मैं यह समझता हूँ कि मैं कितना सौभाग्यशाली हूँ! कई दफ़ा गद्गद हो जाता है मन। रात को नींद टूट जाती है। वो मूरत मम्मा की और बाबा की सामने आ जाती है। सृष्टि के आदिपिता, प्रजापिता ब्रह्मा, सारी सृष्टि के प्रथम, जिनको सब धर्म वाले भी आदिपिता मानते हैं, उनके अंग-संग रहने का मौका मुझे मिला। उन्होंने अपने हाथों से प्यार और दुलार किया, अपने हाथों से मुझे भोजन खिलाया, बच्चों की तरह से प्यार किया, वो दिन कैसे थे ! बाबा तो कहते हैं कि बच्चे, मैंने बाँहें पसार रखी हैं, अव्यक्त स्वरूप में मुझ से मिलो। अव्यक्त स्वरूप में मिलती हैं संदेश पुत्रियाँ, गुलजार बहन जैसी बहनों को दिव्य दृष्टि से साक्षात्कार होता है। सेमी ट्रांस में तो हम भी जाते हैं लेकिन वो नज़ारे कुछ और थे। आप से सच कहता हूँ, वो नज़ारे कुछ और थे। वो क्या देखा हमने ! बार-बार याद आता है कि वो कैसे प्यारे नज़ारे थे!
बाबा के ट्रांसलाइट तो हम देखते हैं, बाबा के चित्र हरेक कमरे में लगे रहते हैं और आजकल कला का विकास हुआ है, अच्छे-अच्छे चित्र बनते हैं। कैमरे भी अच्छे आ गये हैं। उनमें फोटो का रंग हल्का, तेज जैसा चाहे कर देते हैं लेकिन वो जो बाबा को हमने देखा, जो दृष्टि उनसे ली, वो भूलता नहीं है! योग में बाबा हमारे सामने बैठे हैं, हम बाबा के सामने बैठे हैं, बाबा हमको दृष्टि दे रहे हैं। सचमुच ऐसा लगता था कि हम सागर के नीचे उतर रहे हैं। ऐसा अनुभव कौन करायेगा? फिर कब होगा? क्या ड्रामा के वो दिन हमेशा के लिये चले गये? वो फिर नहीं आयेंगे क्या? फिर 5000 वर्ष के बाद ही आयेंगे क्या? मन कई दफ़ा रोने को आता है। आँखों से आँसू आने को होते हैं, संभाल लेते हैं, चुप हो जाते हैं हम । ऐसा नहीं, हम बाबा से बिछुड़ गये। बाबा तो हमारे साथ हैं। बाबा भी कहते हैं, मैं आपके साथ हूँ लेकिन वो जो दिन थे, वो तो बहुत ही प्यारे दिन थे। वो प्यार और दुलार जो बाबा ने दिया, उसके मुकाबले और कुछ भी नहीं है।
वो दिन भूल नहीं सकते
दो-ढाई फुट की एक छोटी-सी टेबल होगी जिस पर बाबा खाना खाते थे अपने कमरे में। उस कमरे में बाबा की कुर्सी होती थी। सामने हमें बिठा लेते। कहते थे, बच्चे, आओ, खाना खाओ । बाबा चावल खा रहे हैं, चावल में मूंग की दाल मिली हुई है। खिचड़ी बनी हुई है, उसमें पापड़ को तोड़कर मिलाके अपने हाथ से खिला रहे हैं। वो दिन, वो दिन भूल नहीं सकते। बाबा देख रहे हैं, दृष्टि दे रहे हैं। लोग मानते हैं कि ब्रह्मा ने सृष्टि रची। इतना तो मालूम है लेकिन क्या सृष्टि रची, कैसी रची, रचना की विधि क्या थी – वो नहीं मालूम। लोग समझते हैं कि हमारे शरीर के कान, आँख, नाक जो हैं, इन्हें ब्रह्मा जी ने बनाया। कबीर यह कहता है कि हे प्रभु! हे ब्रह्मा! आपने हमारी आँखें ऐसी क्यों बनाई जो झपकती हैं? “अखियाँ तो छायी पड़ी पंथ निहार-निहार ..।” कहता है, “आँखें तो मेरी बिछी हुई हैं उस पिया के मार्ग में, उसकी याद में। उसको देखने में लगी हुई हैं। मन करता है कि आँखें झपकें नहीं, अपलक होकर देखती रहें।”
बाबा ने शरीर छोड़ा, बाबा अव्यक्त हुए। जहाँ शान्ति स्तम्भ है, वहाँ पर दाह संस्कार हो रहा था, शरीर को अग्नि-समर्पित किया जा रहा था। मैं खड़ा था। एक वो दिन था जब बाबा की गोद में जाता था। कम-से-कम 100-150 दफ़ा बाबा की गोद में गया हूँगा। बाबा ने गले से लगाया, गालों को थपथपाया, सिर पर हाथ फिराकर प्यार किया और इतना दुलार दिया। आज वो शरीर, जो एक चुंबक की तरह था, समाप्त हो जायेगा! क्या, उसके द्वारा फिर मिलन हो सकता है? जब बाबा हाथ लगाते, स्पर्श करते माथे पर, सिर पर तब ऐसा लगता था कि हम मालामाल हो गये। हमें और क्या चाहिए! वो अनुभव फिर कैसे होंगे! अभी उन हाथ, पाँव, पूरे शरीर को अग्नि को समर्पित कर दिया जायेगा, बस पूरा हो गया वह साकार का पार्ट! मैं आपको सच कहता हूँ, उस समय मन में संकल्प आया कि बाबा के साथ में मैं भी लेट जाऊँ। अब अपने इस शरीर को रखने का कोई उद्देश्य नहीं है। जब बाबा जा रहे हैं तो मैं भी उनके साथ जाऊँ, ऐसा मन करता था। फिर मन को ब्रेक लगाता था कि दुनिया कहेगी, क्या यह पागल है! यह क्या करता है! एक खेल में दूसरा खेल हो जायेगा।
ये सारे दृश्य कैसे भूल जायें?
कुछ स्थितियों में यह भी अनुभव किया कि बाबा ने अपने साथ भी लिटा लिया अपनी शय्या पर, अपने कमरे में, जहाँ अब भी एक चारपाई है, उस चारपाई पर। मैं उसको कभी जाकर चूम लेता हूँ, यह वो चारपाई है जहाँ पर बाबा लेटे रहते थे। मुझे भी साथ में लिटाया हुआ है, कुछ सुना रहे हैं, कुछ पूछ रहे हैं, दृष्टि दे रहे हैं, प्यार कर रहे हैं। ये सारे दृश्य कैसे भूल जायें! वो जो दिन थे, वो जो लोग थे उनमें क्या बात थी! बाबा ने किसी को स्पर्श किया तो उसको ऐसा लगता था, ये विकार हमेशा के लिए मेरे मन को छोड़ गये। इतनी शीतलता थी। जैसे कहते हैं ना, “संत बड़े परमार्थी, शीतल जिनके अंग, औरों को शीतल कर दें, दे दे अपना रंग।”
ओहो! मम्मा की गोद में हम जाते थे, कितने लोग अपना अनुभव सुनाते हैं। सिर्फ यह मेरा ही अनुभव नहीं है कि जब मम्मा की गोद में हम गये, हमें सुधबुध नहीं रही। हम कहाँ थे उस समय! वो कौन मम्मा थी जो हमें इतना प्यार कर रही थी! वो जगत की अम्बा, सरस्वती मैया जिसको भक्त जन्म-जन्मान्तर याद करते हैं, जिसको विद्या की देवी मानकर उससे विद्या माँगते हैं, शीतलता के लिए शीतला देवी के रूप में उसका गायन करते हैं, उस संतोषी माता की गोद में हम थे, उसने हमारे सब पापों को हर लिया। हमें इतना शीतल कर दिया कि अब हमारे मन में कोई प्रश्न ही नहीं उठता। हमको बहुत सहज लगा पुरुषार्थ करना बाबा और मम्मा के संग से।
बाबा कितने गुप्त रहे! अपने को कभी प्रत्यक्ष नहीं कराया
हम भगवान के बच्चे हैं, उनके हाथों से पालना ली है लेकिन सच में मैं बताऊँ कि बाबा कितने गुप्त रहे! अपने को कभी प्रत्यक्ष नहीं कराया। हमेशा मम्मा को आगे रखा। कितना मम्मा का सम्मान किया! जिस मम्मा को स्वयं ज्ञान देने के निमित्त बने। जब मम्मा किसी और शहर में जाती, बाबा उनको स्टेशन पर छोड़ने जाते। क्या ज़रूरत थी? हम बच्चे तो जाते ही थे लेकिन बाबा स्वयं छोड़ने जाते। ईश्वरीय सेवा करके मम्मा जब वापस आती थी, उनका स्वागत करने जाते थे गेट के पास।
अपने से छोटे, जो अपनी ही रचना हैं उनको भी बाबा कितना रिगार्ड देते, आगे रखते! बाबा हरेक को पहचानते हैं, उनका ड्रामा में क्या पार्ट है, इस बात को समझते हैं। और कौन है जो इन बातों को समझता है? मुझे अपना स्वयं का अनुभव है, बाबा ने मुझे समझा और पहचाना। किसने मुझे समझा और पहचाना? मैं था ही क्या? दुनिया की निगाह में मैं क्या था? न कोई लेखक था, न कोई धनी था, न कोई गणमान्य व्यक्ति था, न कोई मशहूर आदमी था। कुछ भी नहीं था। लेकिन भविष्य बनाने वाले और सबके पार्ट को जानने वाले तो बाबा ही हैं। बाबा ने किन-किन बच्चों को पहचान कर, उनको क्या-क्या पार्ट दिया और क्या-क्या उनसे करवाया, आश्चर्य लगता है।
वो ऐसे संस्मरण हैं जो अनमोल हैं
जब कभी (साकार बाबा के साथ बिताए हुए) वो दिन याद आते हैं, रह- रहकर याद आते हैं तो फिर वो दृश्य, वो बातें सामने आती हैं। वो सारी फिल्म मन के सामने घूम जाती है। वो ऐसे संस्मरण हैं जो अनमोल हैं। उसके मुकाबले में और कुछ नहीं। जब हम वो सोचते हैं तो ऐसा लगता है कि अब हम कहाँ हैं? आपने देखा होगा कि बुजुर्ग लोगों के साथी शरीर छोड़-छोड़कर चले जाते हैं और वे बुजुर्ग युवाओं के बीच रहने लगते हैं। उनको यह तो अनुभव होता है कि ये जवान हैं, उत्साहशील हैं, उनको देखकर खुशी तो होती है लेकिन साथ-साथ ऐसा भी महसूस होता है कि हमारे ज़माने के लोग तो चले गये। वो अब नहीं रहे। ऐसे फ़रक तो पड़ता है। उन दिनों में पुराने लगभग वही बहनें भाई थे जो ओम मंडली में आये थे, परिवार के परिवार समर्पित हुए थे।
अजीब रिश्ते-नाते यज्ञ में
एक सौभाग्य मुझे मिला, उन सबसे मिलने का। बाबा की जो लौकिक पत्नी थी उनके साथ बैठके हमने बाबा की सारी बातें सुनीं। बाबा की जो लौकिक बहू बृजेन्द्रा दादी थीं उनसे भी सुनीं। बाबा की लौकिक बच्ची निर्मलशान्ता से भी सुनीं। बाबा की एक लौकिक बहन थी वो भी वहाँ रहती थी, मम्मा की लौकिक माँ भी थी। सब से मैं मिला। मम्मा की लौकिक माँ भोग लगाती थी। मुझे यही आश्चर्य हुआ, जब पहली बार मैं वहाँ गया कि मम्मा की माँ भी मम्मा को माँ कहती थी। माँ अपनी बेटी को माँ कहती थी। मुझे अजीब-सा लगा, आश्चर्य लगा कि यह क्या बात है! यहाँ तो सब आत्मिक नाते से, ज्ञान के नाते से रहते हैं और व्यवहार करते हैं। शरीर का नाता तो नहीं है। एक अजीब बात देखने में आई कि बाबा की जो धर्मपत्नी है, वो भी बाबा को बाबा कहती है। अज्ञान काल में जिसको पति के रूप में देखा करती थी, उसको बाबा कहती है। सिर्फ कहने में नहीं, उनके व्यवहार में, उनके चलन में यही अनुभव होता था कि बाबा को बाबा समझकर चलती है। यह सब देखने का था। धीरे-धीरे वो सब चले गये। नये-नये लोग आते रहे और काफिला बढ़ता गया, बढ़ता गया और कितना बड़ा काफिला अब हो गया! अब शान्तिवन में जायें, ज्ञान सरोवर में जायें, पाण्डव भवन में जायें, विश्वभर के सेवाकेन्द्रों पर जायें, कितना काफिला बढ़ गया है! बाबा के बच्चे कितने हो गये हैं! वो सब तो हो गये हैं लेकिन जो बाबा, मम्मा, दादियों और बड़े भाइयों के साथ दिन गुज़ारे वो तो फिर नहीं आयेंगे। हमें तो उनकी याद आती है।
पत्र पढ़कर मेरे पाँव के नीचे से जमीन खिसक गई
मुझे ज्ञान में चलते हुए थोड़े ही दिन हुए थे। दो-डेढ़ महीने ही हुए होंगे। बाबा का पत्र आया। लाल अक्षरों में सिंधी में लिखा हुआ। सिंधी मैं पढ़ लेता था क्योंकि उर्दू जानता था। उर्दू और सिंधी की लिपि एक ही होती है, थोड़ी मेहनत की जाये तो सिंधी भाषा को समझ सकते हैं। पत्र में बाबा ने लिखा हुआ था, “बच्चे, क्या इस बूढ़े बाप को मदद नहीं दोगे? इस नई सृष्टि की स्थापना में इस बूढ़े बाप को मदद नहीं दोगे?” पढ़कर ज़मीन मेरे पाँव के नीचे से खिसक गई। मुझे ऐसा लगा कि यह कौन कह रहा है! सृष्टि का आदिपिता जिसमें स्वयं सर्वशक्तिमान शिवबाबा आता है और दोनों करन-करावनहार हैं, हम मनुष्य क्या हैं उनके आगे? मैं आपको सही कहता हूँ कि अभी तो योग लगाना सीख रहा था। बाबा की वो चिट्ठी पढ़ते-पढ़ते ही योग में था। लाइट में था, मैं खड़ा हूँ या बैठा हूँ, मेरे हाथ में चिट्ठी है या नहीं- यह पता ही नहीं था। मैं तो ऐसा महसूस कर रहा था कि मैं प्रकाश में हूँ। यह कौन कह रहा है! क्या कह रहा है! यह कितना नम्रचित्त है! सृष्टि स्थापना के लिए कैसे किसको निमित्त बनाता है! उस समय इतना अधिक सोचा ही नहीं होगा, शायद आज इतना सोच रहा हूँ या बाद में सोचा होगा लेकिन उसको पढ़ते-पढ़ते ऐसा लगा कि मैं लाइट स्वरूप हूँ और लाइट में हूँ। पहले इस तरह की योग की कॉमेन्ट्री नहीं होती थी। योग के लिए ऐसा नहीं था कि कुछ विधिपूर्वक एक हफ्ता, दस दिन, बारह दिन आपको अधिक स्पष्ट किया जाये। प्यार बाबा का ऐसा था, बाबा का परिचय ऐसा था, उससे स्वयं देह से न्यारे हो जाते और महसूस करते थे कि हम तो योग में ही हैं। आनन्द में, शान्ति में डूबे हैं। यह संसार हमसे ओझल हो गया है। हम किसी नई दुनिया में हैं जो प्रकाश की दुनिया है।
नारायण से बड़ा कौन?
एक बार बाबा आये क्लास कराने तो प्रश्न किया बच्चों से कि हमारा क्या लक्ष्य है? बाबा हमें कितना ऊँचा पद देता है? इससे और ऊंचा पद कोई होता है क्या? क्लास में एक भाई बैठा था। वह बाबा का दूर के संबंध का पोता लगता था। वो थोड़ा मज़ाकिया आदमी था। बाबा को लौकिक दादा समझकर प्यार करता था। उसने हाथ उठाया। बाबा ने पूछा, हाँ बच्चे, कुछ कहना है? उसने कहा, लक्ष्मी-नारायण से बड़े और भी होते हैं। बाबा ने कहा, अच्छा वो कौन हैं? उसने कहा, देखिये, जो नारायण है, वो बाल कटाता है तो सिर झुकाता होगा नाई के आगे। तो बड़ा नाई हुआ जिसके आगे नारायण भी सिर झुकाता है। कहता है, मैं हज्जाम बनूँगा। हज्जाम तो नारायण से भी बड़ा है क्योंकि नारायण को भी उसके सामने माथा टेकना पड़ता है। सब खूब हँस पड़े। बाबा भी हँसे। ऐसे समय प्रति समय बाबा हँसा भी देते थे और प्यार भी करते थे। बाबा हम बच्चों को हँसते-हँसाते ज्ञान देते थे। वो दिन कितने प्यारे थे और न्यारे थे!
किस डॉक्टर की बात सुनूँ
एक बार बाबा को शुगर की मात्रा बहुत बढ़ गई थी और ब्लड प्रैशर भी था। डॉक्टर ने कहा कि बाबा बहुत जल्दी उठते हैं, दिन में रेस्ट (विश्राम) भी करते नहीं, आप इनको रेस्ट दिया करो, इनको रेस्ट लेने के लिए कहो। मुझे याद है, उस समय मैं मधुबन में ही था। दीदी मनमोहिनी जी और दो-चार भाई-बहनों ने मिलकर बाबा से कहा कि “बाबा आप अमृतवेले योग में नहीं आइये। आप तो रात को देरी से सोते हैं और विश्व सेवा के बारे में सोचते रहते हैं। जब भी हम आपके कमरे में आते हैं, आप जागते रहते हैं। आप दिन-रात योग तो लगाते ही हैं। इसलिए थोड़े दिनों के लिए कृपया सुबह अमृतवेले योग में मत आइये। “बाबा ने कहा, “बच्ची, तुम क्या कहती हो? अमृतवेले न उठूँ? यह कैसे हो सकता है? उस आलमाइटी बाबा ने हमारे लिए समय दे रखा है, उसको कैसे छोडूॅं?” उन्होंने बाबा से फिर बहुत विनती की कि बाबा डॉक्टर कहते हैं, आपको विश्राम लेना बहुत जरूरी है। बाबा ने कहा, “बच्ची, मैं किस डॉक्टर की बात सुनूँ? यह डॉक्टर कहता है, अमृतवेले रेस्ट करो, वो सुप्रीम डॉक्टर कहता है, अमृतवेले उठकर मुझे याद करो। मैं किसकी बात मानूँ? मुझे सुप्रीम डॉक्टर की बात ही माननी पड़ेगी ना! इसलिए मैं अमृतवेले रेस्ट नहीं कर सकता”, ऐसे कहकर बाबा ने उनकी बात को इंकार कर दिया। दीदी जी ने नहीं माना। उन्होंने कहा कि बाबा डॉक्टर ने बहुत कहा है इसलिए आप कम से कम दो-तीन दिन मत आओ। हमारी यह बात आपको माननी ही पड़ेगी। बहुत ज़िद करने के बाद बाबा ने कहा, “अच्छा बच्ची, सोचूँगा।” जब रोज़ के मुआफिक हम अमृतवेले जाकर योग में बैठे तो बाबा भी चुपके से आकर योग में बैठ गये। देखिये, बाबा ने अपनी ज़िन्दगी में एक दिन भी अमृतवेले का योग मिस नहीं किया। कैसी भी बीमारी हो, कितनी भी उम्र हो, उन्होंने ईश्वरीय नियमों का उल्लंघन नहीं किया।
उन दिनों कितने सेवाकेन्द्र थे! मुश्किल से 10-15 होंगे। जब मैं ज्ञान में आया था, कोई भी सेन्टर नहीं था सिवाय दिल्ली, कमला नगर के। पहला जो सेन्टर खुला विश्व भर में वो कमला नगर सेन्टर था, जहाँ हम रहते थे। दादी जानकी वहीं रहती थी, मनोहर दादी भी रहती थीं, दीदी मनमोहिनी जी भी वहीं रहती थी। इकट्ठे हम रहते थे। छोटी-सी जगह थी लेकिन हम इकट्ठे रहते थे, इकट्ठे खाते-पीते थे, इकट्ठे सेवा करते थे। वो कितने अच्छे दिन थे! तब से इन दादियों के साथ हमारा संबंध है। सन् 1951 में ये सब सेवा में आ गये, सन् 1952 में हम भी आ गये। सेवा तो लगभग इकट्ठी शुरू की। उससे पहले ये कराची या हैदराबाद में रहे।
अगर अपनी कहानी सुनाऊँ, हैदराबाद भी मैं गया था
अगर मेरी सारी कहानी सुनाऊँ, वहाँ भी मैं गया। मैं पढ़ता था कॉलेज में और बहुत मन में आता था, “हे भगवान! आपसे मिलन कब होगा? मेरे जीवन की यही इच्छा है। मैं तो भटक रहा हूँ दुनिया में। जैसे किसी को कोई कमरे में बंद कर दिया जाये, मैं अपने को समझता हूँ कि इस संसार में किसी ने मुझे जेल में बन्द कर दिया है। मुझे निकालता क्यों नहीं? मिलता क्यों नहीं?” रोता था कई दफा। एक दफा जब बहुत तीव्रता में चला गया तो अंदर संकल्प आया कि हैदराबाद-सिन्ध की तरफ जाओ, कराची की तरफ जाओ। मैं हैदराबाद-सिन्ध की तरफ चल पड़ा। वहाँ पर सफेद कपड़ों वाली बहनों को देखा। वहाँ वैसे भी बहुत सारी सिन्धी बहनें पजामा और कुर्ता जैसा कुछ सफेद पहनती थीं। उनको मैंने देखा। कुछ झलक जैसी लगी। लेकिन कुछ समझ में नहीं आया। कुछ स्पष्ट बताया तो नहीं था। ये तो जैसे टचिंग हुई थी, उस टचिंग की वजह से मैं वहाँ गया था। तीन-चार दिन तक बिना बताये घर से मैं भाग गया इस ख्याल से कि मैं भगवान से मिलने जा रहा हूँ। घर वाले मुझे ढूँढ़ते रहे। वहाँ मुझे कुछ नहीं मिला। देखकर वापस आ गया। वापस आने के बाद राजनीति शास्त्र की कुछ किताबें पढ़ीं तो उनमें जानकारी मिली कि सिन्ध में ओम मण्डली थी, सरकार ने यह किया, वह किया। मैंने फिर लोगों से पूछना शुरू किया कि ओम मण्डली क्या थी? सरकार ने ऐसा क्यों किया इत्यादि इत्यादि। लोगों को पूरा पता नहीं था। खैर, जो कुछ भी है, बहुत लंबी दास्तान है। उसके बाद तो मैं ज्ञान में आ गया।
बाबा ने ज्ञान के बहुत साक्षात्कार कराए
जिगर से कहता हूँ, बाबा ने जो प्यार इस आत्मा को दिया, वो शायद ही किसी-किसी को प्राप्त हुआ हो। बाबा ने ज्ञान के बहुत साक्षात्कार कराए, ज्ञान के भी साक्षात्कार होते हैं। जैसे दिव्य दृष्टि में हम कई चीजें देखते हैं, वैसे ही दिव्य बुद्धि से भी बहुत-से साक्षात्कार होते हैं। इस आत्मा को कितनी ही बार वो साक्षात्कार समय-समय पर हुए हैं। बापदादा ने जो वरदान दिए और उनके साथ जो हमने क्षण, घंटे, दिन, वर्ष गुज़ारे वे अविस्मरणीय हैं। कई बार लगता है, उनका वर्णन करें तो उनसे बाप की ही प्रत्यक्षता है। कई बार ऐसा भी लगता है कि उनमें व्यक्तिगत बातें भी हैं, फिर मन में एक रुकावट आती है कि उनको लिखने का कोई लाभ नहीं है। लेकिन वो यादें तो आती ही हैं कि किस तरह बाबा ने हमें अकेले में बिठाकर काफी-काफी समय तक योग का अभ्यास कराया। साहित्य की वजह से उनसे ज्ञान के विषय में जब चर्चा होती थी तो ज्ञान की गहराई में जाने का भी मौका मिलता था। जब कोई बात लिखकर उनके सामने ले जाते थे, कई शब्दों पर किस प्रकार चर्चा होती थी, सर्विस के बारे में बाबा क्या इशारे देते थे, कौन-सी बातें मुख्य रूप से उनके सामने रहती थीं, जब हम खेलते थे, तब कैसा बाबा का रूप रहता था, ये सब विभिन्न चरित्र हैं बाबा के।
कुछ भाई लोगों ने एक प्रश्न पूछा, जो शरीर से पुरुष हैं, उन्हें कैसे भगवान के साथ सजनी के संबंध का अनुभव हो सकता है? हो सकता है, इस आत्मा को भगवान के साथ सर्व संबंध अनुभव करने का सौभाग्य मिला। माता के साथ, पिता के साथ, सखा के साथ जो उसके साथ सर्व संबंध गाए गए हैं, उन सबका आध्यात्मिक रूप से अनुभव करने का मौका मिला। एक दफा नहीं, कई दफा। गीता पढ़ते हैं तो अंत में आता है, इस ज्ञान को पुनः पुनः स्मरण करके मेरा मन गद्गद होता है। तो वो अनुभव भी जब पुनः पुनः हमारे सामने आते हैं तो मन गद्गद होता है।
वो मेरा सिकिलधा पिता है, सिकिलधी माँ है
मैंने, भक्तिमार्ग के माध्यम से परमात्मा को खोजने के लिए, जो मेरे से हो सकता था, किया। मैं हर दिन प्रातः दो बजे उठकर, नहा-धोकर भक्ति किया करता था। शायद ही किसी धर्म का कोई मुख्य शास्त्र हो जो मैंने ना पढ़ा हो। शायद ही किसी धर्म का कोई प्रमुख नेता हो, जिसके साथ मैंने वार्तालाप न किया हो। किसी भी प्रकार की कोई भी साधना किसी ने बताई हठयोग, तंत्र, मंत्र, यज्ञ, हवन, माला, जाप, तीर्थयात्रा, वेद, पुराण, शास्त्र, चर्च-मस्जिद- कोई भी बात ऐसी नहीं जो हमने ना की हो। एक खोज थी, कसक थी कि इसी जीवन में परमात्मा को पाना है। बहुत बार टचिंग हुई, थोड़ा-थोड़ा अनुभव भी हुआ, घरवालों को बिना बताए मैं हैदराबाद भी गया, इसलिए कि कोई मुझे खींच रहा था। मैंने ओममण्डली की चर्चा अपने बड़े भाई से करने की कोशिश की। ऐसे अनुभव बहुत हुए कि बाबा हमें खींच रहा है, हमारी तैयारी करा रहा है किसी विशेष सेवा के लिए पर स्पष्ट पता नहीं था। जैसे बाबा कहता है, मेरे सिकिलधे बच्चे, मेरे भी जिगर से निकलता है, सिकिलधा बाबा। मैंने भी उसको बहुत सिक से पाया है। कितनी मेहनत मुझे शिव बाबा को प्राप्त करने के लिए करनी पड़ी। मेरे जिगर से निकलता है, वो मेरा सिकिलधा पिता है, सिकिलधी माँ है, मुझ आत्मा के, उनके साथ सर्व संबंध हैं। जब मैं आया, बाबा का प्यार मुझसे कितना था! हालांकि कई पुराने भाई-बहनें थे परंतु वे भी जानते हैं कि बाबा का मुझ पर कितना स्नेह था।
बाबा का मुझमें जो विश्वास था या जो हमारा बाबा में था, मैं समझता हूँ वह अभिन्न प्रकार का था। जब मैं इस ईश्वरीय विश्व विद्यालय में आया तो यहाँ समर्पण की कोई परंपरा नहीं थी। सिन्ध में जो भाई-बहनें समर्पित हुए थे, उस समय परिस्थितियाँ और थीं। लोगों ने विरोध किया था, उन पर अत्याचार हुए थे, उन्हें ज्ञान सुनने की इजाज़त नहीं दी गई थी, उन पर बंधन डाले गए थे, इस वजह से कुछ भाई-बहनें समर्पित किये गये थे और बाबा ने कन्याओं को शिक्षा देने के लिए हॉस्टल बनाया था।
मेरे समर्पण से नया सिलसिला शुरू हुआ
जब पहले-पहले मैंने अपने को ऑफर किया कि जीवन का लक्ष्य मुझे मिल गया, मैं ईश्वरीय सेवा में समर्पित होना चाहता हूँ तो मुझे भी कहा गया कि किसलिए समर्पित होना चाहते हो। तो मेरे समर्पण से नया सिलसिला शुरू हुआ, इससे पहले बहनों भाइयों के समर्पण का कोई प्रावधान नहीं था। फिर बाबा ने भी बहुत प्यार से मुझे उठाया, सर्विस दी, दिशानिर्देश दिये।
हर पोस्ट में तीन-तीन पत्र आते थे
उन दिनों मैं देहली में था, वहाँ तीन पोस्ट आती थीं। हर पोस्ट में मुझे तीन- तीन पत्र आते थे। एक पत्र लिखकर बाबा जब लिफाफा बंद करा देते तो ईशू बहन को कहते, फिर चिट्ठी लिखनी है, इसके बाद तीसरी भी लिखाते। एक पोस्ट में तीन पत्र होते। इस प्रकार, तीन बार की पोस्ट में आठ-आठ या नौ-नौ पत्र हमें आते। ऐसा प्यार मैंने बाबा का पाया है। बाबा के साथ महीनों बैठकर ज्ञान की चर्चा करने का, योग का अभ्यास करने का तथा सेवा के दिशानिर्देश लेने का भी मौका मिला है।
बाबा कहते, जब तुम आते हो, शिवबाबा इसमें आता है।
बहुतों को याद होगा, जब मैं बाबा के पास जाता था, बाबा सबको हटा देते थे, कहते थे, जगदीश बच्चा आया है। बाबा कहते, जब तुम आते हो, शिवबाबा इसमें आता है। जब बाबा ऐसे कहते, मेरा भी ध्यान जाता कि बापदादा दोनों हैं। बाबा कहते, आप डायरेक्शन लेने आते हो, ज्ञान की कोई चर्चा करने आते हो तो उसको बताने के लिए शिवबाबा ब्रह्मा तन में प्रवेश करता है। मैं भी उसी स्थिति में बाबा के सामने बैठता कि शिवबाबा, ब्रह्मा के तन में है और उस अव्यक्त स्थिति में, फ़रिश्ता स्थिति में बापदादा मेरे सामने बैठे हैं। हम दोनों लाइट से घिरे हुए हैं और मन की ऊँची स्टेज है। योग जैसी अवस्था में बैठकर हम बातें करते। कोई आता, जाता उसका कोई भान न रहता। मन बहुत गद्गद रहता। खुशी होती कि जो हमने मेहनत की है उसका बापदादा ने हमको फल दिया है। हमारे पर उनकी अतिरिक्त कृपा है।
निमित्त बनने से आत्मा का सौभाग्य बन जाता है।
मुझे भरतपुर तथा कोटा हाउस में रहने का भी मौका मिला। मैं अकेला रहता था, बाबा ने मुझे अकेली जगह दी हुई थी कि इसका मंथन का कार्य है और इसके साथ कोई और नहीं रहना चाहिए। इस बच्चे का कमरा अकेला हो, जगह भी अकेली हो। कई बार तो बाबा कहते, देखो, उधर पहाड़ियों में गुफा है, तुम वहाँ चले जाया करो। दोपहर, शाम को मैं कई बार चला भी जाता। मैंने पहाड़ी का भी बहुत अच्छा लाभ लिया है। बाबा ने ज्ञान-योग आदि सब तरह से बहुत कुछ दिया है। इस आत्मा पर बाबा की छाप लगी हुई है। कठिन से कठिन समस्या आती जैसे कि झगड़ा, विरोध, सामना तो बाबा का पत्र, फोन या आदेश आता कि जगदीश को भेज दो। बाबा का कितना विश्वास था! मदद तो बाबा की होती है पर करने वाले का नाम और कल्याण हो जाता है। करते तो बाबा हैं क्योंकि करन-करावनहार वे ही हैं पर निमित्त बनने से आत्मा का सौभाग्य बन जाता है।
बाबा के साथ रहने का मुझे जो मौका मिला वो कोई कम नहीं मिला। ये बहनें तो सेन्टर पर चली जाती थीं सेवा करने के लिए। मैं तो रहता ही बाबा के पास था। कहीं सेवा के लिए बाबा भेजते थे तो जाता था। उस समय बहुत थोड़ी-सी सेवा थी, थोड़ी-सी मुरलियाँ निकलती थीं, वो हाथ से सिन्धी में लिखी जाती थीं। उन दिनों सिन्धी जानने वाली ही टीचर्स थीं, वे ही सुनाती थीं।
उनका मेरे से अनन्य प्यार है, मेरा उनसे अनन्य प्यार है।
मेरे ख्याल में, शुरू-शुरू में 10-15 साल तक कोई एक भी मुरली ऐसी नहीं होगी जिसमें बाबा ने मुझे याद न किया हो, जगदीश बच्चे को याद न किया हो। दस-पंद्रह साल तक लगातार। जो पुरानी बहनें हैं उनको मालूम है, जैसे गुलजार दादी हैं, मनोहर दादी हैं, जानकी दादी हैं। ये पढ़ते थे मुरली, कहते थे बाबा ने इसको याद किया है। बाबा से हम मिलने जाते थे, तब कोई बहनें बैठी हों, बाबा से बात कर रही हों तो बाबा बहनों को कहते थे, बच्चे, अब आप जाओ। सबको भेज देते थे, फिर मेरे से बात करते थे। कई दफा इनको एतराज़ होता था कि बाबा, यह क्या करते हो। हम बात कर रहे हैं, हमको बाहर भेज दिया, अब इससे बात कर रहे हो, हँसी में कहते थे। बाबा कहते थे, जब यह बच्चा आता है, शिवबाबा मेरे में प्रवेश करता है, उनको कुछ डायरेक्शन देने होते हैं इसको। अभी तुम जाओ बेशक, अभी इसको बात करने दो। ऐसा सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ, बाबा की ऐसी पालना मिली। रोम-रोम में बाबा के कितनी प्रीत थी! ऐसा महसूस होता था कि केवल मैं ही बाबा को याद नहीं करता, बाबा भी मुझे बहुत याद करते हैं, मेरे साथ उनकी बहुत घनिष्ठता है। उनका मेरे से अनन्य प्यार है, मेरा उनसे अनन्य प्यार है।
पुरानी बहनें हैं, बहुत पवित्र हैं
शुरू से मेरी यह इच्छा थी कि बाबा और मैं, तीसरा बीच में कोई नहीं – ऐसा मिलन हो। ऐसा मिलन होता भी रहा। ऐसा अनुभव किया। बाबा ने मुझे इतना प्यार किया, इतना प्यार किया कि योग लगाने में क्या कठिनाई? ये जो पुरानी बहनें हैं, ये बहुत पवित्र हैं, इसलिए उनमें कुदरती प्यार है ही। ये रहमदिल हैं, हरेक के प्रति इनकी बहुत शुभ भावना है। जब मैं आया था, मैं तो कुछ भी नहीं था। इन्होंने ही पालना दी। इन्होंने ही मुझे आगे बढ़ाया, मार्गदर्शन किया। स्वाभाविक है, इनके उगाये हुए फूल हैं हम, तो ये हमारी रखवाली तो करेंगे, स्नेह तो देंगे। ऐसा हमारा जीवन प्यार का, मम्मा, बाबा और बड़े भाई-बहनों के साथ व्यतीत हुआ। बहुत-से लोग पूछते हैं कि योग कैसे लगायें, योग कैसे लगायें? एक ही सूत्र (फार्मूला) है योग का कि प्यार करो, प्यार करो; बाबा से तीव्रतम प्यार करो। बस, यही योग है।
निरक्षरी भट्टाचार्य
भारत में एक फिल्म आई थी, उन दिनों दीवार पर लिखा जाता था फिल्मा का नाम। एक बहन जब देहली से मधुबन जाती थी तो उन फिल्मों का नाम बाबा को बताती थी, कहती थी बाबा, आजकल यह फिल्म आई हुई है। बाबा का फिल्म से क्या संबंध है? यह तो विरोधात्मक वस्तु है ना। लेकिन बाबा फिर उस पर समझाते थे। आपने देखा होगा कि दुनिया के जो गीत हैं उनका भी बाबा ने कितना अच्छा आध्यात्मिक अर्थ बताया है! तो एक फिल्म आई थी, ‘अनपढ़’, दूसरी थी, ‘मैं चुप रहूंगी’। बाबा ने कहा, ‘मैं अनपढ़ हूँ और मैं चुप रहूंगी’ ये तुम्हारे ऊपर लागू होता है। ये फिल्में तुम्हारे कारण बनी हैं। बूढ़ी-बूढ़ी मातायें हैं, और कुछ पढ़ नहीं सकती हैं, गाँव से आती हैं, निरक्षर भट्टाचार्य हैं। भट्टाचार्य का अर्थ है बड़े विद्वान। बूढ़ी- बूढ़ी मातायें हैं निरक्षर भट्टाचार्य। अक्षर नहीं जानतीं लेकिन बड़ी विद्वान हैं क्योंकि ऊँचे-से-ऊँचे बाप को जानती हैं।
जब मैं ज्ञान में आया था तब बाबा ने कहा, बच्चे की बुद्धि में भूसा भरा हुआ है। मैं देखने लगा कि भूसा कहाँ भरा हुआ है, निकालूँ उसको। एक भूसा होता है जो गाय-भैंस को खिलाने के काम आता है, यह जो उल्टे ज्ञान वाला भूसा भरा है वो बिल्कुल फेंकने वाला भूसा है। यह गाय-भैंस के काम भी नहीं आता। यह सड़ा हुआ भूसा है। सड़ा हुआ भूसा गाय के आगे चारा बनाकर रख दो, वो सूँघके भूखा रहना मंजूर करती है लेकिन खाती नहीं है। हमारी बुद्धि में जो सारा उल्टा ज्ञान फँसा हुआ है, यह भूसा है, वो भी सड़ा हुआ। मैंने सोचा, यह तो मुश्किल काम हो गया सड़े हुए भूसे को निकालना। इस तरह, बाबा की बातें बहुत अजीब और अनोखी होती हैं।
प्रेम की भी पीड़ा होती है
विदेश में एक समर्पित ब्रह्माकुमारी बहन से मैंने पूछा, आप ‘प्रेम गली’ में गुजरी हो? उसको उतनी हिन्दी नहीं आती थी तो उसने समझा कि प्रेम गली कोई गली का नाम होगा। एक अन्य बहन से उसने पूछा, ‘प्रेम गली’ कहाँ है? मैंने कहा, कोई बात नहीं, प्रेम गली का नहीं पता, प्रेम की पीड़ा, प्रेम के दर्द का अनुभव हुआ है? उसने पूछा, प्रेम से दर्द क्यों होता है? पास में जो बहन थी, उसने कहा, देखो, मीरा का गीत है ‘मैं तो प्रेम-दीवानी, मेरा दर्द न जाने कोई।’ है ना यह गीत मीरा का!
प्रेम का दर्द होता है। प्रभु-प्रेम की यह आग बुझाये न बुझे। यह प्रेम की आग सताने वाली याद होती है। जिसको यह प्रेम की आग लग जाती है, फिर यह नहीं बुझती। प्रभु-प्रेम की आग सारी दुनियावी इच्छाओं को समाप्त कर देती है। एक गीत में भी है कि “हे प्रभु, आपका मुझसे जो प्यार है, आपसे मेरा जो प्यार है, उसको एक आप जानते हो और एक मैं जानता हूँ, और न जाने कोई।” आपको लगता है, बाबा से मेरा प्यार ऐसा है? बाबा भी हमसे इतना प्यार करता है, हमारे बिना बाबा भी रह नहीं सकता। बाबा को नींद नहीं आती। भगवान नींद नहीं करता। क्यों? क्योंकि बच्चों से उसका इतना प्यार है, उनको याद करता है तो सोयेगा कैसे? यह एक बात भी हमारे ध्यान में आ जाये – प्यार, प्रभु का प्यार। उसका मुझसे प्यार है, मेरा उससे प्यार है, तो भी कल्याण हो जाये।