मेरा परिचय प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय के साथ विचित्र संयोगों में हुआ था। मेरे लौकिक पिता की अचानक मृत्यु के कारण लौकिक माता सदा उदास रहती थी। मैंने यथाशक्ति तीर्थ यात्राओं, गुरुओं के दर्शनों आदि के द्वारा उनकी उदासी दूर करने के प्रयास किये किन्तु सफलता नहीं मिली।
सन् 1952 के जून मास में मैंने देखा कि माताजी के मुख पर फिर से सुख- शान्ति की छाया उमड़ी है, जो दीर्घकाल अर्थात् एक मास से भी ज्यादा समय रही है। मैंने उसका रहस्य पूछा। उन्होंने बताया कि ब्रह्माकुमारी बहनों के सत्संग में राजयोग का अभ्यास सीखा है जिसमें ‘मैं एक आत्मा हूँ, परमपिता परमात्मा की संतान हूँ’, यह अनुभव होता है और दु:ख, भय आदि दूर होते हैं। तब मेरे मन में भी उत्कंठा जागी कि मैं इन बहनों से और इनको ज्ञान देने वाले महात्मा (तब तो यही भावना थी) से मिलूँ।
सितम्बर मास आया, श्राद्ध के दिन थे। लौकिक पिता के श्राद्ध के निमित्त पहली बार मेरा सेवाकेन्द्र पर जाना हुआ। निश्चित समय पर बहन जी (जिन्हें दिव्य दृष्टि का वरदान प्राप्त था) संदली पर बैठी और बुद्धियोग बल से सूक्ष्मवतन में गई। केवल 5-7 मिनट में ही वे वापस आकर कहने लगीं कि बाबा कहते हैं, “जिस आत्मा के प्रति भोग लग रहा है, उसे पान-सुपारी खाने की आदत थी। एक छोटी थाली में, अलग से भोजन तथा पान-सुपारी रखकर लाया जाये।” संदेशी बहन ने मुझसे पूछा कि क्या आपके पिताजी को पान-सुपारी खाने की आदत थी। मैंने हाँ कहा और सोचने लगा कि इस बात का ज्ञान इन बहन जी को कैसे हुआ? इन्हें यह शक्ति किसने दी?
दो दिन के बाद मैंने उन संदेशी बहन जी को घर पर आने का निमंत्रण दिया और दो-तीन हज़ार फोटोग्राफ्स के बीच लौकिक पिता जी का भी एक फोटो रख दिया। मैंने उनसे कहा कि आप इन फोटोज़ को देखिए। बहन जी फोटो देखने लगीं। मेरे लौकिक पिता जी के फोटो को पहचान कर उन्होंने मुझसे पूछा, “यही आपके लौकिक पिता जी का फोटो है ना?” मैने हाँ कहा और पूछा कि आपने कैसे पहचाना? उन्होंने उत्तर दिया, “क्यों नहीं पहचानूँगी, दो दिन पहले भोग के समय पर सूक्ष्मवतन में मैं उन्हें मिली थी और उनका संदेश भी आपको दिया था।”
मैं सोच में पड़ गया कि यह सूक्ष्मवतन क्या है, वहाँ जाने की शक्ति इन्हें किसने दी और इस ज्ञान को देने वाले बाबा कौन हैं, मुझे उनके दर्शन ज़रूर करने ही है। दो वर्ष के बाद एक दिन अचानक लौकिक माता जी से समाचार मिला कि पिताश्री ब्रह्मा बाबा इलाज के लिए मुम्बई अस्पताल में पधारे हैं। उसी दिन शाम को मैं अस्पताल में पहुँच गया। जिज्ञासा और उत्सुकता से भरी मिलन की वह घड़ी थी। पिताश्री जी की शान्त मुद्रा, उन्नत भाल, तेजस्वी मुखारविंद, अनुपम स्नेहयुक्त नेत्र तथा प्रभावशाली व्यक्तित्व मनमोहक था। वे बिस्तर पर लेटे हुए थे। एक सेकण्ड में अजंता-एलोरा की गुफाओं में अंकित, शिला पर सोये महात्मा बुद्ध की मूर्ति याद आई। दो मिनट तक मैंने मीठी दृष्टि ली। मैं उनको उनके स्वास्थ्य के बारे में कुछ पूछूँ, उससे पहले ही वे कहने लगे, “आओ मीठे बच्चे, देखो बाबा भी तुम्हें मिलने का इंतजार कर रहे थे और यह मिलन पहली बार नहीं, हर कल्प हुआ है और फिर भी होता रहेगा।” इस प्रकार उनके मुख से ज्ञान-गंगा बहती रही। बीमारी का कोई नाम-निशान नहीं, अस्पताल का कमरा भी सेवाकेन्द्र का कमरा लग रहा था। मैं भी शान्तचित्त, एकाग्रमन से उनकी अमृतवाणी सुन रहा था। बाद में उन्होंने टोली (प्रसाद) दी। प्रसाद स्वीकार करके मैने विदाई ली। पिताश्री के उस अप्रतिम शान्तियुक्त व्यक्तित्व की अविस्मरणीय छाप मेरे मन में अंकित हो गई।
पिताश्री जब अस्पताल से छुट्टी लेकर आ गये तब भी मेरी उनसे मुलाक़ात हुई और हर क्षण उनके प्रति मेरी श्रद्धा बढ़ती गई। पिताश्री की आँखों में सदा ही हम बच्चों के प्रति वात्सल्य भाव छलकता था। पवित्रता, विकारों पर विजय तथा तीव्र पुरुषार्थ की बातों पर वे बहुत ही स्पष्ट रूप से ज्ञान देते थे। लगता था कि उनकी अमृतवाणी हमारे पत्थर जैसे दिल को पिघला कर वहाँ देव-मूर्ति अंकित कर रही है। भक्ति मार्ग में मैंने सुना था कि सम्पूर्ण बन, मुक्ति को पाने के लिए कम-से-कम पाँच-सात जन्म का सतत् तीव्र पुरुषार्थ चाहिए परन्तु मुझे आश्चर्य होता था कि पिताश्री जी के ज्ञान में ऐसी कौन-सी शक्ति है जो एक ही जन्म में मनुष्य से देवता बना देती है! इस समय तक मुझे उनके तन में विराजमान परमात्मा शिव की पहचान नहीं हुई थी। बाद में पिताश्री जी आबू चले गये और मेरा इस विश्व विद्यालय के साथ कभी-कभी मिलने का और ज्ञान-चर्चा करने का सम्पर्क रहा।
सन् 1957 में एक दिन प्रातः भोजन के समय लौकिक माता जी ने मुझसे कहा कि उनकी इच्छा है कि पिताश्री और मातेश्वरी जी को मुम्बई पधारने का निमंत्रण दिया जाये। तब फौरन मेरे मन में पिताश्री जी की मूर्ति साकार हो उठी और मुख से निकला, ” क्यों नहीं, ज़रूर बुलाइये।” तब माता जी ने कहा कि निमंत्रण देने का अर्थ समझते हो? मैंने कहा, “हाँ, उनके आबू से आने-जाने का तथा रहने आदि का तमाम खर्च करना पड़ेगा। यह कोई बड़ी बात नहीं है।” पाँच-सात दिन के बाद लौकिक माता जी ने मुझे बताया कि पिताश्री, माता जी के निमन्त्रण पर नहीं आयेंगे किन्तु यदि रमेश बच्चा निमंत्रण देगा तो वे अवश्य आयेंगे। मैंने माता जी को कहा, “भले ही आप निमंत्रण पत्र लिख कर लाओ, मैं उस पर हस्ताक्षर करूँगा।” माता जी ने कहा कि निमंत्रण भी अपने ढंग से आप स्वयं लिखो। मैंने कहा, “पिताश्री एक बहुत बड़ी विभूति हैं इसलिए उन्हें यथासम्भव सुन्दर शब्दों और सुन्दर भाषा से सुसज्जित, अलंकृत, मनोहर कागज पर सुन्दर रीति से छपा हुआ निमंत्रण भेजना चाहिए। मेरे पास आपके ज्ञान के मीठे शब्दों का भण्डार नहीं है जो मैं ऐसी दिव्य विभूति को अपने हाथों लिखा निमंत्रण-पत्र भेज सकूँ।” तब माता जी ने सेवाकेन्द्र से एक बहुत ही सुन्दर निमंत्रण-पत्र बनवाया जिस पर मैंने हस्ताक्षर करके उसे पोस्ट कर दिया।
थोड़े ही दिनों में पिताश्री और मातेश्वरी जी मुम्बई पहुँच गये। स्टेशन पर दोनों दिव्य विभूतियों के स्वागत सत्कार का सुअवसर मुझे मिला और फिर मोटर में बिठा कर निर्धारित निवास स्थान पर उन्हें ले गया। पिताश्री जी की अमृतवाणी भी उस समय सुनी और फिर मैंने समझा कि अब मेरा कार्य समाप्त हो गया है। अगले दिन से प्रातः क्लास में जाना बंद कर दिया। तीन-चार दिन के बाद मेरी लौकिक माता चिन्तित मुख से आश्रम से वापस लौटी और कहने लगी कि पिताश्री जी तो मधुबन वापस जा रहे हैं क्योंकि उन्हें निमंत्रण देने वाला (मैं रमेश) तो क्लास में आता नहीं है, बाबा मुरली किसको सुनाये। मुझे सुनकर हँसी आई और मन में सोचा कि पिताश्री बहुत चतुर हैं, मैं क्लास में रोज़ आऊँ और उनकी निर्मल वाणी सुनूँ इसलिए उनकी यह युक्ति है। दूसरे दिन से ही मैं सुबह पिताश्री जी से मिलने और मुरली सुनने जाने लगा। शाम को भी अपनी मोटर द्वारा उन्हें इधर-उधर घुमाने ले जाने लगा तथा चौपाटी की ठण्डी हवाओं में विचारों की लेन-देन करने का सुनहरा मौका भी मुझे मिला। तब तक पिताश्री जी को मैं लौकिक माता के गुरु के रूप में ही मानता था।
समय बीतता गया। पिताश्री जी और मातेश्वरी जी साढ़े चार मास तक मुम्बई में रहकर वापस गये। तब रोज़ उन्हों की मधुर शिक्षाएँ सुनने का अभ्यास हुआ। ज्ञान की बातें थोड़ी-थोड़ी दिल में उतरने भी लग गईं। पिताश्री जी को मिलने के लिए भारत के विभिन्न सेवाकेन्द्रों से अनेक भाई-बहनें आते थे, उन्हें मैं अपने लौकिक घर पर आने का निमंत्रण देता था और रात्रि को दो-ढाई बजे तक उनके अनुभव सुनता था। उनके अनुभवों की सच्चाई और गहराई जानने का ईमानदारीपूर्वक प्रयत्ल करता था जिससे मुझे अनुभव होता था कि वे सब भक्तिमार्ग के ज्ञान पण्डित नहीं थे परन्तु गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ के समान उनकी जीवन की धारणायें थीं। मुझे लगता था कि मैं पण्डितों की तरह बहस करने पर भी जीवन में स्थायी परिवर्तन, आनन्द, सुख-शान्ति की प्राप्ति की अनुभूति से वंचित ही हूँ।
थोड़े वर्षों के बाद पिताश्री जी फिर मुम्बई में आये। उस समय लौकिक रूप में विवाह सम्पन्न होने के कारण मेरी जिम्मेदारियाँ बढ़ गईं थीं। लौकिक माता जी ने मेरी लौकिक युगल ऊषा को तीन-चार बार पिताश्री जी से मिलवाया था। बाबा ने उन्हें भी आबू पधारने का निमंत्रण दिया था। बाबा एक कुशल मनोवैज्ञानिक भी थे जिस कारण सामने वाले के मन के भावों को समझ करके अनुकूल शब्दों का प्रयोग करते थे। इस विश्व विद्यालय के संचालन की बहुत भारी ज़िम्मेवारी उनके सिर पर थी फिर भी कभी भी वे किसी प्रकार के तनाव में नहीं आते थे और न ही किसी प्रकार की उत्तेजना उनकी वाणी या व्यवहार में दिखाई पड़ती थी। उनका व्यवहार सबके मन पर छा जाता था और मिलने वाला व्यक्ति एक अमिट छाप लेकर ही वापस जाता था। जून, 1961 में हम सबका पहली बार माउण्ट आबू जाना हुआ। पहले मेरा लौकिक परिवार गया और उसके थोड़े समय बाद मैं भी आबू गया। करीब दो सप्ताह पिताश्री जी के साथ रहने और उनके जीवन को नज़दीक से समझने का मौका मिला। हमने पिताश्री जी के जीवन में आलस्य या अन्य कोई भी विकार कभी नहीं देखे। उम्र में छोटा हो या बड़ा, सबके साथ वे ईश्वरीय प्रेम के आधार पर व्यवहार करते थे।
जिस दिन हम मधुबन से मुम्बई लौटने वाले थे उसी दिन बाबा ने मुरली में मोहजीत बनने की सुन्दर शिक्षा और धारणायें सिखाई। दोपहर बारह बजे विदाई के समय वरिष्ठ बहनों ने हमसे पूछा कि आप पिताश्री जी के बारे में क्या भाव रखते हो? “मैंने कहा, पिताश्री जी मेरी माता जी के गुरु हैं और उसी भाव से मैं उनके प्रति श्रद्धा रखता हूँ।” थोड़े क्षणों के बाद विदाई की वेला आई। पिताश्री जी हम बच्चों को विदाई देने के लिए पिछले रास्ते से वट वृक्ष के नीचे तक आये। वह दृश्य आज भी सामने आता है। ग्रन्थों में वर्णित शकुन्तला, ऋषि कण्व के आश्रम से विदाई लेती है तब सभी आश्रम निवासी उन्हें मुख्य द्वार पर विदाई देते हैं। कण्व ऋषि की आँखों में प्रेम के आँसू आये थे। उसी प्रकार यहाँ भी पिताश्री जी के नेत्र सजल बने और उन्होंने जेब से अपना हस्त रूमाल निकाल कर नेत्रों को स्वच्छ किया। हमारा भी दिल प्रेम-भाव से भर आया और मैंने तुरन्त ऊषा को कहा, “पिताश्री जी की महानता तो देखो। आज प्रातः मुरली में उन्होंने मोह को जीतने की बात कही और अभी-अभी हम पर इतने ही प्रेम और करुणा की वर्षा कर रहे हैं। उनके ये सजल नेत्र हमारे लिए पतित पावनी गंगा के समान हैं और उसी गंगा जल ने हमारे मन के श्रद्धा-बिन्दु को टटोला है। सागर के 60 हज़ार भस्मीभूत हुए पुत्रों को जैसे भागीरथ की जटाओं से निकली भागीरथी ने पुनर्जन्म दिया उसी प्रकार इस चैतन्य भागीरथ के कमल-नयन से निकली प्रेम-गंगा ने हमारे मन के अन्दर सोई हुई और खोई हुई ईश्वरीय स्मृति को पुनर्जीवित कर दिया है। पिताश्री जी के ज्ञान को क्यों नहीं हम जीवन में धारण करने का प्रयत्न करें। शक्कर और नमक के भेद को समझने के लिए अनुभव की जीभ ही काफी है। अन्य सब चर्चा व्यर्थ है। आज तक हमने व्यर्थ चर्चा में समय बिगाड़ा है। क्यों नहीं हम पिताश्री जी को जीवन की प्रयोगशाला में प्रयोग करके देखें।” घर पहुँच कर हमने ऐसा ही किया और हमें तुरन्त ही इस नवीन ज्ञान तथा ज्ञान-दाता परमपिता परमात्मा शिव के माध्यम पिताश्री जी के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई। हमने नवीन जन्म तथा श्रद्धा से प्रज्वलित अपनी मनोभावना पिताश्री के समक्ष पत्र द्वारा स्पष्ट की। पिताश्री जी के रोज़ पत्र आने लगे। नई कोमल कलियों को माया रूपी चिड़िया खा न जाये इसलिए एक अच्छे बागवान की तरह बाबा हमें रोज़ पत्रों द्वारा मजबूत करने लगे।
अक्टूबर, 1961 में पिताश्री जी का पुनः मुम्बई में आना हुआ। दो मास तक हमें रोज़ प्रातः पिताश्री जी को हैगिंग गार्डन घुमाने ले जाने का अवसर मिला। इस बगीचे में कई लोग घूमने आते थे। एक बार एक प्रसिद्ध मिल के मालिक सीढ़ी चढ़ रहे थे, हमने उनकी मुलाक़ात पिताश्री जी से करवाई। उस मिल मालिक ने पिताश्री जी से पूछा कि आप क्या करते हो? पिताश्री जी ने बहुत ही स्नेहपूर्ण शब्दों में कहा कि मुझे शिव परमात्मा ने प्रजापिता ब्रह्मा का नाम दिया है और इस पुरानी सृष्टि को नई सृष्टि में परिवर्तित करने की ज़िम्मेवारी दी है। वही मैं इन बच्चों के सहयोग से कर रहा हूँ। वह मिल मालिक तो आश्चर्यचकित हो गया और कुछ बोल नहीं पाया। हमने भी पिताश्री जी की मुखमुद्रा की तरफ निहारा तो वहाँ, मैं कौन हूँ, मुझे क्या करना है और मेरे द्वारा परमात्मा पिता को क्या कराना है, उसकी स्पष्ट चित्र-रेखा दिखाई पड़ी। पिताश्री जी को अपने बारे में आत्मविश्वास अप्रतिम था और तब से मैंने भी मन में निश्चय किया कि हम भी अपना आत्मविश्वास तथा कर्तव्य के प्रति अपनी श्रद्धा कभी भी कम नहीं करेंगे।
एक दिन प्रातः जब हम बगीचे में थे तब एक संन्यासी वहाँ घूम रहे थे। उन्हें ज्ञान-दान देने के लिये ऊषा और हमको पिताश्री जी ने भेजा। सफलतापूर्वक उस संन्यासी को बाबा का संदेश सुना कर हम आये तब कहा, “बच्चे, जल्दी-जल्दी तैयार हो जाओ, बाबा तुम्हें विदेश में भेजेंगे। विदेश की सेवा अभी बहुत करनी है।” मैंने अपनी निर्मानता प्रदर्शित करने के लिये श्रद्धा भाव से कहा कि हम में वो योग्यता कहाँ जो हम विदेश जा सकें। तब मैंने पहली बार बाबा को इस स्वरूप की अथॉरिटी के साथ बोलते देखा। उन्होंने कहा, “बच्चे त्रिकालदर्शी कौन है, आप या मैं?” मैंने बाबा को कहा कि बाबा, त्रिकालदर्शी तो आप ही हो। हम तो आपके आगे कुछ भी नहीं हैं। तब बाबा ने कहा, “इसीलिए तो बाबा कहते हैं कि बच्चे जल्दी-जल्दी तैयार हो जाओ, तो आपको विदेश भेजेंगे। आप बच्चों को विदेश जाकर बहुत कार्य करना है।”
जून, 1964 में हमें प्रेरणा मिली कि हम मुम्बई में अपने ज्ञान के चित्रों के प्रदर्शन द्वारा ईश्वरीय सेवा करें। पिताश्री जी ने उन चित्रों के बारे में अनेक प्रकार से मार्ग-दर्शन दिया। चौबीस अक्टूबर, 1964 के दिन जब पहली प्रदर्शनी मुम्बई में हुई तो बाबा ने उसका विस्तृत समाचार जानने हेतु मधुबन से फोन किया। बाबा ने सारे भारत के सभी महारथी भाई-बहनों को सेवा अर्थ भेजा। इसके पांच दिन बाद मातेश्वरी जी मुम्बई में पधारों और सभी भाई-बहनों की मीटिंग में उन्होंने कहा कि यह प्रदर्शनी तो विहंग मार्ग की सेवा का अच्छा साधन है। दिसम्बर, 1964 में मुम्बई में हुए ईसाई धर्म के बड़े सम्मेलन में रोम से पहली बार मुख्य पोप पधारे। उस समय बाबा ने फिर से प्रदर्शनी करवाई और हम सबने मिलकर उसी समय राजयोग प्रदर्शनी के चित्र भी बनवाये जिनको देख करके विदेश में भी प्रदर्शनी द्वारा सेवा करने का शुभ संकल्प सभी को उत्पन्न हुआ।
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