्रश्न उठता है कि शिव ने आत्माओं रूपी पशुओं को माया के पाशों से कब मुक्त किया कि जिस कारण उनका नाम ‘पशुपति’ अथवा ‘मुक्तेश्वर’ हुआ। उन्होंने मनुष्यों के दुःखों को कब हरा कि वह ‘हर’ अथवा ‘दुःख हर्ता’ कहलाये ? उन्होंने संकटों को कब मिटाया और मनुष्यों के पापों को कब काटा कि वह ‘पाप-कटेश्वर’ अथवा ‘संकट मोचन’ कहलाये ?
स्पष्ट है कि उन्होंने यह कर्तव्य तब किया होगा जबकि सभी नर-नारी पापी अथवा पतित हो चुके होंगे और माया की जंजीरों में जकड़े हुए पशुओं की तरह अज्ञानी और बन्धे हुए होंगे तथा अत्यन्त दुःखी होंगे। ऐसा समय तो कलियुग का अन्तिम चरण ही होता है जबकि लोग धर्म – भ्रष्ट और कर्म – भ्रष्ट और योग- भ्रष्ट होते हैं और पशुओं के समान तुच्छ – बुद्धि होते हैं । अतः कलियुग के अन्त में ही परमपिता परमात्मा शिव ने संसार का कल्याण किया और सभी के दुःखों को हर कर उन्हें सुख दिया जिसके बाद सुख का युग अर्थात् सतयुग शुरू हुआ जबकि शिव के बारे में उक्ति प्रसिद्ध है कि “शिव के भण्डारे भरपूर हैं और काल कंटक सब दूर हैं” तो अवश्य ही परमात्मा शिव ने कलियुग के अन्त में ही तो कर्तव्य किया होगा क्योंकि उसके बाद सतयुग में ही नर-नारी पापों से और दुःखों से मुक्त होते हैं और सभी के दर से काल-कंटक दूर होते हैं। अत: शिवरात्रि का त्योहार कलियुग के अन्त और सतयुग के आदि के संगम समय ही से सम्बन्धित है।

शिव कर्तव्य कैसे करते हैं?
प्रश्न उठता है कि शिव अशरीरी हैं और ज्योतिबिन्दु रूप हैं, वह इस मनुष्य-लोक में कल्याण करने का कर्तव्य कैसे करते हैं? वह इस लोक में जन्म कैसे लेते हैं?
इस विषय में जानने के योग्य बात यह है कि शिव तो ‘अजन्मा’ और ‘मृत्युन्जय’ माने गये हैं, वह तो देवों के भी देव अथवा ‘सर्वेश्वर’ हैं। अत: उनका जन्म किसी देवता या मनुष्य के रूप में नहीं होता। शिव तो कर्मातीत और सदा – मुक्त हैं इसलिए वह नस-नाड़ी के बन्धन में नहीं आते। वह तो ‘ महाकालेश्वर’ हैं, इसलिए वह बाल, युवा, वृद्ध अथवा जन्म-मरण रूप, काल के वश में भी नहीं होते ।
हाँ, संसार-भर के नर-नारियों को मुक्त करने के लिए, भक्तों को अपना परिचय देने के लिए, लोगों को पापों तथा दुःखों से छुटकारा दिलाने के लिए अर्थात् सतयुगी पावन तथा सुखी सृष्टि रचने के लिए, वह कलियुग के अन्त में एक साधारण मनुष्य के तन में प्रवेश अथवा सन्निवेश करते हैं जिसका नाम वह ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ रखते हैं। उनके मुख से ईश्वरीय ज्ञान और सहज राजयोग की शिक्षा देकर वह मनुष्य को देवता बनाते हैं। इस प्रकार ही वह भारतवासियों का चारित्रिक नव-निर्माण करके सतयुगी दैवी सृष्टि की पुनः स्थापना करते हैं। शिव पुराण में भी लिखा है कि भगवान शिव ने कहा- “मैं ब्रह्मा जी के ललाट से प्रगट होऊंगा।” आगे लिखा है कि इस कथन के अनुसार समस्त संसार पर अनुग्रह करने के लिए शिव ब्रह्मा जी के ललाट से प्रगट हुए और उनका नाम ‘रुद्र’ हुआ। शिव पुराण में यह भी लिखा है कि “जब ब्रह्मा जी द्वारा सतयुगी सृष्टि रचने का कार्य तीव्र गति से नहीं हुआ और इस कारण वह निरुत्साहित थे, तब शिव ने ब्रह्मा जी की काया में प्रवेश किया, ब्रह्मा जी को पुनर्जीवित किया और उनके मुख द्वारा सृष्टि रची।” शिव पुराण में अनेक बार यह उल्लेख आया है कि भगवान शिव ने पहले प्रजापिता ब्रह्मा को रचा और फिर उस द्वारा सतयुगी सृष्टि को रचा। इस पौराणिक उल्लेख का भी यही भाव है कि परमपिता परमात्मा शिव, प्रजापिता ब्रह्मा के मस्तिष्क ( ललाट) में अवतरित हुए और उसके मुख द्वारा ईश्वरीय ज्ञान तथा सहज राजयोग की शिक्षा देकर उन्होंने संसार का कल्याण किया।

संसार का कल्याण करने की ईश्वरीय युक्ति
कलियुग के अन्तिम चरण में, अज्ञान रूपी रात्रि में, जब परमपिता परमात्मा शिव प्रजापिता ब्रह्मा के तन में अवतरित होते हैं तब वे मनुष्य मात्र को यह शिक्षा देते हैं कि “काम-वासना का भोग एक जीव-घातक विष लेने के समान है जिससे कि मनुष्य के जन्म-जन्मान्तर का सर्वनाश होता है।” अत: ज्ञान रूपी सोम अथवा अमृत पिलाकर परमपिता परमात्मा शिव, जिन्हें ही ‘सोमनाथ’ और ‘अमरनाथ’ भी कहा जाता है, इस संसार सागर से सारा विष हर लेते हैं। इसी कारण उन्हें ‘विष – हर’ भी कहा गया है।
परमात्मा शिव के उसी कर्तव्य की स्मृति में आज भी लोग जब शिवरात्रि का उत्सव मनाते हैं तब ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं। वैसे भी जो शैव लोग प्रसिद्ध पाशुपत व्रत रखते हैं, वे नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। जो मनुष्य 12 वर्ष तक निरन्तर नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसे पाशुपत व्रत का बहुत फल मिलता है- ऐसी शैव लोगों की मान्यता है । पाशुपत व्रत रखने वाले शैव लोग ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने के अतिरिक्त, शिव की याद में रहने का अभ्यास करते हैं तथा जो वस्तुयें उन्हें सर्वाधिक प्रिय हैं उन्हें शिव को अर्पण करते हैं और शिव की सेवा में रहने का पुरुषार्थ करते हैं- ये चार बातें मुख्य रूप से उनके व्रत में शामिल हैं। वर्तमान समय शिवरात्रि का समय है अब विष को छोड़कर शिव से प्रीति जोड़ो अतः हम सबका कर्तव्य है कि उनकी आज्ञानुसार हम नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन करें और शिव के अर्पण होकर संसार की ज्ञान- सेवा करें। वास्तव में यही सच्चा ‘पाशुपत व्रत’ है जिसका फल मुक्ति और जीवनमुक्ति की प्राप्ति माना गया है। अब मनुष्य को चाहिए कि विकारों रूपी विष से नाता तोड़कर परमपिता परमात्मा शिव से वह अपना नाता जोड़े। वास्तव में शिवरात्रि केवल एक दिन नहीं होती बल्कि जब तक शिव परमात्मा इस अज्ञान – रात्रि में अपना कर्तव्य कर रहे हैं, यह सारा समय ही ‘शिवरात्रि’ है जिसमें कि मनुष्यात्मा को ज्ञान द्वारा ही जागरण मनाना चाहिए, शिव परमात्मा की स्मृति में स्थित होना चाहिए तथा ब्रह्मचर्य व्रत का सहर्ष पालन करना चाहिए । यही शिवरात्रि का त्योहार मनाने की सच्ची रीति है ।

परमात्मा शिव, नंदी और भागीरथ का रहस्य
सबसे विचित्र बात तो यह है कि सर्वशक्तिवान परमपिता परमात्मा शिव की सवारी बूढ़े बैल अर्थात् नन्दीगण को दिखाया जाता है। जो स्वयं सर्वशक्तिवान हो भला उसके लिए बैल की सवारी का क्या अर्थ है । इसका भी गहरा आध्यात्मिक महात्म्य है। परमात्मा शिव का अपना शरीर नहीं है। वह ज्योतिर्बिन्दु निराकार है। कलियुग के अन्त और सतयुग के आदि के बीच में अर्थात् पूरे कल्प के अन्त और नये कल्प के प्रारम्भ के समय परमात्मा नयी सृष्टि के सृजन के लिए प्रजापिता ब्रह्मा के तन का आधार लेते हैं तथा दैवी गुणों की धारणा की शिक्षा देते हैं। यह नन्दीगण बूढ़े बैल तो मात्र प्रतीक है परन्तु इसका अर्थ यह है कि परमात्मा, प्रजापिता ब्रह्मा के बूढ़े तन का उपयोग सृष्टि को नया बनाने में करते हैं इसलिए शास्त्रों में वर्णित है कि परमात्मा बूढ़े बैल अर्थात् नन्दी की सवारी करते हैं।
परमात्मा की इस सवारी को ‘भागीरथ’ भी कहते हैं । भागीरथ अर्थात् ‘ भाग्यशाली रथ’ जिसका उपयोग स्वयं परमात्मा के अवतरण के लिए होता है। इनसे भाग्यशाली और कौन कहा जा सकता है। इस समय परमात्मा प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा करा रहे हैं।

स्वर्णिम प्रभात का आगाज है ‘शिवरात्रि का पर्व ‘
कहा जाता है – ‘सर्व पर्वों में पर्व महान, शिव जयंती है सर्व महान । ‘
भारत तथा पूरे विश्व में मनाये जाने वाले पर्व, अतीत में हुई ईश्वरीय और दैवीय महान घटनाओं के यादगार है। सभी पर्वों के अपने-अपने महत्व है, परन्तु कुछ ऐसे महापर्व होते हैं जो सृष्टि तथा मानव जीवन को नई सुबह और स्वर्णिम अवसर प्रदान करते हैं। इन पर्वों में महाशिवरात्रि का पर्व सर्वश्रेष्ठ है। यह महापर्व आत्मा और परमात्मा के मिलन का सुखद संयोग, रात्रि से निकल प्रकाश में जाने तथा अज्ञानता से परिवर्तन होकर सुजानता की नई सुबह की दुनिया का आगमन होता है।
देवों के देव महादेव परमात्मा शिव की महिमा काशी से काबा तक विभिन्न रूपों में गायी और पूजी जाती है। शिवलिंग के रूप में परमात्मा की यादगार पूरे विश्व में पूजी जाती है। अनेक धर्मों और पंथो में भी निराकार परमात्मा शिव विविध रूपों में स्वीकार्य हैं। अज्ञानता की रात्रि ने मनुष्य को परमात्मा के वास्तविक सच्चाई से दूर कर दिया है इसलिए तो मुक्तिदाता को अज्ञानता की रात्रि में आने की आवश्यकता होती है। यह घोर अज्ञानता की रात्रि का घोतक नहीं तो और क्या है । यह ऐसा वक्त है जब मनुष्यों की आस्था और विश्वास के सर्वोच्च स्थान मंदिर, मस्जिद और अन्य पवित्र स्थानों पर अन्याय, हिंसा, अत्याचार और लूटपाट करने से भी लोग नहीं हिचकते हैं। इस घोर अज्ञानता की रात्रि में दानवी प्रवृत्तियां मानवता को कुचल देती हैं।

ऐसा चिन्ह पूरी सृष्टि के बदलने का संकेत होता है । समयानुसार इस सृष्टि का परिवर्तन होना ईश्वरीय संविधान का अटल सत्य नियम है। चारों युगों से बनी इस सृष्टि का कलियुग, सृष्टि चक्र की अंतिम अवस्था होती है। इस घोर अज्ञानता की रात्रि वाले समय कलियुग के आदि और सतयुग के प्रारम्भ में सृष्टि के जगत नियंता, सर्व आत्माओं के पिता विश्व कल्याणकारी परमपिता परमात्मा शिव का अवतरण होता है। प्रत्येक मनुष्य को यह समझ लेना चाहिए कि यह वक्त बदलाव का है। पुरानी दुनिया की अन्त तथा स्वर्णिम प्रभात की आगाज का शुभ संकेत है । अत्याचार के समाप्त होने तथा सदाचार की स्थापना की पहल का है। यह सर्व विदित है कि जब किसी भी चीज की अति हो जाती है तो उसका अन्त ईश्वरीय नियम है। आज समाज की और पूरी दुनिया की स्थिति भी ऐसे ही संकेत का प्रबल उदाहरण है। पूरी मानवता इस दुनिया से मिट चुकी है । आणविक हथियारों के ढेर पर सोयी इस दुनिया की अंतिम श्वांस है। प्रकृति के पांचों तत्व भी मनुष्य को सुख देने की असमर्थता जाहिर कर दी है जिससे ग्लोबल वार्मिंग, बाढ़, सूखा आदि परिवर्तन का प्रबल संकेत है।

इस पर्व का समय के हिसाब से विश्लेषण करें तो भारतीय महीने के अनुसार यह वर्ष का अंतिम महीना होता है। इसके बाद प्रकृति के तत्व भी अपना कलेवर बदलकर सुखदायी हो जाते है जिसे बसंत ऋतु कहते हैं। यह सभी ऋतुओं में सबसे सुन्दर और सुखदायी ऋतु होती है। पेड़-पौधे भी अपनी पुरानी पत्तियों को छोड़ नयी पत्तियां धारण कर लेते हैं। धरती भी अपने गर्भ से सुगन्धित पुष्पों को जन्म देकर चारों तरफ खुशहाली और सद्भावना का संदेश देती है। भगवान शिव जब अज्ञानता की रात्रि अर्थात् कलियुग को बदल सतयुग की स्थापना करते हैं । उसका स्थूल यादगार यह शिवरात्रि का महापर्व है और सतयुग की महिमा का द्योतक है बसंत ऋतु ।
इस परिवर्तन की अंतिम बेला में पूरे भारत तथा विश्वभर में मनाये जाने वाले महाशिवरात्रि के इस महान पर्व पर गुप्त रूप में महापरिवर्तन का कार्य करा रहे परमपिता परमात्मा शिव को पहचान कर ‘शिवरात्रि पर्व पर अपने बुराइयों को स्वाहा करें और दैवी गुणधारी बन नयी दुनिया की स्थापना के महान कार्य में सहयोगी बनें। यही परमात्मा का सर्व आत्माओं प्रति शिवरात्रि का शुभ संदेश है

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