आपको बाबा पंजाब की शेर कहते थे, आपकी भावनायें बहुत निश्छल थी। आप सदा गुणग्राही, निर्दोष वृत्ति वाली, सच्चे साफ दिल वाली निर्भय शेरनी थी। आपने पंजाब में सेवाओं की नींव डाली। आपकी पालना से अनेकानेक कुमारियाँ निकली जो पंजाब तथा भारत के अन्य कई प्रांतों में अपनी सेवायें दे रही हैं। दीदी जी के अव्यक्त होने के बाद आप संयुक्त मुख्य प्रशासिका के रूप में नियुक्त हुई और दादी जी के साथ सहयोगी बन यज्ञ के हर कारोबार को सुचारु रूप से चलाया। ज्ञान सरोवर परिसर की आप डायरेक्टर बनी। आपने 11 मार्च, 1997 को अपनी पुरानी देह का त्याग कर बापदादा की गोद ली।
ब्र.कु. अमीरचंद भाई, दादी चंद्रमणि के साथ के अपने अनुभव इस प्रकार सुनाते हैं –
दादी स्वभाव की बहुत मीठी थी पर नियम-कायदों में बहुत पक्की भी थी। मर्यादाओं में किसी से समझौता नहीं करती थी इसलिए दादी प्रकाशमणि जी उन्हें कन्याओं की ट्रेनिंग कराने के लिए बुलाते थे। उनसे ट्रेनिंग प्राप्त कन्यायें आज पूरे भारत में विभिन्न जगहों पर अच्छी सेवायें कर रही हैं। चंडीगढ़ की अचल बहन, नेपाल की राज बहन, बुरहानपुर की सुधा बहन, देहरादून की प्रेम बहन – ये सभी बहनें दादी की पालना से ही निकली।
दादी हमेशा कहती कि जो कर्म मैं करूँगी, मुझे देख दूसरे करेंगे, इसलिए मैं कोई भी ऐसा कर्म न करूँ जिसका दूसरों पर गलत असर हो । वे हमेशा आदर्श बनकर रहीं। वे सदा अपने स्वमान में रहती। अक्सर कहती, मेरा पार्ट कोई दूसरा नहीं बजा सकता। हम हर वर्ष उनके साथ हिमाचल प्रदेश जाते, साथ में वे किसी बड़ी बहन को भी ले जाती, खुद सेन्टर पर क्लास-योग कराती और बहनों को भाषण करने के लिए बाहर भेज देती। उनके मन में कभी नहीं आया कि मैं बड़ी हूँ तो मैं ही आगे रहूँ, मेरा ही फोटो आए, लोग मेरा ही भाषण सुनें और सराहना करें। वे कहती थी कि मैं तो हूँ ही बड़ी। एक बार किसी ने पूछा कि दादी, आपका क्या पुरुषार्थ रहता है तो दादी ने कहा, मेरा पुरुषार्थ रहता है राजा बनाना, प्रजा बनाना नहीं। सच में जो खुद महाराजा होगा, वह तो राजा ही बनायेगा। दादी को अपने वर्तमान और भविष्य ऊँची स्थिति का नशा रहता था।
अंत तक उनका जीवन बड़ा सादा रहा। इंद्रप्रस्थ में एक छोटे-से कमरे में रही। वही उनका बेडरूम, मीटिंग रूम, डाइनिंग रूम होता था। दादी जी की बहुत बड़ी विशेषता थी कि वे दूर-दूर रहने वाली आत्मा को भी नजदीक ले आती थी, अपना बना लेती थी। हम सोचते हैं कि इसने ओमशान्ति नहीं की तो मैं क्यों करूँ। पर दादी इतनी प्यार भरी पालना देती कि आत्मा नजदीक आ जाती और फिर दादी पर कुर्बान जाती। दादी हरेक की स्थिति को श्रेष्ठ बनाये रखने का संकल्प करती थी।
परिवार के छोटे बच्चों के लिए दादी विशेष हर रविवार क्लास रखती, उनकी पालना करती। वे कहती, आज Sunday नहीं, Sonday है अर्थात् बच्चों का दिन है। वे कहती कि परिवार के छोटे बच्चे अगर बाबा से जुड़ेंगे तो माँ-बाप का भी ज्ञानी-योगी स्वरूप बनेगा। अगर बच्चे खुश रहेंगे तो माँ-बाप की स्थिति भी अच्छी रहेगी। उन दिनों 35-40 बच्चे हर रविवार क्लास में आते थे।
दादी जब भाषण करती तो सीधा और स्पष्ट आत्मा, परमात्मा का ज्ञान देती थी। अपना कुछ मिक्स नहीं करती थी। अगर कोई बहन भाषण में कवितायें,कहानी, चुटकुले ज्यादा सुनाती तो दादी कहती, इसने भाषण क्या किया, तालियाँ तो बजी पर बाबा का परिचयतो दिया नहीं। वे कहती, टीचर की पहचान स्टूडेन्ट से होती है, स्टूडेन्ट अच्छे हैं तो टीचर भी अच्छी होगी।
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दादी चन्द्रमणि अपने लौकिक, अलौकिक जीवन का अनुभव इस प्रकार सुनाती थी –
मैंने बाल्यकाल में बहुत भक्ति की। दसवीं कक्षा तक पढ़ाई पढ़ी। चंद्रमणि नाम अव्यक्त बाबा का दिया हुआ है। इससे पहले मेरा नाम मोतिल था। जब मैं बाबा के पास आई तो बाबा ने मोती नाम रखा। बापदादा ने अव्यक्त नाम गुणों के अनुसार दिये थे। मेरे जीवन में सरलता और शीतलता को देख बाबा ने उस अनुसार मेरा यह नाम रखा। बाबा के साथ मेरे लौकिक परिवार का डायरेक्ट रिश्ता नहीं था परन्तु मेरी दूसरे नंबर की लौकिक बहन की शादी जहाँ की, वे कृपलानी कुल के हैं। उस बहन की सास के देवर, इस संबंध में थे बाबा। मैंने ज्ञान में आने से पहले बाबा को कभी देखा नहीं था क्योंकि बाबा बहुत करके कोलकाता आदि दूर स्थानों पर रहते थे।
छोटेपन में मुझे योग करने का बहुत शौक था। गुरुग्रंथ साहब का भी अध्ययन किया था। रात्रि में हमेशा यह प्रार्थना करके सोती थी, “तुम मात-पिता, हम बालक तेरे”, तो मात-पिता के संबंध से मैं उस परमात्मा को याद करती थी। हमारे लौकिक घर में सात बहनों के बीच एक भाई था। उसने शरीर छोड़ा था। बहन के पति ने भी शरीर छोड़ा था, इस कारण से घर में दुख का माहौल था और घर में लोग (सांत्वना देने) भी आते रहते थे। एक बहन की सास और उसकी पड़ोसन भी आती थी। जब हमारे घर का ऐसा दुखी माहौल देखा तो उन्होंने बाबा के बारे में हमें बताया। मैं और मेरी लौकिक बहन हृदयपुष्पा दोनों बाबा के पास गये।
उस समय बाबा अपने ओरिज्नल घर में नहीं थे। बाबा का एक चाचा था मूलचंद आजवाला, उसके घर में बाबा एक छोटे कमरे में बैठे थे। वहीं पर एक बहन भी थी, जो ध्यान में गई हुई थी। हम भी वहाँ जाकर बैठ गये। वह बहन ध्यान में बोल रही थी, विमान जा रहा है, विमान जा रहा है..। मेरे को उस समय जैसे करंट-सा लगा। मैं देह सेन्यारी हो गई और विमान द्वारा उड़कर बाबा के पास चली गई। मुझे मालूम ही नहीं पड़ा कि मैं कितना समय बाबा के पास थी। जब मेरी आँखें खुली तो मैंने देखा कि कोई भी मेरे सामने नहीं था। रात्रि के दस बज गये थे। बाबा ने कहा, बच्ची, देरी हो गई है, कल आना।
दूसरे दिन हम बाबा के पास उनके घर में गई, तो मातेश्वरी भी वहाँ आई हुई थी। उसको मैने स्कूल में देखा था। वह भी हमारे लौकिक पिता की कुछ संबंधी थी। उनके गुणों की सारे शहर में चर्चा थी।कम बोलती थी, मीठा बोलती थी,सबका उनसे प्यार था। वह मुंबई में रही थी, फैशनेबल थी। हमने तो उसको इसी रूप में देखा था। पर जब बाबा के पास आई तो सफेद कपड़े, बाल खुले, गहना कोई नहीं,एक योगिन के रूप में उसको देखा।उसने हारमोनियम पर अपना अनुभव गीत की रीति से सुनाया। उसका सार था कि ओम मंडली में मैंने क्या देखा। उसका स्वर भी बहुत मीठा था। उसकी बदली हुई ज़िन्दगी देखकर हमारे पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा। मेरी लौकिक बहन हृदयपुष्पा से बाबा ने कुछ प्रश्न-उत्तर इस प्रकार से पूछे कि उसको दिव्य अनुभव हो गया। पहले वह अपने को दुखी नारी समझती थी फिर जब आत्मा का अनुभव किया तो बाबा को कहा, बाबा, मैं सुखी नारी हूँ। बहन का चेहरा बदल गया। उसकी भी छाप और पिछले दिन के साक्षात्कार की छाप मेरे दिल पर लग गई।
उसके बाद बाबा बाहर खड़े थे तो मैंने बाबा को जमीन से आसमान तक के स्वरूप में देखा और अपने को भी एक लाइट के आकार में देखा। ऐसे महसूस करती हूँ कि यह मुझे सूक्ष्म वतन का साक्षात्कार हुआ।बाबा के प्रति मेरा इतना अपनापन का संबंध जुट गयाकि यह बाबा ही अपनी माँ है, पिता है और सब कुछ है। उस समय हमें शिव बाबा की प्रवेशता का ज्ञान नहीं था पर ब्रह्मा बाबा के प्रति एक आकर्षण था।उनकी अव्यक्त स्थिति और रूहानियत ने हमको खींचा।लौकिक परिवार के साथ हमने बाबा को कभी भी देह के संबंध में नहीं देखा। चाहे बाबा की युगल थी, चाहे बाबा की बहू थी, चाहे बाबा के बच्चे थे, उनसे भी
बाबा ऐसे ही बात करता था जैसे कल्याण अर्थ हमसे करता था इसलिए बाबा का घर ऐसा लगा ही नहीं कि यह कोई गृहस्थी का घर है। वो हमें शुरू से ईश्वरीय परिवार दिखाई दिया।
इसके बाद बाबा को हमने अपने घर के दुख की बात बताई तो बाबा के जो शब्द निकले, उन्होंने भी गहरी छाप लगाई। जब मैंने कहा, मेरे भाई के असमय शरीर छोड़ने के कारण मेरी माता बहुत दुखी है, तो बाबा ने कहा, बच्ची, मैं तो माताओं का सर्वेन्ट हूँ। ऐसे कहकर बाबा हमारी अंगुली पकड़कर हमारे घर आा गया और जमीन पर ही बैठ गया। मेरे माता-पिता को नष्टोमोहा के संबंध में कुछ समझानी दी और कुछ वस्वों के संबंध में (हमारी माताजी ने शोक वाले जो कपड़े पहने थे), कुछ रोने के संबंध में भी समझानी दो। फिर कहा, अगर आप सत्संग में रोज आयेंगी तो श्रीकृष्ण जैसा बेटा मिलेगा। यह जैसे कि बाबा ने वरदान दिया। यह वरदान मिलते ही उसको गोदी में श्रीकृष्ण दिखाई पड़ा और वह एक शिवशक्ति बन गई। फिर तो वह सबको प्रेरणा देने लगी। मेरे लौकिक पिता शराब-कबाब खाने वाले व्यक्ति थे। जब उन्होंने देखा कि मेरी पत्नी के जीवन में खुशी आ गई है, ज्ञानी बन गई है, बदल गई है तो बाबा के निमंत्रण पर वह भी बाबा के पास गया और एक धक से सब बुराइयों उनकी छूट गई। उनको दमे की बीमारी थी, वह भी कम हो गई। घर में जो भी आते थे, उन्हें लगने लगा कि यह घर नर्क से स्वर्ग बन गया है। जो संबंधी घर में आते थे, उनसे भी ज्ञान की चर्चा होने लगी। जिस परिवार में हमेशा ग़मी थी, उसमें खुशी आ गई। फिर तो परिवार के बहुत सारे मित्र-संबंधी भी ज्ञान में चलने लगे जो अब तक भी चल रहे हैं। हमारी पाँच पीढ़ियाँ ज्ञान में चल रही हैं। कोई समर्पित हैं और कोई प्रवृत्ति में रहते सेवा कर रहे हैं।
हमको बाबा के घर की दीवारों से भी आकर्षणहोता था। बाबा जब ओम की ध्वनि करते थे तो हम डीप साइलेन्स में चले जाते थे। हमारे अंदर कोई छोटा- मोटा पुराना संस्कार था भी तो वह उस साइलेन्स के गहन अनुभव से बहुत जल्दी समाप्त हो गया। फिर निश्चय हो गया कि जो बाबा श्रीमत दे रहे हैं, उसी पर चलना है। जब मैं छोटी थी तो स्वतंत्र विचारों की थी, अपने विचारों का महत्त्व रखती थी कि जो कहूँ वही हो। दूसरे शब्दों में, इसे जिद के संस्कार कहते हैं। पर यहाँ जब बाबा की श्रेष्ठ मत को प्यार से समझा तो मैने मनमत को ईश्वरीय मत से बदल दिया। दृढ़ निश्चय किया कि चलेगी तो ईश्वरीय मत पर हो चलेंगी, ईश्वरीय मत ही सबसे श्रेष्ठ है। कितने भी तूफान आएँ, मुझे ईश्वरीय गुणों और शक्तियों को धारण करना ही है।
जब बाबा कराची गया तो मैं भी बाबा के पीछे- पोछे पहुँच गई। बाबा ने पूछा, कैसे आई? मैंने कहा, बाबा, मुझे बहुत आकर्षण हुआ। मेरे पीछे सबंधी भी आए, पर बाबा के साथ पहले-पहले रहने का मौका हमें मिला। जब बाबा कश्मीर गया था तब भी मुझे महसूस होता था कि मैं हर घड़ी बाबा के सम्मुख हूँ, गीत लिख रही हूँ ज्ञान के पर कहाँ से प्रकट हो रहे हैं, यह मालूम नहीं है। फिर बाबा को वो गीत भेजे। बाबा ने मेरे को उनका अर्थ लिखकर भेजा ताकि वो अर्थ सभा में सुनाया जाये। बाबा हम आत्माओं को बहुत आगे बढ़ाना चाहते थे। इस प्रकार बाबा हमें दूर से भी सकाश देते थे, जिसकी छाप भी मेरे दिल पर है। दिल से निकला, यह कौन आया, जिसने हमारी ज़िन्दगी बदल दी। बाबा ने ही दिव्य बुद्धि दी, नहीं तो हमारी ऐसी बुद्धि थी थोड़े ही। स्कूल में जाती थी तो एक बार मैंने बाबा को कहा, स्कूल छोड़ दूँ, तो बाबा ने कहा, बच्ची, सेवा नहीं करनी है क्या? बच्चों को और टीचर को ज्ञान सुनाना है ना। सच्ची गीता का ज्ञान सबको सुनाना है। स्कूल में जो प्रार्थना होती है, उसका अर्थ करके सबको समझाओ। लौकिक पढ़ाई में हमको गीता-ज्ञान का पीरियड भी था जिसका हमको बहुत लाभ मिला। इसलिए छह मास में और पढ़ी।फिर बाबा ने ओम निवास खोला तो हमको बच्चों की टीचर के रूप में चुना। शुरू से लेकर बाबा ने हमसे सेवा कराई।
स्कूल में हम, बच्चों को राजविद्या और रूहानी विद्या – दोनों पढ़ाते थे। मैं अंग्रेजी पढ़ाती थी। और बहने भी थीं जो अलग-अलग विषय पढ़ाती थी। बाबा हमारे ऊपर ऐसे थे जैसे प्रिंसिपल होता है। बीच-बीच में आकर पीरियड लेते थे और रात्रि को हमसे सारी दिनचर्या पूछते थे। हमको सिखाते थे कि बच्चों से कैसे चलना है। बाबा कहते थे, यदि कोई रोता है तो ऐसे नहीं कि उसको डाँटना है बल्कि प्यार से समझान है, बच्चों को दिव्य बुद्धि मिलनी चाहिए, कितनी भी चंचलता हो, प्यार से हैण्डल करने से वे जरूर पढ़ लेंगे, यही होवनहार बच्चे हैं। ये बच्चे 5 से 12 वर्ष तक के थे। पहले 50 बच्चे थे। पहले बाबा को एक बिल्डिंग थी, जिसमें बाबा रहते थे। फिर बच्चों के हॉस्टल के लिए नया भवन बनवाया। यह भवन तीन मंजिल का था। बीच की मंजिल में स्कूल था, हम भी रहते थे। ऊपर की मंजिल में बड़ा हॉल था जहाँ 50बेड थे जिन पर सफेद चद्दरें बिछी रहती थी। बाबा हमें सिखाते थे, ये बच्चे घर से आये है, अपने-अपने घर के संस्कार लेकर आये है, इन सबका ब्रश, पेस्ट, टावल अलग-अलग रखना है ताकि कोई एक-दूसरे की चीज इस्तेमाल न करे। बच्चों को फ्रेश हवा बगीचे की मिलनी चाहिए। उनका मन के साथ-साथ तन भी दुरुस्त होना चाहिए। इन बातों की ट्रेनिंग बाबा हमें देते थे। बच्चों को सुबह भाषा (इंग्लिश आदि), हिसाब, साइंस ये विषय पढ़ाते थे, शाम को रूहानी विद्या पढ़ाते थे जिसमें गीत, डायलॉग आदि लिखना, उनको सिखाना, उनसे भाषण करवाना, ये सब बाबा हमको बताते जाते थे और हम करते जाते थे। बच्चों को समय पर नाश्ता, भोजन सब कुछ अपने आप मिलता था। उनको माँगने की कोई जरूरत नहीं पड़ती थी। सब बच्चे बड़े खुश और योगयुक्त रहते थे। इससे हमने प्रैक्टिकल में बच्चों की बदली हुई जीवन देखी।
सिन्ध-हैदराबाद में छह मास हॉस्टल में रहने के बाद जब हम कराची गये, तब शिव बाबा ने ब्रह्मा बाबा के सामने सब कुछ प्रत्यक्ष किया कि तुम (ब्रह्मा) कौन हो, मैं कौन हूँ आदि-आदि। अपना परिचय देकर संबंध का सारा ज्ञान दिया लेकिन हमारा संबंध पहले से जुटा हुआ था। शिव बाबा ने यह भी बताया कि मैं ज्योतिबिन्दु हूँ दुख-सुख में नहीं आता हूँ, आप आत्मायें चक्र में आती हो, मैं नहीं आता हूँ। यह हमने नई बात सुनी। पहले हमने समझा था कि शिव बाबा और ब्रह्मा बाबा एक ही हैं लेकिन शिव बाबा ने ज्ञान देकर यह स्पष्ट कर दिया कि ब्रह्मा अलग है और में शिव अलग हूं।यह साकार है, मैं निराकार हूँ। हमें साकार से ही परमात्मा की भासना आती थी परन्तु परमात्मा कैसा है, यह समझ में तब आया जब उसने ज्ञान दिया।
बाबा हमको सदा ओम शब्द से बुलाते थे जैसे ओम रामा, ओम मोती, ओम मिठू आदि और हम कहते थे, ओम बाबा, ओम राधे। ओम माना पहले आत्मा का परिचय आ जाता था। ओम माना मैं पवित्र आत्मा। बाबा हमेशा कहता था, आत्मा की स्मृति से एक-दो को बुलाओ और आत्मा की स्मृति से ही बातचीत करो। “जशोदा निवास” बाबा की बिल्डिंग का नाम था। यह बाबा की युगल के नाम पर था। ओम शब्द लगाने से उस का नाम ओम मण्डली पड़ गया। दूसरी बिल्डिंग जो हॉस्टल थी, उसका नाम “ॐ निवास” इसलिए पड़ा क्योंकि बिजली का एक बहुत बड़ा “ॐ” बिल्डिंग के ऊपर लगाया गया था जो सारे शहर में दिखाई देता था। बड़े अर्थ से इन दोनों भवनों के नाम रखे गये थे।
गाने में मातेश्वरी बहुत होशियार थी। वह हमको भी गीत आदि सिखाती थी। उन दिनों हमको बहुत नशा रहता था। कोई अच्छा लौकिक गीत का रिकार्ड होता था तो हम बाबा को देते थे। बाबा दो बजे उठकर उसके शब्दों को बदलकर ज्ञान का कर देते थे। हमारे गीत भी बड़े ज्ञान की मस्ती के होते थे जैसे यह गीत है-
मैं तो हँस-हँस जन्म बिताऊँगी,
मैं तो नाचत हरि गुण गाऊँगी
लक्ष्य जोगी ने ओम बताया
आई एम आत्मा, माई मम माया
में तो माई को आई में समाऊँगी मैं तो हँस-हँस जन्म बिताऊँगी।
ये सब हमारे अनुभव के गीत हैं। अनुभव से ही हम गाते थे।
शिव बाबा का तन बड़ा साधारण है। साधारण तन को देखकर ब्रह्मा बाबा के संबंधियों ने तथा और भी कइयों ने नहीं पहचाना। शिवबाबा निराकार हैं, परकाया प्रवेश करते हैं, उनको समझना भी तभी हो सकता है जब कोई योगयुक्त होता है। बाबा स्वयं भी कहते है, मुझ साधारण तन में आये हुए को मूढ़मति लोग पहचानते नहीं। हमने तो बाबा को आते ही समझ लिया चाहे बाबा ने साधारण रूप से हमारे साथ-साथ यज्ञ सेवायें की परन्तु हमें साधारण दिखाई नहीं पड़े। हमको तो उनके चरित्र दिखाई पड़ते थे। जब हम कराची में गुलजार भवन में थे, तब गऊ का दूध डायरेक्ट पीते थे। बाबा बड़े इकॉनामी वाले थे। हमे भी इकॉनानी सिखाते थे। कोयले के जो छोटे-छोटे महीन टुकड़े (चूरा) बच जाते थे, उसके साथ छेना (गोबर) मिलाकर गोले बनाकर बाबा रखते थे और हमें भी सिखाते थे। हम सब बड़े घरों के थे, बाबा जानता था कि ये सब, ये गोले शायद बना न सके लेकिन बाबा खुद ही बैठ बनाते थे। बाबा को देखकर हम भी बैठ जाते थे लेकिन हम सोचते थे कि बाबा यहाँ न बैठें। बाबा ऊँचे से ऊँचे, इतना साधारण काम न करें। इससे अच्छा है कि बाबा किसी को ज्ञान समझायें। ऐसा समझकर हमकहते थे, बाबा, अचानक आपसे मिलने कोई मेहमान या जिज्ञासु आ जाये, बड़ी उत्कण्ठा लेकर, तो क्या देखेगा? बाबा ने कहा, देखेगा क्या, तीन लोक देखेगा और सथमुच एक बार ऐसा ही हुआ। एक व्यक्ति बाबा से मिलने आया। बाबा ने उसको दृष्टि दी और वह ध्यान में चला गया। ऐसे ही छोटी-छोटी बच्यिाँ बाबा के सामने खड़ी होती थी, बाबा दृष्टि देते थे तो वे अशरीरी हो जाती थी, कभी अपने को सूक्ष्म वतन में, कभी बैकुण्ठ में देखती थी। इस प्रकार, कई प्रकार की अनुभूतियाँ होती थी। हमने देखा, बाबा जितने ऊँचे ते ऊँचे थे उतने ही निरहंकारी थे। उनको सदा ध्यान में था, जैसा कर्म मैं करूंगा, मुझे देख दूसरे करेंगे।
यज्ञ में तो हम लगभग 400 बहन-भाई थे। स्थूल काम बहुत होता था। भाई इतने थे नहीं। दुनिया में, कई कामों के लिए समझते हैं कि भाई ही कर सकते हैं। बाबा ने हम बहनों में फेथ रखकर वे सब काम हमसे करवाए। काम चाहे बहनों वाले थे या भाइयों वाले, हम सब कार्य अच्छे से करते थे। कर्म तो दूसरे मनुष्य भी करते हैं लेकिन बाबा ने हमें सिखाया कि किस स्थिति में रहकर कर्म करना है। बाबा हमेशा देखते थे कि ये स्थूल कार्य तो करते हैं लेकिन इनकी अवस्था क्या है? क्या ये अकालतखत पर विराजमान होकर कार्य कर रहे हैं? इनका चेहरा कैसा है? क्योंकि बाबा चाहते थे कि मेरे बच्चे, मेरे जैसे हों।। बाबा बहुत समझाते थे कि यज्ञ सेवा, यज्ञ से प्यार जुटायेगी। हम दिन-रात प्यार से मिलजुलकर हर प्रकार की सेवाकरते थे और बाबा भी हमारे साथ-साथ होते थे। लौकिक घर वालों को कैसे पत्र लिखा जाता है, वो भी बाबा हमें सिखाते थे। ऐसे लगता था कि यह एक अलौकिक परिवार है और हम सब भट्ठी के अन्दर है। कर्म करते भी योग में रहते थे। हमारे साथ कौन है, यह एक सेकंड भी भूलता नहीं था।ऐसी स्थिति हमारे सम्मुख कर्म करके बाबा ने हमारी बना दी।
एक बार हमने बाबा को फोटो खिंचवाने को कहा। हमारे मन में था, जिस तन में भगवान अवतरित हुआ, उस तन का फोटो घर-घर में होना चाहिए। इस शरीर की भी सबको समझानी मिले कि भगवान अनुभवी रथ में आये हैं क्योंकि प्रवृत्ति वाले भी चाहते हैं कि हम प्रवृत्ति में भी रहें और हमारा घर स्वर्ग समान बने। गृहस्थ, आश्रम बन जाये। तो यह सब प्रैक्टिकल करने के लिए बाबा ने शुरूआत भी अपने घर से की। अपना गृहस्थ आश्रम बनाकर दिखाया, प्रैक्टिकल अपना भी दिखाया । इससे हम सब भी और समाज भी बदलता गया। हमारे लौकिक पिता ने मातेश्वरी में ” श्री लक्ष्मी” का साक्षात्कार किया और भी कइयों ने कई प्रकार के साक्षात्कार किये। फिर भी बाबा तो चाहते हैं कि हम साक्षात् मूरत बनें। शुरू में कोई ऐसा बना हुआ नहीं था इसलिए बाबा ने साक्षात्कार करवाये। अभी तो सैम्पल साक्षात् बन गये इसलिए वह बात नहीं रही। बाबा की आशा को बच्चे पूरा कर रहे हैं।
बाबा खेलते थे तो भी हमें दिखाई देता था कि बाबा लाइट में हैं। एक बार मैं सारी पार्टी को लेकर बाबा के बाबा के कमरे में गई। बाबा ने दृष्टि दी, पार्टी अव्यक्त स्थिति में स्थित हो गई। कोई भी आता था तो पहले- पहले बाबा दृष्टि देते थे। दृष्टि से ही बल मिल जाता था। जब हम बाबा के सामने योग में बैठते थे तब हमारा चलता हुआ संकल्प बंद हो जाता था। मान लो किसी बात के लिए हम संकल्प करते हैं लेकिन बाबा के सामने आकर जैसे ही बैठे, संकल्प बंद हो जाता था। इतनी बाबा की डेड साइलेन्स की स्थिति थी जो हमारे में भी उसका प्रभाव आ जाता था।
बाबा हमारी नींद भी देखते थे कि कौन देरी से सोता है, कौन स्वयं उठता है, कौन दूसरों के उठाने से उठता है। योगी वो जो स्वतः उठे। इस प्रकार बाबा ने हमारे हर कर्म की जाँच-परख की ताकि बाबा को पत्ता पड़े कि कौन अपने में पावर भर रहा है, कौन दूसरों के कल्याण के लायक बन रहा है।
कुंज भवन में ऊपर में टंकी थी। टंकी को सीढ़ी लगी थी। मैं सीढ़ी चढ़कर टंकी पर जाकर बैठ जाती थी। वहाँ बैठकर में महसूस करती थी, मैं सबसे ऊपर हूँ, बाकी सबको छोटे-छोटे बच्यों के रूप में देखती थी। यह अभ्यास करती थी। इससे पावर आती थी, किसी में आँख नहीं डूबती थी। निर्भयता आती थी।दातापन का नशा चढ़ जाता था। नशा ऐसा न हो कि यह कौन है मेरे को ऑर्डर करने वाला। वास्तव में पावर क्या है, एडजेस्ट करना ही पावर है। यह नशाहोना चाहिए कि मैं किसी को चला भी सकती हूँ और किसी से चल भी सकती हूँ।
यदि हमसे कोई भूल हो जाती थी तो मम्मा- बाबा डाँटते नहीं थे, समझाते थे। मम्मा के साथ हम कई बहने रहती थी। एक बार मम्मा ने कहा, मैं आपके साथ नहीं रहेंगी, दूसरे बंगले में जाकर रहेगी। आपको कितनी बार समझाया, फिर भी वही ग़लती। इससे तो दूसरों के साथ रहूँ तो वो कितना सीखें। मम्मा चले गई बिना बोले। फिर अंदर से हमको आया कि यह हमने ठीक नहीं किया। फिर हमने माफी माँगी और -प्रण किया कि फिर नहीं दोहरायेगे। मम्मा फिर हमारे -साथ आकर रही। फिर वह गलती कभी नहीं हुई। तो मम्मा ने गुस्सा भी नहीं किया, बस दूसरे बंगले में बला गई, इस तरह हम समझ गये।
जिस साइलेन्स पावर में बाबा खुद रहता था उसकी छाप हमको भी लगाई। हम भी ऐसा समझती हूँ कि इस ब्रह्मलोक से आई हुई मैं आत्मा पवित्र हूँ। कभी वतन का अनुभव, कभी बैकुण्ठ का अनुभव। बाबा सैर करवा रहे हैं अलौकिक दुनिया की। इस दुनिया में तो हम निमित्त मात्र सेवा अर्थ रहते हैं।
एक बार मातेश्वरी ने हमसे पूछा, योग में क्या अनुभव हुआ? हमने कहा, ऐसा अनुभव हुआ कि सामने बैठे बाबा से लाइट और माइट मिल रही है।जैसे स्नान करके व्यक्ति रिफ्रेश हो जाता है, ऐसे ही लगा कि आत्मा एकदम साफ हो रही है, पावर मिल रही है और आत्मा सतोगुणी बन रही है। कोई संकल्प नहीं, देश का या देहधारियों का। बस आत्मा और परमात्मा के मिलन की अनुभूति। आज तक भी मेरे अंदर उस साइलेन्स पावर की छाप है। हमको बाबा और मम्मा ने जोर देकर समझाया था कि सदा याद रखो, मैं कौन-सी आत्मा हूँ। वह निश्चय मेरे अन्दर है। में पवित्र, शुद्ध आत्मा हूँ। आत्मा तो हूँ पर ऐसी आत्मा हूँ। मेरा स्वरूप है प्रेम का, डिवाइन प्रेम का। आत्मायें भाई-भाई है और लक्ष्य मेरा सर्वगुण संपन्न बनने का है। कोई गुण की कमी नहीं।
एक बार मम्मा ने यह भी पूछा था, क्या पुरुषार्थ करती हो? उस समय हम छोटी थी, कराची में थी। मैंने कहा, मम्मा, जैसा कर्म मैं करूँगी, वैसा और करेंगे। यह मेरी बुद्धि में पक्का हो गया है। हम शुरू से सबके साथ एडजेस्ट होकर चले। कभी भाव-स्वभाव
में समय वेस्ट नहीं गया है। शुरू से बाबा ने हमें ऐसा रखा। मातेश्वरी ने शुरू-शुरू में मुझे अपने साथ रखा।कुछ भी होता था तो मेरे द्वारा यज्ञ का सारा कार्य कराती थी। त्याग क्या है, मेहमान होके कैसे रहना है, यह सिखाया। किसी ग़लती करने वाले को समझाती थी तो मातेश्वरी मेरे को साथ में बिठाती थी ताकि हम भी सीखें। मातेश्वरी बहुत दिव्यगुणधारी थी। योग-योगेश्वरी, ज्ञान-ज्ञानेश्वरी थी। मुझे साथ रख वो अनुभवी बनाती रही। पहले हम कुंज भवन में मम्मा के साथ रही, फिर गुलजार भवन में दीदी के साथ रही।दीदी भी बहुत शुरूड बुद्धि थी। किसी को वायब्रेशन से पहचान जाती थी। हम सब बहनों की आपस में
यूनिटी थी और दिनचर्या सारी बाबा के साथ-साथ थी। इस प्रकार मैं मम्मा की असिस्टेंट और दीदी की भी असिस्टेंट कंट्रोलर होकर रही। मैं थी तो 13-14 वर्ष की, स्कूल में पढ़ती थी, अनुभव तो मेरे पास नहीं था पर बाबा ने मेरे से बड़े-बड़े कार्य करवाये। इतनी बड़ी सेवा के कार्य कोई नहीं करवा सकता। इसलिए मेरे दिल पर बाबा के प्रति छाप है। आज कोई किसी को पानी पिला दे या समय पर मदद कर दे तो वह उसको भूलता नहीं है, बाबा ने तो हमको कदम-कदम पर ऊँचा उठाया है तो कैसे भूलूँ? भुलाने से भी भूलाया नहीं जा सकता। कई कहते हैं, हमारा योग नहीं लगता,मैं कहती हूँ, अरे बाप, टीचर, गुरु तीनों के संबंध से बाबा ने हमारा जीवन बनाया, तो कैसे उनको भूलें!
मम्मा का हर गुण मुझे अच्छा लगता था। बहुत मीठा और धैर्य से बोलती थी। किसी की ऐसी-वैसी बात सुनाओ तो सुनती नहीं थी। कभी स्थूल बातों में या कभी ग़मी वाले चेहरे में हमने मम्मा-बाबा को देखा ही नहीं। सदा योगयुक्त ही देखा। मम्मा को सदा, मीठी-मीठी शिक्षायें देकर दूसरों का जीवन बनाते ही देखा। हमारी बुद्धि सदा गुण ग्रहण करने में जाती है। मम्मा, बाबा, बहनों, भाइयों से सदा गुण ही उठाये हैं। प्यार मेरा बहुत है सबसे। किसी भाई-बहन को बहुत सेवा करते देखती हूँ तो सोचती हूँ, कितनी सेवा कर रहे हैं, अवगुण में मेरी बुद्धि जाती नहीं है। कोई सुनाता भी है तो किसी का अवगुण मेरे चित्त पर खड़ा नहीं
होता, बह जाता है। बुरी बात, कोई टाइम कान पर आयेंगी भी तो पता नहीं कैसे भूल जाती हैं।सच्चा प्यार मम्मा के प्रति यही है कि हम उन जैसे गुण धारण करें, इसलिए उनके अव्यक्त होने पर हमारी अवस्था पर कोई फर्क नहीं आया। पता ही था, शरीर तो छूटना ही है। जब मम्मा ने शरीर छोड़ा, मैं सेवाकेन्द्र पर थी, मास बाद आई थी। बाबा ने पूछा, बच्ची, आपके मात-पिता कौन हैं? मैंने कहा, मेरे सामने आप जो बैठे हैं, आप ही मेरे मात-पिता हैं।
मम्मा की समझानी सदा बेहद में चलती थी। अनादि सृष्टि के चक्र पर ध्यान रहा सदा। इससे हदें टूट जाती हैं। कुछ भी बातें आने पर मम्मा की स्थिति पर कोई असर नहीं आता था। हमने भी मम्मा से यह गुण सीखा। अमृतसर में विरोध हुआ तो मम्मा ने कैसे धैर्य से सबको शान्त कर दिया। वह बहुत सहनशील थी, योगी थी, कर्मेन्द्रियों पर पूर्ण कंट्रोल था। छोटी आयु में ही जगत जननी रूप धारण कर लिया। हम पूछते थे, मम्मा, आप क्या चिन्तन कर रही हो, तो कहती थी, मैं यहाँ थोड़े ही हूँ, मैं तो बैकुण्ठ की धरती पर चल रही हूँ। इस प्रकार, रोज हमको नये- नये अनुभव सुनाती थी। बाबा पूछता था, आपको अमुक बात में कितना निश्चय है? हम कहते थे, निन्यानवे प्रतिशत। मम्मा कभी नहीं कहती थी, निन्यानवे प्रतिशत, सबमें सौ प्रतिशत। मम्मा ने चारों विषयों को बहुत जल्दी कवर किया इसलिए पावरफल बन गई। न किसी से उनकी अटैचमेन्ट थी, न विरोध था। मम्मा अमृतसर में दो बार आई सेवार्थ। रोज बड़ा सत्संग होता था।मम्मा भाषण करती थी। पार्टियों से मिलती थी। भाई-बहनों में पावर भरती थी, उनके बोल में बहुत शक्ति थी।
पहले-पहले हम शाम को 4-5 बजे अच्छे से योग करते थे। बाबा को हमें दोनों बातों में आगे बढ़ाना था। तन की दुरुस्ती में भी और मन की दुरुस्ती में भी। आपने चित्र देखा होगा, बाबा ने हमको कपड़े भी ऐसे ही पहनाये कि स्त्रीपन का भान खत्म हो जाये। बाबा हमको पैदल ले जाते थे और फिर एक स्थान पर खड़े हो जाते थे तो मैं सबको ड्रिल कराती थी क्योंकि मैं लौकिक स्कूल में, स्थूल ड्रिल में तथा खेलपाल में भी होशियार थी। अगर कोई हिन्दी इंग्लिश नहीं जानते थे तो मैं सबको इकट्ठा पढ़ाती भी थी।
शुरू से बाबा मुझे पावरफुल समझते थे। मैंने कभी ऐसा-वैसा नहीं समझा अपने को। बाँधेलियों के साथ भी मेरा पार्ट था। शील इन्द्रा दादी बाँधेली थी। उसको चिट्ठी पहुँचाती थी। लौकिक घर तो हैदराबाद में था। वहाँ आती थी। बाबा कहते थे, तुम हनुमान हो, तुम सीताओं को बाबा की निशानी (पत्र) देती हो। यह भी बाबा का वरदान रहा। जहाँ भी पाँव जाता था, सफलता मिलती थी।
बाबा ने मुझे लौकिक परिवार के पास सेवा के लिए भेजा तो मैंने कहा, मेरा कौन-सा कर्मबन्धन है जो मैं उनकी सेवा करने जाऊँ, बाबा मेरे को क्यों भेजता है, बाबा क्यों कहता है, इनको वाणी तुम सुनाओ। मैं नहीं चाहती थी। पर मेरा भविष्य बाबा को
बनाना था। मेरा लौकिक में लगाव भी नहीं था पर बाबा को था कि यह तो अलौकिक बन गई, अब परिवार को भी अलौकिक बनाये।
मैंने अपने लौकिक पिता को कहा था, मुझे पत्र लिखकर दो कि मैं अपनी पुत्री को ज्ञानामृत पीने- पिलाने की स्वीकृति देता हूँ। साथ-साथ यह भी कहा कि शादी के बाद जो देना है वो भी यहाँ यज्ञ में देकर सफल करो। पिता ने कहा, क्यों मैं आपको दूँ, क्यों ना मैं ही समर्पित हो जाऊँ? अब देखो इस बोल से ही कितना बड़ा कार्य हो गया। हमको तो पता नहीं था कि ये कोई समर्पित हो सकते हैं। मैंने तो उनको कहा, आप नहीं समर्पित हो सकते। हमारा तो कोई बाल- बच्चा नहीं, संबंधी नहीं पर आपका तो सब कुछ है, दुकान है, मकान सभी भाइयों के साथ है, इतनी बच्चियाँ हैं, आप कैसे समर्पित हो सकते हो? मन से हो सकते हो परन्तु जैसे बाकी सभी तन से भी हो जाते हैं, वैसे आप नहीं हो सकते हो। तो बोले, आप मेरी बात बाबा को जाकर सुनाओ। मैंने बाबा को बताया। बाबा ने कहा, क्यों नहीं, यह बच्चा नहीं है क्या? बाबा ने एकदम उस बात को स्वीकार किया कि कोई चाहता है कि मैं बंधनों से मुक्त बनूँ तो यहाँ हो सकता है।बाबा ने बात की। जैसे बाबा ने अपने मकान, दुकान
का जल्दी में फैसला कर दिया, इन्होंने भी कर दिया।पर बाबा ने एक बात रत्नचन्द दादा (लौकिक पिता)को सुनाई, आप समर्पित होंगे, यज्ञ में पाँव रखेंगे, बड़ा पेपर आयेगा। हर प्रकार का पेपर – शरीर का, संबंधों का, संकल्पों का आयेगा, सामना करने की शक्ति है आपमें? बोले, है। बाबा ने कहा, तो हो जाओ समर्पण। इन्होंने भाई को सब हिसाब दिया और दुकान आदि भाई के बच्चों को दी। भाई के साथ तो बलराम-कृष्ण जैसा प्रेम था। तभी भाई ने अचानक शरीर छोड़ दिया। पेपर आ गया। फिर संबंधियों ने समझाना शुरू किया, घर में रहो। पर इनका बाबा से अटूट प्यार था। एक बल, एक भरोसे रहे। बाबा ने कराची में इन्हों को अपने साथ रखा। पिछाड़ी में जब शरीर छोड़ा तो भी एक बाबा की याद थी। उस समय पूना में थे। आँख बंद हुई और गये। सब पवित्र ब्राह्मणों के हाथ लगे अंत में। ईश्वरीय याद और टोली देकर बाबा ने मेरे को भेजा।
निर्मलशान्ता के ससुर का भाई हरकिशन मुखी था। बाबा के घर के पास उसका घर था। बाबा ने एक रिकार्ड, “इस पाप की दुनिया से दूर कहीं ले चल” मुझे देकर उनके पास भेजा। बाबा ने कहा, उनको जाकर ज्ञान समझाओ लेकिन उसने सोचा, इस रिकार्ड में भी जादू है, इसलिए उस रिकार्ड को भी तोड़ डाला। उसने उस समय बाबा को पहचाना नहीं, बाद में पहचाना।
कराची में साधु टी.एल. वासवानी ने कन्याओं के लिए मीरा स्कूल खोल रखा था और वे सत्संग करते थे। एक दिन बाबा ने हम बच्चों को कहा कि आप जाकर साधु वासवानी जी को ईश्वरीय सन्देश भी दे आओ और ज्ञान-वार्तालाप भी कर आओ। उन दिनों यह मालूम हुआ था कि साधु वासवानी जी “ओम मण्डली” के विरुद्ध पिकेटिंग करने की बात सोच रहे हैं। अतः बाबा ने हमें कहा कि वासवानी जी को कहना कि पहले आप स्वयं “ओम मण्डली” को अच्छी तरह देखिये, वहाँ आने वाले सत्संगियों के अनुभव पूछिये और यूँ ही सुनी-सुनाई बात पर कोई निर्णय न कीजिये और बिना जाने आंदोलन करने की भूल न कीजिये। अतः हम कुछेक बहनें इकट्ठी होकर उनके पास गई और ईश्वरीय सन्देश का एक ग्रामोफोन रिकार्ड भी साथ ले गई। हम लोगों से उनका ज्ञान-वार्तालाप हुआ। हमने उन्हें अपना अनुभव भी सुनाया और यह भी बताया कि अब परमपिता परमात्मा हमें क्या ज्ञान दे रहे हैं, उसका लक्ष्य क्या है, उससे हमें प्राप्ति क्या हुई है और उससे हमारे जीवन में परिवर्तन क्या आया है। यह सब सुनकर वासवानी जी बहुत खुश हुए। हमने बाबा की ओर से और “ओम मण्डली” की ओर से, “ओम निवास” में आने का निमंत्रण भी दिया।
वह कहने लगे, अच्छा, मैं आपके साथ ही चलता हूँ। चुनाँचे, वे हम सभी के साथ ही कार में बैठकर चलने लगे। ज्यों ही वे कार में बैठे त्यों ही कार के चारों ओर उनके सत्संग में आने वाले तथा प्रशंसक नर-नारी घेरा डालकर खड़े हो गये। उन्होंने कहा कि हम नहीं जाने देंगे। साधु वासवानी ने कहा कि डरिये नहीं, मैं एक घण्टे में वापस लौट आऊँगा। परन्तु उन लोगों को यह झूठा डर था कि यदि वे भी वहाँ चले गए और इन पर भी ओम मण्डली का ऐसा प्रभाव पड़ गया कि वहीं के हो गए तो हम सबका क्या बनेगा? अतः उन्होंने वासवानी जी को नहीं जाने दिया। आखिर वासवानी जी कार से उतर आये और बोले कि दादा से मिलने का बहुत ही मन था परन्तु अभी नहीं चल सकूँगा, फिर कभी आऊँगा।
अब साधु वासवानी जी को उनके शिष्यों तथा मुखी लोगों ने खूब भड़काया। एक दिन आया कि साधु वासवानी जी ने उन सभी के साथ मिलकर ओम निवास के बाहर पिकेटिंग की। हज़ारों लोग वहाँ इकडे हो गए। सभी ने बहुत जोर से आक्रमण किया। वे दीवार तोड़कर अंदर भी घुस आये लेकिन शीघ्र ही – पुलिस ने पहुँचकर सभी को भगा दिया। वासवानी जी को पुलिस वाले ले गए। ऐसी जगह भी बाबा हमको भेजते थे।
जब हम सन् 1950 में आबू में आए, आते ही बेगरी लाइफ शुरू हो गई परन्तु बाबा ने हमको पता ही नहीं पड़ने दिया बेगरी जीवन का। उस समय जो मकान था, उसमें हवा उलटी तरफ से आती थी। सामने श्मशान घाट भी था। उस हवा के कारण कई बीमार हो गये थे। तूफान भी आते थे, जो हमने कभी नहीं देखे थे।दीदी का चाचा था मूलचंद, उसने भारत विभाजन के बाद बाबा को कराची में पत्र लिखा कि अब आप मुस्लिम देश में क्या सेवा करेंगे? हमारी कन्यायें-मातायें मुस्लिम देश में रहकर सेवा नहीं कर सकेंगी। हमको थोड़ा ख्याल है, आप आओ। आप दीदी को भेजो, भले आपके अनुसार वो मकान ढूँढ़े। आपके आने का – खर्चा हम देंगे, बारह मास तक का खर्चा भी करेंगे। दीदी को बुलाया, कई शहर दिखाये। बाबा कहता – था, मायावी देश ना हो, एकांत स्थान हो, हम राजयोगी हैं, मुम्बई मायावी है। फिर जब बाबा को बताया कि आबू पहाड़ है, न ज्यादा ठंड है, एकान्त है, इतने मनुष्य नहीं हैं, नक्की लेक है; धर्माऊ स्थान है; मीट, अण्डा, शराब नहीं है, भक्ति की भूमि है, दिलवाला मन्दिर है, तपस्वियों का वायब्रेशन है तो बाबा को पसन्द आ गया। फिर भरतपुर की कोठी किराये पर ली। धीरे-धीरे बाबा कोठी को हमारे अनुसार ठीक-ठाक कराता गया। यहाँ सर्दी थी, बरसात ज्यादा होती थी, तूफान होते थे। यहाँ पर चीज़ें भी नहीं मिली। पोकरान हाऊस (पाण्डव भवन) में आये, तब तक खूब सेवायें हो गई और छम- छम होती गई, सब भरपूर हो गया।
जिन्होंने खर्चा देने का वचन दिया था, वो मुकर गए। वो सब हमको करना पड़ा इसलिए थोड़ी आर्थिक तकलीफ आई थी। कराची में हमने कभी डॉक्टरों से दवाई ली नहीं थी। बाबा के घर में ही छोटी-मोटी दवाइयों से ठीक हो जाते थे। कभी सन्देश पुत्रियों को बाबा बता देते थे कि बीमारी इस रीति से ठीक होगी, ठीक हो जाती थी। कभी किसी की तकलीफ बाबा की दृष्टि से भी ठीक हो जाती थी।
बेगरी लाइफ में हमारे लौकिक माता-पिता भी हमारे साथ यज्ञ में थे क्योंकि वे भी शुरू से समर्पित थे। दोनों के शरीर कमजोर हो गये थे।हमने बाबा को कहा, इन दोनों की तबीयत ठीक नहीं है, डॉक्टर आये तो अच्छा है। बाबा ने मुसकराकर कहा, क्यों नहीं, आपका भाई लंदन में है, उसे यह-यह दवाई लिख दो,ले आयेगा। हमने लिख दिया, वह दवाई ले आया, फिर उन्हों को साथ लंदन ले गया परवरिश के लिए। बेगरी लाइफ में बाबा सुबह-सुबह घुमाने ले जाते थे, फलों से नाश्ता करते थे। कभी कहते थे, व्रत रखना है, छोटे बच्चे भले खायें।अज्ञानकाल में व्रत रखते थे, व्रतरखने से शरीर अच्छा हो जाता है तो हमको पता ही नहीं पड़ा कि बेगरी लाइफ है। बाबा तो कहते थे, सब कुछ खुट जायेगा, ओममण्डली नहीं खुटेगी। उस समय सिन्ध में किसी ने सहयोग नहीं दिया था। वे तो कहते थे, देखें कितने दिन ये चलेंगे। पर एक बाबा थे जो अचल-अडोल रहे। और आज हम देखते हैं कि और सब डाऊन-डाऊन जा रहे हैं पर बाबा का सब बढ़ रहा है। उस समय के कहे हुए बाबा के कई महावाक्य आज हम प्रैक्टिकल देख रहे हैं, बाबा सदा एक बल एक भरोसे रहे।
कई बच्चे जो मन से थोड़े कमजोर थे, वो उस समय किसी कारण से यज्ञ को छोड़कर गए पर बाद में उन्होंने संबंध जोड़कर रखा और पश्चाताप भी किया कि ये कितने आगे बढ़ गये। जब आडवाणी यहाँ आया था, उसने कहा, जब ओम मण्डली की शुरूआत हुई, मैं छोटा था। मैंने भी अखबार में बहुत उल्टा लिखा, डिससर्विस की। मेरी लिखी अखबारें अमेरिका तक पहुँच गई। हम तो सुनी-सुनाई पर थे, अंदर जाकर तो देखा नहीं। आडवाणी ने माफी माँगी और कहा, मैंने अखबार में लिखकर डिससर्विस की थी, अब अपने अखबार में सही तरीके से लिखकर सर्विस भी मैं ही करूँगा। उनका सिन्धी अखबार बॉम्बे से निकलता है।
मातायें कभी पवित्र रही नहीं, पुरुष लोग संन्यासी बनते आये हैं, उसमें माताओं ने कभी कुछ बोला नहीं। महामण्डलेश्वर आदि भी पुरुष बने। जब माताओं को भगवान ने पवित्र बनने की बात कही तो लोगों को यह नई बात लगी कि यह कैसे होगा, उन्हें समझ में नहीं आया। ब्रह्मचर्य में मातायें रही नहीं हैं। हमेशा पुरुष पवित्र रहे हैं, नारियों में इतनी शक्ति कहाँ? यह आध्यात्मिक शक्ति नारियों में कैसे आ गई? नई बात के कारण थोड़ा विरोध हो जाता है। पवित्रता को समझ नहीं सके। बाबा को भी लोगों ने कहा तो बाबा ने कहा, ये भगवान के महावाक्य हैं, मेरे नहीं। जिन्होंने समझा, वे युगल होकर भी पवित्र रहते हैं और बच्चों सहित चल रहे हैं।
बेगरी पार्ट में ही हमारा ईश्वरीय सेवा का पार्ट शुरू हुआ। सन्देश पुत्रियाँ शिव बाबा से सन्देश लेकर आती रहती थी। शिव बाबा ने ब्रह्मा बाबा के लिए सन्देश भेजा कि बच्चों को यहाँ बिठाकर रखना है। क्या? उनको प्रजा नहीं बनानी है क्या? सतयुग में सब चाहिए, सारी राजधानी बननी है, इनका भविष्य बनाना है। जैसे लौकिक में भी माता-पिता बच्चों का भविष्य बनाते हैं, इनको भी भेजो सेवा पर। इस प्रकार, ईश्वरीय सेवा का हमारा पार्ट शुरू हुआ। बाबा ने हर कदम पर मुझे आगे बढ़ने का चांस दिया। मुझमें इतने गुण नहीं थे पर बाबा ने गुण भरकर हमको विश्व के सामने खड़ा कर दिया। मैं सर्विस के क्षेत्र में नहीं जाना चाहती थी। मैंने रोया, प्रेम के आँसू बहाये। इतना टाइम मम्मा- बाबा के साथ रहे, इनसे दूर कैसे जायेंगे, कौन है दनिया में हमारा, लौकिक परिवार भी यज्ञ में समर्पित तो मैं कहाँ जाऊँगी? बाबा रोज हाथ उठवाते थे, आज कौन जायेगा, मैं हाथ समेटे बैठी रहती थी। बाबा देखते थे कि यह क्यों नहीं हाथ उठाती है, पर मेरा भविष्य बाबा को बनाना था। मैंने रोया तो एक बाँह से
बाबा ने पकड़ा, एक बाँह से मम्मा ने पकड़ा और बड़े प्यार से बस में बिठाया। मैं बस में आँसू बहाते-बहाते सेवा करने पहुँची। आज दिल में आता है, बाबा ने यह ना किया होता तो आज हम कहाँ होते ! बाबा कहता था, कई गउएँ दूध नहीं देती, उसी प्रकार जो बच्चे सेवा नहीं करते, वो भी पछड़माल है। सेवा पर न जाते तो आज हम भी पछड़माल (पीछे का बचा हुआ माल)
होते। बाबा ने, मेरे ना चाहते भी मेरा भविष्य बनाया।पहले-पहले मुझे भी बाबा ने अजमेर भेजा। लौकिक पिता का एक जज दोस्त वहाँ रहता था। पहले-पहले हृदयपुष्पा वहाँ गई थी। फिर मुझे भी उसने निमंत्रण दिया। अजमेर में सिन्धी भी होते हैं, इसलिए बाबा ने वहाँ भेजा। वहाँ सेवा की। फिर दिल्ली में तीन मास सेवा की। इसके बाद अमृतसर गई। वहाँ वेदान्त सम्मेलन था, दादी जानकी वहाँ थी। फिर अमृतसर की सेवा शुरू हुई। वहाँ रही। अमृतसर अर्थात् पंजाब की सेवा हुई, उसके बाद हरियाणा की सेवा हुई, फिर हिमाचल की सेवा हुई, इसके बाद जम्मू-कश्मीर तरफ सेवा हुई।
सेवा से कइयों की जीवन बनी। पचास साल से सिगरेट पीने वालों की छूट गई। ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर कई योगी बने। ऐसा देख हमको उमंग रहता था कि खूब सेवा करें। बिगड़ी को बनाने वाला वो भगवान भी है, उसके बच्चे हम भी हैं। जो कार्य बाबा करे, वो ही हम बच्चों को करना है, इस दृढ़ संकल्प से हम सेवाओं में अच्छी तरह लग गये। पंजाब सरेन्डर के संस्कारों वाला है। देश सेवा में भी पंजाब वाले आगे रहते हैं तो यह भी एक सेवा है। देश के लिए मर मिटते हैं तो जीते-जी मरना उनके लिए सहज है। हमारे अन्दर 14 साल की तपस्या का बल था जिस कारण दो शब्द भी बोलते थे तो सुनने वाले अशरीरी हो जाते थे।
हापुड़ में भी जब हंगामा हुआ तब मैं वहाँ 2-3 मास रही थी। वहाँ पर एक रज्जू नाम की माता थी जिसकी आयु तो बड़ी थी अर्थात् वह बूढ़ी थी लेकिन विरोधियों ने उसको 16 साल की बताया और उसके पति ने इल्जाम लगाया कि वह सारा जेवर लेकर ब्रह्माकुमारी में चली गई है। वास्तविकता तो यह थी कि यह पति-पत्नी का पवित्रता का झगड़ा था। रज्जू माता पवित्र रहना चाहती थी लेकिन पति साथ नहीं देता था। पति ने गुस्से से कहा, घर से निकल जाओ। उसके पास 5 रुपये थे, वह दिल्ली सेवाकेन्द्र पर पहुँची और बहनों को कहा, मुझे बर्तन की सेवा में रख लो, पति तो घर में रखता नहीं है। बहनों ने रख लिया। उसके बाद विरोधियों ने और कई झूठे कलंक लगाये जैसे कि ये बहनें सुरमा डालती हैं, भाई- बहन बना देती हैं आदि-आदि, जिस कारण जनता बिगड़ गई। वहाँ कई गुण्डे खड़े हो गये थे, उन्होंने जनता में एलान कर दिया था कि कोई भी ब्रह्माकुमारियों को दूध आदि ना दे,जमादार साफ-सफाई ना करे। इस प्रकार उन्होंने सब कुछ बन्द करादिया, मकान मालिक को भी डरा
दिया कि अगर आपने इनको मकान में रखा तो हम आपका खून करदेंगे। वह भी डर गया। फिरविरोधियों ने कहा, हम आपको एक मकान किराये पर देंगे। अंदर उनके कपट यह था कि जब इनका सामान ट्रक में डाला जायेगा तब उसको सीधा दिल्ली भेज देंगे। लेकिन कार्य तो बाबा का था, गवर्मेन्ट हमारे साथ हो गई। उन्होंने हमको कहा कि आप इनका कुछ मत लेना, आपको ट्रक हम देंगे। विरोधियों ने वहाँ नारे लगाये। बाबा ने सन्देश पुत्री द्वारा सन्देश मँगवाया। सन्देश में यह आया कि जो निर्भय हो, वह पहले चले तो मैं सबसे पहले आगे चली। साइलेन्स पावर ने ऐसा काम किया जो लगा जैसे बाबा सामने हैं और हम चलते रहे। विरोधियों के मन में उलटा-सुलटा करने का जो भी विचार था, वह शान्त हो गया। ऐसे चलते-चलते हम नये मकान में पहुँचे लेकिन विरोधियों ने वहाँ अपना ताला लगा दिया। अब हम ऊपर कैसे जायें। हम थाने में गये। थाने वालो को तो ताकत होती है खोलने की। उन्होंने हमें ताला खोलकर रात्रि में 12 बजे अन्दर बिठाया। फिर भी विरोधीजन हमारे पास आते रहे और कहते रहे, आपको शेर खा जायेगा, आप मान जाओ, आप यहाँ से चले जाओ। हमने कहा, हमने कोई भूल की हो तो बताओ। हमारी कोई भूल थी ही नहीं। फिर हमने लखनऊ के एक मिनिस्टर को बुलाया। हमारे आठ व्यक्ति और विरोधियों के आठ व्यक्ति, यह एक सभा हुई। बीच में रज्जू माता को बिठाया, उसने बयान दिया। बयान में हमारी कोई गलती नहीं निकली। तब उन आठ लोगों को एक दिन जेल में रखा गया। इस प्रकार प्यारे बाबा ने विघ्नों के बीच रहकर विघ्न विनाशक बनने का पाठ पढ़ाया।
मैं हर बात में देख रही हूँ, बाबा ने जबर्दस्ती भविष्य बनाया है। मधुबन में मुझे रखा है, बैठी कहाँ थी, दादी कहती है, यहाँ रहो, भट्ठियाँ कराओ। मैं देखती हूँ, ना चाहते भी मेरा भविष्य उज्ज्वल बन रहा है। दैवी परिवार का, बड़ों का, बाबा का सबका मेरे से प्यार है, मेरा भी दैवी परिवार से जिगरी प्यार है। अन्दर से में सबको अच्छा समझती हूँ। बाबा मेरे पास अमृतसर में कुमारियों को
भेजता था, कहता था, बच्ची इनकी ट्रेनिंग हो जायेगी।सचमुच कितनी कुमारियाँ सीखकर गई हैं, कितना उनका भविष्य बना है। एक-एक कुमारी को देखो –नेपाल की राज, चण्डीगढ़ की अचल, देहरादून की प्रेम – क्या-क्या सभी ने सेन्टर सम्भाले। मैंने उन पर क्या मेहनत की है! उनके साथ रही, जीवन से सूक्ष्म बल उनको मिला। संग के रंग का कितना अच्छा असर है। हमने सदा सभी की महिमा ही की है। इसलिए उनके दिल में रिगार्ड है। मेरा पेपर भी आया। मेरे को गाँव में भेजा। निमंत्रण दादी निर्मलशान्ता को था। अचल बहन उस गाँव में रहती थी। क्या था वो गाँव! मिट्टी का था। एक छोटे-से कमरे में तीन साल रही। न बाथरूम, न लैट्रिन, भण्डारे में स्नान करो, पानी नहीं था। पर मेरे को ऐसा कुछ लगा नहीं क्योंकि सेवा बहुत थी। सारा गाँव मेरे पीछे था। मम्मा आई, 800 गाँव वाले हार उठाए खड़े थे। बाबा भी उस गाँव में आये।
मैं जिसको देखती थी, ध्यान में चला जाता था। अचल बहन सामने बैठी, उसे वैष्णो देवी का साक्षात्कार हो गया। हम तो साधारण हैं परन्तु अन्दर क्या बाबा ने भरा है, यह मैं सर्विस में देखती गई हूँ। निराकार, साकार, दैवी परिवार सबने मेरे को आगे रखा है, मेरा भी जिगरी सबसे प्यार है।
मुझे कोई सेवा के लिए कहे तो कभी ना नहीं करूँगी चाहे रात जागना पड़े, दिन जागना पड़े, बाबा की सेवा किसी कारण से बन्द क्यों होनी चाहिए। ये बाबा की बातें हैं, जो कानों में गूँजती रहती हैं। दूसरों के लिए सोचती हूँ कि वे भी सेवा में “ना” नहीं करें। मुझे अन्दर से झुझकी आती है कि यह ऐसा करे, वह ऐसा करे फिर ना भी करे तो फीलिंग भी नहीं आती, कहती हूँ ड्रामा।
दृढ़ संकल्प एक महान शक्ति है, इससे आत्मा परिवर्तन होती है। उसमें एकान्त चाहिए। एकान्त के लिए समय निकालें। जैसे स्टूडेन्ट अपनी पढ़ाई के लिए एकान्त में जाते हैं ताकि वार्षिक परीक्षा में अच्छे नंबर आयें। ऐसे ही हमारा भी अंत समय आकर पहुँचा है। हमें भी अपनी चेकिंग करनी है और डीप साइलेन्स में अपनी कमी पूरी करनी है। बाबा की आश है कि बच्चे संपन्न बनें। गहन तपस्या से हमारे हिसाब-किताब सब छूट जायेंगे। उपराम वृत्ति में रहेंगे तो हम सब बाबा के साथ जायेंगे। यह मेरी आश है, हम सब इकट्ठे एक- दो के साथ-साथ चलें घर।
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