Brahma Kumaris Logo Hindi Official Website

EN

Mamma anubhavgatha

मातेश्वरी जगदम्बा सरस्वती – मम्मा – अनुभवगाथा

आपका लौकिक नाम राधे था। आप यज्ञ की स्थापना के समय जबबाबा के पास आई, बाबा ने आपको ओमराधे नाम से संबोधित किया। बाबा ने अपनी सारी संपत्ति कन्याओं-माताओं की जिस कमेटी के आगे समर्पित की, आप उस कमेटी की हेड थीं। बाबा ने आपको कन्याओं, माताओं की संभाल करने, यज्ञ को सुचारु रूप से चलाने तथा मातृ स्नेह एवं पालना देने के निमित्त बनाया, इसलिए आपको नाम मिला जगदम्बा सरस्वती, ब्रह्मा की पहली मुख संतान । बाबा ने आपके भविष्य को देखते हुए आपको साक्षात्कार कराया कि आप राधे ही भविष्य की अनुराधे अथवा श्रीलक्ष्मी बनने वाली हैं, इसी आधार से आपके अंदर वे सब लक्षण आते गये और आपने यज्ञ माता बन यज्ञ-वत्सों की पालना की। आपकी वाणी में अति मधुरता और स्पष्टता थी जो हर एक उसे सहज समझकर ग्रहण कर लेता। आप योगनिष्ठ थी, आपको सदा हाँ जी का पाठ पक्का था। बाबा के मुख से जो निकला, वह बिना कुछ सोचे आप तुरंत कर लेती। आपमें पवित्रता का ऐसा बल था जो आसुरी वृत्तियों वाली आत्मा सामने आते ही परिवर्तन हो जाती। आपकी दृष्टि से योग का जौहर दिखाई देता था। आपने भारत के विभिन्न प्रांतों में जाकर सेवाओं का खूब विस्तार किया। अनेक विघ्नों में अचल-अडोल-एकरस, स्थिर रही। आप 24 जून, 1965 में अव्यक्त वतनवासी बन गई।

 

राजयोगिनी दादी जानकी जी मम्मा के बारे में अपने अनुभव इस प्रकार व्यक्त करती हैं –

गुप्त पुरुषार्थी

मम्मा की कितनी महिमा करें, वो तो है ही सरस्वती माँ। मम्मा में सतयुगी संस्कार इमर्ज रूप में देखे। बाबा की मुरली और मम्मा का सितार बजाता हुआ चित्र आप सबने भी देखा है। बाबा के गीत बड़े प्यार से गाती रही परंतु पुरुषार्थ में गुप्त रही इसलिए भक्तिमार्ग में भी सरस्वती (नदी) को गुप्त दिखाते हैं।

मम्मा से काली देवी का अनुभव किया। उनके सामने जाते ही सबका उद्धार हो जाता था। शीतला भी मम्माही है। मम्मा के शीतला रूप के मंदिर अनेक स्थानों पर हैं। जगत अम्बा के रूप में उन पर चढ़ावा चढ़ता है। हम सब जो यज्ञ से खा रहे हैं, यह यज्ञमाता पर चढ़ा हुआ चढ़ावा ही तो है। यज्ञ का देगड़ा, द्रोपदी का देगड़ा है, कभी खाली नहीं होगा। मम्मा पहले राधे, फिर सरस्वती, फिर जगदम्बा बनी। मम्मा से ज्वालामुखी स्वरूप का अनेक बार अनुभव किया। 

यह नहीं कहेंगे कि मम्मा, शिव बाबा को याद करती थी बल्कि याद स्वरूप स्थिति कैसे होती है, यह मम्मा के चहरे से दिखाई पड़ता था। व्यक्तित्व में रूहानियत, दिल में परमात्मा पिता के लिए प्यार और सम्मान, पढ़ाई में एक्यूरेट- ये मम्मा की विशषताएँ थीं।

हाथ पकड़ने से अशरीरी बन जाते थे

मम्मा के हाथों में इतनी कशिश, जो हाथों में हाथ दो तो अशरीरी बन जाते थे। मम्मा ने बाबा से इतना सीखा जो धारणा करने में नम्बरवन चली गई। मम्मा की शिक्षा सुनते-सुनते बुद्धि शिवबाबा और परमधाम की स्मृति में टिक जाती थी। कमाल यह थी कि बैठते थे मम्मा के सामने, याद शिवबाबा आता था। अपना नाम-रूप भुलवाने में बड़ी होशियार थी। देखते थे तो सम्पूर्ण मम्मा दिखाई देती थी। उनकी वाणी सुनते-सुनते कैसा भी व्यक्ति पिघल जाता था। बोल में इतनी रूहानियत थी जो तुरंत

देहभान भुला, शांतिधाम होने का अनुभव कराती थी। दिल कहता था, मम्मा के सामने आवाज़ में कैसे आएं?

हर घड़ी अन्तिम घड़ी

मैं नई-नई यज्ञ में आई थी, कराची में मम्मा के सामने बैठी थी। मैंने पूछा, मम्मा मैं क्या पुरुषार्थ करूं? मम्मा ने कहा, ‘हर घड़ी को सदा ही अंतिम घड़ी समझना।’ उसी घड़ी से सब पसारा बुद्धि से निकल गया। आज तक भी इस धारणा को कभी भूली नहीं हूँ।

कभी ख्याल ना आए कि यह शिक्षा क्यों मिली

एक बार मम्मा ने कहा, ‘कभी कोई शिक्षा मिले तो उसे संभाल कर रखना। कभी यह ख्याल ना आए कि मुझे यह शिक्षा क्यों मिली, मेरी भूल तो थी नहीं। शिक्षा बड़ी काम की होती है। समय पर बड़ी काम में आयेगी।’ तब से लेकर बुद्धि में एक बॉक्स बनाया हुआ है। बहन- भाई किसी द्वारा भी शिक्षा मिले, संभाल कर उसे बॉक्स में रख लेती हूँ, यह महसूस कभी नहीं किया कि यह कौन होता है मुझे शिक्षा देने वाला? इस प्रकार, सीखने की भावना मम्मा ने पैदा की। सेवा में जब नर्स थी तो मम्मा से बहुत धैर्य सीखा। बाबा (बाबा भवन से) टेलिफोन पर मुरली सुनाता था, मम्मा सुनती थी कुंज भवन में, बड़ी एकाग्रता से हुँकारा भरती जाती थी। हमें भी ध्यान रहे कि मम्मा जैसी गंभीरता, नम्रता, सत्यता की मूर्ति बनना है।

संकोच दूर कर दिया

एक बार एक सखी को ऐसे ही सुनाया मैंने कि मैं मम्मा से थोड़ा डरती हूँ। सखी ने मम्मा को सुनाया। फिर मम्मा हाथ पकड़ कर टेनिस कोर्ट में चलते- चलते पूछने लगी, आप मेरे से डरती हो? मैंने कहा, डरती तो नहीं हूँ, शायद संकोच कस्ती हूँ बात करने में। उसी घड़ी मम्मा ने मेरा संकोच दूर कर दिया। बहुत हल्का कर दिया। उस दिन के बाद भाग्य खुल गया। मैं नर्स थी, मम्मा राउण्ड लगाने आए तो भी मेरा हाथ, हाथ में ले ले। जब भी सामने जाऊं, बोले, आओ बैठो। बाबा ने अपने समीप लाया। सम्मुख और समीप रहने से समान बनना सहज हो गया है। उतावली से, फोर्स से कभी मम्मा ने नहीं बोला। वे सेकण्ड में समझ जाती थी कि अब इसके व्यर्थ ख्यालात शुरू हैं। मीठा इतना बोलती थी मानो लोरी दे रही हो परंतु उस लोरी में नींद नहीं आती थी बल्कि आत्मा उठकर खड़ी हो जाती थी। व्यर्थ का समापन कर देना सामने बिठाकर – यह मम्मा में देखा।

ड्रामा के पट्टे पर अडिग-अडोल

दृष्टि से ही सब कुछ सिखा देना, यह मम्मा को आता था। मैंने पूछा, मम्मा, मुझे क्या करना है। पहले तो बताया नहीं, फिर बोली, सब ठीक है, फिर इशारे से कहा, ‘किसी का अवगुण चित्त पर रखती हो।’ उसी दिन से कान पकड़ लिया। शांतचित्त, उदारचित्त तब बनेंगे जब चित्त साफ होगा। योग बल क्या होता है, मम्मा से सीखा है। पूना में डेढ़ महीना मम्मा हमारे पास थी। लगता नहीं था कि मम्मा के शरीर को कोई तकलीफ है। शांतामणि दादी के लिखे हुए मुरली के नोट्स रोज मम्मा के पास आते थे। नोटस् पढ़ती थी, बाबा की मुरली पढ़ती थी, टेप भी सुनती थी। भले ही रात के 11 बज जाएँ, फिर भी मुरली पढ़ने का नियम पक्का था। मम्मा, बाबा की आज्ञाकारी, चाहे कुंछ भी हो जाए अचल-अडोल रहने वाली थीं। किसी के शरीर छोड़ने का समाचार सुनाओ तो बोलेंगी, अच्छा, ड्रामा। मम्मा बैंगलोर गई थी। वहाँ के भाई-बहनों को मम्मा से बहुत प्यार मिला तो छुट्टी देते समय सबकी आँखें भर आईं। मम्मा उसी अचल अवस्था में रही। फिर हमारे पास पूना आई। भाई-बहनों ने पूछा, यहाँ से जाकर हमें भूल जाएँगी? मम्मा ने कहा, और क्या करेंगी। मम्मा ड्रामा के पट्टे पर अडिग, अडोल रहती थ्री।

इनको होवे तो पता चले

बाबा जब मुम्बई में, ऑप्रेशन कराने आए थे, हम भी वहीं थे। कई लोग पूछते थे, क्या आपके गुरु हैं ये? तब बाबा ने कहा, बोलो, बापदादा हैं। तब से बापदादा नाम प्रचलित हो गया। बाबा ऑप्रेशन कराने हॉस्पिटल में अपने कमरे में आये, शरीर चद्दर से ढका पड़ा था, कहने लगे, मुझे कलम दो मुरली लिखूँ। छह पेज की मुरली लिखी। कितना बाबा का प्यार हम बच्चों से है! हमने पूछा, मम्मा, बाबा को शरीर की तकलीफ क्यों हुई? मम्मा ने कहा, नहीं तो मनुष्य कहेंगे, इनको होवे तो पता चले। यानि शरीर को कुछ हुआ तो पता चला कि स्थिति कैसी हो? बाबा की उस घड़ी की स्थिति देखी, बड़ी वंडरफुल थी। देह में होते हुए भी जैसे देह के असर से पूर्ण मुक्त थे।

 

मातेश्वरी जगदम्बा से साकार में पालना प्राप्त आदरणीय भ्राता जगदीश चन्द्र जी उनके प्रति अपने अनुभव इस प्रकार लिखते हैं –

जगदम्बा सरस्वती गुणों की साक्षात् मूर्त थीं

सारे जीवनकाल में हमने उस जगदम्बा सरस्वती को साक्षात् देखा, जिसकी लोग पूजा करते हैं। स्कूलों और कॉलेजों के बाहर, कहीं मूर्ति बनाकर और कहीं चित्रों द्वारा उनकी पूजा होती है। लोग कहते हैं, ये विद्या की देवी थी। वे कैसे विद्या की देवी बनी, क्या विशेषता थी उनकी? उनसे अनुभव सुनना, जो उनके अंग संग रहे, बहुत लाभकारी बात है। आप जानते हैं कि आर्य समाज के संस्थापक के आगे “सरस्वती” उपाधि लगती है, ये सरस्वती कौन थी? सरस्वती जो हुई, वे तो आत्मा और परमात्मा को बहुत बारीकी से जानती थी, उन्होंने जो समझा था, उसे जीवन में पूरी तरह उतारा था। वे गुणों की साक्षात् मूर्त थी।

देहली में एक व्यक्ति था, जो पवित्रता के नाम पर अपनी पत्नी को तंग करता था। रिश्तेदारों को कहता था कि जब से यह ब्रह्माकुमारी में जाती है, सेवा नहीं करती है, बच्चों को नहीं संभालती है। असली बात तो वह बताता नहीं था क्योंकि वह बात उसके विरूद्ध जाती थी। उसने मेरी भी पिटाई करने की कोशिश की थी, वो समझता था कि यही भाई है जो सभी को सहयोग देता है। उसने अपनी पत्नी को घर से निकाल दिया। हमने फैसला होने तक उस बहन को महिला आश्रम में रखा।

मम्मा से बहुत प्रभावित हुआ

मैं महिला आश्रम के प्रधान को अपने साथ दिल्ली राजौरी गार्डन सेवाकेन्द्र पर मम्मा से मिलाने ले गया। मेरे से आधा घण्टा पहले वो व्यक्ति भी आश्रम पर पहुँचा था। उसने सेन्टर की दरी फैंक दी, बल्ब तोड़ दिये, कुर्सियाँ इधर-उधर कर दी, काफी अपना तमाशा दिखाया। फिर पूछने लगा, मम्मा कहाँ है, आज मैं फैसला करके ही जाऊंगा। बहने डर गई कि पता नहीं यह मम्मा को क्या कह दे। मम्मा को उन्होंने सबसे ऊपरी मंजिल पर भेज दिया। वह कहने लगा, ‘आपने मम्मा को छिपाकर रखा है, मेरे सामने क्यों नहीं आती, मेरे से बात कराओ।’ फिर अपने आप ही सारे मकान में घूमा ऊपर-नीचे, फिर सबसे ऊपर की मंजिल पर गया। वहाँ कमरे में एक चारपाई और एक कुर्सी थी। कुर्सी पर मम्मा बैठी थी। वह जब पहुँचा तो मम्मा कुर्सी से उठ गई और बोली, ‘आओ बच्चे, आओ, कैसे आए?’ बहुत प्यार से उसको कहा, ‘आओ बच्चे!’ यह सुनकर उसने सच्चे मन से कहा, माँ, माँ, माँ!, प्रश्न सब उसके खत्म हो गए। मम्मा ने फिर पूछा, ‘बोलो, कैसे आए?’ कहता है, ‘कुछ नहीं।’ जो उसकी शिकायत थी, जो वह झगड़ा करने आया था, वे सब बातें एक तरफ रहीं, मम्मा से बहुत प्रभावित हुआ। मम्मा ने तो कोई बात भी नहीं की थी, केवल प्यार से उसे बुलाया था कि ‘आओ बच्चे, बैठो।’ उसने कहा, ‘नहीं मम्मा, आप यहीं बैठो, मैं वहाँ बैठता हूँ।’ बड़ी नम्रता से मम्मा ने उसे कहा, ‘नहीं, नहीं, आप बैठो।’ उसे आश्चर्य लगा कि ये इतनी बड़ी हैं और मुझे अपनी जगह दे रही हैं। बैठ तो गया वह पर शान्ति से मम्मा से दृष्टि लेता रहा। उस दृष्टि से उसे बहुत लाभ हुआ, अच्छा अनुभव हुआ। वापस लौटकर लोगों को बताने लगा कि मम्मा इनकी बहुत महान है।

शिक्षाओं का प्रत्यक्ष नमूना

वह मम्मा का कायल हो गया। मम्मा की तरफ से कोई गुस्सा नहीं किया गया, झगड़ा नहीं किया गया कि क्यों आये तुम, कौन है तुम्हारे साथ, किसी से इजाज़त क्यों नहीं ली, क्या यह कोई सभ्यता है, कुछ नहीं कहा मम्मा ने। मम्मा का प्यार, दुलार, व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि वह बाबा की शिक्षाओं को प्रत्यक्ष करने में आदर्श नमूना थी।

इनका कसूर नहीं है

योगी के लिए गाया हुआ है कि उसकी मनसा, उसकी आंतरिक स्थिति, सबके प्रति प्रेम और सद् भावना वाली होती है। वह सोचता है, जो निंदा करे वह भी हमारा मित्र। बाबा के जीवन में भी हमने देखा, सिर्फ कहने मात्र नहीं बल्कि निन्दा करने वालों को कहते, ‘बच्चे हैं ना। इनको ज्ञान नहीं है, इनका कसूर नहीं है। ड्रामानुसार इनका यही पार्ट है, जब समझ जायेंगे तब ऐसा नहीं करेंगे। इसलिए इनकी बात का बुरा मानने की ज़रूरत नहीं है।’

निर्मल जीवन दर्पण जैसा

मम्मा की चुम्बकीय शक्ति इस बात के कारण थी कि वे सबको बच्चे समझती थी। सिर्फ ब्रह्माकुमार- ब्रह्माकुमारियों की माँ नहीं, वे तो अपने व्यवहार से साक्षात् दर्शाती थी कि सभी उनके बच्चे हैं, चाहे आयु कुछ भी थी। शत्रु-मित्र का, स्त्री-पुरुष का, आयु का, किसी का भी उनको देहभान नहीं था। तो वे योगी हो गई ना। बिना योग के देहाभिमान जा नहीं सकता। योग की शक्ति सर्वश्रेष्ठ है। योगी इसी से विजय प्राप्त करता है, विजयमाला का दाना बनता है। यह हमने मम्मा के जीवन में प्रत्यक्ष देखा। उन दिनों इस संस्था के प्रति लोगों की प्रतिक्रिया बहुत विरोधात्मक थी। कई लोग उन दिनों बाबा की बड़ी निन्दा कर दिया करते थे। अब मनुष्य अपनी निन्दा तो सुन ले, चलो संस्था की भी बर्दाश्त कर ले परन्तु बाबा, जिनसे अनन्य प्रेम है, जिनसे नया जीवन पाया है, उनके लिए ऐसा- वैसा सुनने से उत्तेजना होती थी। लेकिन यह ना हो, यह हमने मम्मा का जीवन देखकर सीखा। मम्मा की तरह सहनशीलता, मधुरता, नम्रता, सबके प्रति सज्जनता- ये सभी दैवी गुण हममें भी होने चाहिएँ। जब तक कोई रोल मॉडल, आदर्श सामने ना हो व्यक्ति किसका अनुकरण करे? मम्मा का जीवन निर्मल था, दर्पण की तरह से। कोई भी देखे, उनके पास बैठे, चाहे विरोधी हो, चाहे सहयोगी हो, कहेगा, ‘यह मेरी मम्मा है।’

निर्बल आत्माओं को बल मिला

ऐसे ही एक अन्य स्थान पर विरोधियों का एक समूह मम्मा से मिलने सेन्टर की ऊपरी मंज़िल पर गया तो देखा, वो अचल, स्थिर अवस्था में बैठी थी। नीचे जो विरोध के स्वर गूँज रहे थे, उनसे एकदम अप्रभावित । वे मम्मा के सामने आकर बैठ गए। उनमें से किसी को कुछ, किसी को कुछ अलौकिक अनुभव हुए। जब कोई ठीक स्थिति में बैठता है तो बाबा भी मदद करते हैं। थोड़ी देर बैठने पर उन्हें अनुभव हुआ कि मम्मा के नेत्रों से बहुत नूर निकल रहा है। जैसे टार्च की रोशनी किसी पर फेंकी जा रही हो। जब वे नेत्रों की तरफ देखते थे तो उनको लगता था कि वहाँ प्रकाश ही प्रकाश है। उनके मन से यह आवाज़ निकली – यह साधना की शक्ति है वरना तो कोई महिला, ऐसी स्थिति में या तो डर जाएगी या उठ खड़ी होगी या झगड़ा करेगी या ज़ोर से चिल्लाएगी, पर ये तो एक दम शांत हैं। शान्ति की शक्ति से मम्मा ने उनको एकदम शान्त कर दिया। उस समय उन्हें शान्ति की शक्ति की ज़रूरत थी क्योंकि वे अशान्त आत्मायें थीं। उन निर्बल आत्माओं को बल मिला। उनको लगा कि यह स्थान आवाज़ से ऊपर की दुनिया का है। यहाँ हमें आवाज़ नहीं करनी चाहिए। उन्होंने सोचा, कौन है इस दुनिया में जो इतनी देर तक एक ही आसन पर बैठा रहे। पर इन्होंने तो शरीर, मन और नेत्र सभी को साध लिया है। ये महान आत्मा हैं।

विरोधी शान्त हो गए

उनमें से कुछ ने धार्मिक साहित्य पढ़ा था। योगी के लक्षणों को वे जानते थे। योगी के चारों ओर बैठने वाले जानवर, जो जन्मजात शत्रु होते हैं, मित्र बन जाते हैं, जैसे कि तपस्वी शंकर के यादगार चित्र में दिखाया गया है। उनके पास मोर, सांप, बैल आदि बैठे दिखाते हैं, जो यूं तो जन्मजात एक-दो के वैरी हैं, पर वहाँ एक परिवार के सदस्य की भांति बैठे हैं। भाव यह है कि शंकर जी की योग समाधि से प्रभावित होकर वे भी शान्त हो गए हैं। ये विरोधी लोग मम्मा को देखकर शान्त हो गए। वे वहाँ से जाना नहीं चाहते थे, मम्मा की शक्ति ने उनको पकड़ लिया था पर फिर भी वे यह सोचकर नीचे आ गए कि कहीं बाहर खड़े लोग और ज्यादा हल्ला-गुल्ला ना कर दें।

सच्ची शान्ति यहीं मिल सकती है

नीचे आए तो नीचे खड़े लोग तो बेसब्री से उनका इंतज़ार कर ही रहे थे। इन्होंने कहा, ‘भाई, इनकी मम्मा कमाल है, आप चाहो तो जाके देख लो। मम्मा इनकी बहुत अच्छी है।’ विरोधियों ने कहा, ‘देखा, तुम लोगों को भी जादू लग गया ना। हम पहले ही डर रहे थे कि तुम इतनी देर से बैठे हो, बिल्कुल उनके होकर ही आओगे। हो गया ना जादू!’ वे बोले, ‘ऐसा नहीं है, आप खुद जाकर देख लो।’ उन्होंने कहा, ‘आपका मतलब यह है कि हम भी जायें और जादू लगवाकर आ जायें? ना भाई, हमारे बच्चे, बीवी कहेंगे, ये कहाँ से बदलकर आ गए हैं, हम नहीं जाते।’ ऐसा कहकर बहुत-से चले गए। पर कुछ बहुत ही निकृष्ट प्रकार के लोग थे, अब भी खड़े रहे। पूछने लगे, ‘क्या तुम्हारी आँखों में सूरमा डाला था?’ वे बोले, ‘नहीं।’ फिर पूछा, ‘कुछ खिलाया था क्या?’ वे बोले, ‘नहीं।’ फिर पूछा, ‘तो जादू कैसे किया, दृष्टि से कर दिया होगा।’ वे बोले, ‘तुम चाहे जो कह लो पर सच्ची शान्ति मिल सकती है तो यहाँ ही मिल सकती है और मिल सकती है इनकी मम्मा से।’

पुरुषार्थी अर्थात् शिक्षा को तुरन्त जीवन में उतारना

मैंने दो वृत्तांत बताए । बाबा बार-बार हमसे कहते है- ‘बच्चे, आपकी योग की स्टेज ऐसी हो जो मनसा सेवा कर सको। अन्त में ऐसी ही सेवा होगी। लोग बहुत घबराए हुए और अशान्त होंगे। आप साइलेन्स में रहकर उनको शन्ति की शक्ति देना, जो चाहिए वो देना।’ अभी तक हमारे जीवन में वो विशेषता नहीं आई और मम्मा में तो उन दिनों आ गई थी। मम्मा को बाबा ने कोई बात बार-बार नहीं कही। यही मम्मा की विशेषता थी। बाबा ने जो एक शिक्षा दी, दुबारा कहने की ज़रूरत बाबा को नहीं रही। ‘जी बाबा’ कहकर मम्मा ने उसको अपने जीवन में लाया। इसको कहते हैं पुरुषार्थ। मम्मा, वाणी में भी कहती थी, जब आप कहते हो, ‘मैं पुरुषार्थी हूँ’, तो इसका अर्थ आप यह लेते हो कि हमारे में कमी-कमज़ोरियाँ हैं, हमसे भूलें हो जाती हैं परन्तु सच्चे अर्थों में पुरुषार्थी का अर्थ है, एक बार बात समझ ली तो दुबारा समझाने की ज़रूरत ना रहे। हम संस्कार बदलना चाहते हैं पर बदलते नहीं पर मम्मा ने तुरन्त संस्कार बदल लिए इसलिए आगे चली गई।

* **

राजयोगिनी दादी मनोहरइन्द्रा जी मातेश्वरी जगदम्बा के प्रति अपने उद्गार इस प्रकार व्यक्त करती हैं –

गंभीर और हर्षितमुख

मम्मा, मम्मा कैसे बनी, वो सब मैंने देखा। मम्मा को लौकिक जीवन में भी हमने देखा था। हम स्कूल से जब निकलते थे तो मम्मा और साथ में उनकी बहन, दोनों को देखते थे। हम स्कूल की कुछ लड़कियाँ एक कोने में खड़े होकर एक बार तो दर्शन करती थीं। मालूम नहीं था, क्यों हमको कशिश (खिंचाव ) होती है। शायद इसलिए कि वो भविष्य में हमारी माँ बनने वाली थी। मम्मा का चेहरा गम्भीर और हर्षितमुख था। थी तो वो लौकिक जीवन में, फ्राक पहने, जुराबें पहने, लम्बे बाल और चेहरे पर थोड़ी दिव्यता की झलक। उस समय तो हम दिव्यता को भी नहीं समझते थे, लेकिन कशिश थी। कुछ दिनों बाद मालूम पड़ा कि वो हमारी ज्ञान-कक्षा में आने लगी हैं। बाबा नया गीत बनाता था और मम्मा शाम के समय उस गीत की तर्ज निकाल कर गाती थी। ऐसे तो गाने वाली और भी बहुत बहने थीं, परन्तु मम्मा का चेहरा ही बोलता था। दृष्टि से, चहरे से, हाव-भाव से, मम्मा द्वारा गाया गया गीत बहुत अच्छा लगता था। इसलिए सभी क्लास वालों को बड़ा आकर्षण होता था। बाबा के नामी रिश्तेदार, मम्मा के नामी रिश्तेदार भी देखने मिलने आते थे, सभी को मम्मा का गीत बहुत अच्छा लगता था। पहले भी वो स्कूल में गाया करती थी परन्तु उस समय की और बात थी। यहाँ ओम मण्डली में आकर एकदम दिव्यता से भरपूर होकर गीत गाना और उस दिव्य नशे से गीत गाना उसका प्रभाव लोगों पर बहुत अच्छा पड़ता था।

कोर्स से फोर्स भरती थी

बाबा ने एक विशेष गीत बनाया था और मम्मा ने अनुभव के आधार से उसे गाया। गीत के भाव इस प्रकार थे, मीठी सखियों! मैंने यहाँ सत्संग में आकर देखा कि मैं मानो हास्पिटल में आ गई हूँ जहाँ ज्ञान का नेत्र खुलता है, नई आँखें ज्ञान की मिलती हैं, पुरानी दुनिया की पुरानी आँखें बन्द हो जाती हैं, ऐसा मैंने यहाँ देखा है। और भी कई अनुभव के शब्द इसमें थे। इसे सुनकर लोगों के मन में मम्मा के प्रति भाव और सम्मान पैदा होने लगा। पहले तो मम्मा को सभी राधे बोलते थे, यही उनका नाम था परन्तु जैसे-जैसे वो ॐ ध्वनि लगाने लगी, ॐ के अर्थ में टिकने टिकाने की शक्ति उनमें आती गई तो सभी ने नाम रखा ‘ॐ राधे’। फिर थोड़ा और आगे चली तो मम्मा, ज्ञान का कोर्स कराने लगी और कोर्स में फोर्स भर कर ऐसा सुनाती थी कि जिज्ञासु रोज़ आने लगता था। दूसरी बहनें ज्ञान सुनाती थीं, जिज्ञासु दो दिन आया, तीन दिन आया फिर ढीला हो जाता था या चला जाता था परन्तु मम्मा ऐसा फोर्स भरती थी कि क्लास वृद्धि को प्राप्त होती चली गई।

मम्मा द्वारा श्री लक्ष्मी का साक्षात्कार

मम्मा में योग का जौहर था। वे अर्थ में टिककर गाती थी। उसका भाषण भी सबसे अधिक अच्छा होता था। जब बाबा कश्मीर में गये, वहाँ से ज्ञान का सारा सार, पत्र में लिखकर भेजते थे, हरेक के नाम पर, उसे पढ़ कर फिर वाणी चलाई जाती थी। उसमें भी मम्मा का जो बोलना था, उसमें इतनी ताकत होती थी कि सब दत्तचित्त हो जाते थे। फिर मम्मा उठती थी तो सब उनके सामने खड़े हो जाते थे और जिनको भी वो दृष्टि देती थी तो जैसे बाबा के द्वारा श्री कृष्ण का साक्षात्कार होता था, ऐसे मम्मा के द्वारा भी राधे, श्री लक्ष्मी का साक्षात्कार होता था। फिर यशोदा माता (बाबा की युगल) को साक्षात्कार हुआ कि यही श्री लक्ष्मी बनने वाली है। इस प्रकार, सभी बड़ी- बड़ी बहनें भी, इस भविष्य को जानकर अपने आप मम्मा को सम्मान देने लगीं। किसी को भी यह विचार नहीं आया कि हम इनसे आगे जा सकते हैं। मम्मा जैसे अपने गुणों से स्वतः आगे बढ़ती चली गई।

हम झुक गये उनकी पालना के आगे

पालना करने का तो जैसे कुदरती संस्कार था मम्मा में। हम बांधेली बहनें, मारें खा-खाकर आती थीं, मम्मा को अपना दुःख सुनाती थीं तो वो एक तरफ हमारे दिल की सच्चाई को परखती थी और दूसरी तरफ हममें हिम्मत भरती थी, हमें पाँवों पर खड़ा करती थी और युक्तियाँ बताती थी कि तुम ऐसा-ऐसा कर सकती हो। इससे मम्मा का सहारा हम को मिल गया। हम घर में जाकर लौकिक रिश्तेदारों से वैसा ही व्यवहार करती थीं जैसा कि मम्मा हमको दिशानिर्देश प्रदान करती थी। तो मम्मा ने शुरू से लेकर हमको बच्चों की तरह पाला। थी तो खुद भी हमारे जैसी, चार-पांच साल बड़ी, पर मम्मा का स्वभाव-संस्कार इतना स्पष्ट हो गया तो लगा कि यह हमारी माँ है। उनकी पालना के कारण हम सब झुक गए। उनकी अध्यात्मिक शक्ति इतनी तीव्र थी कि उसके आगे किसी की भी अथॉरिटी चली ही नहीं। हर बात में मम्मा हमारी साथी बन कर रही। भण्डारे में पहले वो सेवा में फिर हम उनके पीछे- पीछे। हम उनको फॉलो करते रहते थे। उनकी अपनी धारणा का चमत्कार था यह सब ।

 

पटना के ब्रह्माकुमार भगवती प्रसाद मातेश्वरी जगदम्बा के साथ का अनुभव इस प्रकार व्यक्त करते हैं –

जुलाई सन् 1959 की बात है जब मैं ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय के संपर्क में पहली बार आया था। मैंने ब्रह्माकुमारी बहनों के अनुभव के आधार पर भागवत् की वास्तविक अमर कथा को सात दिनों तक सुना और बहुत प्रभावित हुआ। ज्ञान के बाण मर्म- स्थल तक घुस जाते थे और मैं सोचने को बाध्य हो जाता था कि यही एकमात्र सत्य है। लेकिन ‘कल्पपूर्व’ की भाँति गीता के भगवान पुनः अवतरित होकर प्रायः लोप गीता-ज्ञान दे रहे हैं और कलियुग के विनाश और सतयुग की स्थापना की तैयारी करा रहे हैं इतनी ऊँची बातों को मानने में कभी-कभी हृदय साथ नहीं देता था, भले ही मस्तिष्क साथ दे देता था। मस्तिष्क तो प्रभावित हो चुका था लेकिन हृदय अभी तक अछूता- सा ही था।

कुछ महीनों के बाद मैंने सुना कि मातेश्वरी जगदम्बा सरस्वती जी का शुभागमन पटना में होने वाला है। जब कभी अनुभवी बहनों तथा भाइयों से मैं माँ की बड़ी महिमा सुनता था तो कभी-कभी मन में हँसी आती थी कि बड़े भोले और सहज विश्वासी हैं ये लोग। मैं हृदयहीन, अविश्वासी तथा कड़े संस्कारों वाला था और स्वयं को बड़ा तार्किक समझता था। माँ के साक्षात्कार से पहले मैंने उनको माँ या ‘मम्मा’ शब्द से संबोधित नहीं किया। ‘सरस्वती’ शब्द से भी संबोधित करने के लिए हृदय गवाही नहीं देता था। सोचता था, औरों की तरह होंगी या शायद कुछ ऊँची हों।

मातेश्वरी जी का अलौकिक और स्नेह-भरा व्यक्तित्व

प्राण माँ से मिलन की घड़ियाँ आखिर आ पहुँची। ज्ञान-गर्भ में तड़पते बच्चे को मधुर लोरी सुना नवजीवन देने के लिए दिसंबर मास की एक प्रभात वेला में जगदंबा जी का पदार्पण पटना धरनी पर हुआ और कुछ समय बाद माँ क्लास में आसन पर आ विराजमान हुई। नयनों से अव्यक्त रूहानी मिलन हुआ तो ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे अणु-परमाणुओं में एक दैवी चेतना, एक दैवी स्फूर्ति फूंक दी हो। फिर तो मैं एकटक देखता ही रह गया। देवत्व की काल्पनिक प्रतिमा साकार में सजीव हो उठी। लगता था, कोई मानवी नहीं, देवी बैठी हो। योगमयी मम्मा की हर भाव-मुद्रा से एक दिव्यता की, अलौकिकता की भासना आती थी। लगता था जैसे उस तेजोमयी देवी से अलौकिक प्रेम की, करुणा की, आध्यात्मिक शक्ति की किरणें विकीर्ण हो चारों तरफ फैल रही हैं और सबको सराबोर करती, अनुप्राणित करती जा रही हैं। अतिशय गंभीर थीं वह, तो प्यार की सागर भी थीं। उस जगजननी के नेत्र इतने चपल थे कि सबको लगता था कि जैसे माँ हमीं को दृष्टि दे रही हैं, हमारी आत्मा में शक्ति भर रही हैं। इतने तेजस्वी नेत्र थे कि सब कुछ भेद कर सीधे आत्मा को ही देख रहे थे। प्रेम और वात्सल्य की धारायें तो उन नयनों से जैसे बरस रही थीं। वाणी का माधुर्य तो भुलाये नहीं भूलता। बैठे-बैठे सोचता था कि क्या कोई मानवी ऐसी अमृत-भरी वाणी बोल सकती है। और तो और, मम्मा के मौन और मुस्कान में भी अजीब जादू-सा लगता था जो बरबस हृदय को खींच लेता था। जगदंबा का वर्णन करने में पहली बार तुलसीदास की वह पंक्ति प्रत्यक्ष रूप में सामने आ गई कि ‘गिरा अनयन, नयन बिनु वाणी’ अर्थात् जबान को आँखें नहीं हैं और आँखों को जबान नहीं है।

मातृत्व सुधा बरसाने वाली जगजननी थी वे

अभी तक के अछूते हृदय को, प्रेममयी माँ ने केवल स्पर्श ही नहीं किया, आप्लावित भी कर दिया। सारा संशय, सारा अविश्वास, सारा कल्मष बह गया। मन-मयूर आनन्द-विभोर हो थिरक उठा कि सचमुच ही यह कामधेनु जगदम्बा श्री सरस्वती ही हैं जो कल्पवृक्ष के नीचे बैठ तपस्या कर रही हैं तथा कल्पवृक्ष के नीचे बैठे अन्य सभी रूहानी वत्सों की आध्यात्मिक कामनाओं को पूर्ण कर रही हैं। पहले कभी ‘माँ’ शब्द मुँह से निकलता ही न था और आज ‘मम्मा, मम्मा’ कहते जी नहीं अघाता था। बच्चे से बूढ़े तक को ईश्वरीय गोद का बच्चा समझकर मातृत्व सुधा बरसाने वाली जगजननी ही तो थीं वह। मन-हरनी शीतला माँ के निकट बैठने पर ऐसा मालूम हुआ कि जन्म-जन्मांतर के विकारों की जलन शांत होती जा रही है। मन की सारी वृत्तियाँ ऊर्ध्वमुखी हो उठी थीं और अतीन्द्रिय सुख की एक भासना-सी आने लगी।

मातेश्वरी जी के दो कल्याणकारी रूप

माँ एक तरफ आध्यात्मिक पालना करने के लिए प्रेमरूपिणी जगदम्बा थीं तो दूसरी तरफ विकारों की बलि लेने के लिए रौद्ररूपिणी काली भी थीं। उनके दोनों रूप प्रत्यक्ष में देखने को मिले। अज्ञान-काल में खोज तो मैं आनन्द को रहा था लेकिन आनन्द सागर प्रभु से विमुख होकर मरुभूमि- माया की मृग-मरीचिका में भटक गया था। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार में आनन्द की झलक देखता तथा उनकी तरफ दौड़ता था लेकिन मिलता था घोर दुख ही। अस्तु, इन दुखदायी विकारों की बलि लेने के लिये माँ काली ने कहा और मैंने भी सहर्ष अपने आसुरी जीवन की बलि माँ पर चढ़ा दी और मरजीवा जन्म ले हंसवाहिनी माँ का एक बच्चा पावन राज-हंस बना। फिर तो उस वीणा-वादिनी ने मेरी जीवन-वीणा पर जो मधुर ज्ञान-तान छेड़ी, उससे आज भी मेरा जीवन संगीतमय है, हृदयतंत्री अभी भी झंकृत है।

आध्यात्मिक शक्ति की स्त्रोत माँ

बाल ब्रह्मचारिणी श्री मातेश्वरी जी आध्यात्मिक शक्ति की स्त्रोत थीं। वे ईर्ष्या-द्वेष, मान- अपमान से पूर्णरूपेण ऊपर उठकर निरंतर स्वरूपस्थ रह पतित-पावन, सदा जागती ज्योति परमप्रिय परमपिता परमात्मा शिव की सहज स्मृति में स्थित हो चुकी थीं। गीता के भगवान के ‘मन्मनाभव’ के आदेश को उन्होंने पूर्णरूपेण हृदयंगम कर लिया था और उनकी स्थिति निरंतर निर्विकल्प समाधि की थी। माया की भूमिका से वह बहुत ऊपर उठ चुकी थीं और मनसा, वाचा, कर्मणा तथा तन-मन-धन से पूर्णरूपेण परमात्मा शिव के रुद्र ज्ञान-यज्ञ में स्वाहा हो गई थीं।

अबलाओं को बनाया शिवशक्ति

औरों की तरह वह भी प्रजापिता ब्रह्मा की मानस- पुत्री ही थीं लेकिन ज्ञान-योग में अतिशय उच्च अवस्था के कारण ‘यज्ञ माता’ के उच्चतम पद पर प्रतिष्ठित हो गईं। जिस लाड़-प्यार से उन्होंने प्रजापिता ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारियों की आध्यात्मिक पालना की, वह विश्व के इतिहास में बेजोड़ है। उन्होंने परमात्मा शिव के कार्य में सहायक बनकर अबलाओं को शिवशक्ति बना दिया जो माया रावण के युद्ध में आज सिंहनाद कर रही हैं और सारे विश्व से रावण-राज्य को निकाल रामराज्य लाने के लिए कटिबद्ध हैं। अज्ञान-अंधकार में ठोकरें खाते मानव-मात्र की सच्ची रूहानी सेवा के लिए करुणा-विगलित होकर जगदम्बा की इस रूहानी शक्ति सेना ने सारे भौतिक सुखों को, कलियुगी लोक- लाज, मान-मर्यादा को तिलांजलि दे दी। तभी तो इन भारतमाताओं अथवा शक्तियों का इतना गायन है और स्वर्ग की स्थापना के लिए ज्ञान-सागर परमात्मा शिव ने इनके सिर पर ज्ञानामृत का कलश रखा है।

विकर्मों के अभेद्य चक्रव्यूह का भेदन कर डाला

शक्तिसेना की सेनानी ज्ञानेश्वरी आदि देवी, जगदम्बा श्री सरस्वती सारे कल्प में वह पहली आत्मा है जिन्होंने कर्मों की गहन शक्ति को समझकर विकर्मों के अभेद्य चक्रव्यूह का भेदन कर डाला और पूर्ण कर्मातीत स्थिति को प्राप्त किया। कर्मबंधन से रहित हो, अव्यक्त फरिश्ता बन मानवमात्र की बेहद की सेवा करने का जगदम्बा का महान कार्य अभी भी वे कर रही हैं। सर्वशक्तिमान परमात्मा शिव ने भारतमाता श्री सरस्वती द्वारा ही मुक्तिधाम का द्वार खुलवाया है और शीघ्र ही इस दुखधाम पर सुखधाम (वैकुंठ) का उद्घाटन होने वाला है। आधुनिक युग के एक चिन्तक और साधक अरविन्द ने भी कहा था कि माता ही सब कुछ करती है, वही साधक को पार लगाती है। इतना ही नहीं, भगवान की प्राप्ति के लिए माता ही मध्यस्थता करती है, जो अनिवार्य है। अतः उन्होंने मानवमात्र को संदेश दिया कि मानव तू मातृमुखी हो। उसके सम्मुख आत्म-निवेदन कर । एकमात्र वही तेरी रक्षा कर सकती है। आज प्रत्यक्ष रूप में जगद्गुरु परमपिता परमात्मा शिव द्वारा माता गुरु की महिमा स्थापित हो रही है।

मातेश्वरी जी एक ज्वलंत दृष्टांत

व्यस्त जीवन में रहते हुए भी हम कैसे योगयुक्त रह सकते हैं, श्री मातेश्वरी जी इसका ज्वलंत दृष्टांत थीं। उनके दर्शन मात्र से मन की तामसिक वृत्तियाँ शांत हो जाती थीं और मनुष्य आपस के छोटे-मोटे मतभेदों को भूल जाते थे। पूर्ण श्वेत वस्त्रधारिणी श्री सरस्वती बाहर-भीतर से पूर्ण धवल थीं। तभी तो भक्तिमार्ग में उनकी महिमा है –

“या कुन्देन्दु तुषार हार धवला

या शुभ्र वस्त्रा वृत्ता……….”

हम ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारियाँ परम सौभाग्यशाली हैं जिन्होंने जगत-पिता और जगदम्बा की प्रत्यक्ष में पालना ली है। लेकिन स्वधर्म में स्थित हो तथा दिव्य गुणधारी देवता बन मानव-मात्र को देवता बनाने तथा देवभूमि भारत को फिर से वही खोया हुआ गौरव दिलाने का महान उत्तरदायित्व भी हमारे ऊपर है। अव्यक्त प्रेरणा द्वारा इसी कार्य को शीघ्रातिशीघ्र पूर्ण करने के लिए ही तो श्री मातेश्वरी जी कर्मातीत हो इस स्थूल लोक से विदाई ले सूक्ष्म लोकवासी हुई हैं। अतः उनके लिए हमारी सबसे बड़ी श्रद्धांजलि यही है कि हम प्रतिज्ञा करें कि उस वीणावादिनी की वह अति पावन चैतन्य वीणा बनेंगे जिससे केवल सुखद तथा शीतल ईश्वरीय स्वर ही निकलें, माया के कुस्वर नहीं।

 

बिकानेर की ब्रह्माकुमारी शान्ता जी, मातेश्वरी जगदम्बा के प्रति अपने उद्‌गार इस प्रकार व्यक्त करती हैं-

हमें 5 नवंबर, 1962 से 30 जून, 1963 तक, लगभग आठ मास, मुंबई में मातेश्वरी जी के साथ ठहरने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इन आठ महीनों में मातेश्वरी जी ने मुंबई में बहुत अधिक ईश्वरीय सेवा करके अनेकानेक मनुष्यात्माओं को जगाया और उनकी अवस्था को ऊँचा उठाया। उन दिनों उन्होंने कर्म, अकर्म और विकर्म की गति तथा सुख-दुख रूप फल आदि- आदि विषयों पर बहुत सरलतापूर्वक गहन रहस्य समझाये और कर्मयोग आदि के बारे में भी कई अनमोल ज्ञान- रत्न हम सबको दिए। उन्हीं दिनों माँ सरस्वती जी के निकट संपर्क में आने के कारण हमें मातेश्वरी जी के उच्च जीवन से आलोकित होने का शुभ अवसर मिला। हमें उनके ईश्वर-अर्पित और पवित्र जीवन से आदर्श विद्यार्थी और आदर्श शिक्षिका का परिचय भी मिला।

नियमों का पूर्ण पालन

कई बार मातेश्वरी जी को, ईश्वरीय सेवा के कारण रात्रि को ग्यारह, बारह बजे तक भी नींद करने का अवकाश नहीं मिलता था तो भी वो केवल दो- ढाई घंटे नींद करके 2.30 बजे या 3 बजे अवश्य उठ बैठती थीं। हमने देखा कि वह ज्ञान तथा योग के नियमों का पूर्ण पालन करती और कठिनाइयों तथा असुविधाओं की परवाह न करके अपने पुरुषार्थ और अभ्यास को निर्विघ्न रूप से चलाती रहती। यहाँ तक कि जिन दिनों उनके शारीरिक स्वास्थ्य में काफी अंतर आ गया था, उन दिनों भी वह पहले की तरह ही निरंतर अपना सब-कुछ चलाती रही और वैसे ही प्रातः ढाई बजे उठती रही।

प्रैक्टिकल जीवन की मिसाल

आखिर एक दिन हमने यह प्रश्न पूछ ही तो लिया। हमने कहा, ‘माँ, क्या शारीरिक तकलीफ के कारण आपको ढाई बजे के बाद नींद नहीं आती?’ तब प्राण माँ ने कहा, ‘हमें जो ईश्वरीय ज्ञान मिला है, उसके अनुसार, हमें योग का विशेष अभ्यास तो करना ही चाहिए। मैं तो शिवबाबा (परमात्मा शिव) की याद में जल्दी उठ जाती हूँ। बीमारी है तो क्या हुआ?’ सारा – दिन व्यस्त रहने, शारीरिक कष्ट झेलने और रात को बहुत देर से सोने के बाद भी इतनी जल्दी उठ बैठना, – प्रेरणाप्रद ही तो है। परमप्रिय परमपिता परमात्मा से – हमारी लगन कितनी सच्ची और तीव्र होनी चाहिए, यह हमें सजग करने के लिए एक प्रैक्टिकल जीवन की मिसाल ही तो थी।

ईश्वरीय पढ़ाई कभी नहीं छोड़ी

मातेश्वरी जब अस्पताल में थीं तब भी उन्होंने अपनी पढ़ाई बंद नहीं की। वहाँ भी वे प्रतिदिन शिव बाबा के महावाक्य (प्रजापिता ब्रह्मा के मुख द्वारा उच्चारे हुए) सुनती थीं और उनके महावाक्यों की जो लिखित प्रतियाँ आती थीं, उन्हें भी पढ़ती रहती थी। अनेक बार हमने माँ से प्रश्न पूछा कि ‘माँ, इस ईश्वरीय ज्ञान- यज्ञ में तो बहुत बहनें और भाई आए। इनमें से कई आपसे आयु में बड़े भी थे और कई इस यज्ञ में आपसे थोड़ा पहले भी आए हुए थे, तो भी आपने उन सबकी भेंट में, यह उच्च स्थिति कैसे प्राप्त की जो आप सरस्वती कहलाई। आपका ऐसा कौन-सा पुरुषार्थ था जिससे कि आपको इतनी सफलता मिली?’ तब माँ ने कहा, ‘देखो, मैंने यह ईश्वरीय पढ़ाई कभी भी नहीं छोड़ी। कितना भी शारीरिक कष्ट होते हुए भी मैं हमेशा इस पढ़ाई के लिए अपने टाइम पर तैयार हो जाती थी। ज्ञान और दिव्य गुणों की धारणा के लिए शिवबाबा की जो भी राय अथवा शिक्षा मिलती थी, मैं उसे फौरन अमल में लाती थी।

‘ माँ के ये बोल शत-प्रतिशत सच्चे थे। माँ शारीरिक कष्ट के अंतिम दिन तक भी नित्यप्रति ज्ञान-स्नान करती रहीं। 

 

लुधियाना के ब्रह्माकुमार अशोक भाई मातेश्वरी जगदम्बा के प्रति अपने उद्गार इस प्रकार व्यक्त करते हैं –

फ़रिश्तों जैसे रॉयल

सन् 1963 में मम्मा अंबाला में आई। हम उन्हें निमंत्रण देकर लुधियाना में लाये। लुधियाना में उस समय मिठू दादी थे। मम्मा का लुधियाना में जोरदार स्वागत हुआ। बहुत भाई-बहनों की लंबी कतार लगी। सबके हाथों में फूल थे। सभी मम्मा से दृष्टि लेते गये तथा फूल देते गए। उनकी दृष्टि जब मुझ पर पड़ी तो लगा कि अद्भुत दृष्टि है, कोई महान हस्ती है। असली माँ हमारी यही है। उनका चलना तथा बातचीत का ढंग बिल्कुल फरिश्तों जैसा रॉयल था। मम्मा की गोद में जाने का मौका मिला। सुबह क्लास में गोद में जाते थे। हमारी आत्मिक स्थिति होती थी। गोद में जाकर ऐसा लगा, मम्मा हमारी सच्ची माँ है, गोद ऐसी थी जैसे रूई की बनी हो। योगबल से उनका शरीर कोमल रूई जैसा हो गया था।

वरदान मिला मम्मा से

एक दिन क्लास में चर्चा चली, मम्मा ने प्रश्न पूछा कि बच्चे बाप पर निछावर होते हैं या बाप बच्चों पर? क्लास के भाई-बहनों में से किसी ने कहा, बाप पहले निछावर होता है। मैंने कहा, पहले हम बच्चे निछावर होते हैं, पहले हम बाप को अपना बच्चा बनाकर उन पर कुर्बान जाते हैं। मम्मा ने दो-तीन बार घुमा- फिराकर पूछा, आप कैसे बच्चा बनायेंगे, कैसे निछावर होंगे? फिर भी मैंने दृढ़ता से कहा, हम निछावर होंगे। फिर मम्मा ने कहा, बच्चे का निश्चय बड़ा पक्का है, आज से अशोक कुमार की जगह इनका नाम हुआ ‘अशोक पिल्लर’, ऐसा वरदान मुझे दिया। उन्हीं वरदानों को लेकर हम आज तक चले आये हैं।

लुधियाना के बाद मम्मा जालंधर, पटियाला, नाभा में गये। हम भी पीछे-पीछे जाते रहे उनसे ज्ञानामृत पीने के लिए। मम्मा ने पूछा, मैं जहाँ जाती हूँ, आप वहीं आ जाते हो, आपको समय और छुट्टियाँ मिल जाती हैं? मैंने कहा, जी, मिल जाती हैं। मैं प्राइवेट सर्विस करता था। मेरा मालिक मेरे से और ज्ञान से बहुत प्रभावित था। उसने खुद ही कहा, मेरी कार लेकर जालंधर जाओ मम्मा से मिलने। उसने एक बार जगदीश भाई का लेक्चर सुना था, उसका उस पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा था। मेरे व्यवहार, कर्म और चरित्र से भी बहुत खुश था।

मम्मा के शरीर छोड़ने के 15 दिन पहले हम मधुबन गए, उनसे मिले, उनकी तबीयत ठीक नहीं थी। इतनी तकलीफ होते भी उनका चेहरा बहुत हर्षित था। लगता ही नहीं था कि कोई बीमारी है। उन्होंने हम सबको दृष्टि तथा टोली भी दी। ऐसी मीठी-प्यारी अलौकिक माँ जगदम्बा की ये मीठी स्मृतियाँ आत्मा को, उनसे मिलन मनाने जैसा अनुभव कराती हैं।

 

लुधियाना के ब्रह्माकुमार खुशीराम साहनी जी, जगदम्बा मातेश्वरी के साथ का अनुभव इस प्रकार व्यक्त करते हैं

सोलह जनवरी, 1964 को सतगुरुवार के दिन मैं अपने वकील से मिलने सवेरे सवेरे उसके घर गया। मुझे नहीं मालूम था कि वह ब्रह्माकुमार भी है। उसके मुख से मातेश्वरी अक्षर सुनते ही अंदर एक झटका- सा महसूस हुआ। उससे पूछा कि यह मातेश्वरी कौन है तो उसने बताया कि एक नई ईश्वरीय संस्था ब्रह्माकुमारी नाम से है, यह ब्रह्माकुमारी बहनों की एक मुख्य बहन है जो यहाँ लुधियाना में एक सप्ताह के लिए 19 जनवरी को आ रही हैं। संस्था के केन्द्र का पता पूछकर मैं वहाँ चला गया। जैसे ही दरवाज़े के अंदर कदम रखा, मानो आकाशवाणी सुनाई दी, ‘आप सही स्थान पर पहुँच गये हो।’ सुनकर मैं हैरान हो गया। सामने दीवार पर लटका हुआ एक बोर्ड भी देखा जिस पर लिखा था, ‘बुरा न देखो, बुरा न सुनो, बुरा न बोलो, बुरा न सोचो और बुरा न करो’ तो झट विश्वास हो गया कि यह बिल्कुल ठीक स्थान है क्योंकि मैंने घर के मन्दिर में ऐसा ही बोर्ड लटकाया हुआ था।

मातेश्वरी से प्रथम मिलन

ब्रह्माकुमारी आश्रम में पहले दिन ही यह ज्ञान मिला कि प्रकृति के पाँच तत्वों से बना शरीर मैं नहीं हूँ, मैं तो चेतन शक्ति ज्योतिबिन्दु आत्मा हूँ जो भकुटि के बीच बैठी हूँ और शरीर की चालक और मालिक हूँ – – यह जानकर बंद आँखें खुल गई और खुशी के नशे में घर आकर यह सब अपनी डायरी में लिख लिया। दूसरे दिन परमात्मा के नाम, रूप, धाम, गुणों और कर्त्तव्य की यथार्थ जानकारी मिली तो परमात्मा के बारे में सारी अज्ञानता एक पल में मिट गई और खुशी के नगाड़े मन में बजने लगे। तीसरे दिन मातेश्वरी के बारे में पता चला कि मन्दिर में रखी हुई जगदम्बा माता की मूर्ति इसी मातेश्वरी की जड़ यादगार है, इसी की शक्ति ने मेरी पत्नी की छाती से जानलेवा फोड़े को भगाया है, यही ज्ञान की देवी सरस्वती प्रत्यक्ष होकर ईश्वरीय ज्ञान से अनेक आत्माओं की बुझी ज्योति को जगा रही है और निकट भविष्य में आने वाले सतयुग में यही विश्व महारानी श्री लक्ष्मी बनकर सारे विश्व रूपी भारत में राज्य करेगी। ऐसा जानकर खुशी के फव्वारे एकदम मन में फूट पड़े और उनको शीघ्र देखने और मिलने के लिए मन बेचैन हो गया। अगले दिन सायंकाल वे लुधियाना में पधारों और रूहानी दृष्टि मेरे ऊपर डाली तो मैं रूहानी नशे में चूर होकर उनके सामने खड़ा हो गया और उन्होंने मेरे हाथ में पकड़े हुए फूल को अपने हाथ में लेकर बड़े प्यार से कहा कि अब तुम्हें इस फूल जैसा बनना है।

पति-पत्नी का सत्धर्म का नाता

अगले दिन उन्होंने अपनी रूहानी शक्ति से मुझे और मेरी पत्नी को अपने पास खींच कर हमारे सिर अपनी पवित्र गोदी में लेकर अति स्नेह से यह शिक्षा दी, ‘देह से प्यार करना झूठ से प्यार करना है और आत्मा से प्यार करना सच से प्यार करना है। परमात्मा सदा देह से न्यारा है, उससे प्यार करना ही सच से प्यार करना है, वही परम पवित्र और परम सत्य है। अब मेरी गोदी में आप दोनों का नया, धर्म का जन्म हो चुका है, अब तुम्हें पति-पत्नी का पिछला अधर्म का रिश्ता त्यागकर और भूलकर धर्म- पति और धर्म-पत्नी के रिश्ते में चलना है। भोजन सदैव शुद्ध और सात्विक अपने ही हाथों से बनाकर खाना है और बच्चों को भी खिलाना है। इस अविस्मरणीय मुलाकात के बाद घर आते ही हमने लहसुन और प्याज पड़ोसन को दे दिया। पति-पत्नी के असत्य धर्म के रिश्ते से हमें पहले से ही नफरत हो चुकी थी, इसलिए इसको त्यागने में और पति-पत्नी के सत्धर्म को अपनाने में मनवांछित इच्छा पूरी होने जैसी खुशी हुई।

शुरू-शुरू में पिताश्री जी और मातेश्वरी जी

अपना फोटो किसी बच्चे को इसलिए नहीं देते थे ताकि उनका ध्यान निराकार परमात्मा शिव की ओर जाने के बजाय उनके साथ ही न लगा रहे । मैंने मातेश्वरी जी से बड़े प्यार और दिल से जब यह कहा कि जब आपने हमें नया डिवाइन बर्थ दिया है तो डिवाइन मदर का एक फोटो यादगार रूप में रूहानी दृष्टि देते हुए होना चाहिए। वे मान गये। मैंने सोचा कि पेपर पर खिंचवाये हुए फोटो के फट जाने की संभावना होती है इसलिए टिन पर फोटो उनसे दृष्टि लेते हुए खिंचवाने के लिए एक अच्छे फोटोग्राफर को ले आया। वह फोटो आज भी मैंने बहुमूल्य धरोहर के रूप में संभाल कर रखा हुआ है।

माउंट आबू का निमंत्रण

मातेश्वरी जी के मुख-कमल से और दो दिन ज्ञान-रत्न सुनने से जीवन में एकदम ऐसा परिवर्तन आया कि भक्ति की सारी सामग्री नदी में प्रवाहित कर दी। एक ही ब्रह्माकुमारी आश्रम पर सवेरे-शाम दोनों समय जाना शुरू कर दिया। उसी महीने सरकारी नौकरी छोड़कर पेन्शन लेने लग पड़ा और अपने नाम पर जीवन बीमे की एजेन्सी लेकर एक ही काम की ओर पूरा ध्यान कर लिया। मातेश्वरी जी ने जब हमारे अंदर इतनी जल्दी परिवर्तन होते देखा तो अपने आप ही कहा, ‘अब माउंट आबू जाकर पिताश्री ब्रह्मा के तन में पधारे हुए शिव परमात्मा से मंगल मिलन मनाओ।’ मातेश्वरी जी से माउंट आबू जाने का आदेश मिलने से, बेहद खुशी इस कारण भी हुई कि वास्तव में ब्रह्मा की आत्मा ही श्री नारायण की आत्मा है जिसको मिलकर मन की इच्छा पूरी होगी। मातेश्वरी जी जब लुधियाना से जालंधर, चड़ीगढ़ और पटियाला में गये तो उनसे ज्ञान-दूध पीने के लिए मैं गाय के बछड़े की तरह उनके पीछे ही भागता रहा। शिवरात्रि के पावन पर्व पर लौकिक पिताजी के देह-त्याग का पूर्व आभास भी मातेश्वरी की शक्ति से मुझे हो गया था।

मातेश्वरी जी के अव्यक्त होने से एक दिन पहले अर्थात् 23 जून, 1965 को हमारी उनसे अन्तिम मुलाकात पाण्डव भवन में हुई थी और उनके पवित्र हाथों से आम की टोली भी मिली थी।

मुख्यालय एवं नज़दीकी सेवाकेंद्र

अनुभवगाथा

Bk aatmaprakash bhai ji anubhavgatha

मैं अपने को पद्मापद्म भाग्यशाली समझता हूँ कि विश्व की कोटों में कोऊ आत्माओं में मुझे भी सृष्टि के आदि पिता, साकार रचयिता, आदि देव, प्रजापिता ब्रह्मा के सानिध्य में रहने का परम श्रेष्ठ सुअवसर मिला।
सेवाओं में सब प्रकार से व्यस्त रहते हुए भी बाबा सदा अपने भविष्य स्वरूप के नशे में रहते थे। मैं कल क्या बनने वाला हूँ, यह जैसे बाबा के सामने हर क्षण प्रत्यक्ष रहता था।

Read More »
Experience with dadi prakashmani ji

आपका प्रकाश तो विश्व के चारों कोनों में फैला हुआ है। बाबा के अव्यक्त होने के पश्चात् 1969 से आपने जिस प्रकार यज्ञ की वृद्धि की, मातृ स्नेह से सबकी पालना की, यज्ञ का प्रशासन जिस कुशलता के साथ संभाला, उसे तो कोई भी ब्रह्मावत्स भुला नहीं सकता। आप बाबा की अति दुलारी, सच्चाई और पवित्रता की प्रतिमूर्ति, कुमारों की कुमारका थी। आप शुरू से ही यज्ञ के प्रशासन में सदा आगे रही।

Read More »
Didi manmohini anubhav gatha

दीदी, बाबा की ज्ञान-मुरली की मस्तानी थीं। ज्ञान सुनते-सुनते वे मस्त हो जाती थीं। बाबा ने जो भी कहा, उसको तुरन्त धारण कर अमल में लाती थीं। पवित्रता के कारण उनको बहुत सितम सहन करने पड़े।

Read More »
Bk brijmohan bhai ji anubhavgatha

भारत में प्रथा है कि पहली तनख्वाह लोग अपने गुरु को भेजते हैं। मैंने भी पहली तनख्वाह का ड्राफ्ट बनाकर रजिस्ट्री करवाकर बाबा को भेज दिया। बाबा ने वह ड्राफ्ट वापस भेज दिया और मुझे कहा, किसके कहने से भेजा? मैंने कहा, मुरली में श्रीमत मिलती है, आप ही कहते हो कि मेरे हाथ में है किसका भाग्य बनाऊँ, किसका ना बनाऊँ।

Read More »
Bk nirwair bhai ji anubhavgatha

मैंने मम्मा के साथ छह साल व बाबा के साथ दस साल व्यतीत किये। उस समय मैं भारतीय नौसेना में रेडियो इंजीनियर यानी इलेक्ट्रोनिक इंजीनियर था। मेरे नौसेना के मित्रों ने मुझे आश्रम पर जाने के लिए राजी किया था। वहाँ बहनजी ने बहुत ही विवेकपूर्ण और प्रभावशाली तरीके से हमें समझाया। चार दिन बाद हमें योग करवाया। योग का अनुभव बहुत ही शक्तिशाली व सुखद था क्योंकि हम तुरंत फरिश्ता स्टेज में पहुँच गये थे।

Read More »
Dadi gulzar ji anubhav

आमतौर पर बड़े को छोटे के ऊपर अधिकार रखने की भावना होती है लेकिन ब्रह्मा बाबा की विशेषता यह देखी कि उनमें यह भावना बिल्कुल नहीं थी कि मैं बाप हूँ और यह बच्चा है, मैं बड़ा हूँ और यह छोटा है। यदि हमारे में से किसी से नुकसान हो जाता था तो वो थोड़ा मन में डरता था पर पिताश्री प्यार से बुलाकर कहते थे, बच्ची, पता है नुकसान क्यों हुआ? ज़रूर आपकी बुद्धि उस समय यहाँ-वहाँ होगी। बच्ची, जिस समय जो काम करती हो उस समय बुद्धि उस काम की तरफ होनी चाहिए, दूसरी बातें नहीं सोचना।

Read More »
Dadi situ ji anubhav gatha

हमारी पालना ब्रह्मा बाबा ने बचपन से ऐसी की जो मैं फलक से कह सकती हूँ कि ऐसी किसी राजकुमारी की भी पालना नहीं हुई होगी। एक बार बाबा ने हमको कहा, आप लोगों को अपने हाथ से नये जूते भी सिलाई करने हैं। हम बहनें तो छोटी आयु वाली थीं, हमारे हाथ कोमल थे। हमने कहा, बाबा, हम तो छोटे हैं और जूते का तला तो बड़ा सख्त होता है, उसमें सूआ लगाना पड़ता है

Read More »
Dadi gange ji

आपका अलौकिक नाम आत्मइन्द्रा दादी था। यज्ञ स्थापना के समय जब आप ज्ञान में आई तो बहुत कड़े बंधनों का सामना किया। लौकिक वालों ने आपको तालों में बंद रखा लेकिन एक प्रभु प्रीत में सब बंधनों को काटकर आप यज्ञ में समर्पित हो गई।

Read More »
Bk jagdish bhai anubhavgatha

प्रेम का दर्द होता है। प्रभु-प्रेम की यह आग बुझाये न बुझे। यह प्रेम की आग सताने वाली याद होती है। जिसको यह प्रेम की आग लग जाती है, फिर यह नहीं बुझती। प्रभु-प्रेम की आग सारी दुनियावी इच्छाओं को समाप्त कर देती है।

Read More »
Dadi chandramani ji

आपको बाबा पंजाब की शेर कहते थे, आपकी भावनायें बहुत निश्छल थी। आप सदा गुणग्राही, निर्दोष वृत्ति वाली, सच्चे साफ दिल वाली निर्भय शेरनी थी। आपने पंजाब में सेवाओं की नींव डाली। आपकी पालना से अनेकानेक कुमारियाँ निकली जो पंजाब तथा भारत के अन्य कई प्रांतों में अपनी सेवायें दे रही हैं।

Read More »