मानव स्वभाव से ही स्वतंत्रता प्रेमी है। अतः वह जिस बात को बंधन समझता है, उससे छूटने का प्रयत्न करता है। परंतु ‘रक्षा बंधन’ को बहनें और भाई, त्यौहार अथवा उत्सव समझकर खुशी से मनाते हैं। यह एक न्यारा और प्यारा बंधन है।
बंधन दो प्रकार के होते हैं- एक ईश्वरीय और दूसरा सांसारिक अर्थात् कर्मों के बंधन। ईश्वरीय बंधन से मनुष्य को सुख मिलता है परंतु दूसरी प्रकार के बंधन से दु:ख की प्राप्ति होती है। रक्षा बंधन ईश्वरीय बंधन, आध्यात्मिक बंधन अथवा धार्मिक बंधन है परंतु आज लोगों ने इसे एक लौकिक रस्म ही बना दिया है। जैसे आध्यात्मिकता और धर्म-कर्म के क्षीण हो जाने के कारण संसार की वस्तुओं से अब सत् अथवा सार निकल गया है, वैसे ही आध्यात्मिकता को निकाल देने से इस त्यौहार से भी सार निकल गया है वरना यह त्योहार बहुत ही महत्वपूर्ण और उच्च कोटि का त्यौहार है।
बहनें, भाइयों से किस प्रकार की रक्षा चाहती हैं
भारत देश अपनी फिलासॉफी के लिए प्रसिद्ध है। इन त्यौहारों के पीछे भी एक बहुत बड़ी फिलासॉफी अथवा ज्ञान है। रक्षा बंधन के गूढ़ रहस्य को समझने के लिए पहले यह जानने की आवश्यकता है कि मनुष्य की सब प्रकार की रक्षा कैसे और किस द्वारा हो सकती है और बहनें अपने भाइयों से किस प्रकार की रक्षा चाहती हैं?
विचार करने पर आप इस निर्णय पर पहुँचेंगे कि प्रत्येक मनुष्य पाँच प्रकार की रक्षा चाहता है। तन की रक्षा, धर्म, सतीत्व अथवा पवित्रता की रक्षा, काल से, सांसारिक आपदाओं से और माया के विघ्नों से रक्षा। परंतु प्रश्न यह है कि क्या कोई भी मनुष्य इन पाँचों प्रकार की रक्षा करने में समर्थ है?
तन की रक्षा
तन की रक्षा के लिए मनुष्य अनेक कोशिशें करता है परंतु फिर भी अंत में उसे यही कहना पड़ता है कि जिसकी मौत आई हो उसे कोई नहीं बचा सकता अर्थात् ‘भावी टालने से नहीं टलती।’ इस सिद्धांत की पुष्टि के लिए अनेक वृत्तांत प्रसिद्ध हैं।
धर्म की, पवित्रता की अथवा सतीत्व की रक्षा
कई लोगों का कहना है कि मुसलमानों के शासन काल में बहनें, भाइयों को इसलिए रक्षा बंधन बाँधती थीं कि यदि मुसलमान उनके सतीत्व पर आक्रमण करे तो भाई उनकी रक्षा करें। परंतु मनुष्य सर्वसमर्थ तो है नहीं, न जाने कितनी बहनों-माताओं की लाज लुटी होगी। दुष्टों से पवित्रता की रक्षा भी वास्तव में सर्वसमर्थ परमपिता परमात्मा ही कर सकते हैं इसलिए आख्यान प्रसिद्ध है कि कौरवों की भरी सभा में जब द्रौपदी का चीर हरण होने लगा तो द्रौपदी ने भगवान ही को पुकारा था क्योंकि तब कोई भी मित्र या संबंधी उसकी रक्षा न कर सका था। इसलिए ऐसी आपदा के समय लोग भगवान ही को संबोधित करके कहते हैं- ‘हे प्रभु! हमारी लाज रखो, हमारे धर्म की रक्षा करो भगवन्!’ अतः निःसंदेह भगवान ही हैं जो माताओं-बहनों के ‘चीर बढ़ाते’ हैं अर्थात् उनके सतीत्व और धर्म की रक्षा करते हैं। इसी कारण दु:ख के समय मनुष्य के मुख से ये शब्द निकलते हैं-‘हे प्रभु, मुझे सहारा दो।’
काल के पंजे से रक्षा
मनुष्य तो स्वयं भी कालाधीन है। बड़े-बड़े योद्धाओं को भी आखिर काल खा जाता है। सिकन्दर का भी उदाहरण हमारे सामने है। उसने अनेकानेक सैनिकों को मारा और मरवाया परंतु स्वयं को काल से नहीं बचा सका। निश्चय ही काल के पंजे से छुड़ाने वाले भी एक परमात्मा ही हैं जिन्हें ‘कालों का काल’, ‘महाकाल’, ‘अमरनाथ’, ‘महा कालेश्वर’ अथवा ‘प्राणनाथ’ भी कहा जाता है। अतः काल से बचने के लिए मनुष्य मृत्युंजय का पाठ करते हैं अर्थात् परमात्मा शिव ही की शरण में जाने की कामना करते हैं। जनश्रुति है कि जिस मनुष्य ने अच्छे कर्म किए होते हैं, उसकी मृत्यु होने पर जब यमदूत आते हैं तो भगवान के पार्षद उन यमदूतों को भगा देते हैं।
वास्तव में, परमात्मा की रक्षा मिलने से ही मनुष्य यमदूतों से बच सकते हैं और मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। परमात्मा ही अजेय हैं और उन्हीं की महिमा में कहा जाता है कि ‘जाको राखे साइयाँ, मार सके न कोय। बाल न बाँका कर सके, चाहे सब जग बैरी होय।’
सांसारिक आपदाओं से रक्षा
सदा के लिए दु:खों अथवा संकटों से भी एक परमात्मा ही रक्षा दे सकते हैं, कोई भी मनुष्यात्मा यह कार्य नहीं कर सकती। परमात्मा को ही ‘संकट मोचन’, ‘दु:ख भंजन’ और ‘सुखदाता’ कहते हैं। परमात्मा ही काल और कंटक दूर करने वाले हैं। उन्हें ही ‘हरि’ अथवा ‘हरा’ अर्थात् ‘दु:ख एवं संकट हरने वाला’ तथा दु:खभंजक माना जाता है। प्रकृति तो उनकी दासी ही है।
माया के विघ्नों से रक्षा
माया के बंधन से भी परमात्मा ही छुड़ाते हैं, तभी तो मनुष्य परमात्मा को पुकार कर कहते हैं- ‘विषय-विकार मिटाओ, पाप हरो देवा।’ गज और ग्राह का जो प्रसंग प्रसिद्ध है, वह भी इसी रहस्य को स्पष्ट करता है कि जब ग्राह, गज को निगलने ही वाला था तो भगवान ही ने ऐसे समय उसकी रक्षा की। गज ने फूल तोड़कर अपनी सूंड ऊपर की तो भगवान ने यह देखकर कि वह पुष्प चढ़ा रहा है अर्थात् याद कर रहा है, उसकी रक्षा का संकल्प किया। वास्तव में आध्यात्मिक अर्थ में ज्ञानी मनुष्य ही गज है, माया ही एक ग्राह है, यह संसार एक सागर है और कमल रूपी पुष्प अलिप्त जीवन का सूचक है।
अतः आख्यान का भाव यह है कि माया के आघातों से भगवान ही ज्ञानवान मनुष्यों की रक्षा करते हैं। ज्ञान ही स्वदर्शन चक्र है जिससे माया का गला कट जाता है और परमात्मा ही सभी के रक्षक हैं। इसी कारण गीता में यह महावाक्य है कि साधुओं का भी परित्राण करने वाले परमात्मा ही हैं।