अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस 21 जून” पर विशेष लेख
“मन चंगा तो कठौती में गंगा”: काशी के कर्मयोगी संत रविदास जी ने गंगा में स्नान करते हुए कंगन खो जाने पर रो रही महिला को लकड़ी के बने हुए पात्र जिसे ‘कठौती’ कहा जाता है, उससे महिला का कंगन ढूँढ कर निकाल दिया। उसके बाद कहा-‘मन चंगा तो कठौती में गंगा।’ परंतु वर्तमान समय में मूल्यों की गिरावट तथा तेजी से बदल रही सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों और मानवीय संबंधों में कड़वाहट के कारण मनुष्य के मन में अत्यधिक नकारात्मक प्रवृत्तियां उत्पन्न हो रही हैं।
वर्तमान समय में, 8 साल का बच्चा भी मानसिक तनाव की भाषा बोलने और समझने लगा है। छोटे-छोटे बच्चों के जीवन में भी मानसिक तनाव की प्रवेशता हो चुकी है। इससे सहज ही कल्पना कर सकते हैं कि जब बचपन की शुरुआत ही मानसिक तनाव से हो चुकी है तो शेष जीवन का सफर कितना मानसिक तनावों और संघर्षों से भरा होगा। एक और नई बात देखी जा रही है कि इस नए युग के डिजिटल प्रेमी माता-पिता अपने शिशुओं का मनोरंजन मोबाइल के गानों के माध्यम से कर रहे हैं। फेसबुक पर दरबार लगाने वाली तथा आधुनिकता में पली-बढ़ी व्यस्त माताओं को अपने शिशुओं को लोरी सुनाने और थपकी देकर सुलाने के लिए समय ही नहीं है। अब से कुछ ही दशक पहले हम सभी ने मां के आंचल में छुपकर जीवन का सच्चा सुकून महसूस किया है। माँ की गोद में बैठकर शान्ति, प्रेम, करुणा और दया के मूल्यों का मंत्र सीखा है जो हमारे जीवन को आलोकित करते हैं। बच्चों को मूल्यों वाली शिक्षाप्रद कहानियां सुनाने वाले दादा-दादी और नाना-नानी की भूमिका आज बहुत सीमित हो गई है। वर्चुअल रिएलिटी की दुनिया में पलने-बढ़ने वाले बच्चों के मन का स्वास्थ्य निरंतर रुग्ण होता जा रहा है। इसलिए एक अच्छे समाज के नवनिर्माण के लिए; आधुनिकता और भारतीय सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों में समन्वय होना आवश्यक है। योग मनुष्य को आधुनिकता और आध्यात्मिकता से जोड़ने वाला एकमात्र सेतु है। योग को अपनी जीवनशैली में स्थान देकर ही एक स्वस्थ और सभ्य समाज की कल्पना संभव है। क्योंकि योग के माध्यम से ही मनुष्य के जीवन की गतिविधियों को संचालित करने वाले मन को स्वस्थ बनाया जा सकता है। और स्वस्थ मन ही सुख, शान्ति, समृद्धि और जीवनमुक्ति का प्रवेशद्वार है।
योग से सर्व का सहयोग
जब आप योग के द्वारा अपने व्यक्तिगत जीवन को बेहतर बनाने के लिए, स्वयं के अंदर सकारात्मक चिंतन की वृत्तियों का निर्माण करते हैं, तो आपका यह पुरुषार्थ समाज के लिए बहुत बड़ा सहयोग होता है। धन, भौतिक वस्तुओं एवं साधनों से समाज के निर्बल लोगों का सहयोग करना भी सहज हो जाता है। स्थूल साधनों से समाज के लोगों को सहयोग भी करना चाहिए। परंतु मानसिक रूप से निर्बल लोगों को धन और स्थूल साधनों के सहयोग की आवश्यकता नहीं होती। प्रायः देखा जा रहा है कि भौतिक साधनों और सुविधाओं से सम्पन्न लोग मानसिक रूप से निर्बल हो रहे हैं। सैकड़ों बुझे हुए दीपक मिलकर भी एक दीपक को प्रज्ज्वलित नहीं कर सकते हैं। जबकि एक प्रज्ज्वलित दीपक सैकड़ों बुझे हुए दीपकों को प्रज्ज्वलित कर सकता है। इसी प्रकार नकारात्मक एवं निर्बल मानसिकता वाले लोग एक बेहतर समाज और सशक्त भारत के नवनिर्माण में अपना योगदान नहीं दे सकते हैं। केवल सकारात्मक चिंतन वाला मनुष्य अपने आसपास मौजूद सैकड़ों-हजारों नकारात्मक सोच और जीवन से निराश लोगों के जीवन में अपने सकारात्मक चिंतन से नई ऊर्जा का संचार करते हुए समाज की दशा और दिशा को बदल सकता है। वर्तमान समय में जीवन में सकारात्मक सोच को विकसित करना एक चुनौती है क्योंकि हमारे आसपास का वातावरण नकारात्मक वायुमंडल से घिर गया है। परन्तु योग के द्वारा यह सहज और संभव है।
प्रायः हर एक व्यक्ति के मन में या तो स्वयं से या दूसरों से शिकायत है। इससे मनुष्य का जीवन नकारात्मक वातावरण से घिरने लगा है। जीवन में सकारात्मक चिंतन का विकास केवल ईश्वरीय ज्ञान और राजयोग के अभ्यास द्वारा ही किया जा सकता है। क्योंकि शारीरिक क्रियाओं पर आधारित योगाभ्यास से हमारा शरीर तो स्वस्थ हो सकता है परंतु मन को ज्ञान और विवेक के आधार पर ही सकारात्मक और स्वस्थ बनाना संभव है। क्योंकि यह शरीर का कोई स्थूल अंग नहीं है। मन अतिसूक्ष्म और चेतना का क्रियात्मक स्वरूप होता है। अतः समाज का परोपकार करने के लिए योग से सर्व का सहयोग करने की दिशा में आगे बढ़ें।
जैसा अन्न, वैसा मन
यह बात निर्विवाद रूप से वैज्ञानिक शोध के निष्कर्षों से प्रमाणित हो चुकी है कि अन्न का मनुष्य के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। भारतीय मनीषियों और आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के महान चिकित्सकों ने इस बात को प्राचीन काल से ही सिद्ध किया है कि हमारा स्थूल शरीर हमारे मन की रचना है। अर्थात् प्रसन्नचित्त होकर बनाए गए भोजन को यदि प्रसन्न भाव से ग्रहण किया जाए तो इसका हमारे स्वास्थ्य पर बहुत गहरा सकारात्मक पड़ता है। सात्विक भोजन हमारे स्वास्थ्य के लिए अमृत है।
प्रायः देखा जाता है कि गुणवत्तायुक्त भोजन करने के बावजूद, मानसिक रूप से चिंतित और अवसादग्रस्त व्यक्तियों के स्वास्थ्य में अक्सर कुछ ना कुछ समस्या अवश्य बनी रहती है। अन्न को एक श्रेष्ठ औषधि बनाने में, हमारी सकारात्मक भावनाएं संजीवनी बूटी की तरह काम करती हैं। हम सभी को व्यावहारिक रूप से यह अनुभव है कि प्रसाद के लिए बने हुए भोजन में एक विशेष प्रकार का स्वाद होता है क्योंकि प्रसाद को बनाते समय शारीरिक स्वच्छता के साथ-साथ मन में दिव्यता के भाव की प्रधानता होती है। यदि हम नियमित रूप से ईश्वरीय ज्ञान और राजयोग के द्वारा अपनी भावनाओं का शुद्धिकरण करते हैं तो भोजन को सात्विक भोजन बनाने की कला सीख सकते हैं। यहां एक अंतर स्पष्ट करना आवश्यक है कि शाकाहारी भोजन और सात्विक भोजन में बहुत बड़ा अन्तर होता है। प्रत्येक शाकाहारी भोजन, सात्विक भोजन नहीं होता है। केवल परमात्म-स्मृति में और मन में पवित्र भावनाओं के साथ शाकाहारी भोजन बनाने पर ही वह सात्विक भोजन बनता है। सात्विक भोजन उच्च ऊर्जा और पोषक तत्वों से युक्त शरीर के आन्तरिक अंगों का पोषण करने वाला तथा मन को आनन्दमय बनाने वाला होता है। यह हमारे तन और मन दोनों को स्वस्थ तथा हृष्ट-पुष्ट बनाता है। होटलों में मिलने वाला भोजन स्वादिष्ट और शाकाहारी तो हो सकता है परन्तु सात्विक नहीं हो सकता है। भाग-दौड़ भरी जीवन की रफ्तार के बीच में हमें अपने मन तथा निरोगी काया के लिए समय निकालना अति आवश्यक है। तभी इस जीवन का सार्थक उपयोग सम्भव है। वर्तमान भौतिकवादी युग में एक मिथ्या बात हमारे मन में प्रवेश कर गई है कि धन ही हमारे जीवन का अन्तिम साध्य है तथा धन से हम आराम और खुशी से जीवन व्यतीत कर सकते हैं। परन्तु इस बात को पूरी तरह से स्वीकार करने में संकोच नहीं होना चाहिए कि धन से केवल वस्तुओं और सुविधाओं को खरीदा जा सकता है नाकि शान्ति, खुशी और मानवीय संवेदनाओं को। इसलिए सात्विक आहार ग्रहण करके हम अपने इन मूलभूत गुणों को अभी ही अनुभव कर सकते हैं।
करें योग, रहें निरोग
वर्तमान समय में, मनुष्य अपने सपनों की उड़ान पर जिन्दगी का सफर तय करना चाहता है। सपनों को साकार करने के लिए वह अपनी सम्पूर्ण मानसिक शक्तियों को केन्द्रित कर अपने सपनों की दुनिया में ही खो जाता है। आज के युवा होते बच्चों और युवा पीढ़ी को अपने सपनों से किसी भी प्रकार का समझौता स्वीकार्य नहीं है। इसके लिए वे हर प्रकार की कीमत चुकाने के लिए तैयार रहते हैं। अपने स्वास्थ्य की उचित देखभाल और मानवीय संवेदनाओं का अपने जीवन में विकास करना, युवा पीढ़ी के चिन्तन से बाहर होता जा रहा है। जिसका दुष्परिणाम हमारी युवा पीढ़ी को भुगतना पड़ रहा है। विगत कुछ वर्षों में युवाओं में हार्ट-अटैक, मानसिक तनाव, अवसाद के कारण मृत्यु की घटनायें अधिक देखने को मिल रही हैं। कई अभिनेताओं की असामयिक मृत्यु ने जनमानस को झकझोर कर रख दिया है। आखिर जीवन का वह लक्ष्य भी किस काम का जिस जीवन यात्रा में शान्ति न हो।
जीवनकाल में लम्बे समय तक सक्रिय रहने के लिए, बाल्यकाल से ही तन और मन को स्वस्थ बनाने के लिए योग को अपनी दिनचर्या में शामिल करना बहुत ही आवश्यक है। नियमित रूप से योग करने तथा सात्विक भोजन करने से, विशेषकर मानसिक तनाव से उत्पन्न होने वाली असाध्य बीमारियों के कारण असामयिक मृत्युदर पर नियन्त्रण पाना सम्भव है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी एक रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा है कि अस्सी प्रतिशत स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या का कारण मनोदैहिक बीमारियां हैं। उदाहरण के लिए, मानसिक तनाव के कारण ब्लडप्रेशर की बीमारी प्रारम्भ होती है। बाद में इसके कारण शुगर तथा लीवर और किडनी के फेल होने की बीमारी मृत्यु का कारण बन जाती है। इसलिए निरोग रहने के लिए अपनी दिनचर्या में योग को सम्मिलित करना समय की मांग है। यह सत्य है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। जीवन में भावनात्मक रूप से उतार-चढ़ाव आने पर शरीर में अनेक प्रकार के हानिकारक हार्मोन्स उत्पन्न होते हैं। आधुनिक शोध से यह ज्ञात हुआ है कि असाध्य बीमारी कैन्सर की उत्पत्ति का एक कारण मानसिक आघात भी है।
योगः कर्मसु कौशलम्
भौतिक समृद्धि और उपलब्धियों के लिए जीवन में सक्रियता और कुशलता का होना आवश्यक है। घोर स्पर्धा के वर्तमान युग में थोड़ा भी आलस्य जीवन में आगे बढ़ने के अवसरों को छीन लेता है। जीवन में उन्नति के अवसरों के लिए कर्म में कुशलता और व्यवहार में सहजता अति आवश्यक है। आहार और दिनचर्या को व्यवस्थित करके ही वर्तमान के स्पर्धा युग में टिकना सम्भव है। स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही जीवन में भारी तबाही का कारण बन सकती है इसलिए कर्म में कुशलता आवश्यक है। गीता में स्पष्ट कहा गया है- योग से कर्म में कुशलता आती है।’ वर्तमान समय में मनुष्यों को कौशल विकास केन्द्रों में प्रशिक्षण देकर कार्यकुशल बनाने का प्रयास किया जा रहा है। परन्तु ट्रेनिंग से एक सीमित सीमा तक ही कर्म में कुशलता लाना सम्भव हो पाता है। इसलिए कर्म में असीमित कुशलता के लिए योग ही एकमात्र विकल्प है। राजयोग के अभ्यास से मन में अन्तर्निहित शक्तियों और चेतना के नये आयामों के विकास की नई सम्भावनाएं सदा बनी रहती हैं। इसलिए हाल ही के वर्षों में कारपोरेट सेक्टर, व्यापारिक संस्थानों और कारखानों में काम करने वाले लोगों में योग के प्रति आकर्षण देखा जा रहा है। योग को दिनचर्या में नियमित रूप से सम्मिलित करने पर तनावमुक्त होकर कुशलतापूर्वक अपने दायित्वों का निर्वहन करना सम्भव हो जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस पर ब्रह्माकुमारीज़ संस्था द्वारा राजयोग द्वारा जीवन में सकारात्मक मन की अनुभूति के लिए आयोजित विशेष योग कार्यक्रम में सम्मिलित होने के लिए ईश्वरीय निमंत्रण है। राजयोग का अभ्यास और स्वयं परमात्मा द्वारा दिया गया ईश्वरीय ज्ञान का नियमित अनुश्रवण आपके जीवन का कायाकल्प करने में समर्थ है। योग के प्रयोग और सात्विक आहार का तन और मन पर चमत्कारिक प्रभाव पड़ता है। राजयोग से जीवन में घटित हो रही तथा होने वाली घटनाओं का रहस्य स्पष्ट होने से जीवन सहज ही व्यर्थ चिन्तन और दुःखों से मुक्त हो जाता है। हमारे जीवन का नियन्ता कोई बाह्य शक्ति नहीं बल्कि हमारा मन ही है। राजयोग मन को सहज साधने का विज्ञान है।
इसलिए आइए, स्वयं के और मानवता के सुखमय भविष्य के लिए राजयोग को अपनी जीवनशैली में अपनाकर एक सशक्त और स्वर्णिम भारत के नवनिर्माण में अपना अमूल्य योगदान दें। सर्व मनुष्यात्माओं को अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर परमात्मा की ओर से ईश्वरीय संदेश है।