March 7, 2025

क्या हमें भावुक होना चाहिए या नहीं? (भाग 1)

हमारा जीवन अनेक उतार-चढ़ावों और विभिन्न परिस्थितियों से भरा हुआ होता है। ऐसे में स्वाभाविक तौर से, हम इन घटनाओं से भावनात्मक रूप से जुड़ जाते हैं और कभी हतोत्साहित या दुखी महसूस करते हैं, तो कभी अत्यधिक खुशी अनुभव होती है। क्या ये दोनों भावनाएँ सामान्य नहीं हैं? हम हमेशा से ही ऐसा ही सोचते आए हैं! अक्सर जब हम सड़क पर कोई दुर्घटना होते देखते हैं, तो हमें भी पीड़ा होती है या किसी भावनात्मक फिल्म को देखकर उसकी गहराई में बहकर हम रो देते हैं, तो क्या ऐसा करना गलत है? आखिर ये दोनों अनुभव जीवन से कैसे अलग किए जा सकते हैं? संसार ने हमें यही सिखाया है कि यह सब सही है। जब हम बड़े हो रहे थे, तब हम कभी दुख में और कई बार खुशी में रोए हैं। क्या आपने कभी अपने सबसे अच्छे दोस्त के जन्मदिन पर अत्यधिक भावुकता अनुभव की है? या जब आपके छोटे भाई या बहन को बुखार था, आप उनके दर्द को देखकर रो पड़े थे? हमारे माता-पिता ने हमें सिखाया कि यही जीवन है; भावनात्मक खुशी और दुख के मिश्रण से ही जीवन की तस्वीर बनती है। वास्तव में, हमने उन्हें उनकी दैनिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए ऐसा करते देखा और हमें लगा कि यह बिल्कुल सही है। आइए, एक पल रुककर सोचें! क्या मुझे बार-बार इस भावनात्मक झूले पर बैठना अच्छा लगता है? क्या मैं इससे मुक्त हो सकता हूँ?  

हम सभी जीवन की घटनाओं को इस दृष्टिकोण से देखते हैं कि हमें इससे कुछ हासिल करना है। लेकिन हम शायद ही कभी यह सोचते हैं कि हमें जीवन को कुछ देना भी है। प्रकृति में सूरज को ही देखें, उसकी विशेषता देना है, वह कभी कुछ लेने की इच्छा नहीं रखता। और यही उसे शक्ति से भरपूर बनाता है। आइए, इस गुण को अपने भीतर विकसित करें। यह हमें आंतरिक रूप से और भावनात्मक तौर पर शक्तिशाली बनाएगा और हम जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में हल्का, खुशहाल और संतुष्ट महसूस करेंगे। तो आज से, जीवन की हर परिस्थिति को कुछ देने की कोशिश करें। आत्मा के मूल गुण; शांति, प्रेम और आनंद से भरने का प्रयास करें। दूसरी ओर, यदि हम दूसरों से और परिस्थितियों से इन गुणों को पाने की कोशिश करेंगे, तो हम भावनात्मक रूप से कमजोर हो जाएँगे।  

(कल जारी रहेगा…)

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