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Gods role and creation

परमात्मा का कर्तव्य एवं त्रिदेव की रचना

कर्तव्य से ही किसी की महिमा अथवा महानता प्रकट होती है । परमपिता परमात्मा शिव सारी सृष्टि का पिता होने के कारण उसका दिव्य एवं कल्याणकारी कर्तव्य भी समस्त विश्व के लिए होता है । साधारणतया किसी से यह प्रश्न पूछा जाये तो वह कहता है कि परमात्मा की शक्ति से ही सब कुछ होता है और बिना उसके हुक्म के एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। यह थोड़ा गम्भीरतापूर्वक विवेक से सोचने की आवश्यकता है कि संसार में तो अच्छे-बुरे दोनों ही प्रकार के कर्म होते हैं। बुरे कर्मों का फल दु:खदायी होता है तो क्या परमात्मा भी बुरे कर्म कराते हैं, जिससे कि अन्य आत्माओं को दुःख प्राप्त हो ।
मान लीजिए, कोई आवेश में आकर किसी अन्य व्यक्ति को छुरा घोंप देता है तो क्या इस हिंसक कर्म का कर्ता भी परमात्मा को माना जाये ? परमात्मा तो सदा सुखकर्ता दुःखहर्ता है तो उसके कर्मों में भी कभी दुःख विद्यमान नहीं हो सकता । यदि पाप कर्म अथवा पुण्य कर्म परमात्मा ही कराता है तो इसका बुरा वा अच्छा फल आत्माएं क्यों भोगती हैं? जबकि विधान के अनुसार कहा गया है कि जो करेगा सो पावेगा । अतः यह स्मरण रहे कि प्रत्येक आत्मा कर्म करने में पूर्णतया स्वतंत्र है। परमात्मा के हाथ में वह कोई कठपुतली की तरह नहीं है। परमात्मा का नाम, रूप और गुण लौकिक मनुष्यों से भिन्न हैं । उसका कर्म भी लौकिक मनुष्यों से भिन्न हैं तो उसका कर्म भी लौकिक न होकर अलौकिक ही होने चाहिए। परन्तु बहुत से लोग यह समझते हैं कि संसार में फल, फूल, पौधे आदि सबकी तो उत्पत्ति, पालना और विनाश ईश्वर ही करता है परंतु यह सब तो अनादि प्राकृतिक नियमों के अनुसार होता है । प्राणियों का जन्म लेना, जीना और मरना भी उसके अपने कर्मों पर आधारित होता है ।
स्मरण रहे कि इन तीन आकारी देवताओं ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर की अपना-अपना अस्तित्व है और परमात्मा शिव जो इन तीनों का रचयिता हैं, उसकी सत्ता इनसे भिन्न है । प्रायः लोग शिव एवं शंकर को एक ही सत्ता के दो नाम समझते हैं परन्तु शिव और शंकर वास्तव में एक नहीं हैं। शंकर एक सूक्ष्म आकारी रूप वाले देवता हैं परन्तु शिव निराकारी हैं। शिव कल्याणकारी परमपिता परमात्मा का नाम है और शंकर आकारी देवता हैं जो कि तमोगुणी, आसुरी सृष्टि का विनाश कराने के निमित्त हैं। कई चित्रों में शंकर और पार्वती को शिवलिंग के सम्मुख बैठा दिखाया गया है जिसमें शंकर, शिवलिंग की ओर संकेत करते हुए पार्वती को भी प्रेरित करते हैं कि वह अपनी योग-साधना में शिव पर मनन करें। इससे भी शिव एवं शंकर का भेद स्पष्ट प्रतीत हो जाता है। इन दो का नाम मिश्रित हो जाने का कारण एक और भी हो सकता है कि भारतवर्ष के बहुत से प्रांतों में जैसे सौराष्ट्र, गुजरात आदि में किसी व्यक्ति का नाम लेते समय उसके पिता का नाम भी साथ में मिश्रित रहता है जैसे मोहनदास करमचंद गांधी में उनके पिता का नाम मिश्रित है। इसी पद्धति के अनुसार लोग प्राय: शिव- शंकर का नाम भी इकट्ठा लेते हैं । परंतु कालान्तर में इस बात को बिल्कुल भुला दिया गया कि शिव और शंकर, रचयिता और रचना के रूप में दो अलग-अलग सत्ताएं हैं।
अतः ब्रह्मा, विष्णु, शंकर तीनों सूक्ष्म आकारी (बिना हड्डी मांस के ) देवता हैं, जिनको केवल दिव्य-दृष्टि द्वारा ही देखा जा सकता है परन्तु इनको परमात्मा नहीं कह सकते क्योंकि इनके भी रचयिता परमात्मा शिव ही हैं।

परमात्मा का धाम एवं तीन लोकों का स्पष्टीकरण
परमात्मा को जहां त्रिमूर्ति (तीन देवताओं का रचयिता), त्रिनेत्री (दिव्य बुद्धि रूपी ज्ञान का तीसरा नेत्र देने वाला), त्रिकालदर्शी (सृष्टि के आदि, मध्य तथा अन्त, तीनों कालों का ज्ञाता) आदि कहते हैं तो उसे त्रिलोकीनाथ अथवा त्रिभुवनेश्वर भी कहा जाता है । अतः तीन लोकों का अस्तित्व भी अवश्य होना चाहिए।
एक तो यह मनुष्य सृष्टि अथवा स्थूल लोक जिसमें हम रह रहे हैं, यह आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन पांचों तत्वों की ही सृष्टि है जिसे कर्मक्षेत्र भी कहते हैं क्योंकि यहां मनुष्य जैसा कर्म करते हैं, वैसा फिर भोगते भी अवश्य हैं।
इस लोक में बसने वालों का हड्डी – मांस आदि का पिण्ड अथवा शरीर होता है। इसी लोक में ही जन्म-मरण है। अत: इस सृष्टि को विराट नाटकशाला अथवा लीलाधाम, जिसमें सूर्य और चांद मानो बड़ी-बड़ी बत्तियां हैं, भी कहा जा सकता है। इस सृष्टि में संकल्प, वचन तथा कर्म तीनों ही हैं। यह सृष्टि आकाश तत्व में अंशमात्र में हैं। स्थापना, विनाश और पालना आदि परम- आत्मा के दिव्य कर्तव्य भी इसी लोक से सम्बन्धित हैं ।
सूर्य – चांद से भी पार इस मनुष्य लोक के आकाश तत्व के भी ऊपर एक और अतिसूक्ष्म (अव्यक्त) लोक है जिसमें पहले सफेद रंग के प्रकाश तत्व में ब्रह्मापुरी, उसके ऊपर सुनहरे लाल प्रकाश में चतुर्भुज विष्णु की पूरी और उसके भी पार महादेव शंकर की पुरी है। इन तीनों देवताओं की पुरियों को मिलाकर इसे सूक्ष्म लोक कहते हैं क्योंकि इन देवताओं के शरीर, वस्त्र और आभूषण आदि मनुष्यों के स्थूल शरीर और वस्त्र आदि की तरह पांच तत्वों से बने हुए नहीं हैं बल्कि सूक्ष्म, प्रकाश तत्व के हैं। इन देवताओं को अथवा इनके लोकों को इन स्थूल नेत्रों से नहीं देखा जा सकता बल्कि दिव्य चक्षु द्वारा ही इनका साक्षात्कार हो सकता है। इन पुरियों में संकल्प तथा गति तो है परन्तु वहां वाणी अथवा ध्वनि नहीं है। यहां मुख द्वारा बोलते तो हैं परन्तु मनुष्य के लोक में बोलने पर जो ध्वनि होती है, वह वहाँ अनुपस्थित होती है। इस सूक्ष्म लोक में मृत्यु, दुःख या विकारों का नाम निशान नहीं होता । धर्मराजपुरी भी इसी सूक्ष्म लोक में ही है।
देवताओं के सूक्ष्म लोक से भी ऊपर एक असीमित रूप से फैला हुआ तेज सुनहरे लाल रंग का प्रकाश है जिसको अखण्ड ज्योति महातत्व अथवा ब्रह्मतत्व कहते हैं । यह तत्व पांच प्राकृतिक तत्वों क्रमशः पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश से भी अतिसूक्ष्म है। इसका भी साक्षात्कार दिव्य- चक्षु द्वारा ही हो सकता है। ज्योतिर्बिन्दु रूप त्रिमूर्ति परमपिता परमात्मा शिव और सभी अन्य धर्मों की आत्माएं अपने आत्माओं की अव्यक्त वंशावली में निवास करती हैं । इस स्थान को ब्रह्मलोक, परमधाम, मुक्तिधाम, शान्तिधाम, निर्वाणधाम, मोक्षधाम अथवा शिवपुरी कहा जाता है। इस लोक में न संकल्प है, न कर्म है । अतः वहां न सुख है, न दुःख है बल्कि इन दोनों से एक न्यारी अवस्था है। इस लोक में अपवित्र अथवा कर्मबंधन वाला शरीर नहीं होता है। यहां आत्मा भी अकर्ता, अभोक्ता और निर्लिप्त अवस्था में होती है। यहां हर एक का मन शान्त अथवा बीज – रूपी अवस्था में होता है। सृष्टि-लीला की अनादि तथा निश्चित योजना के अनुसार जब किसी आत्मा का सृष्टि रूपी रंग- मंच पर पार्ट होता है तभी वह नीचे साकार लोक में आकर शरीर रूपी वस्त्र धारण कर अपना अभिनय करने के लिए उपस्थित होती है। प्रायः दुःख, अशान्ति के समय जब लोग परमात्मा से प्रार्थना करते हैं तो हाथ अथवा मुख ऊपर की ओर ही उठाते हैं क्योंकि जाने-अनजाने यह स्मृति परमपिता परमात्मा की है जो ऊपर परमधाम में निवास करते हैं । परम आत्मा का निवास स्थान होने के कारण यह परमधाम नाम से भी प्रसिद्ध है। यहां पर एक भ्रान्ति को दूर करने की आवश्यकता है कि प्राय: लोग ब्रह्मतत्व को ही परमात्मा मान बैठे हैं जो वास्तव में परमात्मा अथवा आत्माओं का रहने का स्थान है । जिस प्रकार प्रत्येक चमकने वाली वस्तु सोना नहीं हो सकती, उसी प्रकार प्रकाशवान ब्रह्म-ज्योति जो कि अविनाशी तत्व है उसे ज्योति स्वरूप चैतन्य परमात्मा मानना बहुत बड़ा भ्रम है । अतः ब्रह्म को परमात्मा मानना अथवा स्वयं को ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ समझना या ‘सर्वखलुविदम् ब्रह्म’ तत्व से योग लगाने वाली आत्माएं शक्तिशाली अथवा पावन नहीं बन सकती क्योंकि तत्व से आत्माओं को शक्ति नहीं प्राप्त हो सकती है।

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