भारत के लोग शिव को ‘मुक्तेश्वर’ और ‘पापकटेश्वर’ मानते हैं। उनकी यह मान्यता है कि शिव ‘आशुतोष’ हैं अर्थात् जल्दी और सहज ही प्रसन्न हो जाने वाले हैं तथा अवढर दानी भी हैं अर्थात् सहज ही उच्च वरदान देने वाले हैं। इसी भावना को लेकर वे शिव पर जल चढ़ाते और उसकी पूजा करते हैं। परन्तु प्रश्न उठता है कि जीवन भर रोज़ शिव की पूजा करते रहने पर तथा हर वर्ष श्रद्धापूर्वक शिवरात्रि पर जागरण, व्रत इत्यादि करने पर भी मनुष्य के पाप और सन्ताप क्यों नहीं मिटते, उसे मुक्ति और शक्ति क्यों नहीं प्राप्त होती और उसे राज्य – भाग्य का अमर वरदान क्यों नहीं मिलता ? आखिर शिव को प्रसन्न करने की सहज विधि क्या है, शिवरात्रि का वास्तविक स्वरूप क्या है और हम शिवरात्रि कैसे मनायें और ‘शिव’ का ‘रात्रि’ के साथ क्या सम्बन्ध है? जबकि अन्य देवताओं का पूजन दिन को होता है, शिव का रात्रि में अधिक क्यों होता है और शिवरात्रि फाल्गुन मास की चौदहवीं अन्धेरी रात में, अमावस्या के एक दिन पहले क्यों मनाई जाती है ?
‘रात्रि’ और ‘महारात्रि’ अज्ञानता और अपराध के सूचक
सभी जानते हैं कि रात्रि के अन्धकार में मनुष्य को चीज़ों का ठीक-ठीक पता नहीं चलता और रात्रि को सामाजिक तथा नैतिक अपराध भी बहुत होते हैं । अतः साधारण तौर पर ‘रात्रि’ अज्ञान अन्धकार, पाप और तमोगुण की निशानी है। कृष्ण पक्ष की रात्रि में तो और भी अधिक अन्धकार होता है। फिर चौदहवीं रात को तो घोर अन्धकार होता है।
फाल्गुन मास वर्ष का 12वाँ अर्थात् अन्तिम मास है । अतः फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चौदहवीं रात्रि तो ‘महारात्रि’ है । वह कल्प के अन्त में होने वाली घोर अज्ञानता और अपवित्रता की द्योतक है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से द्वापर युग और कलियुग को ‘रात्रि’ अथवा ‘कृष्ण पक्ष’ तो कहा ही गया है; इसमें कलियुग का पूर्णान्त होने से कुछ वर्ष पहले का जो समय है वह उपान्त, कृष्ण पक्ष की चौदहवीं रात्रि के समान है।
अतः ‘शिवरात्रि’, फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की अन्तिम रात्रि ( अमावस्या) से एक दिन पहले मनाई जाती है क्योंकि परमपिता परमात्मा शिव का अवतरण इस लोक में कलियुग के पूर्णान्त से कुछ ही वर्ष पहले हुआ था जबकि सारी सृष्टि अज्ञान अन्धकार में थी । इसलिए, ‘शिव’ के सम्बन्ध में पूजा का अधिक महत्व माना जाता है। श्री नारायण तथा श्रीराम आदि देवताओं का पूजन तो दिन में होता है क्योंकि श्री नारायण, श्री राम आदि का जन्म तो सतयुग तथा त्रेतायुग रूपी दिन में हुआ था। मन्दिरों में उन देवताओं को तो रात्रि में ‘सुला’ दिया जाता है और दिन में ही उन्हें ‘जगाया’ जाता है । परन्तु परमात्मा शिव की पूजा के लिए तो भक्त लोग स्वयं भी रात्रि को जागरण करते हैं।
आज इस रहस्य को न जानने के कारण कई लोग कहते हैं कि ‘शिव तमोगुण के अधिष्ठाता (आधार) हैं, इसीलिए शिव की पूजा रात्रि को होती है और इसीलिए शिव की याद में शिवरात्रि ही मनाई जाती है, क्योंकि ‘रात्रि’ तमोगुण की प्रतिनिधि है ।’ परन्तु उनकी यह मान्यता बिल्कुल गलत है क्योंकि वास्तव में शिव तमोगुण के अधिष्ठाता नहीं हैं बल्कि तमोगुण के संहारक अथवा नाशक हैं। यदि शिव तमोगुण के अधिष्ठाता होते तो उन्हें ‘शिव’, ‘पापकटेश्वर’ और ‘मुक्तेश्वर’ कहना ही निरर्थक हो जाता, क्योंकि ‘शिव’ का अर्थ ही ‘कल्याणकारी’ है जबकि तमोगुण अकल्याणकारी, पाप – वर्धक और मुक्ति में बाधक है। अतः वास्तव में ‘शिवरात्रि’ इसलिए मनाई जाती है कि परमात्मा शिव ने कल्प के उपान्त में अवतरित होकर तमोगुण, दुःख और अशान्ति को हरा था । यही कारण है कि शिव का एक नाम ‘हरा’ भी है। शंकर के गृहांगण में बैल और शेर तथा मोर और साँप को इकट्ठा दर्शाने वाले चित्र भी वास्तव में इसी रहस्य के परिचायक होते हैं कि शिव तमोगुण, द्वेष इत्यादि को हरने वाले हैं, न कि उनके अधिष्ठाता ।
‘महाशिवरात्रि’ किस वृत्तान्त की याद दिलाती है?
शिवरात्रि अथवा महाशिवरात्रि के बारे में एक मान्यता तो यह है कि इस रात्रि को परमपिता परमात्मा शिव ने महासंहार कराया था और दूसरी मान्यता यह है कि इस रात्रि को अकेले ईश्वर ने अम्बा इत्यादि शक्तियों से सम्पन्न होकर रचना का कार्य प्रारम्भ किया था। परन्तु प्रश्न उठता है कि शिव तो ज्योतिर्लिंगम् और अशरीरी हैं, वह संहार कैसे और किस द्वारा कराते हैं और नई सृष्टि की स्थापना कैसे कराते हैं तथा स्थापना की स्पष्ट रूप-रेखा क्या है ?
प्रसिद्ध है कि ज्योतिस्वरूप परमपिता परमात्मा शिव प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा सतयुगी सतोप्रधान सृष्टि की स्थापना और शंकर द्वारा कलियुगी तमोप्रधान सृष्टि का महाविनाश कराते हैं। वे कलियुग के अन्त में ब्रह्मा के तन में प्रवेश करके उसके मुख द्वारा ‘ज्ञान- गंगा’ बहाते हैं । इसीलिए शिव को ‘गंगाधर’ भी कहते हैं और ‘सुधाकर’ अर्थात् ‘अमृत देने वाला’ भी । प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा जो भारत-माताएं और कन्याएं गंगाधर शिव की ज्ञान गंगा में स्नान करती अथवा ज्ञान – सुधा (अमृत) का पान करती हैं, वे ही ‘शिव-शक्तियाँ’ अथवा ‘अम्बा’, ‘सरस्वती’ इत्यादि नामों से विख्यात होती हैं। वे चेतन ज्ञान-गंगाएं अथवा ब्रह्मा की मानसी पुत्रियाँ ही शिव का आदेश पाकर भारत के जन-मन को शिव-ज्ञान द्वारा पावन करती हैं। इसीलिए शिव ‘नारीश्वर’ और ‘पतित-पावन’ अथवा ‘पाप-कटेश्वर’ भी कहलाते हैं क्योंकि वे मनुष्यात्माओं को शक्ति रूपा नारियों अथवा माताओं द्वारा ज्ञान देकर पावन करते हैं तथा उनके विकारों रूपी हलाहल को हर कर उनका कल्याण करते हैं और उन्हें सहज ही ‘मुक्ति’ तथा ‘जीवनमुक्ति’ का वरदान देते हैं। साथ-ही-साथ, वे महादेव शंकर द्वारा कलियुगी सृष्टि का महाविनाश कराते हैं और उसके परिणाम स्वरूप सभी मनुष्यात्माओं को शरीर – मुक्त करके शिव – लोक को ले जाते हैं। इसलिए वे ‘मुक्तेश्वर’ भी कहलाते हैं । परन्तु वह वे दोनों कार्य करते कलियुग के उपान्त में अज्ञान रूपी रात्रि ही के समय हैं।
शिवरात्रि अन्य सभी जयन्तियों से सर्वोत्कृष्ट
उपर्युक्त से स्पष्ट है कि ‘शिवरात्रि’ एक अत्यन्त महत्वपूर्ण वृत्तान्त का स्मरणोत्सव है । यह सारी सृष्टि की समस्त मनुष्यात्माओं के पारलौकिक परमपिता परमात्मा के अपने दिव्य जन्म अथवा अवतरण का दिन है और सभी को मुक्ति या जीवनमुक्ति रूपी सर्वश्रेष्ठ प्राप्ति की याद दिलाता है। इस कारण यह अन्य सभी जन्मोत्सवों अथवा जयन्तियों की तुलना में सर्वोत्कृष्ट है क्योंकि अन्य सभी जन्मोत्सव तो मनुष्यात्माओं अथवा देवताओं के जन्म-दिन की याद में मनाये जाते हैं जबकि शिवरात्रि मनुष्य को देवता बनाने वाले, देवों के भी देव, धर्मपिताओं के भी परमपिता, एकमात्र सद्गतिदाता परमप्रिय परमपिता के अपने दिव्य और शुभ जन्म का स्मरणोत्सव है।
अन्य जो जन्म-दिन मनाये जाते हैं, वे किसी विशेष धर्म या सम्प्रदाय के अनुयाइयों के लिए महत्वपूर्ण होते हैं। उदाहरण के तौर पर श्रीकृष्ण जन्माष्टमी या श्रीराम नवमीं को आदि सनातन धर्म के लोग ही अधिक महत्व देते हैं परन्तु शिवरात्रि तो इनके भी रचयिता, सभी धर्मों को मानने वालों या न मानने वालों के भी पारलौकिक परमपिता परमात्मा का ‘जन्म – दिन’ है जिसे सारी सृष्टि के सभी मनुष्यों को बड़े चाव और उत्साह से मनाना चाहिए। परन्तु आज मनुष्यात्माओं को परमपिता परमात्मा का परिचय न होने के कारण अथवा परमात्मा को सर्वव्यापी या नाम रूप से न्यारा मानने के कारण शिव जयन्ती का महात्म्य बहुत कम हो गया है।
शिवरात्रि मनाने की रीति
भक्त लोग शिवरात्रि के दिन उत्सव पर सारी रात जागरण करते हैं और यह सोचकर कि खाना खाने से आलस्य, निद्रा और मादकता का अनुभव होने लगता है, वे अन्न भी नहीं खाते ताकि उनके उपवास से, अन्न- त्याग से तथा जागरण से भगवान शिव प्रसन्न हों । परन्तु, मनुष्यात्मा को तमोगुण में सुलाने वाली और रुलाने वाली मादकता तो यह माया ही है अर्थात् पाँच विकार ही हैं। जब तक मनुष्य इन विकारों का त्याग नहीं करता तब तक उसकी आत्मा का पूर्ण जागरण नहीं हो सकता और तब तक आशुतोष भगवान शिव उन पर प्रसन्न भी नहीं हो सकते। भगवान शिव तो ‘कामारि’ ( काम के शत्रु) हैं, वे विकारी मनुष्य पर प्रसन्न कैसे हो सकते हैं?
दूसरी बात यह है कि फाल्गुन के कृष्ण पक्ष की चौदहवीं रात्रि को मनाया जाने वाला शिवरात्रि महोत्सव तो कलियुग के अन्त के उन वर्षों का प्रतिनिधि है, जिनमें भगवान शिव ने मनुष्यों को ज्ञान द्वारा पावन करके कल्याण का पात्र बनाया; अतः शिवरात्रि का व्रत तो उन सारे वर्षों में रखना चाहिए। तो आज वह समय चल रहा है, जबकि शंकर द्वारा इस कलियुगी सृष्टि के महाविनाश की सामग्री, ऐटम और हाइड्रोजन बमों के रूप में तैयार हो चुकी है और प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा परमात्मा शिव विश्व नवनिर्माण का कर्तव्य पुनः कर रहे हैं तो सच्चे शिव प्रेमियों का कर्तव्य है कि वे अब महाविनाश के समय तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करें तथा मनोविकारों पर ज्ञान – योग द्वारा विजय प्राप्त करने का पुरुषार्थ करें। वे किसी को भी दुःखी न करें । यही महाव्रत है जो कि ‘शिव – व्रत’ के नाम से प्रसिद्ध है और यही वास्तव में शिव का मंत्र (मत) है जो कि ‘तारक मंत्र’ के नाम से प्रसिद्ध है क्योंकि इसी व्रत अथवा मंत्र से शिव की कृपा से मनुष्यात्माएं इस संसार रूपी विषय सागर से तर कर, मुक्त होकर शिव-लोक को चली जाती है।
शिव का एक विराट स्वरूप
भारतवासी हर वर्ष शिवरात्रि मनाते हैं किन्तु इस सत्यता को सभी भूल चुके हैं कि यह भारत का सबसे बड़ा त्योहार है। शिवरात्रि के वास्तविक महत्व को समझकर इसे सार्थक रूप में मनाने के लिए यह जानना आवश्यक है कि शिव कौन हैं और रात्रि के साथ इनका क्या सम्बन्ध है?
शिव नाम परमात्मा का है। शिव का अर्थ है कल्याणकारी। शिव को बिन्दु भी कहते हैं । परमात्मा इस कल्पवृक्ष का वृक्षपति है। परमात्मा ही सब सुखों का अक्षय भण्डार है, विश्व कल्याणकारी एवं सर्व का गति-सद्गति दाता है । अतः शिव, परमात्मा का ही पर्यायवाची नाम है।
शिवलिंग परमात्मा की प्रतिमा है
परमात्मा ज्योति स्वरूप है इसलिए साकारी एवं आकारी देवताओं की भेंट में उन्हें ‘निराकार’ कहा जाता है। परमात्मा के ज्योतिबिन्दु स्वरूप का साक्षात्कार केवल दिव्य दृष्टि के द्वारा ही हो सकता है। शिवलिंग का कोई शारीरिक रूप नहीं है क्योंकि यह परमात्मा का ही स्मरण चिन्ह है। परमात्मा भी निराकार ज्योतिस्वरूप है । आज बहुत से लोग लिंग शब्द का अर्थ न जानने के कारण लिंग के यथार्थ अर्थ से वंचित है। वास्तव में, परमात्मा शिव के ज्योति स्वरूप होने के कारण ही उनकी प्रतिमा को ज्योतिर्लिंग अथवा शिवलिंग कहा जाता है।
शिव की मान्यता विश्व व्यापी है
अन्य धर्मों के लोग भी परमात्मा शिव की इस प्रतिमा को अपनी-अपनी रीति के अनुसार मान्यता देते हैं। मक्का में यह स्मरण चिन्ह ‘संग-ए-असवद्’ नाम से विख्यात है। जापान के बहुत से बौद्ध धर्मावलम्बी आज भी ‘शिवलिंग’ के आकार के पत्थर को सामने रखकर ध्यान लगाते हैं। ईसा ने परमात्मा को ‘दिव्य ज्योति’ कहा है। इटली तथा फ्रांस के गिरिजाघरों में अभी तक ‘शिवलिंग’ की प्रतिमा रखी है। रोम में शिवलिंग को ‘प्रियपस’ कहते हैं। शंकराचार्य ने भी ‘शिवलिंग’ के मठ स्थापित किये। गुरुनानक ने भी परमात्मा को ‘ओंकार’ कहा है जबकि ज्योतिस्वरूप शिव परमात्मा के एक प्रसिद्ध मन्दिर का नाम भी ‘ओंकारेश्वर’ है । गुरु गोविन्द सिंह जी के ‘दे शिवा वर मोहे’ शब्द भी उनके परमात्मा शिव से वरदान मांगने की याद दिलाते हैं। इससे स्पष्ट है कि परमात्मा शिव एक धर्म के पूज्य नहीं बल्कि विश्व की सभी आत्माओं के परमपूज्य परमपिता हैं।
परमात्मा शिव के दिव्य कर्तव्य
शिवलिंग पर जो त्रिपुण्ड बनी होती है अथवा जो तीन पत्ते चढ़ाये जाते हैं वह परमात्मा के मुख्य तीन गुणों अथवा कर्तव्यों को सिद्ध करते हैं कि शिव त्रिमूर्ति, त्रिकालदर्शी अथवा त्रिलोकनाथ है । त्रिमूर्ति का अर्थ यह है कि ज्योतिबिन्दु परमात्मा शिव, ब्रह्मा, विष्णु, शंकर के रचयिता हैं तथा इनके द्वारा क्रमशः नई सतयुगी सृष्टि की स्थापना, पालना एवं कलयुगी दुनिया का विनाश कराने वाले करनकरावनहार स्वामी हैं।