
एक में मगन ब्रह्मा बाबा
साकार ब्रह्मा बाबा के जीवन पर जब मन की नज़र डालते हैं तो पाते हैं कि उन्होंने हर पल, हर श्वास दूसरों को दिया ही दिया। जो भी उनके संपर्क में आया, उसे उन्होंने चन्दन-सम जीवन की सुगंध दी, उसको
सन् 1965 को मातेश्वरी “ब्रह्माकुमारी सरस्वती जी” ने अपनी पार्थिव देह का परित्याग किया था। यूं तो देह में मोह-ममता उनको पहले से ही नहीं थी। वे ‘नष्टोमोहा स्मृतिलब्धा’ की स्थिति में ही थीं। उन्होंने देह ईश्वरीय सेवा में समर्पित की हुई थी और वे किसी कोरे स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि सर्वजन हित के लिए ही इसे प्रयुक्त करती थीं। उन्हें न मृत्यु का भय था, न यहाँ से जाने का अफसोस। वे किसी अपूर्ण इच्छा से ग्रसित नहीं थीं बल्कि उपराम थीं। उनका शरीर उनकी कड़ी परीक्षा ले रहा था परन्तु फिर भी वे अपना मानसिक सन्तुलन बनाए हुए थीं। ‘मैं कौन हूँ, कहाँ से आई हूँ, कहाँ मुझे जाना है?” ये स्मृति और वैसी ही स्थिति स्पष्ट रूप से उनके मन में बनी हुई थी, इससे वे विचलित नहीं हुई।
शरीर छोड़ने से पहले भी उन्होंने मधुबन में उपस्थित सभी ब्रह्मावत्सों को अपने कमल हस्तों से फल रूपी प्रसाद दिया और योग-स्थिर नयनों से मुलाकात भी की। उसी मुलाकात में विदाई भी समाई हुई थी। मूक भाषा में और अपने प्रकाशमान मुख-मंडल से उन्होंने हरेक से जो कहना था सो कह दिया। यद्यपि शरीर तूफान ला रहा था तो भी वे सबके सामने ऐसी स्थिर थीं कि उनके चेहरे से शान्ति बरस रही थी। किसी को यदि यह देखना हो कि योगी का मन अपने तन पर कैसे विजय प्राप्त करता है अथवा उसकी समाधि, व्याधि को कैसे पराजित करती है तो यह दृश्य उसके लिए एक प्रत्यक्ष उदाहरण का काम कर सकता था। रोग भले ही विकराल था परन्तु मातेश्वरी जी का आत्म-नियन्त्रण उससे कहीं अधिक बेमिसाल और बा-कमाल था। शरीर की अवस्था तो शायद कष्ट उत्पन्न कर ही रही थी परन्तु आत्मा उससे ऊपर उठकर अथवा पीछे धकेलकर अपने गन्तव्य की ओर जाने को उद्यत थी।
प्रायः कहा जाता है कि व्यक्ति के द्वारा किये हुए नकारात्मक कर्म अन्तिम घड़ी में उसके सामने आते हैं। यदि इस कहावत को ध्यान में रख कर मातेश्वरी जी की स्थिति पर विचार किया जाए तो मालूम होता था कि उनका मन निर्विघ्न था क्योंकि उनके मुख से कोई भी दुःख सूचक अथवा पश्चाताप-बोधक शब्द नहीं निकल रहा था बल्कि कुछ ही दिनों पूर्व उन्होंने अपनी वाणियों में यह जो कहा था कि यदि शरीर को व्याधि होती भी है तो मन और बुद्धि को उसके प्रभाव से मुक्त रहना चाहिए, उस कथन के अनुरूप ही अब उनकी स्थिति थी। उनके जीवन काल में उनके मन-वचन-कर्म में एकता थी और अन्त समय भी उनकी स्थिति उन द्वारा कथित वाक्यानुसार ही थी।
जो ब्रह्मा-वत्स उनसे उस दिन मिले थे, प्रायः उनको भी यह आभास था कि शायद यह शरीर अधिक समय तक नहीं चल पाएगा। परन्तु इसके बावजूद भी मातेश्वरी जी की स्थिति देहातीत अथवा विदेही थी। यह जानते हुए भी कि अब समय थोड़ा है, उन्होंने न तो मुख से किसी को ऐसा शब्द कहा, न ही ऐसा इशारा दिया कि जिससे वातावरण की अलौकिकता में कुछ अन्तर आए। वे सदा की तरह गम्भीर और धीर बनी हुई थीं। उनका श्वास लेना भारी मालूम हो रहा था। उन्होंने अपना दायां हाथ पिताश्री ब्रह्मा के दायें हाथ में दिया हुआ था और पिताश्री जी उन्हें योग की शक्तिशाली दृष्टि दे रहे थे। कुछ समय तक यही दृश्य बना हुआ था। लगता था कि उस शरीर से विदा लेने से पहले वे अपने श्रद्धेय पितामह और परमपिता से आखिरी मुलाकात कर रही हैं। एक ओर वे शरीर को छोड़ती जा रही थीं और दूसरी ओर योगस्थ और स्वरूपस्थ होकर अलौकिक रीति से विदा ले रही थीं। वह दृष्टि और हाथ उनके लिए सूक्ष्म विमान का कार्य कर रहे थे। शायद मूक भाषा में वे कह रही थीं कि मैं अब जा रही हूँ, मैं जा रही हूँ आगे तैयारी करने के लिए। अच्छा फिर मिलेंगे।
दोनों ने एक-दूसरे का हाथ और साथ नहीं छोड़ा परन्तु जब शरीर ही छूट गया तो पार्थिव हाथ भी हाथ से छूट गया, फिर भी आत्मिक नाते से हाथ और साथ नहीं छूटा। अपने अलौकिक जीवन में भी वे किसी नगर में बाबा के जाने से पहले स्वयं जाकर क्लास को निश्चययुक्त और धारणावान बनाने की सेवा किया करती थीं। अब भी उसी प्रीति की रीति अथवा सेवा के विधि-विधान के अनुसार शरीर की अस्वस्थता के निमित्त कारण को आगे रखकर उन्होंने पिताश्री जी से आगे ही प्रस्थान किया। जगदम्बा सरस्वती को जगत की अम्बा होने के बावजूद कभी भी वृद्धावस्था में नहीं दिखाया गया है, उसका यही तो कारण है कि उन्होंने अपनी ज्ञान-वीणा का वादन करते हुए तथा शिवशक्ति सेना का नेतृत्व करते हुए प्रौढ़ अवस्था में अपनी देह का विसर्जन किया था।
मातेश्वरी जी ने जब पहले-पहल तत्कालीन ‘ओम मण्डली’ के सत्संग में प्रवेश किया था तब न तो वे ‘सरस्वती’ नाम से ज्ञात थीं, न ही उन्हें कोई ‘जगदम्बा’ शब्द से सम्मानित करता था। कुछ ही दिनों में अपने विशेष पुरूषार्थ, अपनी उच्च धारणा और महान प्रतिभा के कारण वे ‘ओम् राधे’ के नाम से प्रसिद्ध हुई थीं। वे जब ‘ओम्’ की ध्वनि किया करती और सितार पर तन्मय होकर दिव्य गीत गातीं, तो सुनने वालों के हृदय के तार भी उसी स्वर- लहरी से एक-तान होकर झंकारित हो उठते थे। वे देह-बुद्धि से ऊपर उठकर हंस अथवा मुक्तपक्षी के समान रूहानियत के आकाश में उड़ान भरने और विचरण करने लगते थे। उन्हें अतीन्द्रिय सुख का अनुभव होता था और ऐसा लगता था कि कोई ज्ञान की लोरी देकर अपने वात्सल्य का अथवा मातृवत् प्यार का अनुभव करा रहा है।
इस प्रकार उस रूहानी परिवार में शारीरिक दृष्टिकोण से अधिक आयु वाले होने के बावजूद भी सभी उन्हें अपने से वरिष्ठ अनुभव करते थे। ‘ओम् राधे’ भी रूहानियत से दिन-रात उनकी ज्ञान-पालना करने में लगी रहती। इधर पिताश्री जी ने निमित्त बनकर कन्याओं-माताओं का जब एक ट्रस्ट बनाया, तब ‘ओम् राधे’ उसकी प्रधान निश्चित हुई। उस तरूण अवस्था में एक ईश्वरीय संस्थान की प्रथम अध्यक्षा अथवा प्रधान बनने का श्रेय प्राप्त करना कोई कम महत्व की बात नहीं है। एक नए विश्व की स्थापना के लिए जब इस संस्था की नींव पड़ रही थी और लोग इसके नए दर्शन, नए कार्यकलाप और नई नीति-रीति का डटकर विरोध करने में तत्पर थे, तब उन हलचल के दिनों में इसके कार्य-संचालन का उत्तरदायित्व लेना विश्व का एक अनुपम वृत्तान्त था। पिछले 2000 वर्षों में जिस पुरूष- प्रधान समाज में नारी का गौण स्थान रहा था, उसमें एक कुमारी का सामने आकर एक-साथ कई जबरदस्त चुनौतियों को स्वीकार कर अभय रूप से उनका सामना करना, विश्व के इतिहास की ऐसी ज्वलंत घटना है जिसका उदाहरण ढूँढ़ने से भी कहीं नहीं मिलेगा।
उस समय के घटना-चक्र पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो हमारी अंगुली स्वयं होठों पर जा टिकती है और हमारे चेहरे पर आश्चर्य के चिन्ह आ जाते हैं। एक तरफ सिन्ध के ‘भाई-बंद’ (व्यापारी वर्ग) और ‘आमिल’ (अफसरशाही) का कड़ा विरोध, दूसरी ओर नव-निर्मित विधान सभा में मुख्यमन्त्री और विधि मन्त्री पर दबाव, तीसरी ओर अंग्रेजी सरकार के पुराने कानून, चौथी ओर पंडित और पुजारी वर्ग का किन्हीं भ्रांतियों एवं स्वार्थ के कारण गठ-बंधन, पाँचवीं ओर अपराधी तत्वों का तनावपूर्ण व्यवहार और छठी ओर मनोविकारों से पीड़ित कुछ लोगों का कन्याओं, माताओं पर अत्याचार तथा उनके साथ दुर्व्यवहार इन सबका बना हुआ पेचीदा, टेढ़ा, जटिल और दुरूह वातावरण था कि जिसका सामना कोई विरला ही साहसी कर सकता था।
ऐसी वेला में, वे पिताश्री के साथ नैतिकता का ध्वज अपने हाथ में मज़बूती से लिए हुए कुमारियों और माताओं के एक ऐसे अनोखे दल का नेतृत्व कर रही थीं कि जिसका स्मरण कर उस शक्तिरूपा के सामने जन-जन का मस्तक झुक जाता है। इससे उनकी निर्भयता, दृढ़ता, निश्चयात्मकता, साहस, सहनशीलता और नैतिक बल की पराकाष्ठा का स्पष्ट परिचय मिलता है। जैसे माँ अपने बच्चों का लालन-पालन करने के अतिरिक्त शिशुकाल में उनकी रक्षा करती है, वैसे ही उन्होंने ज्ञान की लोरी ही नहीं दी और दिव्य गुणों से उनकी पालना ही नहीं की बल्कि प्रारम्भिक हलचल के समय उन्हें संरक्षण भी प्रदान किया।
यूं तो इस ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति से पहले भी सांसारिक दृष्टिकोण से उनका जीवन जन-सामान्य से उच्च और आकर्षणमय था। वे विद्या-अध्ययन में बहुत कुशल थीं, संगीत में प्रतिभाशाली थीं, संस्कारों में मिलनसार, नम्र और मधुर थीं और व्यक्तित्व में आकर्षणमूर्त थीं। अपने इन गुणों के कारण अपने नगर में, बालिकाओं में वे जानी-मानी- पहचानी हुई थीं परन्तु ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति के बाद उनके जीवन में एक ऐसा चमत्कार आया कि हर आस्तिक-नास्तिक, विरोधी-श्रद्धालु उनका साक्षात् होने पर ऐसा अनुभव करता था कि रूहानी नाते से वे उनकी माँ हैं। उनका प्यार, उनकी मधुरता, उनकी पवित्रता, उनकी ज्ञान की गहराई और उनका तपस्वी जीवन, हरेक को प्रभावित करता था।
उनके लौकिक सम्बन्धियों का कथन था कि वे ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति से पहले भी अपने सेवा-भाव, सहयोग, स्नेह, कार्य-कुशलता और व्यवहार की उज्ज्वलता से प्रभावित करती थीं परन्तु ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति के बाद तो उनकी वाणी में वह प्रभाव आ गया था कि संशय मिट जाता था, मनोविकार भाग जाते थे और उनके व्यक्तित्व में वह रूहानियत थी कि जन्म-जन्मान्तर से सन्तप्त आत्माओं को शान्ति का वरदान मिलता था। सचमुच में वे माँ सरस्वती थीं, जो ज्ञान-वीणा वादन से विद्याकुशल बना देती थीं और वर देकर अपवित्रता हर लेती थीं। पिताश्री जी से उनको विशेष सम्मान-युक्त स्थान मिला था। पिताश्री से पहले मातेश्वरी की वाणी हम सुना करते थे। पिताश्री उन्हें विशिष्टता से स्वागत और विदाई देते थे। वे इस ईश्वरीय परिवार में उन्हें ही जगदम्बा अथवा सरस्वती का स्थान देते थे। ये सब उनकी महानता का द्योतक है।
मातेश्वरी जी अपनी वाणी में प्रायः कर्मों की गति पर प्रकाश डाला करती थीं। वे कहती थीं कि मनुष्य अपने कर्मों की निकृष्टता के कारण ही गिरा है और अब कर्मों को श्रेष्ठ बनाने से ही वह महान बन सकता है। अतः कर्मों का संन्यास करने से तो वह श्रेष्ठ नहीं बन सकेगा। वे कहती थी कि प्रायः सभी धर्मों के लोग यह तो कहते हैं कि परमात्मा हमारा माता-पिता, बन्धु, सखा, सदुरू और सर्वस्व है परन्तु जैसे वे लौकिक जीवन में इन सम्बन्धों को व्यावहारिक (Practical) रूप से निभाना जानते हैं, वैसे पारमार्थिक दृष्टिकोण से परमात्मा के साथ अपने इन सम्बन्धों को निभाना नहीं जानते। यही कारण है कि वे परमात्मा से मुक्ति-जीवनमुक्ति या सुख-शान्ति की निधि की प्राप्ति नहीं कर सकते। वे कहा करतीं कि जन्म-जन्मान्तर देह-अभिमान और विकारों वाला जीवन तो देख लिया; शास्त्रों, तीर्थों,यात्राओं आदि का पुरूषार्थ करके भी देख लिया; आज जो हमारा हाल है, क्या उससे यह स्पष्ट नहीं है कि इनसे हमें वह प्राप्ति नहीं हुई जो हम चाहते हैं? तब फिर सोचने की क्या बात है? अब परमपिता परमात्मा केवल इतना ही तो कहते हैं कि इन विकारों को छोड़ो और इस रहे हुए जीवन के बाकी समय में पवित्र बनो ताकि मैं आपको ईश्वरीय वर्सा दूँ। वे पूछती थीं कि क्या यह सौदा नहीं करना है? विनाश सामने है। अब भी फैसला नहीं करोगे तो कब करोगे?
इस प्रकार मातेश्वरी जी शिव बाबा और ब्रह्मा बाबा के महावाक्यों को सरलता से समझाते हुए और नियमों तथा मर्यादाओं की सुगमता से धारणा कराते हुए सभी को आगे बढ़ाते चल रही थीं। वे अति विशिष्ट रोल अदा करते हुए, विश्व-नाटक में दूसरा रोल अदा करने चली गयीं जिससे कि सतयुगी राज्य-भाग्य की पुनर्स्थापना में मदद मिले। धन्य हैं वे! उन्हें हमारा कोटी-कोटी धन्यवाद। हम कृतार्थ हैं उनके महान कर्तव्यों के लिए। 24 जून का दिन पुनः न
जाने कितने संस्मरण उभार लाता है हमारे स्मृति-पटल पर !
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