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Baba with jagdish bhaiji

भ्राता जगदीश चन्द्र जी एवं ब्रह्मा बाबा

ये वृतान्त सन् 1953 का है। तब इस ईश्वरीय विश्व विद्यालय का मुख्यालय भरतपुर के महाराजा की ‘बृजकोठी’ में स्थित था। यह कोठी आज भी माउण्ट आबू में, वर्तमान बस अड्डे से कोई डेढ़ फर्लांग आबू रोड़ की ओर है। उस कोठी के एक हिस्से का नाम था – ‘सरदारी कोटर्स। उसके ऊपर की मंजिल में बड़े-बड़े कमरों में बहुत बड़ी-बड़ी चारपाइयाँ ही पड़ी थी। एक दिन की बात है कि रात्रि को बाबा उस कमरे में लेटे हुए वे ईश्वरीय जीवन, ईश्वरीय ज्ञान इत्यादि की मीठी-मीठी बातें हम 5-7 उपस्थित जनों से काफी देर तक बड़ी सहृदयता और बड़े वात्सल्य से करते रहे थे। उन बातों से आत्मा को बड़ा सुख अनुभव हुआ और उनको सुनते- सुनते योग में ऐसी स्थिति हुई कि मन करता था श्रीमुख से यह चर्चा होती रहे ताकि ये आत्मा आज पूर्णतः घुलकर योग की उच्चतम पराकाष्ठा का पारावार पा ले । इतने में ही जो वरिष्ठ बहनें मेरे साथ बैठी थीं, उन्होंने कहा “जगदीश भाई, अब चलो बाबा को आराम करने दो; काफी देर हो गयी है। मैं मन अफ़सोस कर रह गया। अपने प्रियतम के आराम में खलेल कैसे डाल सकता था ? बाबा ने मुस्कराते हुए चितवन से कमल नयनों को विशेष आभा देते हुए मेरी ओर निहारा और में उस चित्र को मन के फ्रेम में जड़कर वहां से प्रस्थान करने लगा। विचित्र दशा थी। मन जाना नहीं चाहता था बुद्धि जाने का निर्णय देती थी और टांगे इस असमंजस, में थीं कि वे मन की बात मानें या बुद्धि की। लाचार चल रहा था परन्तु चलते समय भी ऐसा अनुभव होता था कि आज पांव पृथ्वी पर नहीं है (छत पर भी नहीं हैं), बल्कि मैं स्वयं को प्रकाश के एक समुद्र में, विदेह अवस्था में अनुभव करता था। एक अजब सरूर को लिये हुए धीरे-धीरे नीचे उत्तर आया। नीचे कुछ कमरे थे जिन्हें ‘धोबी क्वार्टर’ कहते थे क्योंकि वहां दो कमरों में कपड़े प्रेस करते थे। उसके निकट ही कई खाली कमरे थे। मैं उसी ओर बढ़ रहा था क्योंकि उस रात्रि को मेरे शयन की वहाँ व्यवस्था थी। जब में बाहर आकर चल रहा था तो चांदनी की सफेद छटा छिटक रही थी। उसने मेरी उस प्रकाशमय स्थिति को और बल दे दिया। इतने में मैं अपने कमरे तक आ पहुंचा। यहाँ आकर कुछ देर अपनी चारपाई पर इसी मस्ती में बैठा रहा क्योंकि उस स्थिति में नींद का तो नाम ही नहीं था। आखिर कब तक बैठा रहता ? उसी कमरे में वहीं लेट गया।

अपनी आँखों और अपने कानों पर एतबार भी नहीं हो रहा था
परन्तु बाबा की वह तस्वीर भुलाये नहीं भूलती थी। उस मौन चित्र से मेरे मन में ऐसे आवाज़ आती कि “बच्चे, ये तुम्हें विदा कर रहे हैं। तुम इन्हें जाने दो और अभी तुम भी चले जाओ, फिर मैं तुम्हारे पास आऊंगा।” बस, यही अव्यक्त आवाज भीतर के कानों में गूंजती रही। वही मुस्कान भीतर की आंखों के सामने आती रही और वही बन्द होठ कुछ बोलते हुए सुनायी देते रहे और वहीं नयन कुछ इशारा करते हुए महसूस होते रहे। इस अजब हालत में समय गुज़रते पता भी नहीं चला परन्तु सोचने से ऐसे लगा कि तब रात्रि के 12:30 या 1:00 का समय हो गया होगा क्योंकि लगभग 11 बजे तो मैंने बाबा के यहाँ से प्रस्थान किया था। इतने में देखता क्या हूं कि अकेले बाबा उस कमरे में मेरे सामने आ खड़े हुए हैं और प्यार से पुचकार कर कह रहे हैं क्यों बच्चे, नींद नहीं आ रही ?” बाबा को देखकर मुझे बेहद – ख़ुशी भी हुई और साथ-साथ मुझे अपनी आंखों और अपने कानों पर एतबार भी नहीं हो रहा था। मैंने थोड़ा उठने की कोशिश की कि बाबा की ओर बढ़े परन्तु बाबा ही मेरे सिरहाने की ओर बढ़े और मस्तक पर हाथ रखते हुए बोले “बच्चे, अब सो जाओ, फिर सुबह मिलेंगे। “काश, मुझे वह शिष्टाचार भी नहीं आया कि उठकर बाबा के कमरे तक साथ चला जाता परन्तु यह बाबा का ही प्रभाव था कि बस, यादों में खोये हुए मुझ पर धीरे-धीरे नींद ने अपनी चादर डाल दी। बस, इसके बाद जब प्रातः उठा तो रात का वो दृश्य फिर याद हो आया और मैंने सोचा कि हमारे बाबा, शिव बाबा के माध्यम होने से दोनों किस प्रकार हमारी याद से अपनी याद का तार जोड़े हुए हैं और किस प्रकार वह करुणाकर एक नाचीज़ बच्चे के याद करने पर उसके प्यार की डोरी से खिंचे चले आते हैं और अपने वरद हस्तों से उसे दुलार देकर सुलाते हैं। यह सब तो अनुभव की बात है, परन्तु इससे यह भी तो स्पष्ट हुआ कि ज्ञान और प्रेम की डोरी द्वारा बाबा से याद की तार कैसे जोड़ी जा सकती है।

इसीलिए ही तो मैं जगा रहता था
इसी प्रकार के अनुभव कई बार हुआ करते थे। मैं पाण्डव भवन में पहले जब कभी भी जाया करता था तो नये भवन का कुछ हिस्सा बन जाने पर मेरे रहने की व्यवस्था प्रायः उसी कमरे में होती थी जिस कमरे में अभी निर्वैर भाई रहते है। सामने ही बाबा का कमरा था। रात को क्लास इत्यादि समाप्त होने के घण्टे दो घण्टे बाद तक भी बाबा के कमरे की लाइट जग रही होती थी तब मैं भी प्रायः अपनी लाइट का स्विच ऑफ नहीं करता। बहुत बार ऐसा होता था कि बाबा लच्छू बहन, सन्देशी बहन, सन्तरी बहन या जवाहर बहन, जो उन दिनों वहां बाबा के साथ होती थीं. को कहते “देखो, जगदीश के कमरे की लाइट जग रही है ?” बहुधा तो जग ही रही होती थी तो बाबा उन्हें कहते – “अच्छा, उसे बुला लाओ ।” इसीलिए ही तो मैं जाग रहा होता था। जब मैं बाबा के कमरे में पहुँचता तब कई बार खड़े-खड़े ही दूसरे दिन के लिए कुछ आवश्यक निर्देश दे देते और कभी-कभी अपनी चारपाई पर बिठा देते और जिस बात के लिए बुलाया होता, यह बात भी करते रहते और कई बार साथ में लिटा कर ही ईश्वरीय बातें करते रहते। ऐसा भी होता कि प्रातः कभी मेरी यदि ढाई बजे या तीन बजे नींद खुल जाती तो खिड़की में से झाँक लेता कि क्या बाबा के कमरे की लाइट हो रही है और में पाता कि प्रायः लाइट जग रही होती थी तो मैं भी अपनी लाइट का स्विच ऑन कर देता। शीघ्र ही बाबा के कमरे से बुलावा आ जाता। इस प्रकार, कभी 3 बजे, कभी 3-30 बजे, कभी 4 बजे एकान्त और शान्ति के समय में साकार रूप में भी बाबा से रूहरिहान करने का सौभाग्य प्राप्त होता था।

– ब्र.कु जगदीश चंदर हसिजा

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