आप बाबा की लौकिक पुत्रवधू थी। आपका लौकिक नाम राधिका था। पहले-पहले जब बाबा को साक्षात्कार हुए, शिवबाबा की प्रवेशता हुई तो वह सब दृश्य आपने अपनी आँखों से देखा। आप बड़ी रमणीकता से आँखों देखे वे सब दृश्य सुनाती थी। बाबा के अंग-संग रहने का सौभाग्य दादी को ही प्राप्त था। बाबा ने आपके बारे में महावाक्य उच्चारण किया था, बच्ची, 84 जन्म ही भिन्न-भिन्न नाम रूप से ब्रह्मा की आत्मा के बहुत समीप संबंध में रही है इसलिए अंतिम जन्म में भी लौकिक पुत्रवधू के रूप में अति समीप का पार्ट मिला। बाबा के साथ-साथ कोलकाता, हैदराबाद (सिन्ध), कराची, आबू की यात्रा करते-करते अंत में आपको बाबा ने महाराष्ट्र जोन की संचालिका के रूप में मुंबई सायन सेवाकेन्द्र पर रखा। महाराजकुमारी और महारानी जैसी रहकर फिर बृजकोठी में बेगरी पार्ट बजाते हुए आप बज्र के समान दृढ़ रहकर, इंद्र समान फरिश्ता बनकर अब एडवांस पार्टी में सेवारत हैं। आप 1 जनवरी 1990 को अपना पुराना शरीर छोड़ अव्यक्त वतनवासी बनी।
ब्रह्माकुमारी बृजइन्द्रा जी ने शिवबाबा की प्रवेशता से पहले के कुछ वर्ष, दादा की बहू के रूप में बिताये, उस अवधि के दौरान हुए अनुभवों को इस प्रकार व्यक्त किया है –
दादा ने मुझे रानियों से भी अधिक ठाठ से रखा। एक बार नेपाल के राजकुल में मालूम पड़ा कि दादा अपने घर बहू लाये हैं तो उनके सदस्य, शहजादियाँ इत्यादि मुझसे मिलने आई थी। जब उदयपुर के महाराजा को मालूम हुआ कि दादा कोलकाता में बहू को ले गये हैं तो उन्होंने भी दादा को लिखा था कि वे सिन्ध जाते समय अपनी पत्नी और बहू सहित बीकानेर से होते जायें। दोनों राजाओं के राजकुल की महिलाओं ने जब मुझे देखा तो वे यह देखकर हैरान रह गई कि मैंने उनसे ज्यादा जेवर पहन रखे थे। मैंने एक-एक अंगुली में दो-दो अंगुठियाँ पहन रखी थीं और वे भी कीमती हीरों की। मेरा हार भी हीरों का बना था। यह सब देखकर वे सब बाबा को बेताज राजा मानते थे और यह भी महसूस करते थे कि बाबा फराखदिल हैं। परंतु जैसे-जैसे बाबा अधिकाधिक अंतर्मुखी होते गये, उनका मन इन चीज़ों से हटता गया और उन्हें ये श्रृंगार फीके दिखाई देने लगे और आखिर सुनहरे शब्दों में लिखी जाने वाली इतिहास की वह घड़ी आई जब शिव बाबा ने फराखदिल और राजकुलोचित संस्कार वाले साधारण और साथ-साथ उच्च जीवन-प्रणाली वाले दादा के रथ को माध्यम रूप में अपनाया।
मैं बाबा की अंतर्मुखता तथा उनकी तपश्चर्या इत्यादि को देखकर बहुत प्रभावित हुई थी। एक बार एक विशेष दृश्य मेरे सामने आया जिसके बाद इस ईश्वरीय परिवार में मेरा भी पार्ट शुरू हुआ। एक बार बाबा भोजन करने बैठे थे। मैं उनके सामने भोजन की थाली लेकर गई। ज्योंहि मैं उनके सामने पहुँची और उनकी ओर मेरी दृष्टि गई तो मुझे बाबा के स्थान पर सजे-सजाये श्री कृष्ण ही दिखाई दिये। मैं आश्चर्यचकित हो गई कि यहाँ कुर्सी पर श्री कृष्ण कैसे बैठे हैं! थाली मेरे एक हाथ में थमी रही और मैं उधर देखती ही रह गई। पहले जब मैं बाबा के सामने जाया करती थी तो घूंघट किया करती थी। परंतु अब जब मैं घूंघट करने ही वाली थी तो सामने श्रीकृष्ण दिखाई दिये। मैं श्री कृष्ण के सामने भला घूंघट क्यों निकालती? मुझे लगा कि मेरे ससुर के रूप में साक्षात् भगवान मुझे स्वयं आ मिले हैं। तब मुझे रूहानी नशा-सा चढ़ गया और तब से घूंघट निकालना मुझसे छूट गया। उस समय यह ज्ञान तो नहीं था कि दादा को देखने से श्री कृष्ण का साक्षात्कार क्यों होता है। यह ज्ञान तो धीरे-धीरे, बाद में ही मिला परंतु इससे मेरे जीवन का नया अध्याय खुला। इसके थोड़े ही दिनों बाद मुझे विष्णु चतुर्भुज रूप का भी साक्षात्कार हुआ। सजा-सजाया, दिव्य, प्रकाशमान रूप था। इन सब अलौकिक वृत्तांतों से मुझसे श्रृंगार, सज-धज सब सहज रीति से छूटते गये और मैं रूहानियत के रंग में पूरी तरह रंगती गई। उन्ही दिनों में एक बार की बात है, दादा के गुरु भी आये हुए थे। दादा ने उनके आगमन पर 25,000 रुपये खर्च किये थे। उन्होंने एक बहुत बड़ी सभा की थी। उसमें बहुत लोग बैठे थे परंतु मुझे दादा का उठना- बैठना बहुत निराला लगा। दादा थे तो साकार अर्थात् शरीरधारी ही परंतु मुझे ऐसा लगा कि उनका शरीर उनसे दूर है। गुरु का भाषण चल रहा था परंतु दादा सभा से उठ गये। इससे पहले कभी भी दादा सभा से उठकर नहीं गये थे। मेरा ध्यान दादा की ओर गया। मैंने जसोदा जी, जोकि दादा की धर्मपत्नी थी, को दादा के पास भेजा। जसोदा जी के जाने के बाद मुझे ख्याल आया कि मैं भी जाऊँ। मैं दादा के कमरे में गई। मैं दादा के पास बैठ गई और जसोदा जी गुरु की सभा में लौट आई।
मैंने देखा कि दादा अर्थात् बाबा के नेत्रों में इतनी लाली थी कि ऐसे लगता था जैसे कि उनमें कोई लाल बत्ती जग रही हो। उनका चेहरा भी एकदम लाल था और कमरा भी प्रकाशमय हो गया था। मैं भी शरीर-भान से अलग मानो अशरीरी हो गई। इतने में एक आवाज ऊपर से आती मालूम हुई जैसे कि दादा के मुख से कोई दूसरा बोल रहा हो। वह आवाज पहले धीमी थी, फिर धीरे-धीरे ज्यादा हो गई। आवाज यह थी –
“निजानन्द स्वरूपं, शिवोऽहम् शिवोऽहम्
ज्ञान स्वरूपं शिवोऽहम् शिवोऽहम्
प्रकाश स्वरूपं शिवोऽहम् शिवोऽहम्।”
फिर दादा के नयन बंद हो गये।
मुझे आज तक न वह अद्भुत दृश्य भूलता है, न वह आवाज ही भुलाई जा सकती है। वह वातावरण भी अविस्मरणीय है और उस समय की वह अशरीरी अवस्था भी मुझे अच्छी तरह याद है।
दादा के नयन खुले तो वे ऊपर-नीचे कमरे में चारों ओर आश्चर्य से देखने लगे। उन्होंने जो कुछ देखा था उसकी स्मृति में वे लवलीन थे। मैंने पूछा, “बाबा, आप क्या देख रहे हैं?” बाबा बोले, “कौन था? एक लाइट थी, कोई माइट (शक्ति) थी। कोई नई दुनिया थी। उसके बहुत ही दूर, ऊपर सितारों की तरह कोई थे और जब वह स्टार नीचे आते थे तो कोई राजकुमार बन जाता था तो कोई राजकुमारी बन जाती थी। एक लाइट और माइट ने कहा, यह ऐसी दुनिया तुम्हें बनानी है परंतु उसने कुछ बताया नहीं कि कैसे बनानी है। मैं यह दुनिया कैसे बनाऊँगा? वह कौन था? कोई माइट थी।”
(वास्तव में यह दृश्य था दादा लेखराज के तन में, निराकार शिव परमात्मा की प्रथम पधरामणि का जिसे दादी बृजइन्द्रा ने अपनी आँखों से देखा। जैसे ब्रह्मा आदि देव हैं, वैसे ही दादी बृजइन्द्रा का भी आदि द्रष्टा होने का कल्प-कल्प का पार्ट निश्चित हो गया)
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दादी निर्मलशान्ता जी दादी बृजइन्द्रा के बारे में सुनाती हैं –
मेरे सबसे बड़े भाई किशन की शादी करने का संकल्प बाबा को जब आया तो बाबा ने घर में प्रथम बहू लाने के लिए ऊँचे से ऊँचा श्रेष्ठ संकल्प किया हुआ था कि बहू ऐसी हो जो सुशील, सुन्दर, सरल वा सात्विक विचारों वाली शाही यानि श्रेष्ठ नामी-ग्रामी परिवार की हो। बाबा ने पहले से ही एक लड़की को देखा था। आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से बाबा उस समय ऊँची स्थिति में थे। खूब मान-सम्मान था। राजा-महाराजाओं से संबंध थे। इन सबके कारण, कोलकाता में जवाहरात के व्यापारी बाबा को “खिदरपुर का नवाब” कहते थे। अतः नवाब के घर में प्रथम बहू कैसी आनी चाहिए। वह भी शहजादी, राजकुमारी जैसी हो।
राधिका नाम की एक बच्ची थी, जिसका अलौकिक नाम दादी बृजइन्द्रा पड़ा, वह बहू के रूप में हमारे घर में कैसे आई, उसकी भी एक कहानी है। बाबा संपन्न, धनी परिवारों में से होने के कारण बृजइन्द्रा दादी के परिवार को जानते थे तथा उनका भी व्यापार ऐसा ही था। बचपन में बृजइन्द्रा दादी (राधिका) एक मिठाई की दुकान से मिठाई खरीद रही थी। उसके सिर पर एक बहुत सुन्दर टोपी थी। बाबा ने राधिका को परिवार के साथ देखा तो कुछ बोला नहीं लेकिन संकल्प किया था कि यह बच्ची किशन के लिए बहू के रूप में लायेंगे। समय गुजरता गया, राधिका बड़ी हो गई। राधिका के बड़े भाई को बाबा ने कहा कि मुझे अपने घर में किशन के लिए, राधिका बहू के रूप में चाहिए। यह सुनकर राधिका के भाई ने तीन शर्तें बाबा के सामने रखी और कहा, इन्हें पूरा करने पर ही हम अपनी बहन को आपके घर दे सकेंगे। वो तीन शर्तें थीं – (1) उसके पाँव गलीचों पर ही पड़ेंगे (2) वह कभी भी अपने हाथ से खाना नहीं बनायेगी और (3) उसके आने-जाने के लिए गाड़ी का प्रबंध होगा। बाबा ने इन तीनों शर्तों को ऐसे स्वीकार किया मानो कि ये कोई बड़ी बातें नहीं हैं और ये सब सुविधायें उस समय घर में मौजूद थीं ही।
उस समय हम कोलकाता में रहते थे, राधिका हैदराबाद में थी। उसके लौकिक भाई देखने वा जानने के लिए कोलकाता हमारे घर पर आये। घर में उस समय भी गाड़ी, नौकर, नौकरानियाँ थीं। कारपेट (गलीचों) पर ही हम चलते थे। अचानक आने पर सब कुछ स्वयं ही देखा तथा बाबा ने उसे घर का सारा खज़ाना खोलकर भी दिखा दिया। एक अलमारी में अनेक प्रकार के, एक से एक कीमती हीरे, रत्न, माणिक्य, मोती आदि थे। फिर बाबा ने कई अलमारियाँ खोलकर दिखाई जिनमें एक से एक सुन्दर डिजाइन के सोने के जेवर थे जिनमें हीरों आदि के भी हार थे। उनको देखकर उसका भाई तो आश्चर्यचकित हो गया। बाबा ने चाँदी के अनेक प्रकार के बर्तन और श्रृंगार के सामानों से भरी और भी कई अलमारियाँ दिखाई। कहा जाता है, समझदार को इशारा ही काफी होता है। राधिका का भाई यह तो सोच भी नहीं सकता था कि बाबा के पास इतनी धन-संपत्ति है। घर में बहू को लाना था तो उनकी शर्तों को पूरा कर, बाबा ने युक्ति से बाजी जीत ली। राधिका का भाई खुशी से आँखों देखा हाल और सारा समाचार परिवार वालों को बताकर संतुष्ट हुआ तथा एक दिन राधिका, जिसे बचपन में बाबा ने देखा था, बहू के रूप में घर में आ गई। यह बाबा की दृढ़ संकल्प शक्ति का कमाल था। ऐसी बहूरानी के घर में आने पर परिवार की खुशी में चार चाँद लग गये। वह बहू के साथ-साथ बेटी का भी पार्ट निभाती थी। वह बाबा के लौकिक-अलौकिक परिवार के साथ अंत तक रही।
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दादी बृजइन्द्रा जी के बारे में अपने अनुभव, ब्र.कु. रमेश शाह, मुंबई इस प्रकार सुनाते हैं –
घर में सत्संग चल रहा है। गुरु लालजी महाराज का प्रवचन हो रहा है। आये हुए सभी मेहमान और भक्तजन शान्ति से रोचक भाषा में कहे हुए भारतीय तत्वज्ञान की बातें सुन रहे हैं और उसी सभा के बीच से दादा लेखराज जी (ब्रह्मा बाबा का उस समय का लौकिक नाम) अचानक उठे। सबने सोचा कि शायद कोई साधारण कार्य अर्थ दादा उठे होंगे। परंतु उसी स्थान पर बैठी हुई दादा लेखराज की लौकिक पुत्रवधू राधिका जी को प्रश्न उठा मन में, दादा क्यों उठे? शायद किसी चीज़ की उन्हें जरूरत होगी, इसी कारण वह भी उठी और दादा जी के पीछे-पीछे गई। एक अगम्य अगोचर प्रेरणा इसके पीछे थी।
इसी सभा में पिताश्री जी की लौकिक युगल जसोदा जी, लौकिक पुत्र-पुत्री आदि-आदि सब बैठे थे। सबने पिताश्री जी को उठते देखा परंतु राधिका जी के ही भाग्य में लिखा था – पिताश्री के पीछे-पीछे जाना, पहले-पहले आने वाले दृश्य को देखने का सौभाग्य था उनका! और उन्होंने उस कमरे में क्या देखा? पिताश्री जी धीर-गंभीर होकर ध्यानस्थ स्थिति में बैठे थे। उनके मुख पर दिव्य प्रकाश छा गया। सारा कमरा उसी दिव्य प्रकाश से चमकने लगा। वायुमंडल शीतल और शक्तिवान बन गया। मृदु सुगंधित वायु और ओजस्वी, तेजस्वी प्रकंपन से भरा, मंगलमय वातावरण हो गया। ऐसी शुभ घड़ी में दादा लेखराज जी के साधारण तन में परमपिता परमात्मा की प्रवेशता हुई। परमधाम से अब तक सूक्ष्म रूप से वा साक्षात्कार आदि के माध्यम से कार्य करने वाले परमात्मा ने, प्रकृति का आधार ले, साकार रूप के निमित्त तन में प्रवेश कर पहला-पहला शब्दोच्चारण किया, “निजानंद स्वरूपं शिवोहम् शिवोहम् ।”
उस दिव्य अवतरण को, भागीरथ के तन में उतरने वाली गंगा के प्रति शास्त्रकारों ने जो गायन किया है, उसके यथार्थ रूप को, प्रथम देखने के निमित्त बन गई राधिका जी अर्थात् परमात्मा के दिव्य अवतरण को प्रथम देखने वाली राधिका जी आदिद्रष्टा बन गई। या तो कहो ज्ञान-सागर परमात्मा के मुख से निकलने वाले आदि ज्ञान-रत्नों को सुनने वाली आदि ज्ञानगंगा बन गई राधिका जी। और बाद में परमपिता परमात्मा ने जब सब समर्पित भाई-बहनों के नये जीवन के नये नाम दिये तब राधिका जी के नये दिव्य जीवन का नाम हो गया बृजइन्द्रा जी।
इस प्रकार संगमयुग के प्रथम साक्षात्कार का सौभाग्य प्राप्त करने वाली दादी बृजइन्द्रा जी शायद जरूर सतयुग का प्रथम साक्षात्कार करने वाली भी होंगी। ब्रह्मा रूप का प्रथम दिव्य दर्शन करने वाली बृजइन्द्रा दादी ब्रह्मा सो विष्णु और विष्णु सो बालक रूप में श्रीकृष्ण का प्रथम दर्शन करने वाली भी होंगी। ऐसा मेराँ अनुमान है, भविष्य के ड्रामा को तो भाग्यविधाता परमात्मा ही जाने। और फिर क्या हुआ?
ड्रामा की विभिन्न परिस्थितियाँ वा दृश्य आगे आते गये। कई आत्मायें समर्पित हो गईं। दादी बृजइन्द्रा ने भी अपना सर्वस्व समर्पित किया। लोग समझते हैं कि बहनों को गहने बहुत प्यारे लगते हैं। दादी बृजइन्द्रा जी के पास भी हीरे मोती-सोने आदि के बहुत गहने थे। उन्हों को अपने दो लौकिक बच्चे भी थे। संकटकालीन परिस्थिति के लिए या पुत्रों की शादी पर फ़र्जअदाई के रूप से देना जरूरी है, ऐसा समझ करके भी इन्होंने थोड़ा-सा भी धन या गहने अपने पास नहीं रखे। त्याग की परीक्षा में और नष्टोमोहा की परीक्षा में संपूर्ण सफलता उन्होंने पाई। त्याग का भी त्याग किया अर्थात् कभी भी त्याग का भी वर्णन नहीं किया, याद भी नहीं किया कि मैंने इतना त्याग किया। दुनिया के लोग थोड़ा भी त्याग करते हैं तो उसका वर्णन करते हैं, गायन करते हैं। तब हमें दादी बृजइन्द्रा जी ने सिखाया कि निमित्त बन करके कैसे त्याग का भी त्याग करना है।
और इस ज्ञान गंगा की जीवनयात्रा आगे बढ़ती रही। स्थापना के आदिकाल में अर्थात् 1937 से 1952 तक के 16 वर्षों में उन्होंने यज्ञ कारोबार में अथक सेवा की। ड्राइवर बनकर के बस आदि भी चलाई और जब बस का एक्सीडेन्ट हुआ तब देश-विदेश में समाचार छपे कि भारत में महिला जागृति इतनी आई है कि बहनें बस आदि भी चलाती हैं। ईश्वरीय सेवा के हर स्थूल, सूक्ष्म कार्य में सदा ही अपने आपको आगे रखा। श्रीमत का पालन चुस्ती से किया और जब 1953 से ईश्वरीय सेवा अर्थ सब निमित्त ज्ञान गंगाओं को विभिन्न स्थानों पर पिताश्रीजी ने भेजा तब दादी बृजइन्द्रा तथा दादी पुष्पशान्ता जी मुंबई आए। पश्चिम भारत की आदि की ईश्वरीय सेवा में भी सहभागी बने। मायावी मुंबई नगरी में भी अनेक कष्ट सहन किये। मुंबई में चार पैर पृथ्वी मिलना भी बहुत मुश्किल है। शुरू में संगठा हाऊस, कोठारी मैदान, दिव्यांत्र, अमीचंद मेन्शन, वाटरलू मेन्शन आदि-आदि स्थानों पर सेवा करने के लिए बृजइन्द्रा दादी निमित्त बन गये। दक्षिण मुंबई में ईश्वरीय सेवा बढ़ी परंतु अब उत्तर मुंबई में भी यह दैवी फुलवारी बढ़ने लगी और उसी कारण सायन (शिव) में भी नरोत्तम निवास में तीन पैर पृथ्वी पहले-पहले किराये पर ली। और इस स्थान पर विराजमान होकर दादी बृजइन्द्रा जी ने यह दैवी फुलवारी बढ़ाई। इस प्रकार मुंबई में अनेक स्थानों पर ईश्वरीय सेवा बढ़ती गई। मुंबई के बाहर पूने आदि स्थानों पर भी ईश्वरीय सेवा बढ़ी और उसके परिणामस्वरूप एक विस्तृत जोन बन गया जिसका नाम रखा गया महाराष्ट्र एवं आंध्रप्रदेश जोन। पहले-पहले दादी पुष्पशान्ता और बाद में दादी बृजइन्द्रा जी इस जोन की मुख्य संचालिका बने और यह कार्यभार उन्होंने अंत तक उठाया। सारे यज्ञ की हरेक प्रकार की ईश्वरीय सेवा में संपूर्ण सहयोग दिया।
यज्ञ इतिहास के मुख्य पात्रधारियों में से एक ऐसा पार्ट अदा किया, ऐसा इतिहास के साथ अपने को ओत-प्रोत कर दिया कि वह इतिहास का दूसरा स्वरूप बन गई। हर प्रसंग का यथार्थ वर्णन करने वाली बन गई। उस समय का वह तेजस्वी, दिव्य, भव्य वर्तमान ‘अब भूतकाल बन गया, उसी भूतकाल का यथार्थ यशोगान करने वाली बन गई। मैं भी जब इस दैवी परिवार का सदस्य बना तो मेरे लिए भी दादी बृजइन्द्रा जी लक्ष्य मूर्ति, प्रेरणा मूर्ति इस अर्थ में बन गई कि मैं भी वर्तमान की हर घड़ी को अमूल्य घड़ी समझकर, हर घड़ी का साक्षी और साथी बनूँ ताकि जब वर्तमान, भूतकाल बने तब आने वाले हमारे बहन-भाइयों को उस का साक्षात्कार कराऊँ और गाऊँ – गुजर गया वह जमाना कैसे-कैसे?
दादी बृजइन्द्रा जी हरेक की महानता और गुण को पहचानने में सदा सफल रहीं और सदा ही अपने साथियों को आगे बढ़ाती रहीं जैसे कि माँ अपने बच्चों की पालना करके बच्चों को आगे बढ़ाती है, उनकी प्रेरणामूर्ति बनती है, मार्गदर्शक बनती है। ऐसे दादी बृजइन्द्रा जी ने सदा मातृवत् पालना का कर्त्तव्य बहुत अच्छा किया और अनेक बहनों को आदर्श शिक्षिका बना उनका जीवन ईश्वरीय सेवा में समर्पित करने में निमित्त बनीं।
बाल्यकाल में लौकिक विद्या का अभ्यास इतना नहीं किया था दादी ने परन्तु सदा ही आदर्श विद्यार्थी बनकर लौकिक बातों के प्रति भी समझने की जिज्ञासु वृत्ति रखी, परिणामरूप, अंग्रेजी भाषा के शब्दों का यथार्थ प्रयोग वह करती थीं। सदा हरेक बात की गुह्यता में उसका आदि और अंत समझने का प्रयत्न करती थीं। परिणामरूप उनके शुभ विचार या शुभ राय में एक विशेष बल होता था जो शुभ राय पाने वाले की हर कदम पर सहायता भी करता था।
अस्थमा का रोग था परंतु अस्थमा के कारण वह असहाय नहीं बनी। अपना कर्त्तव्य सदा ही निभाती रहीं। इस बीमारी के कारण और बाद में वृद्धावस्था के कारण शारीरिक रूप से बृजइन्द्रा जी सीमित थे परंतु मानसिक रूप से सदा सबके साथी थे और एक स्थान पर होते भी इस विशाल जोन के अनेक ईश्वरीय सेवाकेन्द्रों को संभालने में सदा ही मार्गदर्शक रहे। दादी जी की एक और खूबी थी कि वे कोई भी निर्णय लेते थे तो उसका पालन करने-कराने में सदा ही सभी के सहायक रहते थे। इसलिए, कभी भी निर्णय प्रमाण कार्य करने वाले को यह डर नहीं लगता था कि कहीं दादी विचार बदलेंगे तो नहीं? आज की दुनिया में कार्य करने वाले को कई बार ऐसा डर रहता है परन्तु दादी जी सदा ही विघ्न विनाशक के रूप में सबके मददगार पूर्ण रूप से बने। कम खर्च बालानशीन के रूप में हर बात की इकॉनामी कराने में निमित्त बनते थे। ऐसे प्रसंगों की बहुत बड़ी लंबी लाइन है जिसका वर्णन उनकी जीवन कहानी के रूप में होना चाहिए। यह छोटा-सा लेख तो उनके प्रति श्रद्धांजली के रूप में गुणानुवाद करने के लिए लिखा है ताकि सभी रसास्वादन कर सकें और मैं भी ऐसी शब्दांजलि द्वारा कृतार्थ हो जाऊँ। हमारी दादी बृजइन्द्रा जी ऐसी गुणमूर्त थे, परमपिता परमात्मा की ऐसी दिव्य चेतनामूर्त थे जिसका गायन यह दैवी परिवार बहुत समय तक सदा ही करता रहेगा।
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दादी जी के त्यागी-तपस्वी जीवन की 25 वर्षों तक साक्षी रही महाराष्ट्र जोन की निमित्त प्रभारी ब्रह्माकुमारी संतोष बहन उनके बारे में इस प्रकार बताती हैं-
दादी का जीवन अति त्यागमय था। हमने देखा, उनका मूलमंत्र था, कम से कम साधनों से अपने को चलाना। दादी कहती थी, हम अपने प्रति जो भी प्रयोग करते हैं, वो भी हमारे भविष्य में से कट हो जाता है। दादी को दमा की थोड़ी तकलीफ रहती थी। हम हमेशा सोचते थे, दादी के लिए थोड़ा फल लेकर आएँ, पर दादी कहती थी, मुझे फलों की आवश्यकता नहीं है। खुद के लिए वह इतना-सा खर्चा करने को भी तैयार नहीं थी। सेवा के लिए जितना चाहिए, उतना खर्चा करो पर खुद के लिए कोई खर्चा नहीं करना है।
दादी महाराष्ट्र तथा उसके आस-पास के सेवाकेन्द्रों की उन्नति के निमित्त थी। कभी किसी दूसरे सेवास्थान पर जाना होता था तो ट्रेन से जाती थी। मुंबई में स्थानीय ट्रेनों की बहुत सुविधा है और उन द्वारा जल्दी भी पहुँचते हैं। बहन-भाई पूछते थे, आप इतनी बड़ी दादी हो, फिर भी ट्रेन में क्यों जाती हो? दादी कहती थी, नहीं, मैं जा सकती हूँ इसलिए ट्रेन से ही जाऊँगी। सबको यह महसूस होता था कि इतनी छोटी-छोटी बहनें, वो तो कारों में जाती हैं, फिर दादी ट्रेन से क्यों जाती हैं। पर उनका बहुत-बहुत त्यागी जीवन था।
हम कुमारियों को माँ जैसा प्यार देती थी जिस कारण कोई भी लौकिक संबंधी कभी याद नहीं आया। हमें अपनी लौकिक माता में बहुत मोह था पर जैसे-जैसे दादी की पालना मिली, मोह टूटता गया। इतना प्यार देते हुए भी दादी ने हमें कभी खुद में नहीं फँसाया, हमारा सारा कनेक्शन बाबा के साथ रखवाया। दादी की तबीयत ठीक ना रहने के कारण, दादी से संबंधित बहुत सारी सेवाओं को हम संपन्न करते थे पर दादी कभी भी अपने को बड़ा नहीं समझती थी। कोई बात, होती थी, कुछ निर्णय लेना होता था तो कहती थी, प्रकाशमणि दादी से पूछो। उनसे पूछते थे तो कहती थी, अरे तुम मेरे से क्यों पूछती हो, तुम्हारे पास इतनी बड़ी दादी बैठी है, उनसे पूछो। इस प्रकार इनका इतना आपसी प्यार था, विश्वास था और एक-दो को आगे रखकर चलते थे। इन बातों से हमें बहुत कुछ सीखने को मिला। जैसे हम सतयुग का गायन करते हैं कि श्री लक्ष्मी, श्री नारायण, अपने होते हुए, अपने बच्चों को राज्य कैसे चलाना है, यह सिखाते हैं तो हमने प्रैक्टिकल में देखा कि दादी स्वयं पीछे हो गई और हमें आगे करके हमेशा आगे बढ़ाया।
जब कराची में क्लिफ्टन पर रहते थे, समुद्र के सामने बाबा का बंगला था, तब से दादी को दमा की तकलीफ हो गई थी। उस समय तो इतनी दवाइयाँ भी नहीं होती थी। दादी को बहुत जोर से दमा होता था, उसकी आवाज़ भी बहुत आती थी। परन्तु तकलीफ होते भी, तकलीफ की फीलिंग नहीं करते थे। उनका चेहरा बहुत हर्षित और अच्छा था। बहुत ही हँसमुख नेचर थी लेकिन बाबा की श्रीमत का कभी भी उल्लंघन नहीं करना है, यह उनके जीवन का बहुत बड़ा नियम था। कुछ भी हो जाए, कुछ भी करना पड़े, परंतु हमें हर हाल में बाबा की श्रीमत पर ही चलना है, यह उनका दृढ निश्चय था।
गहनों का त्याग भी सबसे पहले इन्होंने ही किया। दादी सुनाती थी कि जब बाबा समर्पण हुए, उन दिनों एक बार मैं और मम्मा बगीचे में टहल रहे थे। तभी कोई सरकारी अधिकारी बाबा से पूछताछ करने आए कि ये सब मातायें-कन्यायें सब कुछ छोड़कर आपके पास आती हैं, आप इन्हें क्या देते हैं? बाबा ने कहा, मैं ना तो गहने देता हूँ, ना कपड़े देता हूँ, ये सब बड़े-बड़े घरों की हैं, सुविधाओं में पली हैं, यहाँ तो बड़ा सादा जीवन है, तो इन्हें यहाँ केवल ईश्वरीय सुख का आकर्षण ही लेकर आता है। बाबा की ये बातें हमारे कानों तक भी आ रही थी। मैंने कहा, मम्मा, देखो, बाबा हमारे लिए क्या कह रहा है और हम क्या कर रहे हैं क्योंकि मैंने उस समय भी बड़े कीमती गहने पहने हुए थे। मेरे मन में प्रेरणा आई कि अब हमें ये गहने नहीं पहनने हैं। तो उस समय हमने गहने उतार दिए। हम जानते हैं, उस जमाने में, घर में सास के होते, सास से पूछे बिना यदि बहू गहने उतार दे तो उसे कितना सहन करना पड़ता था परंतु इनको किसी की परवाह नहीं थी। बाबा पर अटूट निश्चय था कि बाबा जो कहेंगे, वही मैं करूँगी। फिर दादी ने बाबा को बताया, बाबा, आज से मैं गहने नहीं पहनूँगी। बाबा ने कुछ नहीं बोला, जसोदा माता को अच्छा नहीं लगा परंतु बाबा ने कुछ बोला नहीं। जब बहू ने नहीं पहने तो सास कैसे पहनेगी। इस प्रकार, इसे देखकर अन्य भी कइयों ने गहनों का परित्याग किया। इस प्रकार त्याग करने में पहला नंबर निमित्त बनी।
जैसे बाबा ने सिखाया है, दादी की बड़ी दिल, फराखदिल थी। बाबा की जैसे एकदम कॉपी थी। उन जैसी रॉयल्टी और विशाल दिल हमने देखी नहीं। कोई मेहमान आता था या हम लोग भी दादी के पास रहते थे तो वो सोचती थी कि मैं इनको क्या न खिला दूँ। – साकार बाबा के सामने कर्नाटक तथा आंध्रप्रदेश के – कुछ क्षेत्रों में सेवाकेन्द्र खुले थे। वहाँ के भाई-बहनें आते-जाते मुंबई को क्रॉस करते थे तो दादी से मिलने – आते थे। दादी उनकी बहुत खातिरी करती थी।
दादी को मरजीवा जन्म का बहुत नशा था। लौकिक जन्म बिल्कुल भूल गया था। एक बार कर्नाटक के कुछ बहन-भाई आये हुए थे। उन्होंने एक छोटी बहन से कहा, हम कर्नाटक से आये हैं, हमको बाबा की बहू से मिलना है। उस बहन ने आकर दादी को संदेश दिया। दादी ने कहा, उनको बोलो, बाबा की बहू मर गई। वह बहन तो चकित नज़रों से दादी को देखती रही और वहीं खड़ी रही। दादी ने फिर कहा, जाओ, जाकर कह दो। वह बहन तो कुछ नहीं बोल सकी। थोड़ी देर बार दादी तैयार होकर बाहर गई और बोली, देखो, जिस दिन से यह आत्मा बाबा की बनी, उसी दिन से बाबा की बहू मर गई। मैं बाबा की बहू नहीं, बाबा की बेटी हूँ। वर्सा बहू को नहीं, बेटी को मिलता है। इस प्रकार, मरजीवा जन्म का जो नशा था, वह दादी ने व्यवहार में दिखाया। दादी को देखकर हम भी सीखे। दादी इतनी नष्टोमोहा थी कि कभी पुरानी बातें याद नहीं की। यदि पिछली बातें बताती भी थी तो केवल ये कि बाबा का जीवन कितना अलौकिक था आदि-आदि।
दादी के दो बेटे थे। बाबा समर्पित हुआ तो सारे परिवार के साथ वे भी समर्पित हो गए। एक बच्चे को कराची में स्मालपॉक्स (चेचक) निकली और शरीर छूट गया। दूसरे बेटे का नाम घनश्याम था, उसे घनसी कहते थे। वह भी आबू में सबके साथ आया पर जब नारायण दादा मुंबई गए तो उसे अपने साथ ले गये कि मैं इसे पढ़ाऊँगा और संभालूँगा। उसने उसे अपना बच्चा ही समझा। वह रहता था नारायण दादा के पास पर हर रविवार को दादी के पास (मुंबई के सेन्टर पर) आता था। उसको अपनी माँ (बृजइन्द्रा) से बहुत प्यार था। बाबा पर अटूट निश्चय था। उस समय 35 वर्ष का हो गया था पर बोला, मुझे शादी नहीं करनी है, योगी था। उसे बाबा से अति प्यार था। बाबा भी उसे बहुत प्यार करता था। दादी बताती थी, जब यह छोटा था, बाबा आता था तो देखते ही दौड़ता था, उसे संभालना मुश्किल हो जाता था, जब तक बाबा गोद में ना ले ले। अति प्यार था दादा (बाबा) से। इतना बड़ा होने के बाद उसे भी स्मालपाक्स निकली। उसे मुंबई के हॉस्पिटल में रखा था। बाबा भी उस समय मुंबई में आये हुए थे। बच्चे को पता पड़ा तो बोला, मुझे बाबा से मिलना है। विश्वकिशोर भाऊ ने कहा, नहीं, बाबा को ऐसी जगह नहीं ले जाना, यह छूत की बीमारी होती है। बाबा ने कहा, बच्चा याद करे और बाप ना जाए, यह कैसे हो सकता है, अवश्य जाना है। तो बाबा उससे मिलने गए। जब हॉस्पिटल में अंदर जाते थे तो बाहर इंजेक्शन लेना पड़ता था सेफ्टी की दृष्टि से। बाबा ने कहा, नहीं, मुझे ऐसे ही जाना है। फिर बाबा अंदर गए तो उस बच्चे को अति खुशी हुई और एकदम उठकर बाबा को जैसे गले लगा। उसको इतनी ज्यादा निकली थी कि आँख, नाक, गला सारा भर गया था। वह पानी भी नहीं पी सकता था। ग्लूकोज चढ़ाने की शरीर में जगह ही नहीं थी फिर भी वह बहुत आनन्द में था। ध्यान में जाता था वह। उसको दादी पूछती थी, घनसी भूख लगी है? कहता था, बाबा के पास वतन में गया था, बाबा ने बहुत शूबीरस पिलाया, मेरा पेट भरा हुआ है। शिवबाबा उसे अपने पास वतन में बुलाकर खिलाता था।
बाबा ने दादी को कहा, तुम पूरा समय इसका ध्यान रखो। दादी, बाबा से मिलने थोड़ा समय जाती थी फिर हॉस्पिटल में उसके पास बैठती थी। जब शरीर छोड़ने का समय हुआ, डॉक्टर को पता चल गया। उसने दादी को कहा, आपको जिसको भी बुलाना हो, बुलाओ। डॉक्टर ने पूछा, आप कौन हैं इसकी? दादी ने कहा, माता हूँ। डॉक्टर ने पूछा, स्टेप मदर हैं क्या? दादी ने कहा, नहीं, रियल हूँ। डॉक्टर को बड़ा आश्चर्य लगा कि माँ होकर इसके चेहरे पर कोई असर नहीं, हलचल नहीं। उस समय फिर विश्वकिशोर भाऊ आया। बच्चे के शरीर को जब अंतिम झटका लगा तो भाऊ ने सोचा, यह ध्यान में गया। दादी को पता चल गया कि आत्मा गई। नर्स भागी इंजेक्शन देने पर दादी ने उसका हाथ पकड़ लिया। फिर सब क्रियाकर्म करके, स्नानादि करके दादी बाबा के पास आई, बाबा को सब समाचार सुनाया, फिर पूछा, बाबा, घनसी ने जब शरीर छोड़ा, मेरे को खुशी की लहर आई, ऐसा क्यों? बाबा ने कहा, वो आत्मा बहुत कमाई करके गई, इसलिए खुशी की लहर आई। इस प्रकार, दादी की नष्टोमोहा की स्टेज देखकर हमने सीखा कि नष्टोमोहा कैसे बना जाता है। दादी ऐसी सुन्दर क्लास कराती थी, सब जड़ होकर बैठ जाते थे। उन जैसा यज्ञ- इतिहास तो कोई सुना भी नहीं सकता।
बाबा कहते हैं, “कख का चोर सो लख का चोर।” दादी इस बात पर बहुत समझानी देती थी और कर्मों की गहन गति समझाती थी। मानो, लौकिक ऑफिस में काम करने वाला कोई भाई कभी कोई पेन, पिन या स्टेशनरी की चीज़ सेन्टर पर ले आता था तो दादी बहुत ध्यान देती थी। पूछती थी, यह कहाँ से आई? वो भाई कहता, मैं ले आया ऑफिस से। दादी कहती, ऑफिस की चीज़ तो ऑफिस में रहनी चाहिए। वो कहता, दादी, सभी ले जाते हैं, बॉस भी ले जाता है। दादी समझाती थी, सभी चोरी करते तो उन्हें देख हमें चोर नहीं बनना है। भाग्य बनाने का अर्थ यह नहीं है। भाग्य अपने वैध पैसे से बनता है अतः ऐसी चोरी की चीजें, भले एक पिन भी हो, नहीं लाओ क्योंकि बाबा कहता है, कख का चोर सो लख का चोर। वो लोग कलियुग में हैं पर हम संगमयुगी हैं अतः हमारा कर्म बहुत श्रेष्ठ होना चाहिए।
दादी का युगल विदेश चला गया था। उसने वहाँ जाकर दूसरी शादी की। वो लड़की भी यज्ञ की गई हुई थी। फिर कई वर्षों बाद मुंबई में आया और दादी को फोन किया। उसने पूछा, बृजेन्द्रा है? दादी ने पूछा, आप कौन हो? क्योंकि कोई भी इस प्रकार दादी का नाम लेकर नहीं पूछता था। उसने कहा, मैं किशा हूँ (कृष्ण नाम था, किशा कहते थे)। दादी ने पूछा, क्या काम है? उसने कहा, मुझे आपसे मिलना है। दादी ने कहा, मुझे आपसे मिलना नहीं है, ऐसा कहकर फोन रख दिया। इस प्रकार दादी ने यहाँ भी नष्टोमोहा का सबूत दिया। संसार में नारी को सबसे अधिक पुत्र और पति के मोह की जंजीरें ही बाँधकर रखती हैं। दादी ने दोनों जंजीरों से मुक्त होने का प्रमाण दे दिया।
बाबा कहते हैं, अपने कर्मों से सिखाओ तो दादी ने प्रैक्टिकल कर्मों द्वारा हमें भी नष्टोमोहा का पाठ पढ़ाया। फिर वो कोलाबा में रहा और उधर ही सेवाकेन्द्र पर भी आता-जाता रहा पर दादी तो देह के नातों से पूरी तरह ऊपर उठ चुकी थी। दादी ने 1-1-1990 को पार्थिव देह का त्याग किया।
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