आपका अलौकिक नाम आत्मइन्द्रा दादी था। यज्ञ स्थापना के समय जब आप ज्ञान में आई तो बहुत कड़े बंधनों का सामना किया। लौकिक वालों ने आपको तालों में बंद रखा लेकिन एक प्रभु प्रीत में सब बंधनों को काटकर आप यज्ञ में समर्पित हो गई। सेवाओं के प्रारंभ में सन् 1952 में आप और दादी मनोहर इन्द्रा, दोनों ने ही विशेष गंगा और यमुना नदी के तट पर बैठकर सेवायें की। आपका निश्चय, त्याग और समर्पण भावना अद्भुत थी। आपका रूहानियत संपन्न चेहरा अनेक आत्माओं में रूहानियत का बीज अंकुरित करता था। आपमें प्रवचन देने की बहुत अच्छी कला थी। बाबा आपको पतित पावनी हरगंगे कहकर पुकारते थे। आपने उत्तर प्रदेश जोन की संचालिका के रूप में, कानपुर में रहकर अपनी सेवायें दी। आप धार्मिक प्रभाग की अध्यक्षा भी रही। आठ अक्टूबर, 2004 में आप अव्यक्त वतनवासी बनी।
गंगे दादी जी ने एक बार अपना अनुभव इस प्रकार सुनाया था –
मेरा जन्म सन् 1926 में हैदराबाद-सिन्ध के एक संपन्न, धार्मिक परिवार में हुआ। माता-पिता की भक्ति के प्रभाव से बचपन से ही मुझे भक्ति का शौक था। स्कूल में पढ़ते समय, जब भी समय मिलता था, मैं भागवत पढ़ती थी। जब श्रीकृष्ण और गोपियों के संबंध की बातें पढ़ती थी तो मन में संकल्प उठता था कि काश! मैं गोपी बनती तो कितनी भाग्यशाली होती ! जब मेरी उम्र 12 वर्ष की थी, तब पिताश्री ब्रह्मा बाबा के यहाँ सत्संग प्रारंभ हुआ। हमारे पड़ोस में एक कमलसुंदरी बहन रहती थी, उसने हमें कहा कि चलो सत्संग में, वहाँ बहुत अच्छी बातें बताई जाती हैं। उनके आग्रह पर मैं सत्संग में गई तो वहाँ ओम की ध्वनि चल रही थी। थोड़े ही समय में मैं गुम हो गई, ध्यान में चली गई तो मुझे बहुत सुन्दर श्रीकृष्ण का साक्षात्कार हुआ, जिससे दिन-प्रतिदिन मेरी लगन बढ़ती ही गई।
ओम मण्डली का शुद्ध वातावरण
“ओम मण्डली” में जाने से मेरी खुशी दिनों- दिन बढ़ती ही जाती थी। वहाँ का वातावरण ही ऐसा शुद्ध होता था कि आत्मा को शान्ति का अनुभव होता था। अंतरात्मा में ऐसा महसूस होता था कि जन्म- जन्मांतर की प्यास बुझ रही है। ओम मण्डली में जो ज्ञान दिया जाता था, उससे मन विषय-विकारों से हट जाता था और नेकी और पवित्रता के मार्ग पर लग जाता था। वहाँ ज्ञानामृत का प्याला पीने वाले स्वयं को देह रूपी मिट्टी का पुतला नहीं मानते थे बल्कि अविनाशी आत्मा मानते थे।
मित्र-सम्बन्धी रोक लगाने लगे
बाबा ने हम बच्चों के लिए एक स्कूल खोला था। माता-पिता की स्वीकृति लेकर मैं स्कूल में दाखिल हो गई। स्कूल में इंग्लिश, हिन्दी और गणित सिखाया जाता था। मैं पढ़ाई में बहुत होशियार थी जिससे सदा क्लास में नम्बर आगे रहता था। जैसे ही पवित्रता के व्रत की बात सामने आई तो माताओं पर रोक-टोक होने लगी। हमारे संबंधी भी सोचने लगे कि कल यह कन्या भी शादी के लिए मना करेगी, इसलिए इसको अभी से ही रोक लो लेकिन मैं उन्हों को प्यार से समझा कर स्कूल में चली जाती थी।
लगन बढ़ती गई
उसी दौरान हैदराबाद में एन्टी ओम मंडली बन गई थी। मुझे घर वाले बंधन डालने लगे। हम अपने माता-पिता को स्पष्ट शब्दों में कहती थीं कि भोजन न खाने के बिना तो हम रह सकती हैं परंतु ज्ञानामृत पिये बिना नहीं रह सकतीं इसलिए आप हमें सत्संग में जाने दिया करो। उन्होंने देखा कि यह टलती नहीं है अतः मेरे पिताजी ने एक सूरदास (जिसको आँखें नहीं थी) को बुलाकर कहा कि दादा ने बच्ची पर जादू किया है, झाड़-फूंक कर इसे उतार दो। उसने एक महीने तक झाड़-फूंक की, कई मंत्र पढ़े और घोलकर मुझे जबर्दस्ती पिलाये। परंतु ईश्वरीय जादू के आगे मनुष्य का जादू कहाँ काम कर सकता था? आखिर उसने अपने मन में हार मान ली क्योंकि वह समझ गया कि इसकी तो प्रभु से सच्ची प्रीति लगी है। पिताजी ने मुझे छह मास तक घर से बाहर जाने नहीं दिया। पिताजी मुझसे सख्त नाराज़ थे। लौकिक संबंधियों को हम पर बहुत गुस्सा था। हम ओम मण्डली से ईश्वरीय ज्ञान के जो लिखित पन्ने ले आती थी जिन्हें कि हम वाणी या मुरली कहती थी, मुझे न पढ़ने देते। मैं शान्त-समाधि में बैठती थी तो भी वे विघ्न डालते थे और नहीं बैठने देते थे। वे मुझ पर बहुत सितम ढाते थे। परन्तु वे हम पर जितना-जितना अत्याचार करते थे, उतना- उतना हमें ऐसा महसूस होता था कि ये सब स्वार्थ के सम्बन्ध हैं। हम सोचते थे कि पता नहीं ये किस प्रकार के लोग हैं? यह कैसा जमाना है? यह कैसा संसार है? क्या इनको ज्ञानामृत अच्छा ही नहीं लगता, इन्हें विषय-विकारों की मोहिनी-माया ने इतना मोह लिया है!
हम हैं ज्ञान-गोपिकाएँ
तब हमें श्रीमद्भागवत् में गोपियों के चरित्र याद आते जो कि हम बचपन से ही सुनती चली आ रही थी। उसमें हमने पढ़ा था कि भगवान की मुरली सुनकर गोपियाँ मस्त हो जाती थी और वे भाग कर वहाँ पहुँच जाती थीं। परन्तु उनके लौकिक संबंधी, पुरुष आदि उन्हें रोकते थे। तब हम ये वृत्तांत पढ़कर सोचा करती थी – “क्या गोपियों को भगवान की बंसी सुनाई देती थी, उनके संबंधियों, पुरुषों आदि को सुनाई नहीं देती थी या रसीली नहीं मालूम होती थी?” अब हमने अपने प्रैक्टिकल अनुभव से जाना कि हम तो ज्ञान-मुरली को सुनकर अतीन्द्रिय सुख से फूली नहीं समाती हैं परंतु हमारे लौकिक संबंधी, भाई-बान्धव आदि हमें मुरली सुनाने के लिए जाने से रोकते हैं। अतः हम स्वयं को बहुत ही भाग्यशाली समझती थी कि हम वही “ज्ञान-गोपिकाएँ” हैं। अतः स्वयं ज्ञानामृत न पीने के कारण, हमारे लौकिक संबंधी हम पर जो अत्याचार करते थे, उसे हम खुशी-खुशी सहन करती थी।
वे हममें कोई बुराई न बता पाते
हम उनको कहती थीं, “आप हमें सत्संग में जान से क्यों रोकते हैं? अगर हमारे जीवन में कोई बुराई आई हो तो आप बताइये। हम घर का सारा काम- काज करती हैं, फैशन नहीं करती हैं, सिनेमा नह जाती हैं, माँस-मदिरा का प्रयोग नहीं करती हैं, किस से लड़ती-झगड़ती या फालतू घूमती भी नहीं हैं। आपने हममें क्या बुराई देखी है कि आप सत्संग में जाने से हमें रोकते हैं?” वे हममें कोई बुराई तो बता न पाते। उनके मन में तो बस यही था कि यह निर्विकार बनने का पुरुषार्थ कर रही है और हमें इसका विवाह (विकारी विवाह) अवश्य कराना है।
एक दिन अचानक अफ्रीका से मेरा बड़ा भाई घर आया, जिसका मुझसे बहुत प्यार था। उसने देखा कि पिताजी ने बहन को बंधन में रखा है। उसने कहा कि सत्संग जाने में कोई बुराई तो नहीं। उसके आग्रह पर पिताजी ने मुझे थोड़ा स्वतंत्र किया जिससे मैं पुनः सत्संग में जाने लगी।
मुझे जंजीर से बाँधा गया
एक दिन मेरी लौकिक माताजी को विचार आया कि इस कन्या का विवाह कर दिया जाये ताकि इसका मन सत्संग से हटकर संसार की बातों की ओर, खाने- पीने, पहनने और भोगने की ओर लग जाये। परंतु मैं तो विकारी शादी को बर्बादी मानती थी। अतः मैंने उन्हें कहा, माता जी, मैं तो ज्ञान-मीरा हूँ, मेरा तो एक गिरिधर गोपाल ही है, दूसरा कोई नहीं है। मैं तो उसी की हो चुकी हूँ, मेरे मन की सगाई प्रभु से हो चुकी है, अब दूसरे किसी से कैसे होगी? मैंने तो मन में मोहन को बसा लिया है, अब दूसरे किसी के लिए स्थान ही कहाँ रहा है?
मेरी ये बातें सुनकर मेरे लौकिक संबंधियों को बहुत क्रोध आया। उन्होंने एक बार तो ऐसा मारा कि क्या कहूँ? वे बोले, “जब तक तुम शादी के लिए हाँ नहीं करोगी तब तक तुम्हें मारेंगे और मार-मार कर तुम्हें खत्म कर देंगे। बोलो अपने मुख से कि मैं शादी करूंगी।”
अंधेरी कोठरी भी रोशन थी
मैंने कहा, मैंने तो आपको अपने मन की सच्ची बात स्पष्ट रीति से बतला दी है कि मैं मीरा बन चुकी हूँ, मैं गिरिधर गोपाल की हो चुकी हूँ। अब मैं विकारी शादी नहीं करूँगी। परंतु हमारी पवित्रता की बातें उन्हें समझ नहीं आती थीं। अतः एक दिन उन्होंने मुझे अंधेरी कोठी में बंद कर दिया, जंजीरों में बाँध दिया और मेरे हाथों पर दस्ते (हावन वाले) मारे। परंतु मेरे लिए वह अंधेरी कोठरी भी रोशन थी। उन्होंने मुझे भोजन देना भी बंद कर दिया। दो-तीन दिन के बाद मुझे भूख तो अवश्य लगी परंतु उतनी ही प्रभु से मेरी लगन तीव्रतर हुई। अंदर ही अंदर प्रभु से कहने लगी, प्रभु, आप तो कन्हैया लाल हैं, हम कन्याओं की रक्षा करने में आपने देर क्यों लगाई? देखो तो, हम पर ये लोग कितना सितम ढाते हैं, प्रभु मेरी लाज बचा लो। प्रभु, हमें इन विकारी संबंधियों की जंजीरों से छुड़ाओ।
बंसी बजाते हुए श्रीकृष्ण दिखाई दिए
इसी बंधन में मैं एक विचित्र अनुभव करने लगी। विरह-वेदना में डूबी, मैं देह की सुध-बुध भूल गई थी। मुझे अपने सामने श्री कृष्ण बंसी बजाते हुए दिखाई दिये। बस, उस सुन्दर मूरत को देखते ही मैं तड़पती आत्मा तृप्त हो गई। मुझे मन में बहुत हर्ष हुआ। मुझे सूक्ष्म आवाज में वह कहते हुए मालूम हुए कि अब तुम्हारे बंधन जल्दी कट जायेंगे। घबराओ नहीं। अब मैं साकार हो चुका हूँ। इस अनुभव के साथ-साथ मुझे अंदर ऐसा भी अनुभव हुआ कि मुझे भूख-प्यास बिल्कुल नहीं है, मुझे तो सब कुछ मिला ही हुआ है। मेरा शरीर पहले भी कमजोर था और निर्बल-सा था, अब कई दिन भूख-प्यास के कारण और भी क्षीण हो चुका था परंतु इस साक्षात्कार के बाद अब मुझे आत्मिक शक्ति का विशेष अनुभव हो रहा था और देह की दुर्बलताएँ नहीं भास रही थी।
लगन की अग्नि बुझने वाली नहीं है
तीन दिनों के बाद द्वार खोलकर लौकिक संबंधियों ने फिर मुझसे पूछा, “अब बताओ, क्या सोचा है? (विकारी) शादी करोगी न? देखो, अपना हठ छोड़ो। एक बार अपने मुँह से कह दो कि मैं ओम मण्डली में नहीं जाया करूँगी और शादी भी करूँगी।”
मैंने कहा, “आप यह क्या कह रहे हैं? आपने अभी तक हमें नहीं पहचाना। देखो, मेरी बात सुन लो। यह लगन की अग्नि बुझने वाली नहीं है। यह दबाने से दबने वाली भी नहीं है। हाँ, अगर मैं इस लगन में शरीर छोड़ दूँ तो मैं आत्मा तो प्रभु की स्मृति में स्थित होकर स्वर्ग के द्वारे आऊँगी ही परंतु आप एक बात कर लेना। मेरी लाश को एक बार ओम मण्डली के सत्संग के द्वार के सामने से जरूर ले जाना।” वे आश्चर्यान्वित होकर तथा कुछ निराश, कुछ रुष्ट और कुछ क्रुद्ध होकर कहते, “तुम अभी तक भी नहीं बदली, क्या तुम नहीं मानोगी?”
हमारे रक्षक भगवान हैं
मैं कहती, “देखो, मैं इतनी कायर नहीं हूँ जितना आपने मुझे समझा है। हम सितम सहन करने वाली कन्यायें-मातायें हैं। अतः आप अत्याचार कर लो, हमें उसकी कोई चिन्ता नहीं है। हमने इस ज्ञान के बल पर, प्रभु के प्रेम के लिए धीरज करना तथा अत्याचार सहना खूब सीख लिया है। परन्तु, देखो, कहीं इन अत्याचारों का परिणाम आपको न भोगना पड़े क्योंकि हमारे रक्षक स्वयं भगवान हैं। हमें आप पर इसलिए दया आती है कि आप प्रभु को नहीं पहचानते और हमें भी नहीं समझते और यूँ ही हमें मार-मार कर पाप अपने सिर पर मोल लेते हो।”
आत्मा प्रभु के पास बिक चुकी है
उन्होंने मुझे फिर जंजीरों में बाँध दिया। लगभग दो मास मेरी ऐसी हालत रही। परंतु उसके बाद भी काफी समय तक वे मुझ पर अत्याचार करते रहे। मैं अपने लौकिक संबंधियों को कहा करती थी कि आप हमारे शरीर के मालिक हैं परंतु आत्मा का मालिक तो एक परमात्मा ही है। अतः आप जब तक चाहें हमारे शरीर को बाँध दीजिये परंतु आत्मा तो ईश्वर की पुत्री है और उनके पास बिक चुकी है।
बाबा का पत्र मिला
ये सब समाचार ओम मंडली में पहुँचते ही दादी प्रकाशमणि मुझसे मिलने आई। मेरी मौसी के मकान के ऊपर किरायेदार रहते थे, उनके मकान में जाकर ऊपर से (चिमनी से) खड़ी होकर मुझसे मिली, बाबा का भेजा हुआ पत्र भी दिया। लंबे समय तक मैं ऊपर नहीं देख सकती थी क्योंकि देखने वालों को संशय आ सकता था। मुझे स्मृति आई कि ऐसे ही अनुचर सीता के पास जाकर राम का संदेश पहुँचाते थे। ऐसे दो-तीन बार कोई-न-कोई बहन छिपकर मिलने आती रही। ऐसे लगातार दो मास तक जंजीर से बँधी रही। उसी समय मेरी बहन विदेश से आई थी। मेरी यह हालत देखकर उसे बहुत दुख हुआ। उसने पिताजी को मनाकर जंजीर छुड़वाई और मुझे अपने घर ले गई।
आखिर मैं बंधनों से मुक्त हुई
एन्टी ओम मण्डली वालों ने हम सभी के घर वालों को भड़काया और कहा कि अगर आपको अपनी लड़कियाँ वापस चाहिएँ तो भूख हड़ताल करो। सचमुच उन्होंने भूख हड़ताल शुरू की। ब्रिटिश गवर्मेन्ट समझ नहीं पा रही थी कि यह क्या हो रहा है, ये लोग कन्याओं- माताओं पर इतना अत्याचार क्यों कर रहे हैं? इस बात का निर्णय करने के लिए उन्होंने एक बहुत बड़े लोहे के व्यापारी धनी शिवरतन मोटा को बीच में डाला। उनको कहा कि इन सबको बुलाकर पूछो कि ये वहाँ क्यों जाते हैं, इनको वहाँ क्या प्राप्त होता है आदि। तीन दिन हम बहनें और हमारे रिश्तेदार वहाँ रहे। मेरे साथ मनोहर बहन, कमल सुंदरी बहन थी। उन्होंने हमारे से सभी बातें पूछीं। हम सभी सवालों के जवाब देते गए कि हमें क्या शिक्षा मिलती है, परमात्मा स्वयं पिताश्री द्वारा ये महान कार्य कर रहे हैं आदि। ये सब बातें सुनने के बाद चौथे दिन उसका फैसला होना था। उन्होंने यह जजमेंट दी कि ये तो सच्ची देवियाँ हैं जो जन-जन का कल्याण करने के लिए निमित्त बनी हुई हैं, ऐसी देवियों की भारत को बहुत आवश्यकता है, इसलिए इन्हों को रोका न जाये। यह बात अखबारों में प्रकाशित हुई। हम सभी को हमारे माता-पिता ने दिल से छुट्टी दी ज्ञानामृत पीने और पिलाने के लिए। फिर तो हम यज्ञ में रहने लगे।
मुझे बाबा ने ज्ञान गंगा बनाया
बाबा की शुरू से ही मेरे ऊपर विशेष दृष्टि रही। बाबा हमेशा कहते थे कि कन्याओं ने भीष्म पितामह को बाण मारा, ऐसे आपको भी द्रोणाचार्य, आचार्य और पंडितों को ज्ञान-बाण मारना है। ऐसे वरदान देते हुए हमको शुरू से ही गाइड करते आये। बाबा भाषण लिखकर भेजते थे और कहते थे, आपको ये सभा में सुनाना है। मेरे शरीर का नाम गंगा था और मनोहर बहन का नाम हरि था तो बाबा कहते थे “हर गंगे, हर गंगे।” हर गंगे की जोड़ी को सेवा में जाना है, मुख से ज्ञान-गंगा बहाकर पतितों को पावन बनाना है, सबका कल्याण करना है, यही आपका विशेष पार्ट है।
बाबा ने हमें दिल्ली सेवार्थ भेजा
दिल्ली के कुछ ऑफिसर आबू घूमने आये थे, तब उन्होंने 26 जनवरी के दिन पब्लिक प्रोग्राम में प्रवचन करने के लिए निमंत्रण दिया था। बाबा की आज्ञानुसार मैं और मनोहर बहन दिल्ली गई। हम लोगों ने प्रोग्राम में जो प्रवचन किए, वो बहुतों को अच्छे लगे। बाद में चांदनी चौक के गौरीशंकर मंदिर में प्रवचन का निमंत्रण मिला। वहाँ जो प्रवचन किया, उसका मंदिर के सेक्रेटरी पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा। उन्होंने हमें मंदिर में रहने के लिए अच्छा स्थान दिया। कुछ दिनों तक हम वहाँ सेवा करते रहे। उसी दौरान हमें बाबा का पत्र मिला कि ऋषिकेश में स्वामी शिवानन्द जी “वर्ल्ड पीस कांफ्रेंस” कर रहे हैं, वहाँ आपको प्रवचन करने जाना है। कांफ्रेंस में हमें उन्होंने आधा घंटा प्रवचन के लिए दिया, जिसमें हमने विश्व में अशान्ति के कारण, उनका निवारण, इन सभी बातों से संबंधित प्रवचन किया। प्रवचन स्वामी जी को बहुत अच्छा लगा। बाद में बाबा ने मुझे कोलकाता में दो मास के लिए भेजा। तत्पश्चात् सेवार्थ बनारस, इलाहाबाद और कानपुर जाना हुआ। कानपुर में सेवा का बहुत विस्तार होता रहा।
बाबा ने कदम-कदम पर हमारी रक्षा की
एक बार बाबा ने मुझे और मनोहर बहन को जोधपुर सेवार्थ भेजा था। एक सप्ताह सेवा करके हम आबू वापस आ रहे थे। जैसे ही हम ट्रेन में बैठे तो दो आदमी आए और कहने लगे कि आपने हमें तो ज्ञान सुनाया ही नहीं। हम चाहते हैं कि हमारा परिवार भी आपका ज्ञान सुने। आप हमारे घर दो दिन के लिए चलो। हमने कहा कि अब तो हम जा रहे हैं, फिर कभी आयेंगे। उन्होंने कहा कि नहीं, गाड़ी खड़ी है, हम टिकट कैन्सिल कराते हैं। जबर्दस्ती हमें ट्रेन से नीचे उतारा। हमने सोचा, चलो दो दिन सेवा करके वापस चले जायेंगे। वे हमें तांगे में बिठाकर अपने घर ले जा रहे थे। चलते-चलते हमें संशय आया, हमने प्रश्न किया कि यह तो साधारण रास्ता है, आखिर आपका घर कहाँ है? कहने लगे, बस अभी नजदीक है। हमने देखा कि यहाँ तो सन्नाटा छाया है, अंधेरी कोठी है। हमने तांगे को खड़ा कराया और शक्तिस्वरूप में स्थित होकर कहा कि कहाँ है आपका परिवार, ले आओ पहले अपने परिवार को। गुस्से से हमें पिस्तौल दिखाते हुए वे बोले, ज्यादा बोलना नहीं। हमने कहा कि हम पिस्तौल से डरने वाले नहीं। हमने बाबा को याद किया और तांगे वाले को कहा कि यहाँ से बिल्कुल जाना नहीं। उन्होंने हमारा सामान उतारा लेकिन हमने तुरंत तांगे में सामान रखा। इतने में वो दोनों वहाँ से भाग गये क्योंकि उनकी दृष्टि-वृत्ति साफ नहीं थी। ऐसी कठिन परिस्थिति में बाबा ने हमारी रक्षा की, वर्ना हम उन बदमाशों से छूट नहीं सकते थे। उसके बाद जब हम बाबा से मिले तो बाबा ने कहा कि यह भी माया का एक रूप था, सदा दूरंदेशी होकर किसी भी बात का निर्णय लो तो ऐसा धोखा खाने से बचे रहोगे। ऐसे, सेवाक्षेत्र में कई विघ्नों को पार करने के लिए सदा बाबा की मदद मिलती रही।
विदेश सेवा पर जाना हुआ
सन् 1991 में, मैं लंदन और अमेरिका ईश्वरीय सेवार्थ गई थी। उस दौरान बाबा ने बहुत सुन्दर अलौकिक अनुभव कराये। ऐसा लगता था कि ब्रह्मा बाबा अव्यक्त होने के बाद विदेश में सेवा कर रहे हैं। सभी के मुख से बाबा-बाबा निकलता था, सचमुच कमाल देखी विदेश में बाबा की सेवा की।
इस प्रकार हमारी जीवन की यात्रा ईश्वर की छत्रछाया में व्यतीत होती रही। हमें अपने भाग्य को निहार कर हर्ष होता है कि हमारे भक्तिकाल में किये गये पुण्य कर्मों का यही प्रत्यक्ष फल मिला है कि इस अंतिम जन्म में भगवान के साथ रहे।