Dadi gulzar ji anubhav

दादी गुलज़ार जी – अनुभवगाथा

जब हम यज्ञ (प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय) में आये थे तो छोटे-छोटे थे। ब्रह्मा बाबा ने हमारे जीवन की ज़िम्मेवारी शिव बाबा के डायरेक्शन से उठाई। आमतौर पर बड़े को छोटे के ऊपर अधिकार रखने की भावना होती है लेकिन ब्रह्मा बाबा की विशेषता यह देखी कि उनमें यह भावना बिल्कुल नहीं थी कि मैं बाप हूँ और यह बच्चा है, मैं बड़ा हूँ और यह छोटा है। यदि हमारे में से किसी से नुकसान हो जाता था तो वो थोड़ा मन में डरता था पर पिताश्री प्यार से बुलाकर कहते थे, बच्ची, पता है नुकसान क्यों हुआ? ज़रूर आपकी बुद्धि उस समय यहाँ-वहाँ होगी। बच्ची, जिस समय जो काम करती हो उस समय बुद्धि उस काम की तरफ होनी चाहिए, दूसरी बातें नहीं सोचना। इस प्रकार बाबा प्यार से समझाते थे, पिताश्री ने कभी डांटा नहीं, प्यार से शिक्षा दी। पिताश्री शिक्षा देने से पहले हम बच्चों की अच्छाई का वर्णन करते थे। कहते थे, बच्ची, तुम बड़ी अच्छी हो, बड़ी योगी हो, बड़ी ज्ञानी हो, अच्छा तुमसे यह गलती हो गई, कोई बात नहीं लेकिन आगे से अटेन्शन देना। बाबा की ऐसी शिक्षा से उस बच्ची में उमंग आता था कि मैं भी कुछ कर सकती हूँ, बाबा की हमारे में उम्मीद है और मैं बाबा को कुछ करके दिखाऊँ। उमंग-उत्साह बढ़ाना, यह सबसे अच्छी विधि है किसी को आगे बढ़ाने की।

अपने को चतुर्भुज समझो

हमारी पालना ब्रह्मा बाबा ने बचपन से ऐसी की जो मैं फलक से कह सकती हूँ कि ऐसी किसी राजकुमारी की भी पालना नहीं हुई होगी। एक बार बाबा ने हमको कहा, आप लोगों को अपने हाथ से नये जूते भी सिलाई करने हैं। हम बहनें तो छोटी आयु वाली थीं, हमारे हाथ कोमल थे। हमने कहा, बाबा, हम तो छोटे हैं और जूते का तला तो बड़ा सख्त होता है, उसमें सूआ लगाना पड़ता है, हमारे हाथ में लग जायेगा, बहुत नुकसान हो जायेगा, हम कैसे यह करेंगे? हमने कहा, बाबा, यह भाइयों का काम है, हमारा नहीं है। पिताश्री ने कहा, क्या तुमने सारे ही जन्म नारी रूप में लिए हैं? हमने कहा, नहीं बाबा, कभी हम नर भी बने होंगे, कभी नारी भी बने होंगे। बाबा ने कहा, आत्मा में नर, नारी दोनों प्रकार के संस्कार हैं, तभी तो कभी नर बने, कभी नारी बने। तो तुम क्यों समझती हो कि मेरे में सिर्फ नारी के ही संस्कार हैं? ऐसा समझोगी तो कोमलता आयेगी। तुम क्यों नहीं समझो कि मैं चतुर्भुज हूँ। चतुर्भुज समझकर काम करो, देखो, तुम्हारा काम कितना अच्छा होता है। सचमुच, बाबा की इस शिक्षा को समझ लेने के बाद कभी भी हमारे में नारीपन की कोमलता, निर्बलता नहीं आई। फिर हम समझने लगे कि जो काम भाई कर सकते हैं, वो हम भी कर सकते हैं। हम छोटी-छोटी बच्चियाँ मिलकर यज्ञ के सभी कार्य कर लेते थे।

उमंग कम नहीं होने दिया

हम सभी जो भी ओम मण्डली में आये थे, दुनिया के हिसाब से साहूकार घरों से आये थे और अपने घरों में हम लोगों ने कभी पानी का गिलास भी अपने हाथों से नहीं पीया था, वहाँ नौकर बहुत सस्ते थे। एक-एक बच्चे को, एक-एक नौकर तो मुकर्रर होता ही था। परन्तु जैसे पौधे को पानी मिलने से वह खिल जाता है इसी रीति से हम लोगों को ब्रह्मा बाबा ने नि:स्वार्थ प्यार के पानी से अपना बना लिया। फिर जो भी सेवा कराना चाहते थे वह इतनी अच्छी होती थी जो आज आप उसका परिणाम देख रहे हैं। ब्रह्मा बाबा के प्रशासन की विशेषता यह थी कि उन्होंने कभी किसी बच्चे के उमंग को कम नहीं होने दिया।

अगरबत्ती से शिक्षा

एक बार एक भाई ने पिताश्री से शिकायत की, “बाबा, वैसे तो मुझे योग में बहुत सुख मिलता है, चाहे घर में योग लगाऊँ, चाहे क्लास में आकर योग लगाऊँ लेकिन जब कार्य-धंधे पर जाता हूँ तो वहाँ के वातावरण के प्रभाव में आ जाता हूँ। वहाँ योग न लगाने वालों की संख्या ज़्यादा होती है इस कारण उनका प्रभाव मेरे पर आ जाता है। जब वायुमण्डल का असर आता है, मैं बहुत सोचता हूँ, ‘मैं आत्मा हूँ, मैं आत्मा हूँ, मैं मास्टर सर्वशक्तिवान हूँ’, पर यह भी थोड़ी देर याद रहता है, फिर भूल जाता हूँ।” बाबा ने कहा, “बच्चे, बहुत सहज तरीका है, अपनी पॉकेट में एक अगरबत्ती का पैकेट रखो।” वह सोचने लगा, अगरबत्ती के पैकेट का मैं क्या करूँगा? बाबा ने कहा, “जिस समय तुम वायुमण्डल के प्रभाव में आ जाओ तो एक अगरबत्ती अपने सामने जलाकर रखो और फिर सोचो, अगरबत्ती बनाने वाला कौन? आप मानव आत्मा ने ही तो इसे बनाया है ना ! आप रचयिता हो और अगरबत्ती आपकी रचना है। फिर सोचो, क्या अगरबत्ती कभी कहती है, बदबू है, मैं कैसे खुशबू फैलाऊँ? फिर बाबा ने कहा, यह अगरबत्ती दुबली-पतली, तुम इससे भी गए गुजरे हो क्या?” बाबा की इस बात से वह भाई बहुत प्रेरित हुआ। उसने सोचा, जब हमारी रचना में यह गुण है कि वह बदबू को खुशबू में बदल सकती है तो मैं तो मास्टर सर्वशक्तिवान हूँ, मेरा प्रभाव सर्व पर होना चाहिए, न कि सर्व का प्रभाव मुझ पर हावी हो जाए। इस प्रकार बाबा की स्नेह भरी शिक्षा से उसे विजयी बनने का मार्ग मिल गया।

शिव भगवानुवाच:

“मीठे बच्चे, जिनका बुद्धियोग एक बाप के साथ है, पवित्र बने हैं, उन्हें ज्ञान-रत्नों की धारणा अच्छी होगी। ईश्वरीय ज्ञान के लिए शुद्ध बर्तन चाहिए। उल्टे-सुल्टे संकल्प भी बन्द हो जाने चाहिएँ। बाप के साथ योग लगाते-लगाते बर्तन सोना बने तब ज्ञान- रत्न ठहर सकें।”

बाबा ने निर्मल कन्याओं को शिव-शक्तियाँ बना दिया

ब्रह्माकुमारी दादी सीतू

मेरे घर में श्री कृष्ण जी का मन्दिर था। माताजी, दादाजी श्रीकृष्ण की खूब भक्ति करते थे। मैं भी बचपन से ही श्रीकृष्ण की मस्त गोपी थी। सात भाइयों में इकलौती बहन होने के कारण सबकी लाडली थी पर मुझे श्रीकृष्ण बहुत लाडला था। जो भी 12 महीने के दौरान पैसे मिलते थे, सारे के सारे श्रीकृष्ण के जन्म-दिन अर्थात् जन्माष्टमी पर उनकी छठी मनाने में खर्च कर देती थी। एक पैसा भी अपनी किसी चाहत पर खर्च नहीं करती थी। जब कभी मैं माँ से कोई चीज़ माँगती थी तो वे कहती थी कि श्रीकृष्ण जी देंगे। मैं आँखें बन्द कर श्रीकृष्ण जी के ध्यान में बैठ जाती थी और माँ चुपके से उस चीज़ को मेरे सामने रख देती थी। मेरी बाल-बुद्धि उसे श्रीकृष्णजी द्वारा दिया हुआ ही स्वीकार कर लेती थी।

बाबा की दृष्टि पड़ते ही मैं ध्यान में चली गई

दादा लेखराज लौकिक रिश्ते में मेरी बुआ के देवर लगते थे और हैदराबाद- सिन्ध में ‘दादा’ नाम से बहुत मशहूर थे। दादा के एक चाचाजी बीमार रहते थे। दादा उनको रामायण सुनाते थे। हम सुनने जाया करते थे और दादा का सुनाने का तरीका इतना मनोहारी था जो दिल पर छाप लग जाती थी। मैंने 5वीं कक्षा तक पढ़ाई की। केवल 7 वर्ष की आयु में ही पिताजी का साया सिर से उठ गया। जब मैं 13 साल की थी, तब ओम मण्डली की शुरूआत हुई और उसमें जाना शुरू कर दिया परन्तु अभी जाते हुए मात्र तीन दिन ही हुए थे कि मेरे से बड़े भाई ने शरीर छोड़ दिया। मुझे मोह तो बहुत था, मैं भाई की अर्थी के पीछे बैठ गई। मुझे बहुत समझाया गया पर दुःख कम नहीं हो रहा था। दुःख के मारे परमात्मा के प्रति भी संशय बुद्धि बन रही थी। 

ओम मण्डली में जाने वाली एक माता ने मुझे फिर से ओम मण्डली में बाबा के पास जाने की प्रेरणा दी, कहा कि वहीं तुमको शान्ति मिलेगी और बाबा दुःख दूर करेंगे। वहाँ गई तो प्यारे बाबा तपस्या में बैठे थे, मेरे पर ज्योंहि उनकी दृष्टि पड़ी, मैं ध्यान में चली गई और दोपहर 3 बजे से रात 10 बजे तक ध्यानावस्था में ही रही। बाद में घरवालों ने मुझे बहुत ढूँढ़ा तो मैं बाबा के कमरे में ध्यानमग्न मिली। बाबा ने प्यार से मेरे सिर पर हाथ फिराया और मैं ध्यानावस्था से नीचे आ गई। मैं तो निराकार प्रभु को ही साकार तन में देख रही थी। मेरे स्नेह भरे नयनों को देख प्यारे बाबा ने कहा, ‘बच्ची, आया हूँ तो अब लेकर ही जाऊँगा।’ बाबा ने मुझे एक सेब (Apple) दिया। मैं घर लौट गई। घरवालों ने जब पूछा कि वहाँ तुमको क्या मिला, तो मेरे मुख से सहज ही निकला कि ‘भक्ति का फल ज्ञान मिला और बाप (पिता) मिला।’ अगले दिन सुबह नौ बजे बाबा के पास पुनः गई। बाबा ने कागज, पैन लेकर शरीर, आत्मा, त्रिमूर्ति आदि चित्र बनाए और इन पर समझाया। प्यारे बाबा के इस दिल-जीत स्नेह ने मुझे भाई का वियोग भुला दिया। मेरा रोना बन्द हो गया और शान्त रहने लगी। घरवालों ने भी खुशी से मुझे ज्ञान सीखने की अनुमति प्रदान कर दी।

बाबा ने अपना मकान क्लास के लिए दिया

कुछ समय बाद बाबा बनारस चले गये। वहीं से बाबा पत्र लिखते थे कि मैं तो सिर्फ बैठकर ‘ॐ’ की ध्वनि उच्चारता हूँ। हम सभी ने भी, जो ओम मण्डली में जाते थे, यही कार्य किया। हम जैसे ही ‘ॐ’ की ध्वनि उच्चारते थे तो तीन या चार बहनें अवश्य ही ध्यान में चली जाती थीं और वहाँ श्रीकृष्ण को देखती थीं तथा रास करने लगती थीं। ऐसा करते-करते हमारा संगठन बड़ा होता गया। बाबा को पत्र द्वारा इसकी सूचना दी गई। प्यारे ब्रह्मा बाबा ने अपना मकान खाली करवाकर हमको क्लास के लिए दे दिया। एक बार बाबा ने पत्र में लिखा, “पाना था सो पा लिया, अब काम क्या बाकी रहा।” उस समय हम इसका अर्थ नहीं समझते थे पर बाबा के ये अनुभव अति-अति प्रिय लगते थे। ओम मण्डली के लिए यह मशहूर हो गया था कि जैसे एक पैसे में कुल्फी मिलती है, उतनी सहजता से यहाँ देवी-देवताओं तथा स्वर्ग आदि के साक्षात्कार होते हैं, भक्ति मार्ग में तो भक्त साक्षात्कार की इच्छा-पूर्ति के लिए बहुत कष्ट उठाते हैं परन्तु यहाँ तो अति सरलता से यह इच्छा पूरी होती है।

बाबा कराची लौट गए

कुछ समय बाद बाबा बनारस से लौट आये। बाबा के तप और तेज में ऐसा आकर्षण था कि उनके परिवार वाले तथा अन्य परिवारों वाले भी ज्ञान सुनने आने लगे। धीरे-धीरे पवित्रता, अन्न की शुद्धि आदि के बारे में सभी को पता पडता गया। भागवत में लिखा है कि भगवान से प्रीतबुद्धि आत्माओं पर असुरों ने अत्याचार किये, वही इतिहास पुनः दोहराया जाने लगा। हमारे घरवालों ने हमारे पर रोक लगानी शुरू कर दी। उस समय के सिन्धी समाज में कोई कन्या अपनी माँ की भी बात के विरोध में जरा-सा मुँह खोलने तक की हिम्मत नहीं कर पाती थी। मैं युक्ति से ईश्वरीय ज्ञान की धारणा में तत्पर थी। अमृतवेले जब सब सोए रहते थे तो चुपके से ओम मण्डली में पहुँच जाती थी और ज्ञानामृत का पान कर पुनः आकर सो जाती थी। हैदराबाद की परिस्थितियाँ दिनों-दिन अधिक बिगड़ती गई तो प्यारे बाबा बोर्डिंग के बच्चों तथा अपने परिवार सहित कराची चले गए। बाबा ने तीन दिन में तीन बंगले लेकर सभी के रहने की व्यवस्था कर दी। हम जो बाँधेले थे, बाबा के संग के लिए जल बिन मछली की तरह तड़पने लगे।

दादाजी ने लिखी चिट्ठी ओमराधे के नाम

मुझे पक्का निश्चय था कि बाबा के पास मुझे जाना ही है। मेरे लौकिक भाई ने मुझे आकर कहा, ‘बाबा तो गये, अगर तुमको जाना है तो दो घण्टे के अन्दर निर्णय करो। अभी दो बजे हैं, चार बजे यदि घर में उपस्थित मिली तो तुम्हारी शादी कर देंगे, यदि चली गई तो समझो वहाँ (ओम मण्डली) की हो गई।’ मेरे कपड़े, चप्पल ताले में रखकर तथा चाबी को अपने बिस्तर के नीचे रखकर भाई सो गया। बिना पैसे और कपड़े के मैं कैसे जाऊँ, यह प्रश्न मेरे सामने जहरीले सर्प की तरह फन फैलाए खड़ा था। प्रभु का कार्य हो और मन की सच्ची लगन हो तो चाह अनुसार राह निकल ही आती है। दादाजी की मुझ से विशेष प्रीत थी। मैंने बड़े प्यार से उनके पास जाकर, आँसू बहाकर कहा कि यदि आप मेरी शादी करेंगे और मैं किसी भी कारण से ससुराल में दुःखी हुई तो रोती हुई आपके पास ही तो आऊँगी। इससे तो अच्छा है कि आप मुझे ऐसे स्थान पर भेज दो, जहाँ दुःख का नाम-निशान भी न हो। दादाजी ने पूछा कि ऐसी कौन-सी जगह है? मैंने कहा, ‘ओम-मण्डली, जहाँ मैं जाती थी। दादा कराची में गये हैं तो अब मैं भी वहाँ जाना चाहती हूँ।’ दादा लेखराज जी के प्रति उनके मन में अगाध श्रद्धा थी। वे उनके सात्विक जीवन और श्रेष्ठ आचार-विचार से भली-भाँति परिचित थे। उन्होंने कहा, ‘दादा जैसा तो सृष्टि में कोई मिलेगा ही नहीं लेकिन यदि आप उनके पास जाएँगी तो सरकार उनको तकलीफ देगी इसलिए आप न जाओ।’ मैने कहा, ‘आप ओम राधे के नाम पर चिट्ठी लिख दो कि ओम राधे जी, हम अपनी पौत्री को ज्ञानामृत पीने और पिलाने के लिए खुशी से छुट्टी दे रहे हैं।’ दादाजी ने ऐसा ही किया। घर में माँ के सिवाय किसी को इस बात का पता नहीं पड़ा। दादीजी मेरा अतिशय विरोध करती थी। उसके मन में था कि चाहे इसके हाथ-पाँव टूट जाएँ, तो भी शादी जरूर करूँगी। दादाजी और भाई की सहानुभूति मेरे प्रति थी इसलिए मार-पीट का कम सामना करना पड़ा।

बाबा कराची में कहाँ हैं, यह पूछा ही नहीं

पत्र लेकर बाहर निकली, प्यारे शिव बाबा की स्मृति तो मन में बसी ही थी, जमना दादी के घर जाकर चप्पल, कुछ कपड़े तथा सवा रुपया लिया और ईशु दादी के पिताजी से गाड़ी की टिकट बनवाकर देने को कहा। सवा रुपये में टिकट बन गई। परन्तु उन्होंने मुझसे पूछा ही नहीं कि तुमको कराची में किस स्थान पर जाना है और न ही मैंने पूछा कि कराची में बाबा किस स्थान पर हैं। स्टेशन पर पहुँचकर मैंने पूछना शुरू कर दिया कि परसों सुबह सफेद कपड़े वाले लोग आए थे, वे किधर गए। स्टेशन पर सभी मेरा मुँह देखने लगे। जानकार लोगों ने कहा कि बच्चे तथा कन्याएँ आदि आए तो थे पर अब कहाँ हैं हमें भी मालूम नहीं। मैं पूरा आधा घण्टा स्टेशन पर चक्कर लगाती रही परन्तु इतने में ही एक भाई दौड़ता हुआ मेरे पास आया। भले ही सीमित शक्ति वाले दो नेत्रों से मैं प्यारे शिव बाबा के कर्तव्य स्थान को न देख पा रही थी, न जान पा रही थी परन्तु अनन्त दृष्टि वाले, दिव्य-दृष्टि विधाता प्रभु को तो मेरी पल-पल की खबर थी। भागवत में गायन है कि प्रिय भक्त की सच्ची पुकार पर वे नंगे पैर, बिना चप्पल पहने ही दौड़ पड़े थे। मेरे लिए भी प्यारे शिव बाबा ने, ब्रह्मा बाबा के साकार माध्यम द्वारा इस भाई को स्टेशन पर दौड़ा दिया था।

बाबा ने कहा, कोई आया है, बुलावा कर रहा है

 भाई ने कहा कि बाबा भोजन कर रहे थे, मैं भी बाबा के साथ ही भोजन कर रहा था कि अचानक बाबा ने कहा, आप भोजन बाद में करना, स्टेशन पर जाओ, कोई आया है और बुलावा कर रहा है। भाई की बात सुनकर मुझे विश्वास हो गया, मैं उसके साथ चल पड़ी। बाबा जितने प्रेम के स्वरूप थे उतने ही हमारे भविष्य की सुरक्षा के प्रति जागरूक भी थे। सामने जाते ही तुरन्त पूछा, ‘पत्र लाई हो?’ मैंने कहा, ‘कभी बाप के पास पत्र लाया जाता है क्या, बाबा?’ बाबा ने फिर मम्मा को कहा कि इनको नहला-धुला कर खाना खिलाओ। रात के भोजन के समय मैंने बाबा को पत्र दे दिया। पत्र देख बाबा निश्चित हो गए। बाबा ने कहा कि जब तुम दादाजी से पत्र ले आई हो तो दादा तो घर में बड़ा होता है, अब किसी के विरोध का डर नहीं है।

एक तीर में दो पंछी पकड़ो

इसके बाद दो-तीन मास तक के समय में दादाजी का घर से मिलने के लिए आना होता रहा, कपड़े तथा पैसे भी वे स्नेह-सौगात के रूप में देते रहे। बाबा के कराची आने पर मेरे जैसी लगभग 80 कन्याएँ हैदराबाद छोड़, ज्ञानामृत पान के लिए कराची की ओर रवाना हुईं। विरोधियों के गले यह बात नहीं उतरी। उन्होंने कई कन्याओं के घरवालों से मिलकर उनके नाम वारंट निकलवा दिए। दोष यह लगाया गया कि कन्याएँ नाबालिग हैं। मैं 24 वर्ष की थी, मेरे लिए भी वारंट निकला। मैं अदालत में गई और पूछा कि वारंट किसने निकलवाया है। मेरी दादी गंगा स्नान का बहाना करके कराची आई थी और वारंट उसी ने निकलवाया था। दादाजी को वारंट आदि की जानकारी नहीं दी गई थी। वारंट में झूठमूठ मेरी आयु 12 वर्ष बताई गई थी। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ।

मैंने जज से पूछा, “क्या आपको मैं 12 वर्ष की लगती हूँ?” बाबा ने मेरा वजन करके अदालत में भेजा था। मैं तन्दुरुस्त थी और 40 किलो वजन था मेरा। जज ने मुझे कहा कि तुम्हारी दादी कह रही है। जज के आदेश से मुझे घर जाना पड़ा। दादाजी ने मुझे देखते ही कहा, क्या तुमको ओम मण्डली ने नहीं रखा? मैंने बताया कि दादीजी वारंट निकालकर मुझे ले आई है। दादाजी ने तब दादीजी के प्रति कहा, ‘इस पापिन को तो नरक में भी जगह नहीं मिलेगी। मुझे तो कह रही थी कि मैं गंगाजी नहाने जा रही हूँ और गई है कन्या के ऊपर वारंट निकालने, अरे, कन्या पर भी ऐसा किया जाता है क्या?’ फिर मुझे सांत्वना देते हुए कहा कि चलो, मैं तुमको वापिस ओम मण्डली में छोड़ आता हूँ। परन्तु अदालत में मामला विचाराधीन होने के कारण ब्रह्मा बाबा के पास वापस लौटना लगभग 6 मास बाद ही हुआ। परन्तु फिर तो मैं पूर्ण निर्बन्धन हो गई। इस सारे प्रकरण में हमने जो बहादुरी दिखाई, वास्तव में वह हमारी अपनी शक्ति न थी। यह सारी शक्ति और युक्ति कन्याओं के कन्हैया परमात्मा शिव की ही थी। बाबा के पत्र आते थे कि बच्चे, एक तीर में दो पंछी पकड़ो। इसका अर्थ यह था कि अपने को निर्बन्धन भी करो और परिवार वालों को राज़ी भी रखो। इस युक्ति से निर्बन्धन बन हम 14 वर्ष तक ज्ञान-योग की भट्ठी में रूहानी मौज करते रहे और ईश्वरीय चरित्रों से निहाल होते रहे।

योग-भट्ठियों से उड़ती कला तक पहुँचे

सन् 1947 में भारत-पाकिस्तान का विभाजन हुआ। चारों ओर खूने-नाहक खेल का भयंकर दृश्य मचा पर प्यारे बाबा सदा याद की मस्ती में मगन रखने के लिए खूब भट्टियों के कार्यक्रम करते रहते थे। कराची में 25-25 बहनों के समूह में भट्ठी होती थी। उस समय नौकर न थे। ऐसी भट्ठी होती थी जो कोई किसी से भी बात नहीं करते थे। कोई किसी का चेहरा तक नहीं देखते थे। रात को नींद न करके बारी-बारी योग करते थे। उन भट्टियों की कमाल है जो हम उड़ती कला तक पहुँचे। मम्मा-बाबा भी हमारे साथ भट्ठी में आकर बैठते थे। भट्ठी 24 घण्टे चलती थी। भट्ठियों से भरी ताकत आज तक चल रही है, कराची में तो हम भट्ठियों में ही पले।

विभाजन के समय सभी मुस्लिम भाइयों से प्यारे बाबा ने बहुत प्रेम का व्यवहार रखा परन्तु हम कन्याओं के मित्र-सम्बन्धियों ने बाबा पर दबाव डाला कि आप भारत चलो, हम आपका सारा खर्च देंगे। उनके इस कथन पर हम कराची से रवाना हुए, रास्ते में काफी तकलीफें हुई परन्तु महसूस नहीं हुईं। आबू आने पर 12 मास तक लाल चाय, बिना दूध की पीनी पड़ी। बेगरी पार्ट (धनाभाव का समय) में भोजन आदि की तंगी रही क्योंकि सारा पैसा कराची से आबू तक के सफर में खर्च हो गया था। भले ही एक प्रकार का भोजन मिलता था परन्तु कभी स्वाद याद नहीं आता था। काम पूरा हुआ और बैठे योग में, अन्य कोई बात सोचते ही नहीं थे। बुखार हो जाता था तो प्यारे बाबा कहते थे, ‘जाओ बच्चे, शीशे में चेहरा देखो फिर योग में बैठो, बुखार उतर जाएगा।’ सचमुच बुखार उतर जाता था, कभी दवाई नहीं खाई।

उस समय बृज कोठी में सर्प होते थे पर हम मस्त रहते थे, एक बाबा की मस्ती में। दुनिया तो पूरी तरह भूली हुई थी। लौकिक की तो याद न तब आई, न अब आती है। मन में समझ पक्की धारण की हुई है कि जिस प्रभु के बने हैं उसी का खाएँगे, पीएँगे, उसी का बनकर रहेंगे। बाबा के बन गए तो जो कुछ है सब बाबा का। मैं बाबा की, बाबा मेरा, यह धारणा-मन्त्र जैसे शुरू से अपना हो गया था, यही जादू था। यह जन्म भी यज्ञकुण्ड से है, सेवा भी यज्ञकुण्ड में है और स्वाहा भी यज्ञकुण्ड में ही होगा, ऐसा निश्चय है। सिन्ध में ठण्डी न थी परन्तु आबू में ठण्डी बहुत पड़ती है तो हम अधिकतर बीमार हो जाते थे। डाक्टरों ने कहा, ‘यहाँ चाय पीनी पड़ेगी और पैदल सैर भी करनी पड़ेगी।’ पहले तो चाय को हम जानते भी नहीं थे। फिर हमने सुबह-सुबह चाय पीना और दो मील पैदल चलना प्रारम्भ किया।

अचानक गुप्त मदद

उन दिनों बाबा ही हमारे स्टॉक के सामान की देख-रेख करते थे। बाबा के साथ मैं भी स्टॉक की सम्भाल में मददगार थी। एक दिन भोली भंडारी ने मुझे कहा कि सायंकाल के भोजन के लिए पर्याप्त राशन नहीं है, खाना कैसे बनेगा? मैंने बाबा को बताया। बाबा ने कहा, बड़ी सहज बात है, बोर्ड पर लिख दो कि सायं चार बजे से नौ बजे तक योग है। कोई रसोई में जाएगा ही नहीं। प्यारे बाबा भी सायं चार बजे से योग में बैठ गये। अभी छह भी नहीं बजे थे कि डाकिया आया। एक बैरंग लिफाफा ले आया। भेजने वाले का नाम नहीं लिखा था। बाबा के कहने पर उसे खोला तो उसमें 200 रुपये निकले। बेगरी पार्ट में ऐसी गुप्त मदद अचानक मिलती थी।

साथ जीएंगे, साथ मरेंगे

एक दिन बाबा के साथ पहाड़ी पर घूमने गए थे तो देहली का एक नन्दकिशोर नाम का भाई भी वहीं था। उसने सोचा कि ये सफेद कपड़े पहने हुए कौन हैं, जो ऊपर चढ़ रही हैं। उत्सुकतावश वह भी हमारे साथ हो लिया। सफेद कपड़े, लम्बे- खुले बाल, हमारा यह वेश थोड़ा अलग तो लगता ही था। वह भाई इससे प्रभावित हुआ और पहाड़ी पर से वापस लौटते समय हमारे साथ ही पाण्डव भवन के अन्दर तक आ गया। उसका परिचय पूछा, तो कहने लगा कि आप इतनी शान्ति की शक्ति का फैलाव यहाँ कर रहे हो, ऐसे ही दिल्ली में आकर भी करो तो बहुत अच्छा होगा। बाबा ने उसको कहा कि आप प्रबन्ध करना, हम अवश्य देहली में भी आएँगे। फिर उसी भाई के निमन्त्रण पर हमारी चार-पाँच दादियाँ देहली सेवा पर गईं। इस घटना के बाद बाबा हम अन्य सभी को भी धीरे-धीरे बाहर सेवा पर भेजने लगे। एक दिन क्लास में प्यारे बाबा ने कहा कि आप सभी को जाना ही है सेवा पर। प्यारे बाबा ने प्रसिद्ध आख्यान महाभारत की उस घटना का उदाहरण दिया जब पाण्डवों ने गुप्तवेश में राजा विराट के यहाँ नौकरी की थी और कहा कि आप शिवशक्ति पाण्डव सेना को भी गुप्तवेश में सेवा का पार्ट बजाना ही है। हमने कहा, ‘बाबा, हमारा तो आपके साथ एक ही वायदा है कि साथ जिएँगे, साथ मरेंगे, साथ रहेंगे, हम तो जाएँगे नही।’

युक्ति से सेवा पर भेजा

भगवान ज़ानीजाननहार हैं और हरेक आत्मा से सेवा करवाने की विधि तथा युक्ति सम्पूर्ण रूप से जानते हैं। हमारे प्रति उन्होंने एक आकर्षक युक्ति अपनाई। प्रातःकाल क्लास में कहा कि जिन बच्चियों ने हवाई जहाज तथा 26 जनवरी का उत्सव न देखा हो वे हाथ उठाएँ। हम छह बहनों ने हाथ उठाया। बाबा ने हमें देहली में भेज दिया। मुझे प्रवचन करने का सुअवसर मिला, लोगों ने ध्यान से सुना और अच्छी सेवा हुई, एक भाई ने बाबा को समाचार लिख भेजा। इस सेवा के परिणामस्वरूप मुझे वहीं देहली में सेवार्थ रख लिया गया।

जब दिल्ली में सेवा प्रारम्भ की तो आटे में नमक डालते थे, दो रोटी बनाते थे और सुबह चाय के साथ खाकर निकलते थे। कभी किसी के घर सत्संग करते थे, कभी किसी के घर। रात तक कई स्थानों पर सेवा करके, फिर लौटते थे। रात को आकर सस्ते आलू खरीद लाते थे, खूब पानी डालकर रस वाले बनाते थे। प्यार से भोग लगाकर सन्तुष्टता से खाते थे। यदि किसी ने पैसे, रुपये कभी दिये तो महायज्ञ में भेज देते थे। यज्ञ में इस प्रकार तन, मन, धन लगाने से शक्ति बहुत मिलती थी। प्यारे बाबा ने हम निर्बल कन्याओं को इसी युक्ति से शक्तियाँ बना दिया। मेरा लौकिक भाई, भाभी को कहता था कि हमारी यह बहन ऐसी थी, जो पुलिस वाले का नाम सुनते ही खटिया के नीचे छिप जाती थी परन्तु आज हज़ारों के सामने भाषण करती है निडरता से। लेकिन यह किसकी शक्ति है! महीन बुद्धि से विचार करने पर ही समझ में आता है कि यह साकार बाबा के तन में विराजमान शिव पिता की ही शक्ति कार्य कर रही थी, अब भी कर रही है।

रूहानी सर्जन का अनोखा इलाज

मैं आबू में आने पर एक वर्ष तक डायरिया से पीड़ित रही। यहाँ तो इतने डॉक्टर थे नहीं, प्यारे बाबा ने मुम्बई से डॉक्टर को बुलवाया। उसने कहा, ‘इनकी शादी करा दो तो ये ठीक हो सकती हैं।’ उसने यह भी कहा कि ‘ये बच नहीं सकती’। उसने मुम्बई अस्पताल में भर्ती होकर इलाज कराने की सलाह दी। मैंने कहा, शादी तो कराओ किसी और की, रही बात ठीक होने की, यदि मरना होगा तो मुम्बई में जाकर भी शरीर छूटेगा, इससे तो यहीं पवित्र स्थान पर शरीर छूटे तो अच्छा है। उन दिनों दादी जानकी जी यज्ञ में नर्स की सेवा करती थी। एक दिन मेरी बहुत गम्भीर हालत को देख उसने बाबा को कहा कि बाबा, सीतू तो आज रात भी नहीं निकालेगी, सुबह तक बचने की उम्मीद नहीं है। मेरा सारा शरीर और मुख सूज गया था। बाबा ने उत्तर दिया, बच्ची, तुम सो जाओ बाकि बाबा जाने यह जाने। रात को ढाई बजे बाबा मेरे पास आये और पूछा, बेटी, कितने दिनों से नींद नहीं की है? मैंने कहा, बाबा, खाना तो खाती नहीं हूँ, नींद कैसे आए। बाबा ने 10 मिनट शक्तिशाली दृष्टि दी और फिर दादा विश्वरतन जी से उसी समय अर्थात् रात के ढाई बजे गाय का दूध मँगवाया। उस कच्चे दूध को इन्जेक्शन में भरकर मेरी दोनों बाँहों में लगा दिया गया। इससे मुझे कई दिन बाद गहरी नींद आई। अगली सुबह से, बाबा के दिए कार्यक्रम के अनुसार कई प्रकार के फलों का रस मिलाकर पीती रही। फिर बाबा ने अपने साथ भोजन की एक-एक ग्राही खिलाना प्रारम्भ किया। इस प्रकार पूर्ण स्वस्थ हो गई।

मुख्यालय एवं नज़दीकी सेवाकेंद्र

अनुभवगाथा

Bk prem didi punjab anubhavgatha

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Bk vijaya didi haryana anubhavgatha

विजया बहन, जींद, हरियाणा से, श्रीकृष्ण की भक्ति करती थीं और उनसे मिलने की तीव्र इच्छा रखती थीं। उन्हें ब्रह्माकुमारी ज्ञान की जानकारी मिली, जिससे उनके जीवन में बदलाव आया। ब्रह्मा बाबा से पहली मुलाकात में, उन्हें अलौकिक और पारलौकिक

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Bk santosh didi sion anubhavgatha

संतोष बहन, सायन, मुंबई से, 1965 में पहली बार साकार बाबा से मिलीं। बाबा की पहली मुलाकात ने उन्हें विश्वास दिलाया कि परमात्मा शिव ब्रह्मा तन में आते हैं। बाबा के दिव्य व्यक्तित्व और फरिश्ता रूप ने उन्हें आकर्षित किया।

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Dada anandkishore ji

दादा आनन्द किशोर, यज्ञ के आदि रत्नों में से एक, ने अपने अलौकिक जीवन में बाबा के निर्देशन में तपस्या और सेवा की। कोलकाता में हीरे-जवाहरात का व्यापार करने वाले दादा लक्ष्मण ने अपने परिवार सहित यज्ञ में समर्पण किया।

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Bk pushpa didi nagpur anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी पुष्पा बहन जी, नागपुर, महाराष्ट्र से, अपने अनुभव साझा करती हैं कि 1956 में करनाल में सेवा आरम्भ हुई। बाबा से मिलने के पहले उन्होंने समर्पित सेवा की इच्छा व्यक्त की। देहली में बाबा से मिलने पर बाबा ने

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Bk jagdish bhai anubhavgatha

प्रेम का दर्द होता है। प्रभु-प्रेम की यह आग बुझाये न बुझे। यह प्रेम की आग सताने वाली याद होती है। जिसको यह प्रेम की आग लग जाती है, फिर यह नहीं बुझती। प्रभु-प्रेम की आग सारी दुनियावी इच्छाओं को

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Bk sister denise anubhavgatha

सिस्टर डेनिस का जीवन अनुभव प्रेरणा से भरा है। ब्रिटिश व्यवसायी परिवार से जन्मी, उन्होंने प्रारंभिक जीवन में ही महिला सशक्तिकरण के विचारों को आत्मसात किया और आगे भारतीय संस्कृति और ब्रह्माकुमारी संस्थान से जुड़ीं। ध्यान और योग के माध्यम

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