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Bk nirwair bhai ji anubhavgatha

बी के निर्वैर भाई जी – अनुभवगाथा

मैंने मम्मा के साथ छह साल व बाबा के साथ दस साल व्यतीत किये। उस समय मैं भारतीय नौसेना में रेडियो इंजीनियर यानी इलेक्ट्रोनिक इंजीनियर था। मेरे नौसेना के मित्रों ने मुझे आश्रम पर जाने के लिए राजी किया था। वहाँ बहनजी ने बहुत ही विवेकपूर्ण और प्रभावशाली तरीके से हमें समझाया। चार दिन बाद हमें योग करवाया। योग का अनुभव बहुत ही शक्तिशाली व सुखद था क्योंकि हम तुरंत फरिश्ता स्टेज में पहुँच गये थे।

सेमी-ट्रांस का अनुभव

शुरू में हमें यह अद्भुत-सा लगा कि योग में आँखें खोलकर, भकुटि के बीच में कैसे देखें और मुझे काफी संकोच-सा हुआ परन्तु दो मिनट बाद जब जादुई मंत्र – “मैं एक पवित्र आत्मा हूँ, शान्त स्वरूप आत्मा हूँ व मेरा संबंध परमपिता परमात्मा से है”, की पुनरावृत्ति हुई तो मेरा मन बहुत शांत हो चुका था और मेरे लिए यह एक बहुत मीठा अनुभव था। मुझे तो ऐसा लगा कि पूरा कमरा सफेद लाइट से भर गया है। कारपेट भी जो लाल रंग का था, सफेद नजर आने लगा। यह मेरे लिए एक सेमी-ट्रांस का अनुभव था। सेवाकेन्द्र में जाते लगभग चार सप्ताह ही हुए थे कि मम्मा के वहाँ आने का सौभाग्य हमें मिला। हमें उनकी मुम्बई की यात्रा का पूरा-पूरा लाभ मिल सके, उसके लिए उनके विशेष प्रवचनों का प्रबन्ध करवाया गया। प्रत्येक शाम 5 से 6 बजे तक मम्मा की क्लास हुआ करती थी। मम्मा के मुंबई में रहने से हमारी नींव बहुत मजबूत हो गयी। मम्मा क्लास सीधा नहीं शुरू करवाती थीं। मुरली के पहले योग हुआ करता था जो अपने आप में एक मधुर अनुभव था। हम लोग मम्मा से पूछा करते थे कि आप हमारे मन के प्रश्नों को कैसे जानती हैं। वे कहती थीं कि मैं तो सिर्फ योग में बैठती हूँ और जो भी मेरे मन में आता है उसे बोल देती हूँ। मुझे यह ज्ञान इतना रमणीक लगा कि मुझे जो कोई भी मिलता था, मैं उससे पूछा करता था कि आपको मन की शांति अनुभव करने की इच्छा है? आप आत्मा व परमात्मा के बारे में जानने के इच्छुक हैं? प्रायः जवाब ‘हाँ’ ही होता और चूंकि सेवाकेन्द्र पास में ही था, मैं उनको इन्चार्ज बहन जी से मिलवाता था। इस प्रकार एक मास में करीब 40 स्टूडेण्ट हो गये थे और 8 सीनियर स्टूडेण्ट हो गये थे।

बाबा के प्रेम-पत्र

ये सब समाचार बाबा को पत्र द्वारा भेजे जाते थे। उन दिनों डाक विभाग की सेवा बहुत अच्छी थी। प्रति शाम मुम्बई से पत्र लिखा जाता था और अगले दिन मधुबन में मिल जाता था। रोज़ कोई न कोई रेल में जाकर पत्र छोड़ आता था। दूसरी तरफ, बाबा का भी मुरलियों द्वारा पत्र-व्यवहार बहुत अच्छा चलता था। मैं बाबा को रोज़ पत्र लिखा करता था। हम दोनों ने आपस में ऐसे पत्र लिखना शुरू कर दिया जैसे कि प्यार होने पर कोई आपस में लिखते हैं। बाबा अपनी कहानियाँ लिख कर मुझे प्रेरित करते थे और मैं बाबा को लिखे बिना रह नहीं सकता था। यदि मैं दो पेज लिखता था तो बाबा मुझे चार पेज लिखा करते थे और मैं यदि चार पेज लिखता तो बाबा छह। बाबा के पत्रों में नई मुरलियों के प्वाइंट हुआ करते थे। इस तरह पिताश्री हम बच्चों की ज्ञान-रत्नों से पालना किया करते थे ताकि हमारा आध्यात्मिक पुरुषार्थ बढ़ सके।

बाबा से प्रथम मिलन

सन् 1959 में (ज्ञान में चलने के 6 मास बाद) मेरा पहली बार मधुबन आना हुआ। मुझे ब्रह्मा बाबा के द्वारा शिवबाबा से सम्मुख मिलन मनाना था। बाबा से यह मुलाकात इतनी प्रेरणादायक व प्रभावशाली थी कि मैंने अपने भविष्य का निर्णय उसी वक्त ले लिया था। जब हम बाबा के कमरे में गए तो हमने देखा कि बाबा एक गद्दी पर बैठे हैं और दूसरी तरफ मम्मा बैठी हुई हैं। वहाँ कोई बोलने की बात थी नहीं अतः गहन शांति और बाबा की शक्तिशाली दृष्टि ने मुझे एकदम अशरीरी बना दिया और मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि मैं इस दुनिया से दूर कहीं जा रहा हूँ। बाबा के मुख-मण्डल से शांति के प्रकम्पन व लाल प्रकाश की किरणें निकलने का मुझे स्पष्ट अनुभव हो रहा था। यह शक्तिशाली अनुभव किसी भी दुनियावी अनुभव से अलग था। करीब छह-सात मिनट तक मेरा और बाबा का मन ही मन वार्तालाप चलता रहा। मुझे संकल्प आ रहे थे कि हाँ बाबा, आप अब इस दुनिया को परिवर्तित करने के लिए आ गये हैं। अब तो मैंने आपको साकार में सम्मुख देख लिया है और मेरा यह बाकी जीवन आपको ही समर्पित है। कुछेक क्षणों बाद मुझे ऐसी खींच हुई कि मैं बाबा की गोद में जाकर बैठ गया। बाबा मुरली में कहते भी हैं कि जब तक बच्चे बाबा की गोद नहीं लें, वर्सा प्राप्त नहीं कर सकते। वर्सा तो सभी ब्रह्मा-वत्सों को मिलता है परन्तु यह मेरे लिए साकार बाबा द्वारा संगम का वर्सा था।

मन लालायित था बाबा को सुनने के लिए

मैं बाबा से मिलकर बेहद खुश था। बाबा ने हमसे पूछा कि क्या यात्रा सकुशल व आरामदायक रही? वास्तव में बाबा क्या बोले, यह महत्वपूर्ण नहीं था परन्तु बाबा की आवाज सुनने को मन बेहद लालायित था। उन दिनों टेप द्वारा रिकार्डिंग व वीडियो जैसे साधन नहीं थे। अमृतवेले योग भी नहीं हुआ करता था। सुबह 5:45 पर योग होता था व 6 बजे मुरली शुरू होती थी। क्लास पूरा होने पर हम बाबा व मम्मा से, मम्मा के कमरे में मिलते थे। चूंकि हम बहुत ही कम स्टूडेण्ट थे, हमें रोज़ बाबा से बहुत ही शक्तिशाली दृष्टि मिल जाती थी। सोचना भी नहीं पड़ता था। सेकण्ड में नशा चढ़ जाता था और हम खुशी से नाच उठते थे। बाद में हम भोजन पर अथवा पिकनिक पर जाते थे। कभी-कभी बैडमिन्टन खेलते थे।

 

बाबा कहते थे कि ईश्वरीय जीवन का यह मतलब नहीं है कि हर समय पढ़ते ही रहो, इसका खेल के साथ संतुलन होना चाहिए। शाम को आठ बजे से पौने नौ बजे तक क्लास हुआ करती थी। शुरू में मम्मा वत्सों की रूहानी अवस्था के समाचार पूछती थीं और यह भी पूछती थीं कि आपसे कोई गलती तो नहीं हुई ? बाबा के आने के पहले करीब 10 मिनट तक मम्मा संबोधित करती थीं।

समय पर दिए सहयोग का बाबा को गहरा अहसास

सन् 1959 में ही बाबा का मुम्बई आना हुआ। एक सज्जन ने बाबा को एक सुंदर अपार्टमेण्ट, जो मुम्बई के अच्छे इलाके में स्थित था, जब तक चाहें रहने को दिया। इस अवसर पर मैंने नेवी से छुट्टी लेकर कुछ दिन मुम्बई में बाबा के साथ बिताने का निश्चय किया। छठे दशक के प्रथम वर्षों में यज्ञ आर्थिक रूप से बड़े ही कठिन दौर से गुज़र रहा था और एक दिन ऐसा भी आया कि भण्डारी में सिर्फ पच्चीस पैसे ही रह गए थे। भोजन खाने वाले काफी लोग थे। तो निमित्त बहन ने बची हुई धनराशि के बारे में बाबा को अवगत कराया। बाबा ने तुरंत कहा कि चिन्ता मत करो, केवल ग्यारह बजे तक इन्तजार करो। ग्यारह बजे डाक आया करती थी। बाबा का विश्वास इतना पक्का था कि वे हमेशा कहा करते थे कि यज्ञ शिवबाबा का है, ब्रह्मा बाबा का नहीं। शिवबाबा ने ही इसको बनाया है, उन्हीं को इसका संचालन करना है, हमको कोई चिन्ता नहीं है। जब डाक आयी तो उस दिन एक हजार रुपये मनीआर्डर से आये। बाबा ने दिल से शुक्रिया अदा किया उस आत्मा का जिसने ऐसे वक्त में अपने धन को सफल किया। मुझे याद है कि वह एक बाँधेली बहन थी जो कि मुम्बई में रहती थी। बाबा समय पर सहयोग देने का रिटर्न कई गुणा देते थे। जब उस माता का युगल सुबह घूमने जाता था तो वो बाबा को फोन लगाती थी और बाबा उसे फोन पर मुरली सुनाते थे। कभी-कभी तो 45 मिनट भी फोन पर लग जाते थे। कुछ भाई-बहनें नियमित रूप से इस टेलिफोन क्लास के नोट्स लेते थे। हम सभी भी नोट्स लेते थे। आवश्यकता के समय दिये सहयोग का बाबा को गहरा अहसास था।

बाबा ने ज्ञान-दान करना सिखाया

बाबा कहते थे कि बच्चे, जब तक कोई ईश्वरीय सेवा नहीं करो, तब तक आपको नाश्ता नहीं करना चाहिए। तो मैं मुरली खत्म होने के बाद पास के पार्क में सेवा के लिए जाया करता था। एक बार मैंने किसी आत्मा को त्रिमूर्ति के बारे में समझाया परन्तु जल्दबाज़ी में गोलमाल करके समझाया। जिसको ज्ञान समझाया, वो क्रिश्चियन थी। उसने ब्रह्मा बाबा की तरफ संकेत करके पूछा कि ये कौन व्यक्ति हैं। मैंने ब्रह्मा, विष्णु व शंकर का परिचय दिया और कहा कि ब्रह्मा के द्वारा परमात्मा नई दुनिया की रचना करते हैं परन्तु उस बहन की बुद्धि में यह स्पष्ट नहीं हुआ कि यह कार्य अभी ही हो रहा है। जब मैं वापस बाबा के पास आया, तो रोज़ की भाँति, ज्ञान-चर्चा के दौरान जो हुआ वो बाबा को बताया। बाबा सुनकर, ज्ञान कैसे देना चाहिए, यह हमें समझाते थे। इस बात को मैंने जब बताया तो बाबा ने कहा कि तुम्हें बोलना चाहिए था कि सर्वोच्च परमपिता परमात्मा अब ब्रह्मा बाबा के द्वारा ज्ञान दे रहे हैं और यदि तुम ऐसा कहते तो वह आत्मा बाबा से वर्से का जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्त कर लेती। मैंने बाबा से क्षमा चाही और अगले दिन एक अन्य बुजुर्ग भाई ने जब यही प्रश्न पूछा तो मैंने ब्रह्मा बाबा का स्पष्ट परिचय देते हुए कहा कि अब इन्हीं के द्वारा परमात्मा ज्ञान सुना रहे हैं। उसने पूछा कि बाबा अब कहाँ हैं? मैंने कहा कि मुम्बई में ही है, तो उस आत्मा ने बाबा से मिलने की इच्छा जाहिर की। मैंने कहा कि बाबा से समय लेकर अगले दिन आपको बता देंगे। अगले दिन शाम को वह बाबा से मिलने आया। बाबा ने उसको पास बिठाया और कहा कि आप भी बाबा की तरह ही हो, एकदम पिता की तरह। बाबा का तन भी पुराना है और आपका तन भी बाबा की तरह पुराना है। साधारणतया गुरु लोग अपने चेलों आदि को पास में नहीं बिठाते परन्तु बाबा ने उसे पास बिठाकर इस बात का अनुभव करवा दिया कि हम दोनों ही ईश्वर के बच्चे हैं। बाबा ने उसे ज्ञान समझाया और उस दिन से वह रोज़ क्लास करने लगा।

ईश्वरीय सेवा में पूर्ण समर्पण की इच्छा

एक बार मैंने बाबा को लिखा कि मैं दो मास के लिए खाली हूँ, आप मुझे सेवा के लिए कहीं भी भेज सकते हैं। साथ ही यह भी लिखा कि मैं एक सेवाकेन्द्र खोलना चाहता हूँ। बाबा जानते थे कि यदि यह कोई सेवाकेन्द्र खोल लेगा तो बंध जाएगा, तो बाबा ने लिखा कि सेवाकेन्द्र खोलने की चिन्ता मत करो। यह कार्य तो अन्य लोग भी कर लेंगे। तुम केवल उनकी संभाल करो जो पहले से खुले हुए हैं। मुझे अब यह अनुभव होता है कि बाबा मेरे भविष्य के बारे में जानते थे और मुझे बंधन-मुक्त रखना चाहते थे। मैने अपने लौकिक कार्य का इस तरह से प्रबन्धन किया कि मैं सप्ताह के बीच में एक दिन व सप्ताह के अंत में अलौकिक सेवा के लिए समय निकाल लेता। बाबा समाचार-पत्रों की सेवा करने की बहुत युक्तियाँ बताया करते थे इसलिए मैंने छुट्टी के समय समाचार-पत्रों के दफ्तरों में जाकर वहां के लोगों से दोस्ती करना शुरू कर दिया। शनिवार को हम लोग पार्क व पर्यटन की विशेष जगहों पर पर्चे बाँटने जाते थे। रविवार को हमें भक्त आत्माओं की सेवा के लिए मन्दिरों में जाना होता था। बाबा कहते थे कि श्री श्री शिव, श्रीकृष्ण व श्रीलक्ष्मी श्रीनारायण के मन्दिर में हमें दैवी घराने की आत्माएँ मिल सकती हैं। धीरे-धीरे मुझे ऐसा लगने लगा कि मुझे इतना ही नहीं परन्तु पूरा ही समय ईश्वरीय सेवा में देना चाहिए। उन छुट्टियों में मेरा सेवा के निमित्त जयपुर जाना हुआ। यह अपने आप में एक श्रेष्ठ अनुभव था। लौटते वक्त मैं मम्मा व बाबा से मिला और मैंने लौकिक कार्य छोड़ने की इच्छा ज़ाहिर की जिससे कि मैं पूरा ही समय ईश्वरीय सेवा में दे सकूँ। मम्मा ने कहा कि यह बहुत अच्छा ख्याल है। एक व्यक्ति को जीवन में चाहिए ही क्या? दो कपड़ों के जोड़े व दो समय भोजन, जो यज्ञ से मिल सकता है।

कर्म-खाता चुक्ता करने के लिए 8 घन्टे योग

मैंने सन् 1963 में नेवी छोड़ने का आवेदन दिया। बाबा ने मुरली में कहा था कि यदि आप रोज़ाना आठ घण्टे योग करते हो तो आप अपने कर्मों के हिसाब- किताब को पूरा चुक्ता कर सकते हो। मैंने इसका प्रयोग शुरू किया और रोज़ सुबह आठ से बारह बजे तक व शाम को चार से आठ बजे तक योग लगाना शुरू कर दिया। दोपहर के समय मैं मुरली को अन्य भाषाओं में लिखकर बुजुर्ग माताओं को मदद करता था। इस प्रयोग का मुझे सुखद फल मिला और मुझे नेवी से छुट्टी मिल गई। नौकरी छोड़ने के बाद करीब तीन मास तक मुझे बाबा के अंग-संग रहने का अवसर मिला और साथ ही साथ दादा विश्वकिशोर से समय प्रति समय मार्गदर्शन मिलता रहा।

पवित्रता की सहज धारणा

बाबा विशेष अवसरों पर अक्सर सौगात दिया करते थे। यही वज़ह है कि आज भी मधुबन में कोई आता है तो सौगात अवश्य प्राप्त करता है। एक समय की बात है कि एक बहन अपने युगल के साथ बाबा से मिलने मधुबन आई। यद्यपि वो भाई उस बहन को विशेष सहयोग नहीं देता था फिर भी युक्ति से वह उस भाई को बाबा के पास मधुबन ले आई थी। बाबा उस भाई से मिले और लक्ष्मी-नारायण का चित्र जो सौगात के लिए बनाया गया था, उसे अपनी ठोड़ी के नीचे बड़े प्यार से पकड़कर समझाते हुए बोले, “मीठे बच्चे, बाबा आप साधारण बच्चों को लक्ष्मी- नारायण जैसा पूज्य बनाने आए हैं, क्या तुम ऐसा बनना चाहोगे?” उसने जवाब दिया, “हाँ बाबा, आप मदद करेंगे तो मैं अवश्य बन जाऊँगा।” बाबा ने कहा, “केवल इसी लिए बाबा आए हैं परन्तु इसके लिए आपको पवित्रता की शपथ लेनी पड़ेगी, क्या आप लेंगे?” उसने कहा, “हाँ बाबा, मैं अवश्य लूँगा।” बाबा ने तुरंत राखी मँगवाई और एक बहन ने उसको पवित्रता की राखी बाँध दी। उसके बाद बाबा ने लक्ष्मी-नारायण का चित्र सौगात में दिया। ये भाई और उनकी युगल अभी भी मधुबन में आते हैं और कहते हैं कि उसके बाद उनके जीवन में पवित्रता की धारणा सहज ही हो गयी।

बाबा अब भी बच्चों की सेवा में उपस्थित

जब से मैं मधुबन में हूँ, मुझे यह करीब से देखने का सौभाग्य मिला है कि कैसे दादी जी ने बाबा से जिम्मेदारी ली और कदम-कदम बाबा से श्रीमत ली। जब पहली बार 21 जनवरी, 1969 को अव्यक्त बापदादा आए तो बाबा ने कहा कि शरीर को छोड़ना मात्र कमरा बदलने के बराबर है। बाबा ने कहा कि बाबा बच्चों की सेवा में अभी भी उपस्थित हैं जैसे पहले थे और यह कभी नहीं सोचना है कि बाबा चले गए हैं। बाबा ने हमें यह विश्वास दिलवाया कि जब तक संगमयुग है, बाबा साथ है, केवल बाबा के रूप का परिवर्तन हुआ है। जब भी आप बाबा के कमरे में बाबा की ट्रांसलाइट की तरफ देखेंगे तो अहसास होगा कि साकार बाबा हमारा मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं।

मुख्यालय एवं नज़दीकी सेवाकेंद्र

अनुभवगाथा

Dadi gulzar ji anubhav

आमतौर पर बड़े को छोटे के ऊपर अधिकार रखने की भावना होती है लेकिन ब्रह्मा बाबा की विशेषता यह देखी कि उनमें यह भावना बिल्कुल नहीं थी कि मैं बाप हूँ और यह बच्चा है, मैं बड़ा हूँ और यह छोटा है। यदि हमारे में से किसी से नुकसान हो जाता था तो वो थोड़ा मन में डरता था पर पिताश्री प्यार से बुलाकर कहते थे, बच्ची, पता है नुकसान क्यों हुआ? ज़रूर आपकी बुद्धि उस समय यहाँ-वहाँ होगी। बच्ची, जिस समय जो काम करती हो उस समय बुद्धि उस काम की तरफ होनी चाहिए, दूसरी बातें नहीं सोचना।

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Dadi hridaypushpa ji

एक बार मैं बड़े हॉल में सो रही थी परंतु प्रातः नींद नहीं खुली। मैं सपने में देख रही हूँ कि बाबा से लाइट की किरणें बड़े जोर से मेरी तरफ आ रही हैं, मैं इसी में मग्न थी। अचानक आँखें खुली तो देखा, बाबा और उनके साथ अन्य दो-तीन बहनें मेरे सामने खड़े, मुझे दृष्टि दे रहे थे। मैं शर्मसार हुई और उठकर चली गई। परंतु बाबा की उस कल्याणकारी दृष्टि ने मेरी आँखों से व्यर्थ नींद चुरा ली और मैं जागती ज्योति बन गई।

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Bk jagdish bhai anubhavgatha

प्रेम का दर्द होता है। प्रभु-प्रेम की यह आग बुझाये न बुझे। यह प्रेम की आग सताने वाली याद होती है। जिसको यह प्रेम की आग लग जाती है, फिर यह नहीं बुझती। प्रभु-प्रेम की आग सारी दुनियावी इच्छाओं को समाप्त कर देती है।

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Bk kamlesh didi ji anubhav gatha

प्यारे बाबा ने कहा, “लौकिक दुनिया में बड़े आदमी से उनके समान पोजिशन (स्थिति) बनाकर मिलना होता है। इसी प्रकार, भगवान से मिलने के लिए भी उन जैसा पवित्र बनना होगा। जहाँ काम है वहाँ राम नहीं, जहाँ राम है वहाँ काम नहीं।” पवित्र जीवन से सम्बन्धित यह ज्ञान-बिन्दु मुझे बहुत मनभावन लगा।

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Dadi brijindra ji

आप बाबा की लौकिक पुत्रवधू थी। आपका लौकिक नाम राधिका था। पहले-पहले जब बाबा को साक्षात्कार हुए, शिवबाबा की प्रवेशता हुई तो वह सब दृश्य आपने अपनी आँखों से देखा। आप बड़ी रमणीकता से आँखों देखे वे सब दृश्य सुनाती थी। बाबा के अंग-संग रहने का सौभाग्य दादी को ही प्राप्त था।

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Experience with dadi prakashmani ji

आपका प्रकाश तो विश्व के चारों कोनों में फैला हुआ है। बाबा के अव्यक्त होने के पश्चात् 1969 से आपने जिस प्रकार यज्ञ की वृद्धि की, मातृ स्नेह से सबकी पालना की, यज्ञ का प्रशासन जिस कुशलता के साथ संभाला, उसे तो कोई भी ब्रह्मावत्स भुला नहीं सकता। आप बाबा की अति दुलारी, सच्चाई और पवित्रता की प्रतिमूर्ति, कुमारों की कुमारका थी। आप शुरू से ही यज्ञ के प्रशासन में सदा आगे रही।

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Dadi situ ji anubhav gatha

हमारी पालना ब्रह्मा बाबा ने बचपन से ऐसी की जो मैं फलक से कह सकती हूँ कि ऐसी किसी राजकुमारी की भी पालना नहीं हुई होगी। एक बार बाबा ने हमको कहा, आप लोगों को अपने हाथ से नये जूते भी सिलाई करने हैं। हम बहनें तो छोटी आयु वाली थीं, हमारे हाथ कोमल थे। हमने कहा, बाबा, हम तो छोटे हैं और जूते का तला तो बड़ा सख्त होता है, उसमें सूआ लगाना पड़ता है

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Bk brijmohan bhai ji anubhavgatha

भारत में प्रथा है कि पहली तनख्वाह लोग अपने गुरु को भेजते हैं। मैंने भी पहली तनख्वाह का ड्राफ्ट बनाकर रजिस्ट्री करवाकर बाबा को भेज दिया। बाबा ने वह ड्राफ्ट वापस भेज दिया और मुझे कहा, किसके कहने से भेजा? मैंने कहा, मुरली में श्रीमत मिलती है, आप ही कहते हो कि मेरे हाथ में है किसका भाग्य बनाऊँ, किसका ना बनाऊँ।

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Dadi gange ji

आपका अलौकिक नाम आत्मइन्द्रा दादी था। यज्ञ स्थापना के समय जब आप ज्ञान में आई तो बहुत कड़े बंधनों का सामना किया। लौकिक वालों ने आपको तालों में बंद रखा लेकिन एक प्रभु प्रीत में सब बंधनों को काटकर आप यज्ञ में समर्पित हो गई।

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Bk ramesh bhai ji anubhavgatha

हमने पिताश्री जी के जीवन में आलस्य या अन्य कोई भी विकार कभी नहीं देखे। उम्र में छोटा हो या बड़ा, सबके साथ वे ईश्वरीय प्रेम के आधार पर व्यवहार करते थे।इस विश्व विद्यालय के संचालन की बहुत भारी ज़िम्मेवारी उनके सिर पर थी फिर भी कभी भी वे किसी प्रकार के तनाव में नहीं आते थे और न ही किसी प्रकार की उत्तेजना उनकी वाणी या व्यवहार में दिखाई पड़ती थी।

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