
कार्य और जीवन के बीच संतुलन बनाए रखें
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परिस्थितियों के बिना जीवन जीने की आस रखना माना, वास्तविकता से परे एक काल्पनिक दुनिया में जीने की कोशिश करने जैसा है। इस आधार पर हम लोगों को दो श्रेणियों में बांट सकते हैं; एक हैं पोजिटीव सोच रखने वाले, जो परिस्थिति को छोटा बना देते हैं, दूसरी श्रेणी के लोग नेगेटिव सोच रखकर परिस्थिती को और बड़ा बना देते हैं। एक आसान स्थिति को कठिन या कठिन स्थिति को बहुत कठिन लगने का पहला कारण हमारी नेगेटिव धारणाएँ हैं, और ये चार पिलर पर टिकी होती हैं जोकि हैं चार प्रश्न – कैसे? क्यों? कब? क्या? याद करें कि, पिछली बार जब आपने एक कठिन परिस्थिति का सामना किया था, तो इन चार प्रश्नों में से कोई एक था या फिर इनमें से एक से अधिक प्रश्न उस स्थिति में मौजूद थे, जिनके अनुसार आपने धारणाएँ बनाई थीं। यदि यह चारों मौजूद थे, तो नेगेटिव धारणाएं सबसे मजबूत और बडी दिखती हैं। और निश्चित रूप से अन्य दो विस्मयबोधक चिन्ह (नेगेटिव रूप से आश्चर्यचकित होना) – अगर! और लेकिन!; ये दोनों नेगेटिव धारणाओं को और भी अधिक बढ़ा देते हैं, और इससे पहले कि आप जान पाएं, परिस्थिति उससे भी बड़ी दिखती है। दूसरी ओर, यदि हम पोजिटीव धारणाओं की सोच रखते हैं, तो हम इन प्रश्नों से ऊपर उठेंगे और इन दो विस्मयबोध शब्दों का निर्माण नहीं करेंगे। इसको ही यह सिचुएशन -प्रूफिंग कहा जाता है। माना कि एक सिचुएशन है, लेकिन मैंने खुद को सिचुएशन-प्रूफ कर लिया है। इसका मतलब है कि, मैं ऊपर बताये गये प्रश्नों और विस्मयबोध शब्दों से दूर रहकर, किसी भी तरह की नेगेटिव धारणा को मन में न रखते हुए, स्थिति के प्रभाव से परे जाता हूं।
जैसा कि हम सभी जानते हैं, हमारी एवेअरनेस की एनर्जी/ स्मृति- हमारे दृष्टिकोण/ वृति में प्रवाहित होकर उन्हें एक आकार देती है। और हमारे दृष्टिकोण की एनर्जी – हमारी धारणाओं में प्रवाहित होती है और फिर हम उस आधार पर अपने दृष्टिकोण से वास्तविक जीवन की परिस्थितियों को देखते हैं और उन्हें आकार देते हैं। अंत में, हमारी धारणाओं की एनर्जी हमारे शब्दों और कार्यों/ कृति में प्रवाहित होकर उन्हें एक आकार देती है। ये पूरा प्रोसेस हमारे दिमाग में घटित होता है और सिचुएशन-प्रूफिंग को समझने से पहले हमें इस प्रोसेस को पूरी तरह से समझना होगा, जिसे हम कल आने वाले संदेश के द्वारा जानेगें।
(कल जारी रहेगा…)
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