महिला सशक्तिकरण का अनूठा कार्य
प्रकृति का शाश्वत नियम है रात के बाद दिन और दिन के बाद रात आने का। ठीक उसी तरह जब-जब मानव अपने धर्म-कर्म-मर्यादाओं से गिर जाता है तब-तब कोई न
साकार ब्रह्मा बाबा के जीवन पर जब मन की नज़र डालते हैं तो पाते हैं कि उन्होंने हर पल, हर श्वास दूसरों को दिया ही दिया। जो भी उनके संपर्क में आया, उसे उन्होंने चन्दन-सम जीवन की सुगंध दी, उसको पत्थर से पारस बना दिया। वे स्वयं तो महान और महामना थे ही परन्तु जो भी उनके संपर्क में आया वह भी कुछ-न-कुछ महानता लिए बिना ही खाली हाथ वहाँ से नहीं चला गया। मौका चाहे जो भी हो, बाबा उसका फायदा उठाकर, दूसरों को फायदा अवश्य पहुँचा देते थे। जैसे केले के पात-पात में पात छिपा रहता है, वैसे ही उनकी बात-बात में महान बात छिपी रहती थी।
बाबा के व्यक्तित्व की इस दिव्यता, महानता, पवित्रता और श्रेष्ठता ने ही हमें भी चुम्बक-सम आकर्षित किया। भक्ति मार्ग की अन्धश्रद्धा, मूर्ति पूजा, गुरु पूजा, स्वार्थ वृत्ति से थकी हुई आत्मा को जब बाबा के माध्यम से आत्मा, परमात्मा, तीनों कालों, तीनों लोकों और उच्च धारणाओं का तार्किक ज्ञान मिला तो एकदम इस तरफ आकर्षित हो गई। यह बाबा की अदभुत शिक्षा की कमाल थी कि बाबा ने अपनी ओर आकर्षित आत्मा को कभी अपने से नहीं जोड़ा वरन् उसे शिव बाबा से बुद्धियोग जोड़कर गति-सदगति प्राप्त करने का मार्ग दिखाया। जैसे कोई पतिव्रता सजनी सदा एक के ध्यान में खोई रहती है, इस लगन में अपनी सुध-बुध भूली रहती हे, उसी प्रकार बाबा भी हर कर्म करते, हर कर्त्तव्य का निर्वाह करते उस एक के याद-प्यार में डूबे रहते और बच्चों को भी इस अव्यभिचारी याद की प्रेरणा देते रहते।
मैं जब पहली बार मधुबन पाण्डव भवन में आया तो मैंने बड़ा मनोहारी दृश्य देखा कि 80 वर्ष की उम्र में बाबा, दादा विश्वरत्न के साथ क्रिकेट कोर्ट में खेल रहे थे। बाबा की स्फूर्ति और रूहानियत से चमकते चेहरे की ओजस्विता को मैं कैमरे में कैद कर लेना चाहता था, सदा के लिए अपने पास यादगार रूप में रख लेना चाहता था परन्तु कैमरे के क्लिक होने से पहले ही बाबा बोल उठे, बच्चे, शिव बाबा का चित्र तो इसमें आयेगा नहीं (वह तो निराकार है)। यह शरीर तो नश्वर है, इसके चित्र से क्या लाभ? कहने का भाव यह है कि प्यारे बाबा ने देह का चित्र खींचने या खिंचवाने में कभी रुचि नहीं ली। उनकी सदा यही शिक्षा रही कि हम देह, देह के चित्रों तथा देह की दुनिया से सदा ही पार रहकर, उस विदेही परमात्मा शिव की याद में, उनके गुणों के चिंतन में सदा समाये रहें। देह चाहे किसी की भी हो, चाहे साधारण की हो, चाहे महान व्यक्ति की, विनाशी है। विनाशी देह की स्मृति से अविनाशी प्राप्ति हो नहीं सकती। अविनाशी और सच्ची कमाई तो एक सत्य और अविनाशी पिता परमात्मा कौ स्मृति द्वारा ही संभव है। यह सत्य है कि चित्र, चरित्र की स्मृति दिलाता है परन्तु उस चरित्र को अपने में धारण करने की शक्ति भी तभी मिलती है जब हम विचित्र (निराकार परमात्मा शिव) से अपना बुद्धियोग लगाते हैं।
बाबा को जीवन में न मान-शान की लालसा थी और न खान-पान की कोई इच्छा। पाना था सो पा लिया और काम क्या बाकी रहा – यह स्वरालाप उनकी मन की वीणा पर सतत्, अन्दर-अन्दर ही होता रहता था। पैसे तो वे हाथ में लेते ही नहीं थे। सादगी की वे चैतन्य मूर्ति थे। एक बार जब वे पटियाला में आये तो हमने उनको फूलों के हार, स्वागत में देने चाहे परन्तु उन्होंने यह कहकर लेने से मना कर दिया कि यह तो पतित तन है, ये फूल-हार तो मम्मा को दो, वह फिर भी कन्या है। इस प्रकार स्वयं को बेकबोन बनाकर उन्होंने हर बात में मातेश्वरी जी को ही आगे रखा। देने में पहले मैं और लेने में पहले आप, यह उनके जीवन का मूल मंत्र था।
जिस प्रकार से किसी सांसारिक आदमी को देह-अभिमान का पाठ पक्का होता है वैसे ही विदेही अवस्था अथवा आत्मिक स्थिति उनके लिए सहज स्वभाव हो गई थी। वे कहा करते थे, बच्चे, एक-दूसरे के प्रति मित्रता निभाने की यही सच्ची रीति है कि एक-दूसरे को आत्मा और परमात्मा की याद दिलाओ। यदि कोई ब्रह्मा-वत्स क्लास में या अन्य किसी मौके पर कोई गीत-कविता आदि सुनाता तो उसमें जब तक शिव पिता की महिमा आती, वे सुनते रहते परन्तु ब्रह्मा की अर्थात् अपनी महिमा आते ही उसे बन्द करा देते और कहते, बच्चे, महिमा एक शिव बाबा की है, उसी को याद करो, मैं भी तो उसी की याद में रहता हूँ।
जब कोई उनसे मिलने आता तो उसे आत्मिक दृष्टि से देखते हुए उससे पूछते, बच्चे, किससे मिल रहे हो, यह कौन है, क्या इसे पहचानते हो, क्या आपको यह याद है कि मैं आत्मा हूँ? बच्चे, इस शरीर में आए हुए शिव बाबा से मिलो, यदि शिव बाबा को याद किए बिना ब्रह्मा की गोद ली तो पाप लगेगा। इस प्रकार वे निशिदिन शिव बाबा की प्रत्यक्षता और उनका ही परिचय देने में लगनशील रहते थे।
हर बात में उनका इशारा परमधाम में बसने वाले ज्योतिर्बिन्दु शिव की ओर ही होता। जैसे किसी सच्चे आशिक का मन और आँखें अपने माशूक में ही समाए रहते हैं, ऐसे वे शिव बाबा की स्मृति से एक पल भी जुदा न होते। इतना उच्च कोटि का त्याग करने के बाद भी वे अपने प्रदर्शन, महिमा, उपासना के बिल्कुल विरुद्ध थे। एक बार बाबा के निर्देश प्रमाण मैंने त्रिमूर्ति का फुल साइज का चित्र बनाया, उसमें ब्रह्मा-विष्णु-शंकर तीनों ही बड़े-बड़े आकार में बनाए गए थे। मधुबन आते समय मैं उसे साथ ले आया और हिस्ट्री हॉल में सेट करने लगा ताकि बाबा देख सकें। बाबा आए पर ज्यूँ ही उनकी नज़र ब्रह्मा के चित्र पर पड़ी, झट बोले, बच्चे, यह इतना बड़ा क्यों बनाया है? मैंने कहा, बाबा, जब विष्णु छह फुट का है तो ब्रह्मा भी तो बड़ा ही बनेगा ना। बाबा की इस बात से मैं समझ गया कि वे अपने को गुप्त रखकर शिव बाबा की महिमा में ही अपने को तथा दूसरों को आनन्दित रखना चाहते हैं।
उनके अव्यकत होने के बाद सेवाकेन्द्रों पर ब्रह्मा बाबा का चित्र लगाने की प्रथा चालू हुई जिसमें ऊपर में ज्योतिर्बिन्दु शिव तथा नीचे ब्रह्मा बाबा का चित्र लगाया जाने लगा। ब्रह्मा बाबा का हमारे पास कोई बढ़िया चित्र नहीं था। मैंने एक कलाकार से उनके चेहरे का रंगीन फोटो तैयार करवाया और शिवाकाशी से भिन्न-भिन्न आकार में छपवाए। चित्र इतने सुन्दर बने कि देखकर मन गद्गद हो उठा परन्तु मधुबन में जब दादी-दीदी को चित्र दिखाए तो उन्होंने भी यही पूछा कि इनको क्यों छपवाया है? जब मैंने कहा कि चित्र प्रदर्शनी लगाते समय इन चित्रों की ज़रूरत पड़ती है तो उन्होंने एतराज नहीं किया। कहने का भाव है कि आरंभ में, दादियाँ भी साकार चित्रों को इतना महत्त्व नहीं देती थीं, उनके प्रचार-प्रसार के पक्ष में नहीं थीं।
ब्रह्मा बाबा तो कहते ही थे, बच्चे, एक आँख में मुक्ति और दूसरी आँख में जीवन्मुक्ति रखो। देह तो कब्रदाखिल होने वाली है। क्षणभंगुर और नाशवान देह को देखते हुए भी इसके भान में न आओ। यह शरीर काम विकार से पैदा हुआ है, पुरानी जुत्ती की तरह से है, इससे क्या दिल लगाना? बच्चे, यदि देह से दिल लगाओगे तो अपना स्वर्गिक राज्य-भाग्य गँवा बैठोगे। बाबा की इस शिक्षा को ध्यान में रखते हुए हमें भी देह, देह के संबंधों और देह के पदार्थों से उपराम रहते हुए अब निर्वाणधाम लौटने की तैयारी करनी है। अत: ज़्यादा-से- ज़्यादा उन्हीं चित्रों का प्रयोग करें जिनमें सेवा समाई हो। देहभान और लगाव को उत्पन्न करने वाले चित्रों से दूर रहकर अपने भविष्य चित्र को संवारने में समय लगायेंगे तो ही विकर्म विनाश होंगे, शिव बाबा के दिल पर चढ़ सकेंगे और प्रभु स्मृति से श्रेष्ठ गति को प्राप्त करते हुए सच्चे अर्थों में प्रभु-प्यारे हो जायेंगे।
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ये वृतान्त सन् 1953 का है। तब इस ईश्वरीय विश्व विद्यालय का मुख्यालय भरतपुर के महाराजा की ‘बृजकोठी’ में स्थित था। यह कोठी आज भी माउण्ट आबू में, वर्तमान बस
Whilst in Karachi, Brahma Baba taught knowledge to the growing family of children, teaching through example as much as through precept. And with the power of meditation (yoga), the souls
हम हृदयंगम करते (दिल से कहते ) हैं कि भगवान हमारा साथी है। भगवान हमारा साथी बना, उसने कब, कैसे साथ दिया यह अनुभव सबको है। एक है सैद्धान्तिक ज्ञान
अपने दिन को बेहतर और तनाव मुक्त बनाने के लिए धारण करें सकारात्मक विचारों की अपनी दैनिक खुराक, सुंदर विचार और आत्म शक्ति का जवाब है आत्मा सशक्तिकरण ।
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