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शिव जयन्ती एक सार्वभौमिक उत्सव

इसे विडम्बना ही कहेंगे कि जिस सर्वशक्तिमान परमात्मा को लोग अपने विचारों और भावनाओं में याद करते हैं उसे यथार्थ रूप से जानते ही नहीं हैं। सृष्टि के नियन्ता परमात्मा की अदभुत रचना को देखकर उसका गुणगान तो बहुत लोग करते आये हैं, किन्तु उस परम चैतन्य परमात्मा का यथार्थ अलौकिक अनुभव नहीं है। आश्चर्य तो यह है कि परमात्मा को नहीं जानते हुए भी उसे याद करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि आत्माओं के स्थूल नेत्रों के समक्ष कोई मूर्त रूप न होते हुए भी कहीं ना कहीं उनके अन्तर्मन में उस विचित्र निराकार परमात्मा की अस्पष्ट छवि अवश्य होती है जिसे उनकी भ्रमित बुद्धि समझ नहीं पाती ।
अतीत में अनेक ऋषि- मुनियों ने घोर तपस्या करके अन्तत: नेति नेति कह दिया । परमात्मा का अन्त पाना कठिन है । विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति करने वाले वैज्ञानिकों ने भी यही कह दिया कि जहाँ विज्ञान समाप्त होता है वहाँ से अध्यात्म शुरु होता है। विज्ञान केवल यही कहता है कि इस ब्रह्माण्ड में आकाश गंगाओं के पार कोई ऐसी ऊर्जा का स्रोत है जो इन सभी ऊर्जाओं को नियंत्रित करता है वह स्रोत क्या है? इसके उत्तर में विज्ञान भी मौन है। विज्ञान केवल इतना ही कहता है कि इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के बारे में जो भी अभी तक ज्ञात है वह इस विशाल महासागर की तुलना में केवल एक बूंद के बराबर है।
प्रकृति की ऊर्जा से प्रभावित मानव आध्यात्मिक शक्ति के असीम स्रोत परमात्मा को नहीं जान सकता। दरअसल एक सामान्य मनुष्य को परमात्म दिव्य शक्तियों का एहसास ही नहीं होता और ना ही मानव बुद्धि सूक्ष्म शक्तियों की रहस्यमयी गतिविधियों के बारे में सोच सकने में समर्थ है। इसलिए यह स्पष्ट समझ लेने की बात है कि परमात्मा और उसकी सूक्ष्म, अतिसूक्ष्म शक्तियों को साधारण बुद्धि से नहीं समझा जा सकता। परमात्मा के अस्तित्व को समझने और उनके साथ परम-मिलन का अनुभव करने के लिए केवल विद्वान होना ही पर्याप्त नहीं है।
परमात्मा का यथार्थ परिचय स्वयं परमात्मा ही देते हैं । परमात्मा का दिव्य अवतरण होता है। सृष्टि के महापरिवर्तन में परमात्मा की अहम भूमिका है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखने से यह स्पष्ट होता है कि ऊर्जा का एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तन होना या सतोप्रधान से तमोप्रधान रूप में परिवर्तन होना – यह एक समय के चक्रीय क्रम में होता है । तमोप्रधान ऊर्जा को सतोप्रधान में परिवर्तन करने को सृष्टि का नवीनीकरण कहते हैं।
सृष्टि का नवनिर्माण करने के इस क्रम में ऊर्जाओं के महास्रोत परमात्मा के साधारण मानवीय शरीर में दिव्य अवतरण की दिव्य घटना भी ऐसे ही समय पर घटती है जब सृष्टि की तात्विक ऊर्जाएं तमोप्रधान हो जाती हैं। तात्विक ऊर्जाओं का तमोप्रधान होना और चैतन्य अभौतिक आत्माओं का पतित होना साथ-साथ होता है। इसलिए ही यह कहा गया है कि ‘यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति… अर्थात् जब धर्म की अति ग्लानि हो जाती है, तब परमात्मा का अवतरण होता है। यह जब सृष्टि के समय चक्र का अन्तिम समय है। अब सभी प्रकार की तात्विक ऊर्जाएं सम्पूर्ण तमोप्रधान अवस्था को प्राप्त हो चुकी है। अब पुनः निराकार ज्योतिस्वरूप परमात्मा दिव्य अवतरित होकर अपना दिव्य रूप से कर्तव्य करा रहे हैं। अब यह धरा एवं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अपनी पूर्ववत् स्थिति में आ जायेगा। यह संसार परिवर्तन प्रक्रिया से पुनः सतयुग में परिवर्तित होगा ।
विज्ञान के मतानुसार, पदार्थ या तत्व का जितना सूक्ष्म रूप होता है उतना ही वह अधिक शक्तिशाली होता है। अध्यात्म विज्ञान की सूक्ष्मता इससे भी आगे का क्रम है । गुणों और शक्तियों के सागर होने के कारण परमात्मा को विशेषणात्मक रूप से सर्वशक्तिमान कहते हैं । वे इसलिए ही सर्वशक्तिमान है क्योंकि वे अत्यन्त सूक्ष्मातिसूक्ष्म हैं। विज्ञान के अनुसार, यह भी तर्कसंगत है कि किसी भी भौतिक पदार्थ या तत्व का वस्तुतः एक रूप (आकार) होता है। ठीक इसी प्रकार से अभौतिक असीम चैतन्य शक्ति परमात्मा का भी एक अपना दिव्य रूप होता है। जब जड़ का आकार होता है तो उसका नाम भी होता है। बिना नाम के कोई भी वस्तु नहीं होती। ठीक इसी प्रकार से सर्वशक्तिमान निराकार ज्योतिस्वरूप परमात्मा का आकार और नाम दोनों ही हैं। उनका गुण और कर्त्तव्यवाचक नाम ‘शिव’ है । परमात्मा का अभौतिक रूप सूक्ष्मातिसूक्ष्म दिव्य ‘बिन्दु’ और स्वरूप ‘ज्योति’ है। भौतिक पदार्थ की तरह अभौतिक दिव्य शक्ति परमात्मा की उनकी शक्तियों और पवित्रता के कारण जड – चैतन्य को दीप्यमान करने की आभा प्राप्त होती है।

परमात्मा को परम चैतन्य ऊर्जा और सर्व प्रकार की ऊर्जाओं का स्रोत कहना ज्यादा यथोचित है । इसलिए ही परमात्मा को सत् – चित्त – आनन्द स्वरूप कहते हैं । वे सत् अर्थात् शाश्वत और अपरिवर्तनशील हैं। वे परम चैतन्य अर्थात् सृष्टि के आदि-मध्य-अन्त के ज्ञान को जानने वाले सर्वज्ञ हैं। वे सदा आनन्द स्वरूप अर्थात् अपनी परम चैतन्यता की पराकाष्ठा में सदा अवस्थित रहने वाले हैं। वे सदा एक जैसे हैं । वे अजन्मे और प्रकृति की सतो, रजो, तमो अवस्थाओं से सदा परे रहने वाले हैं। परमात्मा अनादि- अविनाशी मूल गुणों के सागर हैं। वास्तव में, उन्हें व्यक्ति और वस्तु की तरह संज्ञा की सीमा में भी नहीं बांधा जा सकता। फिर भी एक व्यावहारिक विवेकसम्मत भाषा में उन्हें परम – ऊर्जावान, परम कल्याणकारी ‘सदा शिव’ की संज्ञा दी गई है। आध्यात्मिक शक्तियों और गुणों के स्रोत निराकार परमात्मा सर्व प्रकार की ऊर्जाओं के उद्गम एवं आकर्षण का केन्द्र हैं। वे अतिसूक्ष्म ऊर्जा के सदा दाता हैं। भौतिक जगत के सूर्य के समान इस जगत से परे आध्यात्मिक जगत में अवस्थित परमज्योति परमात्मा एक चैतन्य सूर्य के समान है । उसकी शक्तियों का अनुभव करने के लिए वैसी ही पवित्र मनोस्थिति अर्थात् बुद्धियोग की पात्रता का होना अनिवार्य शर्त है।
घटनाओं के घटित होने के बाद संस्मरण बनते हैं। भक्ति की रस्मों-रिवाजों की मान्यताओं में परमात्मा के दिव्य अवतरण के यादगार के संस्मरण विभिन्न रूपों में मिलते हैं। भक्ति के आदिकाल से ही निराकार परमात्मा के मनुष्य तन में दिव्य अवतरण की प्रतीकात्मक यादगार भी बनी हुई हैं। इसे ही ‘शिव जयन्ती’ भी कहते हैं । सहस्रों वर्षों से शिव जयन्ती के त्यौहार का मनाना यही दर्शाता है कि निराकार ज्योतिस्वरूप परमात्मा का दिव्य अवतरण सृष्टि चक्र के क्रम में अतीत में हुआ है, तभी तो उनके दिव्य जन्म (अवतरण) की यादगार शिव जयन्ती मनाते हैं। सृष्टि अपने एक चक्रीय क्रम में चलती रहती है। परमात्मा इसका नवीनीकरण करने एवं इसे निरन्तरता प्रदान करने के लिए अवतरित हो अपने मुख्य कर्तव्य कराते हैं। सृष्टि के परिवर्तन की प्रक्रिया में परमात्मा का अवतरण भी एक अनिवार्य रूप से निश्चित ही है।
आध्यात्मिक दृष्टि से हम सभी आत्माओं का अनादि अविनाशी सम्बन्ध परमात्मा से है । हमारा अपना पुरूषार्थ और परमात्म-शक्तियों का सूक्ष्म सहयोग ही हम आत्माओं को हमारी अनादि सम्पूर्ण चैतन्यता की स्थिति में पुन: लौटाता हैं । इस दृष्टि से परमात्मा हम आत्माओं को नया जन्म देने वाले हमारे आत्मिक पिता परमपिता हैं । वे पिताओं एवं धर्मपिताओं के भी परमपिता हैं। इस दृष्टि से इस शिव जयन्ती त्यौहार का सम्बन्ध केवल क्षेत्र, देश या धर्म सम्प्रदाय से नहीं है अपितु यह तो सम्पूर्ण विश्व की आत्माओं से सम्बन्ध रखता है इसलिए यह सार्वभौमिक है।
परमपिता परमात्मा शिव के नाम, रूप, कर्तव्य और दिव्य जन्म की यह संक्षिप्त विवेकसम्मत स्पष्टीकरण है। अतः शिव जयन्ती के उत्सव को बड़ी धूमधाम से मनाना चाहिए। यह समय परमात्मा के कर्तव्यों का चल रहा है। अब अनेक भावनाओं, अनेक मान्यताओं या कर्मकाण्डों में समय नष्ट ना कर परमात्मा पिता को यथार्थ रूप से पहचानें और उनसे अपना बुद्धियोग लगाकर स्वयं को धन्य- धन्य अनुभव करें। इसी समय के लिए कहा गया है कि ‘अभी नही तो कभी नहीं ।’

शिव जयन्ती ही गीता जयन्ती है
संसार के सभी ईश्वर-विश्वासी लोग मानते हैं कि भगवान कल्याणकारी हैं। भगवान को कल्याणकारी एवं हितैषी मानने के कारण ही उन्हें माता-पिता, बन्धु- सखा इत्यादि स्नेह-सूचक एवं शुभ संबंधों से याद किया जाता है। भगवान के सम्बन्ध से अथवा उन द्वारा दिए गए ज्ञान अथवा मत को आचरण में लाने से किसी का भी अकल्याण नहीं होता बल्कि मनुष्य का सुधार अथवा उद्धार ही होता है। अतः सब प्रकार से सबका कल्याणकारी होने के कारण भगवान का कर्तव्य – वाचक और सम्बन्ध वाचक, स्व- कथित नाम ‘शिव’ है। भगवान के इस अर्थ सहित नाम के बारे में किसी भी व्यक्ति का कोई दूसरा विचार नहीं हो सकता क्योंकि अगर भगवान ‘शिव’ अर्थात् कल्याणकारी नहीं हैं तब तो उन्हें ‘भगवान्’, ‘बन्धु’ या ‘पिता’ ही नहीं कहा जा सकता । अकल्याण करने वाले को तो ‘भगवान्’ नहीं बल्कि ‘शैतान’ ही कहा जा सकता है। t

‘भगवान’ किसे कहा जाता है ?

भगवान’ शब्द के प्राय: दो अर्थ किए जाते हैं। एक तो ‘भगवान’ शब्द परम ऐश्वर्यवान का वाचक है और दूसरे ‘भगवान’ उसे कहा जाता है जिसे लोग भजते हों अर्थात् जिसे लोग याद करते हों और जो परमपूज्य और उपास्य हो । स्पष्ट है कि भक्त लोग ‘भगवान’ को इसलिए ही भजते, करते और ध्याते हैं कि भगवान उन्हें शान्ति और सुख दें अथवा उनको अमरपद, मुक्ति और कल्याण प्रदान करें। संसार में भगवान का ऐश्वर्य अर्थात् मान और यश इस कारण ही तो है कि वे सुखदाता, शान्तिदाता और कल्याणकारी हैं। अतः सभी ईश्वर-प्रेमी लोग भगवान को सत्यम् और सुन्दरम् के अतिरिक्त ‘शिव’ भी अवश्य मानते हैं ।
अब यह भी सभी मानेंगे कि किसी का कल्याण करने के लिए उसे कर्म की गति का ज्ञान देना और उसके आगे कर्म का प्रैक्टिकल आदर्श उपस्थित करना तथा उसकी सहायता और मार्ग- प्रदर्शना करना ज़रूरी है। अत: मानना पड़ेगा कि भगवान ने कभी इसी धरा पर आकर मनुष्यात्माओं को सन्मार्ग दर्शाया है, उन्हें सुमति दी है, उन्हें सुधारा है और उनके विषय विकारों को हरा है । इसी कारण ही तो आज भी जब किसी मनुष्य के विचार उल्टे होते हैं तो मनुष्य प्रार्थना करते हैं- “हे भगवान इसे सुमति दो।” जब किसी का चरित्र बिगड़ जाता है तो वे कहते हैं- “इसे तो भगवान ही सुधार सकते हैं।” जब किसी का मन विषय विकारों से हटाये नहीं हटता तो वह भगवान ही से प्रार्थना करता है – “हे प्रभु, मेरे विषय विकार मिटाओ, मेरे पाप हरो। ”
अतः भगवान शिव के अवतरण के उपलक्ष्य में आज तक हर वर्ष भारत में शिवरात्रि का त्योहार बड़े उमंग- उत्साह से मनाया जाता है क्योंकि जाने-अनजाने लोगों के मन में यह पूर्व – स्मृति समाई हुई है कि पहले भी जब मानव जगत में अज्ञान – रात्रि छाई हुई थी तो भगवान उनका कल्याण करने के लिए आये थे । परन्तु कल्याणकारी भगवान अर्थात् शिव ने आकर कल्याण करने के लिए जो मत अथवा सुमति दी थी, कर्मगति का जो गुह्य ज्ञान दिया था अथवा मनुष्यों का चारित्रिक उत्थान करने के लिए जो सर्वोत्तम शिक्षा दी थी, उसका ग्रन्थ कौन-सा है, वह जिस मनुष्य रूप में साकार हुए थे उसका नाम क्या था इत्यादि-इत्यादि बातें आज विस्मृति की धुन्ध में ओझल – सी हो गई हैं। परन्तु आज उन्हें जानना आवश्यक है क्योंकि स्वयं भगवान ने हमारे कल्याण के लिए जो ज्ञान दिया, उसके सर्वोत्तम शास्त्र को हम न जानें और केवल भगवान के नाम की तोते की तरह रट लगाते रहें तो हमें सुमति कैसे प्राप्त होगी, हमारा मन सुधरेगा कैसे और हमारे विषय विकार तथा पाप मिटेंगे कैसे अर्थात् हमारा कल्याण होगा कैसे ?

भगवान द्वारा दिया हुआ मत अथवा ज्ञान किस शास्त्र में है ?
भगवान ने अवतरित होकर जो ज्ञान गाया, उस ज्ञान का नाम हो गया ‘गीता’ अर्थात् “गाया हुआ ।” अतः बाद में भगवान के ज्ञान को जिस ग्रन्थ का रूप दिया गया, उसका नाम रख दिया गया ‘श्रीमद्भगवद्गीता’। भगवान के ज्ञान के उस ग्रंथ को भी सभी विचारवान लोग कल्याणकारी ग्रन्थ मानते हैं।
अव साधारण परन्तु विवेक की एक महत्वपूर्ण बात यह है कि (i) जबकि भगवान ‘कल्याणकारी’ हैं और (ii) कल्याणकारी होने के कारण उनका नाम “शिव” है और (iii) गीता शास्त्र में “भगवान” के ही “कल्याणकारी” प्रवचन अथवा महावाक्य हैं तो निष्कर्ष यह हुआ कि भगवद्गीता को हम ‘शिव भगवान’ के महावाक्यों का ग्रंथ अथवा ” शिव भगवद्गीता” मान सकते हैं परन्तु सभी जानते हैं कि आज श्रीमद्भगवद्गीता को श्रीकृष्ण द्वारा दिए हुए ज्ञान का शास्त्र माना जाता है । अतः प्रश्न उठता है कि (i) हम गीता को भगवान शिव द्वारा दिया हुआ ज्ञान मानें या श्रीकृष्ण द्वारा दिया हुआ ज्ञान मानें (ii) या शिव और श्रीकृष्ण दोनों को एक और अभिन्न मानकर दोनों नामों को ही ठीक मान लें (iii) या हम इस प्रश्न को ही इतना महत्वपूर्ण न मानें और केवल ज्ञान की ही चर्चा करें, ज्ञान देने वाले की चर्चा छोड़ दें? नीचे हम क्रमानुसार उपर्युक्त तीनों प्रश्नों पर विचार करते हैं।

गीता ज्ञान भगवान शिव ने दिया था
ऊपर हमने जिन तीन प्रश्नों का उल्लेख किया है, उनमें से पहले प्रश्न पर विचार करते हुए हमें यह सोचना होगा कि गीता का तो नाम ही “भगवद्गीता’ है । अतः श्रीकृष्ण को गीता – ज्ञान दाता मानने का अर्थ श्रीकृष्ण को भगवान मानना होगा, तो पहले हमें यह निर्णय करना चाहिए कि ‘क्या हम श्रीकृष्ण को ‘भगवान’ कह सकते हैं?’ सभी जानते हैं कि ‘श्रीकृष्ण’ नाम तो दैहिक जन्म होने के बाद का रखा हुआ नाम है; ‘श्रीकृष्ण’ कोई कर्तव्य वाचक अथवा सम्बन्ध-वाचक नाम नहीं है । परन्तु भगवान के तो सभी नाम गुण- वाचक, कर्तव्य वाचक अथवा सम्बन्ध-वाचक होते हैं। भगवान का कोई संज्ञावाचक नाम नहीं होता । ‘ज्योतिर्लिंग शिव’ नाम से तो भगवान का ज्योति – होना, कल्याणकारी पिता होना आदि -आदि सिद्ध होता है परन्तु ‘श्रीकृष्ण’ नाम से ‘ज्योति का स्वरूप’ या ‘पिता का सम्बन्ध’ या कल्याण करने का ‘कर्तव्य’ इत्यादि सिद्ध नहीं होते । अतः देह अथवा जीव के नाम को भगवान का नाम मानना भूल है । तो निर्णय हुआ कि भगवद्गीता के ज्ञान दाता (भगवान) का नाम ‘शिव’ ही है, न कि श्रीकृष्ण क्योंकि श्रीकृष्ण’ तो दैहिक एवं लौकिक जन्म पर आधारित नाम है जबकि भगवान तो ज्योति – स्वरूप हैं और उनका तो निजी आध्यात्मिक, अपरिवर्तनीय एवं अविनाशी नाम है। दूसरी बात यह है कि ” श्रीकृष्ण” नाम तो माता-पिता इत्यादि द्वारा रखा हुआ नाम है जबकि भगवान तो स्वयं ही सारी सृष्टि के माता-पिता हैं, उनका नाम तो स्व-कथित नाम है, वह किन्हीं लौकिक माता-पिता द्वारा रखा हुआ नहीं है । ‘श्रीकृष्ण’ नाम के एक 16 कला पवित्र महाराजकुमार एवं पूज्य देवता भारत में हुए अवश्य हैं और वह निश्चय ही भारत के पूज्य पूर्वजों में से शिरोमणि थे परन्तु उन्हें हम एक देवता ही मान सकते हैं, भगवान नहीं मान सकते क्योंकि श्रीकृष्ण तो सूर्यवंशी (कई लोग कहते हैं ‘चन्द्रवंशी’) थे और उनके माता-पिता इत्यादि थे जबकि भगवान का कोई सूर्यवंश, चन्द्रवंश आदि वंश या कोई जन्म देने वाला नहीं होता बल्कि वह तो सभी को अलौकिक जन्म देने वाले होने के कारण सभी के ‘परमपिता’ कहलाते हैं।

भगवान के जन्म और श्रीकृष्ण के जन्म में अन्तर
पाठक सोचते होंगे कि भगवान अथवा शिव का अवतरण तो लेखक ने भी इस लेख के शुरू में माना ही है, तो अवतरण होने के पश्चात् शिव का भी कोई वंश अथवा माता-पिता तो होता ही होगा? अब हम इस प्रश्न पर प्रकाश डालते हैं।
‘जन्म’ लेने अथवा अवतरित होने पर भी भगवान ‘शिव’ का श्रीकृष्ण की तरह कोई वंश अथवा माता-पिता नहीं होते क्योंकि वास्तव में श्रीकृष्ण और भगवान अथवा शिव के जन्म की रीति में महान अन्तर है । श्रीकृष्ण तो माता के गर्भ से जन्म लेते हैं परन्तु भगवान अथवा शिव का जन्म एक अनोखा जन्म है। वह शिव – लोक से आकर एक वृद्ध मनुष्य के तन में सवारी करते हैं अर्थात् उसके तन में दिव्य प्रवेश करते हैं क्योंकि उन्हें लालन-पालन नहीं लेना होता और शिक्षा-दीक्षा नहीं लेनी होती वल्कि मनुष्यों के कल्याणार्थ ज्ञान सुनाने के लिए केवल मुखेन्द्रिय की आवश्यकता होती है । जिस मनुष्य के तन में परमात्मा प्रवेश करते हैं उस मनुष्य का जन्म तो अपने माता-पिता से हुआ होता है और वह अपने कर्मों तथा पुरुषार्थ अनुसार अपना पालन भी करता है परन्तु परमात्मा का ‘जन्म’ तो केवल उस मनुष्य में अपने-आप प्रवेश होने का ही नाम है। अतः भगवान अथवा शिव को ‘स्वयंभू’ अर्थात् ‘अपना जन्म आप लेने वाला’ कहा गया है ।

गीता में भी भगवान के महावाक्य हैं कि ‘मेरा जन्म ‘दिव्य’ है; मैं प्रकृति को वश करके अथवा उसमें प्रवेश होकर इस लोक में धर्म की स्थापना करने और प्राय: लुप्त हुआ ज्ञान सुनाने आता हूँ ।” स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण को ‘स्वयंभू’ नहीं माना जा सकता, उनका जन्म दिव्य अथवा ‘परकाया प्रवेश’ नहीं है बल्कि वह तो अपनी काया लेते हैं । परमात्मा का ‘जन्म’ तो ‘परकाया प्रवेश’ का ही दूसरा नाम है और यही कारण है कि त्रिलोकीनाथ, सर्वशक्तिवान, ज्ञान के सागर परमात्मा के अवतरित होने पर जन-साधारण उन्हें पहचान ही नहीं पाते क्योंकि भगवान जिस शरीर में अवतरित होते हैं, वह शरीर तो अन्य आत्मा का होता है और उसके कर्मों के अनुसार साधारण होता है और जन-साधारण चर्म चक्षुओं से उस साधारण व्यक्ति को देखकर छले से जाते हैं; यदि भगवान कोई ‘अपना शरीर’ लेते तो वह इतना तेजोमय, इतना सुन्दर, इतना आकर्षणकारी, इतना दिव्य होता कि कोई भी व्यक्ति उन्हें पहचानने से न चूकता; परन्तु कर्मातीत होने के कारण परमात्मा शरीर तो ले ही नहीं सकते क्योंकि उन्हें प्रारब्ध तो भोगनी ही नहीं होती । अतः भगवान के जन्म और श्रीकृष्ण के जन्म के इस अन्तर को समझकर तथा स्वयं गीता के महावाक्यों को सामने रखकर यह निर्णय करना कठिन न होगा कि गीता में वर्णित दिव्य और अलौकिक जन्म तो स्वयं परमात्मा शिव का ही है न कि श्रीकृष्ण का और कि भगवान शिव को साधारण तन में देखकर तो अर्जुन भी उन्हें श्रीकृष्ण मानने की भूल करता रहा और अन्त में उसने माना कि ” प्रमाद- वश ही आपको श्रीकृष्ण, मामा, सखा इत्यादि मानता रहा”, क्योंकि पहले उसे दिव्य नेत्र प्राप्त नहीं था बल्कि केवल दैहिक दृष्टि ही प्राप्त थी ।

कोई पूछ सकता है कि दिव्य दृष्टि प्राप्त होने पर अर्जुन को तो विष्णु चतुर्भुज रूप का साक्षात्कार हुआ था, शिव का तो नहीं हुआ था, तो क्यों न यह माना जाये कि विष्णु के साकार रूप श्रीकृष्ण ने ही गीता – ज्ञान दिया था ?

हम अनुभव के आधार पर कह सकते हैं कि ज्योतिर्लिंगम् भगवान शिव जिस साधारण मनुष्य- तन में अवतरित होते हैं, वह नर सतयुग में श्रीनारायण अथवा श्रीकृष्ण नाम से विख्यात था और पवित्र होने के कारण पूज्य था परन्तु धीरे – धीरे वह पूज्य स्थिति से पुजारी स्थिति को प्राप्त हुआ और अन्त में परमात्मा शिव ने उसके मानवीय तन में प्रविष्ट होकर गीता – ज्ञान दिया तो उसको “ब्रह्मा’ नाम दिया। उसके तन में प्रवेश करके जब परमपिता परमात्मा शिव गीता ज्ञान देते हैं तो कई दर्शकों को उस व्यक्ति के सबसे पहले वाले श्रीकृष्ण रूप का साक्षात्कार होता है। उससे कई भक्त, ज्ञान न होने के कारण, यह समझ लेते हैं कि श्रीकृष्ण ने ही यह साधारण रूप लिया है और वे उस वृद्ध प्रजापिता ब्रह्मा को ही ‘श्रीकृष्ण’, ‘हे श्रीकृष्ण’ कह कर पुकारने लगते हैं। दूसरे, श्रीकृष्ण के साक्षात्कार के अतिरिक्त, परमात्मा शिव कुछ श्रोताओं को दिव्य दृष्टि का वरदान देकर उन्हें आसुरी सृष्टि के महाविनाश का तथा विष्णु चतुर्भुज रूप का भी साक्षात्कार कराते हैं; ऐसा साक्षात्कार कराने का भाव स्पष्ट करते हुए परमात्मा कहते हैं- “जो इस गीता ज्ञान और राजयोग का अभ्यास करेगा वह आसुरी सम्प्रदाय के भावी विनाश के बाद धर्म – सम्पन्न सृष्टि में अर्थात् स्वर्ग में श्रीकृष्ण के समान ‘श्रीमानों’ के घर जन्म लेगा और पृथ्वी का राज्य तथा सर्वोत्तम सौभाग्य प्राप्त करेगा ।” यह बात स्वयं गीता में वर्णित महावाक्यों से भी स्पष्ट है। अतः विष्णु चतुर्भुज का साक्षात्कार परमात्मा ज्ञान द्वारा होने वाली प्राप्ति को दर्शाने के लिए कराते हैं अर्थात् यह समझाने के लिए कराते हैं कि गीता – ज्ञान द्वारा नर पुनः श्रीनारायण बन जायेगा और प्रजापिता ब्रह्मा पुनः श्रीकृष्ण पद प्राप्त कर लेंगे। स्पष्ट है कि भयभीत हुए अर्जुन की मनोकामना को पूर्ण करने के लिए तथा ज्ञान द्वारा माया से युद्ध करके प्राप्त होने वाले देव स्वरूप का साक्षात्कार कराने के लिए ही परमात्मा ने विष्णु का साक्षात्कार कराया था वरना परमात्मा स्वयं तो ज्योतिस्वरूप हैं और ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर के भी रचयिता हैं। –

पुनश्च आप देखेंगे कि आज भारत में तीन-चार गीताएं प्रसिद्ध हैं – एक तो ‘श्रीमद्भगवद्गीता’, दूसरी ‘ईश्वर गीता’, तीसरी ‘शिव गीता’ । इनके अतिरिक्त ‘देवी गीता’ और ‘गणेश गीता’ भी प्रचलित हैं । प्रथम तीन गीताओं में तो कई श्लोक एक जैसे ही हैं और तीनों की पद्धति भी एक जैसी ही है। श्रीमद्भगवद्गीता में विष्णु चतुर्भुज के साक्षात्कार का वर्णन है तो शिव गीता में शंकर (प्राय: लोग शंकर को ही शिव समझते हैं) के साक्षात्कार का वर्णन है । इस बात से स्पष्ट है कि भारत में आज जो मुख्य चार सम्प्रदाय हैं – “शैव, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य” इत्यादि हरेक ने भगवान द्वारा गाए गीता – ज्ञान को कल्याणकारी एवं प्रसिद्ध मान कर अपने- अपने इष्ट के नाम से, बाद में एक-एक गीता लिख डाली । विचार कीजिए कि भगवान तो एक ही हैं, ज्योतिस्वरूप हैं और कल्याणकारी हैं और इसलिए ‘शिव’ हैं परन्तु बाद में एक भगवान को भूल जाने अथवा न जानने के कारण जव अनेक सम्प्रदाय प्रचलित हुए तो सब अपनी-अपनी ढपली बजाने लगे । वास्तव में शक्तियों (देवियों) को शक्ति तो सर्वशक्तिमान शिव से मिली, जिस कारण ही उन्हें ‘शिव-शक्तियाँ’ कहा जाता है और ‘गणेश’ भी तो परमात्मा शिव की ही सन्तान ‘आत्मा’ का ही एक नाम है और श्रीकृष्ण व श्रीराम के भी ईश्वर (गोपेश्वर तथा रामेश्वर ) तो शिव ही हैं, सभी के उपास्य अथवा भजने – योग्य भगवान तो एक ज्योतिस्वरूप, त्रिभुवनपति, स्वयंभू परमात्मा शिव ही हैं, अत: उन्हीं की ज्ञान – गीता का नाम ‘भगवद्गीता’, ‘शिवगीता’ अथवा ‘ईश्वरगीता’ हो सकते हैं, अन्य किसी के नहीं। हमने ऊपर ‘भगवान’ शब्द के जो अर्थ बताए थे, उनसे भी स्पष्ट है कि भगवद्गीता अथवा शिव गीता ये सभी एक भजने योग्य, परमपूज्य, ऐश्वर्यवान भगवान की ही गीता के नाम होने चाहिए क्योंकि भगवान तो एक ही हैं। गीता को अनेक देवताओं इत्यादि से सम्बन्धित करना एक महान भूल है !

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