कर्म का सिद्धांत कैसे कार्य करता है?

September 19, 2024

कर्म का सिद्धांत कैसे कार्य करता है?

हम सभी आत्माएं या आध्यात्मिक ऊर्जाएं हैं और विश्व रूपी नाटक में हम अनेक प्रकार के कर्म करती आयी हैं। हम सभी ने विश्व-नाटक में देह-अभिमान के प्रभाव में आकर कुछ सकारात्मक (अच्छे) कर्म किए हैं और कुछ नकारात्मक (बुरे) कर्म भी किए हैं। हममें से कुछ अपने कर्मों के प्रति अधिक सजग (सावधान) हैं और कुछ कम। ऐसा क्यों होता है? जब से हम विश्व-नाटक में कई जन्मों से गुजरते रहे हैं, हमने कई प्रकार के अनुभवों का सामना किया है, जिनका असर न केवल हमारे संस्कारों पर, बल्कि हमारे मन और बुद्धि पर भी पड़ा है। परिणामस्वरूप, जीवन के प्रति विश्वास, जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में, सकारात्मकता, पवित्रता, अच्छाईयां, आत्म-साक्षात्कार और परमात्मा के प्रति विश्वास, समय के साथ बदले हैं। इसके अलावा, हम सभी को कई प्रकार की जानकारी, कई अलग-अलग संबंधों, विभिन्न जीवन-दृश्यों का अनेक जन्मों में अनुभव हुआ है, जिसने हमारी चेतना को विभिन्न तरीकों से प्रभावित किया है और हमारे विचारों और धारणाओं को वर्तमान स्वरूप दिया है। यही कारण है कि आज कुछ लोग अपने प्रत्येक कर्म के प्रति अधिक सावधान रहते हैं और कुछ उतने सावधान नहीं रहते। लेकिन कर्म का सिद्धांत स्पष्ट है। आत्म-अभिमान और शांति, आनंद, प्रेम, पवित्रता, शक्ति और ज्ञान जैसे दिव्य गुणों के प्रभाव में किए गए कर्म हमें अधिक सुख और सकारात्मकता देते हैं और हमारे जीवन में बेहतर और अधिक सकारात्मक परिस्थितियों को आकर्षित करते हैं, जबकि देह-अभिमान और काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, घृणा और छल जैसे विकारों के प्रभाव में किए गए कर्म हमें दुःख देते हैं और हमारे जीवन में अधिक नकारात्मक परिस्थितियों को आकर्षित करते हैं।

 

एकमात्र परमात्मा ही ऐसे हैं जो इस विश्व-नाटक में अपनी भूमिका निभाते हुए हमेशा आत्म-अभिमानी रहते हैं। मनुष्य आत्माओं की तरह उन्हें अपने कर्मों का फल नहीं मिलता क्योंकि वह सदा ज्ञान, गुणों और शक्तियों के अपरिवर्तनीय सागर हैं और विश्व-नाटक में कभी भी नहीं बदलते हैं। वह सदा सम्पूर्ण रहते हुए सभी मनुष्य आत्माओं तथा प्रकृति को हमेशा देते रहते हैं और कभी भी किसी से या प्रकृति से कुछ भी नहीं लेते। लेकिन, मनुष्य आत्माएं, जब विश्व-नाटक चक्र के स्वर्ण और रजत युग से गुजरती हैं, तो आत्म-अभिमानी रहती हैं और विश्व-नाटक के ताम्र और कलियुग से गुजरती हैं, तो देह-अभिमानी हो जाती हैं। इसलिए पहले दो युगों में कोई दुःख नहीं होता और ताम्र युग से दुःख शुरू होता है और जैसे-जैसे विश्व-नाटक ताम्र युग से गुजरता है और कलियुग के अंत तक पहुँचता है, दुःख बढ़ता जाता है।

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