
होली का आध्यात्मिक महत्व : रंगों से परे का त्यौहार
होली सिर्फ़ रंगों का त्यौहार नहीं, बल्कि आत्मा को शुद्ध करने और दिव्यता से रंगने का अवसर है। जानिए होली का आध्यात्मिक महत्व और इसका गहरा संदेश।
महर्षि व्यास द्वारा रचित अनेक पुराणों में से एक पुराण है श्रीमद् देवीभागवत पुराण, जो माँ दुर्गा की उत्पत्ति और उसके कर्तव्यों की रोचक गाथा है। इसमें बताया गया है कि एक समय सृष्टि पर महिषासुर नाम का एक राक्षस था, जिसका आधा शरीर असुर जैसा और आधा भैंस जैसा था। उसने कठोर तपस्या करके ब्रह्मा जी से यह वरदान पा लिया कि कोई भी देव, दैत्य या मानव उसे मार नहीं सके, कोई स्त्री ही उसे मारे। उसे यह भ्रम था कि जो स्वयं अबला है, वह मुझे मारने में समर्थ कैसे हो सकेगी?
अमर होने के अहंकार में आकर उसने देवताओं को सताना प्रारम्भ कर दिया। सभी देवताएँ दया की गुहार लेकर ब्रह्मा जी के पास पहुँचे। ब्रह्मा जी, शंकर जी तथा विष्णु जी के पास पहुँचे। विष्णु जी की राय से सभी देवताओं के सम्मिलित तेज से एक नारी रत्न की उत्पत्ति हुई जिसे नाम मिला ‘दुर्गा’। दुर्गा अर्थात् यज्ञ रूपी दुर्ग की रक्षा करने वाली, दुर्गुणों का नाश करने वाली, दुर्गम कार्यों को सरल करने वाली तथा दुर्गति नाश करने वाली।
सभी देवताओं ने देवी को अलग-अलग आयुध प्रदान किये और आभूषणों से भी अलंकृत किया। जब वे सज-धज कर विराजमान हुई तो त्रिलोकी को मुग्ध करने वाले उनके दिव्य दर्शन पाकर देवताएँ उनकी स्तुति करने में संलग्न हो गये। अजन्मी भगवती ने तभी अपने मुख से वाणी निकाली जिसे सुन महिषासुर का सिंहासन हिलने लगा। उसने अपने असुर साथियों को इस आवाज़ का पता लगाने भेजा। जब उन असुरों ने बताया कि यह आवाज़ एक सुन्दरी देवी की है तो उसने विवाह का प्रस्ताव देकर अपने असुरों को देवी के पास भेजा। देवी के विवाह से मना करने पर उन्होंने देवी से युद्ध किया और मारे गये। वे असुर देवी को महिषासुर की सेवा करने के लिए मनाते रहे, उसके रूप की महिमा करते रहे परन्तु मना कर देवी ने एक-एक कर उन सभी को मौत के घाट उतार दिया।
इसके बाद महिषासुर स्वयं आया और देवी के साथ बड़ी लुभावनी बातें करने लगा। परन्तु देवी ने उसे युद्ध के लिए ललकारा और वह भी मारा गया। इन असुरों से युद्ध करते-करते नौ दिन बीत गये इसलिए भक्तिमार्ग में नवरात्रों का त्यौहार इसी कर्तव्य की याद में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। कहा गया है कि ‘कलियुग का नाश माँ दुर्गा ने किया।’ कलियुग नाश का अर्थ है – ‘कलियुग में उपस्थित राक्षसी वृत्तियों का नाश’। इनके नाश के बाद ही देवी वृत्तियों का युग सतयुग आया।
भारत में जितने भी देवता या अन्य महात्मा हुए हैं उन सबका यादगार दिवस वर्ष में एक बार मनाया जाता है परन्तु देवी दुर्गा के निमित्त नवरात्रे वर्ष में दो बार मनाये जाते हैं। इससे देवी के अवतार लेने और कर्तव्य करने की महिमा अन्यों की भेंट में द्विगुणित हो जाती है। साल में दो बार आने वाले नवरात्रे हमें प्रेरित और जागरूक करते हैं कि सृष्टि की रक्षक, पालक और मार्ग-दर्शक माँ के बारे में हम अधिक-से-अधिक जानें, उनके गुण और कर्तव्यों को पहचानें, उनका अनुकरण करते हुए आसुरी वृत्तियों का नाश करें।
वास्तव में, एक ऐसी अलौकिक माँ दुर्गा को क्या हम जानते हैं? उनके बारे में कितना जानते हैं? वे कौमार्य व्रतधारी हैं। अखण्ड ब्रह्मचारिणी हैं। किसी भी आसुरी वृत्ति दृष्टि के वार से सर्वथा अछूती हैं। उनके यादगार दिवस के उपलक्ष्य में कुमारी पूजन, कुमारी भोजन और कुमारी सम्मान आयोजित होते हैं। ब्रह्मचारिणियाँ उनसे अखण्ड पवित्रता के वरदान की याचना करती हैं। इतना सब होते हुए भी वे अखण्ड सुहागिन भी मानी जाती हैं। सुहाग के सभी चिह्न सिंदूर, टीका, लाल जोड़ा, चूड़ियाँ, बिछुए, नथ, आभूषण आदि वे धारण करती हैं और संसार की सुहागिन स्त्रियाँ उनसे अखण्ड सुहाग का वरदान भी माँगती हैं। ये दोनों बातें एक साथ कैसे?
कुमारी भी और सुहागिन भी? फिर उनका पति कौन है? श्रीलक्ष्मी जी के साथ श्रीनारायण और श्रीसीता के साथ श्रीराम दिखाये जाते हैं परन्तु देवी दुर्गा के साथ किसी भी देवता का नाम नहीं लिया जाता है। मन्दिर में भी वे शेर पर सवार, नितान्त अकेली और चित्रों में भी ऐसी ही चित्रित की जाती हैं। उनकी शादी कब और किसके साथ हुई? इसका भी कोई वृत्तान्त पढ़ने को नहीं मिलता है तो इस गूढ़ पहेली का उत्तर क्या है? कोई एक साथ कुमारी भी और सुहागिन भी कैसे हो सकती है?
इस गूढ़ राज़ को समझने के लिए बहुत शुद्ध, दिव्य और एकाग्र बुद्धि की ज़रूरत है। काल-चक्र घूमते-घूमते सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग को पार करते-करते जब कलियुग के अन्त में आ पहुँचता है तो सृष्टि में अनेक प्रकार की आसुरी वृत्तियाँ बढ़ चुकी होती हैं। इसके कारण हाहाकार करती मानवता किसी ईश्वरीय शक्ति की बाट जोहने लगती है, तब परम दयालु, कृपालु, भक्त-वत्सल, करूणामय, दाता, दिलवाले भगवान शिव इस धरती पर एक साधारण मानवीय तन में अवतरित होते हैं और उनको नाम देते हैं पिताश्री ब्रह्मा।
ब्रह्मा बाबा के वृद्ध तन में बैठकर जब वे ज्ञान-गंगा बहाने लगते हैं तो आसुरी वृत्तियों से आहत अनेक नर-नारी उनकी शरण लेने लगते हैं और जीवन को निर्विकार बना लेते हैं। उनमें भी माताएँ और कन्याएँ अधिक लगन से इस कार्य में संलग्न हो जाती हैं। कन्याएँ आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत की दृढ़-प्रतिज्ञा लेकर भगवान शिव को ही अपना पति मानकर उन पर न्यौछावर हो जाती हैं। विकारों से आच्छादित। कलियुग रूपी घोर रात्रि में ये कन्याएँ काम-क्रोध आदि असुरों को संसार से समाप्त करने और शान्ति, प्रेम, भाईचारा स्थापन करने में निरन्तर युद्धरत रहती हैं। इसका परिणाम निकलता है सतयुग रूपी सूर्योदय; इस प्रकार जड़-चेतन सहित सारा संसार इनकी जय-जयकार करता है और अगली चतुर्युगी में, ब्रह्मा की रात्रि में इनके इस संगमयुगी कर्तव्य की महिमा दुर्गा तथा अन्य देवियों के रूप में गाई जाती है।
ये ब्रह्माकुमारी कन्याएँ, जो अपनी सर्व लौकिक पहचान मिटाकर, आत्म-रूप स्वीकार कर विश्व-सेवा में रत हो जाती हैं। अखण्ड ब्रह्मचारिणी भी हैं परन्तु साथ-साथ कालों के काल महाकाल शिव का वरण करके अखण्ड सौभाग्यवती और सुहाग-भाग्य का दान करने वाली भी बन जाती हैं। चूँकि दुर्गा इन्हीं के संगमयुगी कर्तव्यों की यादगार है इसलिए उसे कुमारी भी और सुहागिन भी दिखाया जाता है।
ब्रह्माकुमारीयाँ एक शिव को ही अपना सारा संसार समझ कर विकारी संसार से उपराम हो जाती हैं। शिव को ही पति स्वीकार करती हैं परन्तु शिव तो निराकार, बिन्दु-रूप, ज्योति-स्वरूप हैं। वे विचित्र हैं (बिना चित्र / शरीर रहित)। उनका चित्र खींचा नहीं जा सकता इसलिए माँ दुर्गा सुहागिन होते भी मन्दिर में अकेली दिखाई जाती हैं। कोई देहधारी देवता उनके संग नहीं होते। इस प्रकार वे कुमारी भी हैं और अखण्ड सुहागवति भी। उनके सुहाग भगवान शिव के तो काल भी अधीन है। ऐसे अमर, अविनाशी पति को वरने वाली माँ दुर्गा सदा सुहागिन है और मनसा वाचा कर्मणा अखण्ड ब्रह्मचारिणी भी।
किसी की वास्तविक जीवन कहानी को जानने से उन जैसा बनने की प्रेरणा मिलती है। कहानी जाने बिना मात्र हाथ जोड़ लेना, कुछ फूल-पत्र आदि चढ़ावा चढ़ा देना, केवल गुड़ियों की पूजा या खेल बन कर रह जाता है। जैसे, यदि कोई बच्चा यह न जानता हो कि बापू गाँधी कौन थे, कब हुए, उन्होंने क्या किया तो वह भावना वश उनके चित्र पर माला तो अर्पण कर देगा परन्तु उनके चरित्र के उदात्त गुणों जैसे – सत्य, अहिंसा, वैश्विक प्रेम आदि का चिन्तन नहीं कर पायेगा फलस्वरूप उन्हें अपने चरित्र में भी नहीं उतार पायेगा। हमने भी अपने परिवार और समाज के बड़ों द्वारा बनाई रीति- रस्म अनुसार माँ दुर्गा पर अपनी भावनाएँ तो अर्पित की परन्तु उनके जीवन में समाए त्याग, तप, सेवा, समर्पण, अनासक्ति आदि का दिग्दर्शन न कर पायें। इसलिए हर साल पूजा व्रत, यात्रा करते भी हम वहीं हैं, जहाँ ये सब करने से पहले थे।
उसका एक कारण यह भी है कि हमें देवी बहुत ऊँची, बहुत पवित्र और बहुत महान लगती है। उसकी भेंट में अपना जीवन तुच्छ, स्वार्थी और विकारों से भरा हुआ लगता है। तब विचार आने लगता है कि हम तो इतनी ऊँचाई पा ही नहीं सकते, यह तो सम्भव ही नहीं है। कहाँ देवी और कहाँ हम! परन्तु यदि हमें ज्ञात हो जाये कि देवी इस ऊँचाई को छूने से पहले एक साधारण कन्या ही थी। उसने कौमार्य जीवन में ही परमात्मा की शिक्षाओं को धारण कर उसकी आज्ञाओं पर चल, उसके समान बनने का दृढ़ संकल्प कर लिया। एक-एक कदम उठाते, जीवन में दृढ़- सदगुणों को धारण करते इतनी ऊँचाई तक पहुँच गई। इस जानकारी के बाद उन जैसा बनने की हिम्मत और उमंग सहज ही आ जाता है और यह सम्भव भी लगने लगता है।
जैसे एक नन्हा बालक जब स्कूल में जाने लगता है तब शिक्षक भी उसे बहुत ज्ञानी, विद्वान और समझदार लगता है परन्तु जब उसे बताया जाता है कि यह शिक्षक भी आपकी तरह छोटा बच्चा था, तभी से पढ़ते-पढ़ते इस ओहदे तक पहुँचा है तो बच्चे में भी हिम्मत आ जाती है और सचमुच वह शिक्षक समान बनने के मार्ग पर कदम बढ़ाने लगता है। इसके विपरीत, यदि कुछ पूजा सामग्री लेकर प्रतिदिन वह शिक्षक की आरती उतारता रहे, कीर्तन गाता रहे तो मात्र इस भावना से उसमें ज्ञान का संचार नहीं हो पायेगा। यही कारण है कि इतने वर्षों से माँ दुर्गा की भक्ति करते भी भक्तों में उनके गुणों और शक्तियों का संचार नहीं हो पाया।
यदि कोई भक्त अपनी पहली पूजा के समय अपने व्यक्तित्व में कुछ कमज़ोरियाँ लिये हुए था जैसे कि भय, चिड़चिड़ापन, स्वार्थ, दिखावा, चोरी, अहंकार, लोभ, मोह, ईर्ष्या, चुगली आदि तो वर्षों तक पूजा करते रहने पर भी इनसे मुक्त नहीं हो पाता है। प्रश्न उठता है यह कैसी पूजा है? इसका औचित्य क्या है? मान लीजिये, बच्चा रोज स्कूल जाए और वैसा ही कोरा लौट आये, कुछ भी ना सीखे, ना कोई आचरण बदले तो प्रश्न चिह्न खड़ा होगा कि रोज स्कूल जाने का औचित्य क्या है?
हमारी पूजा-पद्धति पर भी प्रश्न चिह्न खड़ा हो रहा है कि हम बदले क्यों नहीं? इसका एकमात्र कारण यही नज़र आता है कि हमने हाथ तो जोड़े पर मन नहीं जोड़ा। मस्तक तो झुकाया पर मस्तक में विद्यमान आत्मा को देखना नहीं सीखा। दर्शन तो किये पर खुद को दर्शनीयमूर्त नहीं बनाया। देवी को सुहाग का प्रतीक लाल जोड़ा तो पहनाया परन्तु अमरनाथ शिव को अपना अमर सुहाग स्वीकार नहीं किया। देवी का गहनों से, फूलों से श्रृंगार किया पर खुद को गुणों के गहनों से नहीं सजाया। देवी की आरती उतारी परन्तु अपने भीतर ज्ञान का दीप नहीं जलाया। देवी के पास कलश स्थापित किया परन्तु खुद के मस्तक को ज्ञान से खाली ही रखा। देवी के चरित्र गाए परन्तु खुद चरित्रवान नहीं बने। परिणाम यह हुआ कि एक दिन या नौ दिन या साल में दो बार पूजा करके भी हम अन्दर से खाली ही बने रहे। पूजा करने से पहले और पूजा करने के बाद के व्यक्तित्व में कोई अन्तर नहीं आया।
माँ दुर्गा ने कल्प पहले जो पढ़ाई पढ़ी थी, वर्तमान समय भगवान शिव उसी ज्ञान कलश को लेकर धरती पर अवतरित हुए हैं और हर नर-नारी को धारण करा रहे हैं।
आइये, इस नवरात्रि पर कुछ नया करें। याचना, प्रार्थनाएँ तो बहुत जन्म कर लीं, अब ज्ञान कलष धारण कर याचना प्रार्थनाओं से ऊँचे उठकर जग की यातना मिटाने के लिए कटिबद्ध हों।
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