4 Easy Ways to Increase Will Power & Mind Control
Discover four simple ways to boost your willpower and control your mind. Learn to make firm decisions, avoid gossip, practice daily silence, and eat healthily. Start today for a more powerful you!
आज आप सबको हमारे भारत की एक अनोखी व अनसुनी कहानी बताने जा रहे है, जो आपने कभी सुनी नहीं होगी। हम सब जानते है कि भारत देश सब देशों से उत्तम है। भारत देश को सर्वोच्च ‘तीर्थ स्थल’ माना जाता है। भारत देश ‘देव भूमि’ कहलाता है। एक समय था जब भारत को ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था। लेकिन क्या हम जानते है कि भारत देश की इतनी महिमा क्यों है? भारत इतना उच्च क्यों है? दरअसल यह भारत देश स्वयं परमपिता परमात्मा की जन्मभूमि है, जहां परमात्मा अवतरित होकर अनेक धर्मों का विनाश कर, एक सतधर्म अथार्त “आदि सनातन देवी-देवता धर्म” की स्थापना करते है। वो कैसे, आज हम आपको बताते है…….
आज आपको भारत की 5000 साल की कहानी सुनाते है। एक समय था जब हमारा भारत देश सुख- समृद्धि से संपन्न था। चारों ओर खुशहाली और नि:स्वार्थ प्रेम का वातावरण था। ऐसा निःस्वार्थ प्रेम जो शेर व बकरी जैसे प्राणी भी इकट्ठे नदी पर जल पीते थे। आपस में किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं थी। यहां रहने वाले हर एक मनुष्य दैवी गुणों से संपन्न, संपूर्ण निर्विकारी व सोलह कला संपूर्ण थे। यहां रहने वाले मनुष्य देवी व देवता कहलाते थे, जिनकी आयु 150 वर्षं थी और 8 जन्म होते थे। इन देवताओं को ‘सूर्यवंशी ‘ कहा जाता था। इस युग की आयु 1250 वर्ष थी।
ये थी सतयुग की बात। लेकिन सृष्टि का नियम है कि कोई भी चीज़ सदा नयी नहीं रहती है, वह पुरानी ज़रूर होती है, चाहे मकान हो या दुनिया । हमारा भारत देश भी समय के साथ थोड़ा पुराना होता गया अथार्त सतयुग से आया त्रेता युग। इस युग में आत्माओं की 2 कला कम होकर 14 कला रह गई । उनकी आयु भी घटकर 100 वर्ष हो गयी। यहां 12 जन्म हुए और देवताएं सूर्यवंशी से चंद्रवंशी कहलाए। इस युग की आयु भी 1250 वर्ष थी ।
परन्तु ये दोनों ही युग अथाह सुख-शांति व समृद्धि से भरपूर थे, जहां 1% भी दु:ख या अशांति का नामो -निशान नहीं था। यहां रहने वाले हरेक मनुष्य देवी व देवता कहलाते थे। यहां दुःखी होना या रोना आदि नहीं था, क्योंकि यहां मृत्यु शब्द नहीं था और किसी भी प्रकार का विकार नहीं था। प्रत्येक को अपने स्व स्वरूप का अर्थात में एक आत्मा हुं – यह भान था । जब समय पूरा होता था, तब आत्मा आपेही एक शरीर छोड़ दूसरा शरीर ले लेती थी और उन्हें इसका पहले से ही साक्षात्कार भी हो जाता था। इन्हीं दो युगों को एक साथ ‘स्वर्ग’ कहा जाता था। हम सब जानते है कि सृष्टि में 4 युग होते है – सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग व कलियुग । ‘ इनमें से प्रत्येक युग की आयु समान है अर्थात 1250 वर्ष । जब सृष्टि का आधा समय अर्थात 2500 वर्ष पूर्ण हुआ, तब आया द्वापर युग। वैसे भी कहा जाता है कि ‘जीवन में आधा सुख होता है तो आधा दुःख होता है। ‘
जब द्वापर युग आया तब आत्मा की क्वालिटी और कम हो गई अर्थात आत्मा में 16 कला से घटकर 8 कला रह गए। में आत्मा हूं – यह भूल सभी अपने को देह समझने लगे, जिस कारण आत्मा के अंदर काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार रूपी पांच विकारों का प्रवेश हुआ। जो एक समय देवता थे, वे दैवी गुणों के अभाव के कारण अपने को साधारण मनुष्य कहलाने लगे। देह अभिमान के कारण वे विभिन्न दुःखों व रोगों से ग्रस्त होने लगे और तब सर्वप्रथम आत्माओं ने भगवान को याद किया, जो आत्माओं के परमपिता है।
कहते भी है कि ‘दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोई …’ पहले-पहले तो केवल शिव के मंदिर बने और शिव की ही पूजा की गयी, जिसे अव्यभिचारी भक्ति कहते है। किंतु बाद में वे अपने भी पूर्वज देवता स्वरूप के बड़े-बड़े मंदिर बनाकर पूजा करने लगे, फिर प्रकृति और मनुष्यों को भी पूजने लगे। इस तरह धीरे- धीरे भक्ति भी अव्यभिचारी से व्यभिचारी हो गयी।
भगवान की असली पहचान ना जानने के कारण सभी उन्हें भिन्न-भिन्न नाम व रूपों से पुकारते रहे और हमारा भारत जो एक धर्म पर टिका हुआ था, वो अनेक धर्मों में बंट गया। विश्व में जितने भी धर्मशास्त्र, उपनिषद्, बाइबल वा कुरान आदि है, सब इसी द्वापर युग में लिखे गए है तो अनेक धर्म होने के कारण आपस में भेदभाव शुरू हो गया और धीरे-धीरे हमारा भारत जो सुख-शांति सम्पन्न देश था, वो दुःख -अशांति की ओर बढ़ने लगा ।
द्वापर में 21 जन्म हए जिसम आयु और कम हो गयी। जितने- जितने जन्म बढ़ते गए उतनी -उतनी आयु घटती रही और फिर हम पहुंचे कलियुग में। कलियुग के शुरुआत में 2 कला तो थे, लेकिन जितना नीचे उतरते गए उतना वे दो कला भी समाप्त हो गए और शून्य कला रह गई। साथ ही इंसान के अंदर इंसानियत समाप्त हो गई। जो दैवी गुणों से संपन्न देवता थे, वे ही आसुरी अवगुणों के प्रवेश के कारण असुर जैसे बन गए। सृष्टि सतोप्रधान से तमोप्रधान हो गई । विश्व स्वर्ग से नर्क बन गया। इससे ये तो स्पष्ट होता है कि ये भारत ही स्वर्ग था और भारत ही नर्क बनता है|
ये थी हम भारतवासियों के 84 जन्म की कहानी, जो एक सीढ़ी की तरह है। हम नीचे ही उतरना पड़ता है। इसे फिर से उतरती कला से चढ़ती कला की ओर ले जाने के लिए और इस नर्क को फिर से स्वर्ग बनाने के लिए इस धरा पर फिर से भगवान को आना पड़ता है, जिसके लिए गाते हें कि:
यदा यदा हि धर्मस्य …… सम्भवामि संगमयुगे …।
(यहां संगमयुग लिखने का कारण आपको आगे बताएंगे….)
जैसे कि आपको पहले बताया कि इस पूरे सृष्टि चक्र की आयु 5000 वर्ष है। जैसे दिन के बाद रात आती है और रात के बाद दिन – ये चक्र फिरता ही रहता है, वैसे कलियुग के बाद फिर से सतयुग तो ज़रूर आना ही है। धरा पर सतयुग को पुनः लाने के लिए एवं मनुष्य को फिर से देवता बनाने के लिए भगवान इस धरा पर प्रजापिता ब्रह्मा के तन में अवतरित होते है। सतयुग शुरू होने के पहले जब कलियुग के अंतिम 100 वर्ष बचे होते है, तब भगवान आते है और इसलिए इस 100 वर्ष के समय को ‘संगमयुग’ कहा जाता है। भगवान कोई हर युग में नहीं आते, क्योंकि अगर हर युग में भगवान आते तो फिर कलियुग आता ही नहीं !
वे खुद आकर हमें अपना और हमारा परिचय देते है। वे आकर हम बताते है कि हम शरीर नहीं, एक चैतन्य ज्योति स्वरूप आत्मा है और में तुम सब आत्माओं का पिता, निराकार ज्योतिस्वरूप परमपिता परमात्मा हूं। मेरा नाम शिव है। जैसे मनुष्य का पिता मनुष्य होता है, वैसे में तुम आत्माओं का पिता एक आत्मा ही हुं। बस में जन्म और मरण के चक्र में नहीं आता और इस स्थूल जगत से बहत दूर परमधाम में रहता हुं, इसलिए मुझे परम आत्मा कहते हैं। मुझे तुम भक्ति में भिन्न-भिन्न नाम रूप से पुकारते आए हो, परन्तु वास्तव में मेरा रूप निराकार ज्योति स्वरूप है अथार्त शारीरिक कोई आकार नहीं है और शिवरात्रि का उत्सव भी परमात्मा के अवतरण का यादगार है।
अब हम सभी आत्माओं के पिता, हमें अपने साथ इस दुःख भरी दुनिया से वापस ले जाने आए है। सर्वप्रथम हम सभी आत्माएं परमात्मा के साथ अपने घर परमधाम अथवा शांतिधाम जाएंगे और वहां से पुनः इस धरती पर सतयुगी दुनिया में जन्म लेने नीचे आएंगे।
परमात्मा सिर्फ 100 वर्ष के लिए आए है, जिसमें से 87 वर्ष बीत चुके है, तो मेरे प्यारे भाई-बहनों, बाकी जितना भी समय शेष रहा है, उसमें आप भी आकर भगवान के प्यार व पालना का अनुभव कर और उनसे 21 जन्म का अपना वर्सा ले लें। अन्यथा ऐसा ना हो कि भगवान के जाने का समय आ जाए और अंत में पश्चाताप करना पड़े!
ऐसे मनायें शिवरात्रि का महापर्व
देवाधिदेव महादेव शिव की महिमा अनन्त है उनके कर्म दिव्य हैं और जन्म अलौकिक है। इसी दिव्यता और अलौकिकता के कारण ही उनसे जुड़े प्रसंग रहस्यमय बनकर किवदन्तियों में बदल गये हैं। जैसे कहा जाता है कि शिव को अखाद्य पदार्थ जैसे भांग- धतूरा इत्यादि प्रिय हैं, भूत-प्रेत इत्यादि उनके ‘गण’/साथी हैं, उनके गले में सर्प की माला सुशोभित है और वे हिमाच्छादित हिमालय में निवास करते हैं । इसी प्रकार के अन्य अनेक रोचक और रहस्यमय पौराणिक प्रसंग उनके जीवन से जुड़े हुए हैं। इसी पौराणिक रहस्यमयता के कारण ही शिवरात्रि का महात्म्य कर्मकाण्ड और वर्ष में केवल एक बार रस्म अदायगी के तौर पर जुड़कर रह गया है । आवश्यकता है शिवरात्रि से जुड़े हुए आध्यात्मिक रहस्य के सत्य उद्घाटन की, जिससे सच्ची शिवरात्रि को मनाकर अपने जीवन में ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ को समाहित करके इसे सफल बना सकें ।
शिव की पूजा ‘शिवलिंग’ रूपी पत्थर के रूप में की जाती है। शिवलिंग को ‘ज्योतिर्लिंग’ भी कहा जाता है। ‘द्वादश ज्योतिर्लिंग’ पूरे भारत में विख्यात हैं जिनका दर्शन और अर्चन करना प्रत्येक धर्मपरायण भारतीय की पुण्य आस होती है। ज्योतिर्लिंग, परमपिता परमात्मा शिव के अव्यक्त और अभौतिक स्वरूप की यादगार है। यह शिव के नई दुनिया की सृजनात्मक और अन्तर्निहित सृजनात्मक शक्ति का परिचायक है। शास्त्रीय दृष्टिकोण से शिव ‘कल्याणकारी स्वरूप’ का परिचायक है तथा लिंग ‘चिन्ह अथवा प्रतिमा’ को व्यक्त करता है। इस प्रकार शिवलिंग अर्थात् कल्याणकारी शिव परमात्मा की प्रतिमा। वैसे भी ज्योतिर्लिंग परमात्मा शिव के ज्योतिर्बिन्दु स्वरूप को ही व्यक्त करता है । प्रायः सभी धर्मों में परमात्मा के यथार्थ स्वरूप को ‘नूर’, ‘डिवाइन लाइट’, ‘ओंकार’ ही माना गया है। अतः शिव सभी मनुष्यात्माओं के परमपिता हैं ।
सच्ची शिवरात्रि
भारतीय धार्मिक परम्परा के अनुसार, शिवरात्रि का पर्व प्रतिवर्ष फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष के अमावस्या के एक दिन पूर्व मनाया जाता है। इसके बाद शुक्ल पक्ष का आरम्भ होता है तथा कुछ ही दिनों बाद नव संवत् अर्थात् नये वर्ष का प्रारम्भ होता है। शिव के साथ जुड़ी हुई ‘रात्रि’ का सामान्य अर्थ उस रात्रि से नहीं है, जो पृथ्वी के सूर्य के चारों ओर घूमने के कारण आती है, जिस प्रकार ‘शिव’ शब्द का आध्यात्मिक अर्थ ‘कल्याणकारी’ होता है, उसी प्रकार दार्शनिक दृष्टिकोण से रात्रि शब्द ‘अज्ञानता, पापाचार और बुराइयों’ का प्रतीक है। अतः शिवरात्रि अर्थात् घोर तमोप्रधान धर्मग्लानि के समय लोक कल्याणार्थ परमपिता परमात्मा शिव के अवतरण का यादगार पर्व। जब इस संसार में धर्म का स्थान कर्मकाण्ड, कर्म का स्थान आडम्बर ले लेता है। संसार में चारों ओर पापाचार, अनाचार और भ्रष्टाचार का ही पाप लोगों के सिर पर चढ़कर बोलने लगता है तो वही काल परमात्मा शिव के अवतरण का समय होता है । फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी आत्माओं के अज्ञान-अंधकार अथवा आसुरी गुणों की पराकाष्ठा का प्रतीक है इसके पश्चात् शुक्ल पक्ष परमात्मा शिव द्वारा ‘ईश्वरीय ज्ञान’ और ‘योग’ द्वारा पवित्र और सुख-शान्ति सम्पन्न नई सृष्टि के प्रारम्भ का प्रतीक है।
वर्तमान सृष्टि के कालखण्ड में तमोप्रधानता और अज्ञानता अपनी चरम सीमा के अन्तिम छोर पर पहुँच चुकी है। चारों ओर पाँच विकारों का हाहाकार एवं घमासान मचा हुआ है। धर्म सत्ता, कर्तव्य- विमुख हो चुकी है। राज सत्ता, पथ भ्रष्ट और कर्म – भ्रष्ट हो चुकी है एवं विज्ञान सत्ता, विनाश की ओर न रुकने वाले कदम बढ़ा चुकी है। चारों ओर अंधकार ही अंधकार है। दिन के प्रकाश में भी बुराइयों और अज्ञानता रूपी रात्रि का चारों ओर साम्राज्य छाया हुआ है। यही घोर अज्ञानता रूपी रात्रि में परमात्मा शिव के अवतरण का समय है। वर्तमान समय में परमपिता परमात्मा शिव अवतरित होकर अज्ञानता के विनाश और नई सतयुगी दुनिया की स्थापना का दिव्य कर्म कर रहे हैं।
बुराइयों, कुसंस्कारों एवं आसुरी प्रवृत्तियों को शिव पर चढ़ायें
शिवरात्रि के अवसर पर शिवलिंग पर बेल-पत्र, बेर, धतूरा इत्यादि खाद्य – अखाद्य पदार्थ चढ़ाये जाने का रस्म-रिवाज प्रचलित है । भक्तजन इस दिन शिव मन्दिरों में विशेष रूप से रात्रि जागरण करके शिव की आराधना करते हैं एवं अन्न-जल का व्रत रखते हैं। परन्तु परमात्मा शिव हम मनुष्यात्माओं पर केवल उपर्युक्त भौतिक वस्तुओं को चढ़ाने मात्र से ही प्रसन्न नहीं हो सकते। क्योंकि हजारों वर्षों से शिवरात्रि के दिन व्रत, उपवास और पूजन- अर्पण का क्रम तो होता ही आया है परन्तु फिर भी आज तक शिव प्रसन्न ही नहीं हुए?
इसका आध्यात्मिक यथार्थ रहस्य यह है कि वर्तमान संगमयुग पर मनुष्यात्माओं को पावन बनाने के लिए परमात्मा शिव काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, कुसंस्कार एवं आसुरी प्रवृत्तियों का दान ले रहे हैं। इन सूक्ष्म मनोविकारों को मानसिक रूप से परमात्मा शिव के सम्मुख अर्पण करके जीवन में पवित्रता और आत्मा को बुराइयों से बचाने का महाव्रत लेना है तभी हमारे जीवन में सुख-शान्ति एवं दिव्य गुणों की सच्ची धारणा हो सकती है एवं परमात्मा शिव से हम अपने पुरुषार्थ अनुसार जन्म- जन्मान्तर के लिए ईश्वरीय राज- भाग्य का अधिकार प्राप्त कर सकते हैं।
महाशिवरात्रि – धार्मिक एकता एवं सदभावना का त्योहार
भारत एक बहुआयामी सांस्कृतिक विरासत का अद्वितीय देश है । प्रत्येक धर्मों में मनाये जाने वाले त्योहार, धार्मिक परम्पराएं, रीति-रिवाज एवं जयन्तियां, मनुष्य को किसी न किसी रूप से आध्यात्मिक सत्ता से जोड़ती हैं। शायद इसी कारण से इस अति भौतिकवादी संस्कृति और भाग्यविधाता विज्ञान के युग में भी ईश्वर की सत्ता विविध रूपों में स्वीकार्य है । परन्तु कालान्तर में जब लोगों में श्रद्धा एवं स्नेह का क्षरण (कमी) होने लगती है तो इनमें निहित आध्यात्मिक सत्य का स्थान कर्मकाण्ड एवं अनौपचारिकता ले लेती हैं। यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि आज पर्व औपचारिकता को निभाने के लिए मनाएं जाते हैं । परन्तु आज के वैज्ञानिक युग में इन त्योहारों के पीछे छिपे आध्यात्मिक सत्य का उद्घाटन करने की आवश्यकता है जिससे इस संसार में व्याप्त अज्ञानता और तमोप्रधानता को दूर करके मनुष्य – सभ्यता को यथार्थ मार्ग दिखाया जा सके।
शिवलिंग परमात्मा की यादगार
विश्व के प्राय: सभी धर्मों के लोग परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास करते हैं। सभी मानते हैं कि परमात्मा एक है । परन्तु सबसे आश्चर्यजनक एवं विरोधाभासी तथ्य परमात्मा के सम्बन्ध में एक ही मुंह से अनेक बातें हैं। परमात्मा के सम्बन्ध में असत्य, भ्रामक और एकतरफा विचारों के कारण ही समाज में हिंसा, घृणा और वितृष्णा का जन्म हुआ। यह संसार भ्रम सागर बन गया । परन्तु इसके साथ ही सभी धर्मों में सर्वशक्तिमान परमात्मा के बारे में एक बात सर्वमान्य है । वह यह कि परमात्मा ज्योतिर्बिन्दु स्वरूप है। इस सम्बन्ध में केवल भाषा के स्तर पर ही मतभेद है, स्वरूप के सम्बन्ध में नहीं। भारत और भारत के बाहर देवालयों में स्थापित शिवलिंग परमात्मा के ज्योतिस्वरूप की यादगार हैं। शिवलिंग का आकार कोई मानवीय शरीर नहीं होता है। शिवलिंग पर बनी तीन लाईने तथा बीच में लाल बिन्दू का चिन्ह परमात्मा के दिव्य कर्तव्य तथा उनके दिव्य रूप का प्रतीक है। तीन लाईने अर्थात् ब्रह्मा द्वारा स्थापना, विष्णु द्वारा सृष्टि की पालना तथा शंकर द्वारा महाविनाश को रेखांकित करती है। इसके बीच में बने बिन्दू रूप अर्थात् इन देवों के भी देव परमात्मा शिव का रूप निराकार ज्योतिबिन्दू स्वरूप है। इसकी महिमा आदिकाल से लेकर अब तक सर्वाधिक मान्य और पूज्यनीय है ।
अतः शिवलिंग किसी एक विशेष धर्म के लिए आराध्य – प्रतीक नहीं, बल्कि परमात्मा तो सर्व मनुष्यात्माओं का चाहे वह किसी भी धर्म, वर्ण अथवा कर्म से सम्बन्धित हो, सभी का आराध्य है। परमात्मा के सम्बन्ध में विभिन्न धर्मों में प्रचलित ‘नूर’, ‘डिवाइन लाइट’, ‘ओंकार’ और ‘ज्योर्तिस्वरूप’ भाषा के स्तर पर ही भिन्न हैं । भाव अर्थात् स्वरूप के स्तर पर नहीं । अतः शिवलिंग अर्थात् सर्वात्माओं के कल्याणकारी ज्योर्तिबिन्दु स्वरूप परमात्मा’ शिव की प्रतिमा ।
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