अंदर के 'मैं' का अहसास और अनुभव (भाग 2)

September 15, 2024

अंदर के ‘मैं’ का अहसास और अनुभव (भाग 2)

हम सभी को स्वयं को दूसरों के नजरिए से, दृष्टिकोण से देखने की आदत हो चुकी है, जो शारीरिक दृष्टिकोणों पर आधारित है और सांसारिक दृष्टिकोण से आच्छादित है। आज, हम स्वयं को उन सभी चीज़ों के लिए बहुत सम्मान के साथ देखते हैं जो हममें अच्छी हैं और जो लोग हमारे बारे में कहते हैं। और फिर जब अचानक कोई हमारी आलोचना कर देता है तो हम उदास हो जाते हैं और अपना मूड (मन की स्थिति) को खराब कर लेते हैं। यानि कि हम  अपने मन को दूसरे व्यक्ति की धारणाओ पर छोड़ देते हैं। यह सब इसलिए है क्योंकि हमने वास्तविक ‘मैं’ के अलावा अन्य चीज़ों से पहचान करना सीख लिया है। मान लीजिए कि, मैं अपनी विशेषताओं से पहचान करता हूँ, जैसेकि मैं एक अच्छा वाद-विवाद (वक्ता) करने वाला हूँ और इस विशेषता ने मुझे मेरी शैक्षनिक यात्रा के दौरान बहुत प्रशंसा दिलाई है। समय के साथ लोग आपकी नियमित रूप से प्रशंसा करने लगते हैं और ये पहचान और भी मजबूत हो जाती है। पहचान का मतलब है कि आप अपनी लगाव की चीज में इतने खो जाते हैं कि आप पूरी तरह से भूल जाते हैं कि यह असली आप नहीं है। इस स्थिति में, आत्मविश्वास के साथ वाद-विवाद (बोलने) की कला एक विशेषता है जो मेरे पास है, जिसका महत्व आसानी से तब खो सकता है अगर मेरे बड़े होने पर या स्कूल या कॉलेज से बाहर होने पर, मुझे इसे व्यक्त करने का मौका नहीं मिलता। तो, मेरी उस लगाव की वस्तु का क्या हुआ जो मेरी पहचान बन चुकी थी? और अगर इसके कारण मिलने वाली प्रशंसा अब उपलब्ध नहीं है तो अचानक, यह सब मेरे अगेंस्ट हो जाता है और वही वस्तु मुझे दुःख देने लगती है। ऐसी स्थिति में, क्या यह बेहतर नहीं होता कि, मैं शुरुआत में ही इस विशेषता से इतना अधिक लगाव नहीं रखता? क्योंकि जितनी अधिक पहचान, उतना ही अधिक दुःख अनुभव होता है।

 

इसलिए, उपरोक्त मामले में दुःख अनुभव न करने का एक सरल तरीका है कि जो कुछ भी हमारे पास है, उसके लिए खुश रहें और भाग्यशाली महसूस करें। साथ ही, बोलने की विशेषता के साथ, एक अलगाव का संबंध बनाए रखें, जैसेकि हम कैसे अपने शब्दों के माध्यम से खुद को व्यक्त करते हैं और अपनी आवाज़ के माध्यम से अपने विचारों को व्यक्त करते हैं। एक अलगाव का संबंध माना उस विशेषता में खुद को खोना नहीं है, बल्कि उसके साथ अपनी भूमिका निभानी है और शुद्ध गर्व का भाव रखना है कि मेरे पास यह एक विशेषता है। इसे आत्म-सम्मान भी कहा जा सकता है, लेकिन साथ ही उस विशेषता से अति प्रभावित न होना, लगाव न रखना भी बहुत जरूरी है। ऐसी सोच, मेरी इस उपलब्धि के साथ एक स्वस्थ संबंध स्थापित करेगी। भले ही, यह किसी भी क्षण कम हो जाए या पहले जितनी प्रशंसा न भी मिले, यह मेरे आत्म-सम्मान को कोई नुकसान नहीं पहुंचाएगा और ना ही मुझे किसी भी समय दुःखी करेगा।

(कल जारी रहेगा…)

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