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February 20, 2025
प्रत्येक आत्मा का मूल संस्कार शांति है। जब आत्मा पहली बार पृथ्वी पर जन्म लेने के लिए आती है, उससे पहले वह सोल वर्ल्ड में पूर्ण शांति की अवस्था में रहती है। उस अवस्था में आत्मा की दो प्रमुख फैकेल्टी; मन और बुद्धि पूरी तरह से निष्क्रिय होती हैं जबकि तीसरी फैकेल्टी; संस्कार या आध्यात्मिक व्यक्तित्व, शाश्वत शांति और पवित्रता से भरा हुआ होता है। वहाँ आत्मा को आनंद, प्रेम या ज्ञान का कोई अनुभव नहीं होता। मन पूरी तरह से मौन रहता है। वह न तो विचार करता है और न ही कोई नया संकल्प उत्पन्न करता है। बुद्धि; जो सही और गलत विचारों, शब्दों और कर्मों में भेद करने की शक्ति रखती है, वह भी निष्क्रिय रहती है, क्योंकि वहाँ कोई विचार, शब्द या कर्म नहीं होते, जिन्हें अलग-अलग किया जा सके।
जब आत्मा पहली बार सतयुग में एक भौतिक शरीर धारण करती है, तो वह कम लेकिन आवश्यक और सकारात्मक विचार उत्पन्न करती है। उस समय उसकी निर्णय क्षमता पूरी तरह से सक्रिय और सटीक होती है, जिससे आत्मा केवल सही विचार, शब्द और कर्मों का निर्माण करती है। उसकी कल्पनाशक्ति भी सकारात्मक होती है, और उसके सभी विचार और कर्म दिव्य एवं शुद्ध गुणों पर आधारित होते हैं। इस कारण, आत्मा अपार शांति का अनुभव करती है, हालाँकि वह शांति सोल वर्ल्ड की गहरी शांति से थोड़ी कम होती है। लेकिन फिर भी, आत्मा इस अवस्था में कभी अशांत नहीं होती। लेकिन जैसे-जैसे आत्मा जन्म-मरण के चक्र में आगे बढ़ती है और त्रेतायुग के बाद द्वापरयुग और फिर कलियुग में प्रवेश करती है तो देह अभिमान के प्रभाव से उसकी आध्यात्मिक ऊर्जा कम होने लगती है। इस कारण, उसका मन, बुद्धि और संस्कार कभी-कभी नकारात्मक रूप से कार्य करने लगते हैं। आत्मा धीरे-धीरे विकारों के प्रभाव में आने लगती है, जिससे उसकी सोचने, बोलने और करने की शक्ति प्रभावित होती है। इसके परिणामस्वरूप, आत्मा अपनी गहरी और शाश्वत शांति को खोने लगती है, जो उसने सोल वर्ल्ड और भौतिक दुनिया की यात्रा के प्रारंभ में अनुभव की थी, और धीरे-धीरे अशांत होती चली जाती है।
कल हम जानेंगे कि हम अपनी मूल शांति की अवस्था को फिर से कैसे अनुभव कर सकते हैं।
(कल जारी रहेगा)
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