माँ दुर्गा की कहानी
महर्षि व्यास द्वारा रचित अनेक पुराणों में से एक पुराण है श्रीमद् देवीभागवत पुराण, जो माँ दुर्गा की उत्पत्ति और उसके कर्तव्यों की रोचक गाथा है। इसमें बताया गया है कि एक समय सृष्टि पर महिषासुर नाम का एक राक्षस
वैसे तो भारत के आध्यात्मिक जगत् में नारियों का स्थान लगभग शून्य है और पुरुष प्रधान आध्यात्मिक जगत् में तो नारी को ‘माया’ का पर्याय तक कहा गया है। समाज में नारियों को सामान्य सामाजिक अधिकारों से वंचित रखते हुए घर-आँगन की चारदीवारी में पर्दे के अन्दर सीमित रखते हुए अबला बना दिया गया है। पिताश्री ब्रह्मा के मार्गदर्शन में मातेश्वरी जगदम्बा ने जब आध्यात्म के पथ को चुना था तो उस समय यह बहुत ही साहसिक निर्णय था। मातेश्वरी जगदम्बा जी ने नारी जागरण की आध्यामिक क्रान्तिदूत बनकर नारियों के जीवनमुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर दिया। सदियों से नारियों के मानसिक बन्धनों की बेड़ियों को तोड़कर एक प्रकार से पुरुष प्रधान समाज की व्यवस्था को सीधे चुनौती दे दी। हंगामा तो होना ही था। रूढ़िवादी लोगों ने मातेश्वरी जी के मनोबल को तोड़ने के लिए ‘ओम मंडली’ संस्था के विरुद्ध धरना प्रदर्शन, हिंसात्मक विरोध से लेकर न्यायालय तक भारी विरोध किया। इन विरोधों के बीच मातेश्वरी जी परमात्म-शक्ति के निश्चय बल से अचल अटल रहीं। मातेश्वरी जी ने दृढ़ निश्चय और विवेकपूर्ण ज्ञान के अस्त्र-शस्त्र से विरोधियों पर विजय प्राप्त किया। सोना तपने के बाद ही उसकी शुद्धता प्रमाणित होती है। रुढ़िवादी समाज के विरोध से मातेश्वरी जी की आध्यात्मिक चेतना और अधिक प्रखर होती गई और अपने तप, त्याग और तपस्या के बल से समस्त नारी जगत् के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गईं।
मातेश्वरी जी के जीवन से प्रेरणा लेते हुए हज़ारों नारियां सृष्टि परिवर्तन के पथ पर चल पड़ी और श्वेत वस्त्रधारियों का यह कारवां निरन्तर वृद्धि को पाते हुए अपनी मंज़िल की ओर गतिमान है। वर्तमान समय में, लाखों ब्रह्माकुमारी बहनें मूल्यनिष्ठ समाज की पुनर्स्थापना के लिए निरन्तर सक्रियतापूर्वक समाज को एक नई दिशा दे रही हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में नारियों को जो सम्मान प्राप्त हो रहा है, वह मातेश्वरी जगदम्बा जी के अज्ञानता के विरुद्ध आध्यात्मिक चेतना के उत्कर्ष का फल है।
मातेश्वरी जगदम्बा जी के संपर्क में आने वाले मनुष्यात्माओं की चेतना ज्ञान के स्पर्श से सहज ही प्रदीप्त हो जाती थी। मातेश्वरी जी ने ‘ईश्वरीय आदेशों एवं निर्देशों’ को आत्मसात् करके आध्यात्म के शिखर को स्पर्श कर इस अद्भुत क्षमता को प्राप्त किया था। वे परमात्मा द्वारा मनुष्यात्माओं के कल्याण के लिए चलाई जाने वाली ‘ज्ञान मुरली’ को तुरंत स्पष्ट कर देती थीं।
ब्रह्माकुमारीज़ संस्था की स्थापना के प्रारंभिक दिनों में समाज के रूढ़िवादी लोगों द्वारा ईश्वरीय ज्ञान का भारी विरोध किया गया। यह ईश्वरीय ज्ञान एक नए आदि सनातन धर्म की पुनर्स्थापना के लिए था। आदि सनातन दैवी धर्म की पुनर्स्थापना का मूल आधार पवित्रता है, जो इस कलयुगी दुनिया की परंपरा से बिल्कुल ही अलग है। परमात्मा द्वारा पिताश्री ब्रह्मा के माध्यम से दिया जा रहा ईश्वरीय ज्ञान एक आध्यात्मिक क्रांति थी।
नई सतयुगी दुनिया के लिए तमोप्रधान बुद्धिवादी समाज द्वारा इस नए ज्ञान को स्वीकार करना अत्यंत असहज था। परंपरावादियों के द्वारा संस्था के ऊपर कोर्ट में मुकदमा भी किया गया। मातेश्वरी जगदम्बा जी ने कोर्ट में अपने ज्ञानयुक्त तर्कों को आध्यात्मिक शक्ति से रखकर जज को चमत्कृत कर दिया, जिससे संस्था के पक्ष में फैसला आया। मातेश्वरी जी आध्यात्म के पथ पर पहले स्वयं चल अन्य सभी के लिए उदाहरणमूर्त बनकर मार्गदर्शन करती थीं। वे पहले अपने जीवन के आध्यात्मिक अनुभवों से शिक्षा देकर लोगों का विश्वास अर्जित करती थीं, जिससे लोग इस नये ज्ञान का विरोध भूलकर इसे स्वीकार कर लेते थे। ब्रह्माकुमारीज़ संस्था की वैश्विक स्तर पर जो पहचान बनी है, उसकी नींव मातेश्वरी जगदम्बा ने अपने त्याग, तपस्या और सेवा से तैयार की थी। नारी शक्ति द्वारा संचालित और ब्रह्मचर्य की साधना पर टिकी हुई वर्तमान तमोप्रधान विश्व में शान्ति की राह दिखाने वाली ‘ब्रह्माकुमारीज़ संस्था’ सम्पूर्ण मानवता के लिए एक ईश्वरीय उपहार है। यहाँ के साप्ताहिक कोर्स में ईश्वरीय ज्ञान के गुह्य रहस्यों का सहज ढंग से इस प्रकार प्रस्तुतीकरण है कि मन में उठने वाले प्रश्नों का समाधान स्वतः हो जाता है।
परमात्मा द्वारा पिताश्री ब्रह्मा के माध्यम से दिए जा रहे ज्ञान की गुह्य रहस्यों को मातेश्वरी जगदम्बा जी ने अपनी दिव्य बुद्धि से सुस्पष्ट कर मनुष्यात्माओं के जीवनमुक्ति के मार्ग को सहज किया। ईश्वरीय ज्ञान में निहित आध्यात्मिक रहस्यों को स्पष्ट रूप से समझने के लिए पवित्र और दिव्य बुद्धि अति आवश्यक है। मातेश्वरी जी अपनी दिव्य बुद्धि के बल से ईश्वरीय ज्ञान को सुस्पष्ट ढंग से प्रस्तुत करती थीं, जिससे मनुष्यात्माओं को जीवन में ज्ञान को धारण करना सहज होता था। सबसे मुख्य बात यह थी कि मातेश्वरी जी ईश्वरीय ज्ञान और श्रीमत को अपने जीवन में पहले स्वयं धारण करती थीं, उसके बाद ही वह दूसरों को धारण करने के लिए कहती थीं।
मातेश्वरी जी का जीवन ईश्वरीय गुण और शक्तियों का आदर्श उदाहरण था। उनके व्यवहार, चाल-चलन और कर्म से दिव्य गुण और शक्तियां स्पष्ट रूप से झलकती थीं। उनके व्यक्तित्व में एक ऐसा दिव्य चुंबकीय आकर्षण था, जो संबंध-संपर्क में आने वाली मनुष्यात्माओं को सहज ही आकर्षित कर लेता था। उनका आभामंडल इतना तेजोमय था कि उनके व्यक्तित्व से देवियों की अनुभूति होती थी। इस प्रकार उन्होंने ज्ञान, गुण और शक्ति से यज्ञ की पालना कर संस्था को वैश्विक पटल पर पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
ज्ञान की सिद्धि प्राप्त करने के लिए माँ सरस्वती की स्तुति प्रायः हरेक साधक करता है। ज्ञान की प्रतिमूर्ति माँ सरस्वती की साधना कर प्राप्त हुए ज्ञान के आलोक से मन में फैला हुआ अज्ञानता का अंधकार सदाकाल के लिए दूर हो जाता है। ज्ञान की देवी मातेश्वरी जगदम्बा प्रारंभ में ‘ओम राधे’ के नाम से विख्यात थीं। उनका जन्म अविभाजित भारत के सिन्ध हैदराबाद में हुआ था। ‘ओम मंडली’ में पहली बार आते ही पिताश्री ब्रह्मा बाबा ने उनके विराट आध्यात्मिक व्यक्तित्व को पहचान लिया था और उन्हें यज्ञ में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंप दी थी। मातेश्वरी जी ने परमात्म-निश्चय पर अटल रहते व ‘श्रीमत’ का सदा पालन करते हुए अन्तिम श्वास तक परमात्मा के रचे गये बेहद यज्ञ के उत्तरदायित्वों का निर्वहन किया। योग-शक्ति के बल पर उन्होंने कैंसर जैसी भयानक कष्टदायी बीमारी होने के बावजूद आध्यात्मिक शक्तियों से सम्पूर्ण मानवता की सेवा को जारी रखा। मातेश्वरी जगदम्बा आध्यात्म के सर्वोच्च शिखर पर विराजमान थीं क्योंकि वे कैंसर जैसी असाध्य बीमारी की जानकारी होने पर तनिक भी विचलित नहीं हुईं। मुखमण्डल पर आध्यात्मिक तेज, हर्षितमुखता और वरदानी नेत्रों से अन्तिम श्वास तक ब्रह्मावत्सों की सेवा करती रहीं।
मातेश्वरी जगदम्बा जी इस धरा पर चैतन्य सरस्वती की अवतार थीं। उन्हें ‘दिव्य दृष्टि’ और ‘दिव्य बुद्धि’ का ईश्वरीय वरदान प्राप्त था, जिससे वे ज्ञान को शक्ति में परिवर्तित कर स्वयं और सम्पूर्ण मानवता का कल्याण करने में सिद्धहस्त थी। उनका आभामंडल इतना तेजोमय था कि उनके सम्पर्क में आने वाले ज्ञान के चात्रकों को उनकी भावना के अनुसार शक्तियों के दर्शन और साक्षात्कार होते थे। मातेश्वरी जगदम्बा जैसी महान विभूतियों का मानवता के कल्याण के लिए इस धरा पर आगमन कल्प में केवल एक बार ही होता है।
मातेश्वरी जगदम्बा का व्यक्तित्व अलौकिक और त्रिआयामी था। ज्ञान, योग और शक्ति के त्रिपुंज का उनके व्यक्तित्व में अद्भुत सामंजस्य था जो विरले लोगों में पाया जाता है। वे एक ही समय में ज्ञान के सर्वोच्च शिखर, योग की अतल गहराइयों एवं शक्ति की अनन्त सीमाओं को भेदकर तमोप्रधान वृत्तियों को सतोप्रधान वृत्तियों में परिवर्तित करने में समर्थ थीं। उनके सम्पर्क में आने वाले किसी भी उम्र के व्यक्ति को उनसे ‘मातृत्व शक्ति’ का अनुभव होता था। मातेश्वरी जी ने ‘यज्ञ माता’ बनकर मनुष्यात्माओं को अपने वरदानी वाणी और नेत्रों से जीवनमुक्ति प्रदान किया। आध्यात्मिक ज्ञान का वर्णन करना और योग पर चर्चा करना साधारण बात होती है परन्तु इनकी प्रत्यक्ष अनुभूति से चेतना का दिव्यीकरण करना महान बात होती है।
मातेश्वरी जगदम्बा ने ईश्वरीय श्रीमत का पूर्णतः पालन कर महानता के आध्यात्मिक शिखर को स्पर्श किया था। भारत विभाजन के बाद 1950 में माउंट आबू आने के बाद संस्था के पास साधनों का अभाव था। ऐसी विपरीत परिस्थिति में मातेश्वरी जी ने अपनी साधना की शक्ति से ब्रह्मावत्सों में आध्यात्मिक शक्तियों का संचार करके उन्हें सदा आगे बढ़ाया। वास्तव में, आध्यात्मिक जीवन में एक समय आता ही है, जब परिस्थितियों और समस्याओं के तूफानों से सामना होता ही है। उसके बाद ही जीवन में ‘ज्ञानोदय’ एवं ‘भाग्योदय’ होता है। पिताश्री ब्रह्मा बाबा के निर्देशन और मातेश्वरी जगदम्बा जी के प्रेरक मार्गदर्शन में ‘बेगरी पार्ट’ के दिनों में ब्रह्मावत्स स्वर्ण की भांति तपस्या में तप कर, और अधिक तेजोमय होकर इस संस्था को वैश्विक पहचान देने में सफल हुए। मातेश्वरी जी के देहावसान के बाद दादी प्रकाशमणि और मनमोहिनी दीदी ने मातेश्वरी जी के पदचिन्हों पर चलते हुए विश्व सेवा की गति को तीव्र किया। मातेश्वरी जी ने अपने आध्यात्मिक ज्ञान और शक्ति का बल भरकर त्रिमूर्ति दादियों- दादी प्रकाशमणि, दादी जानकी और दादी हृदयमोहिनी जी को विश्व परिवर्तन के कार्य को तीव्रता प्रदान करने के पहले ही तैयार कर दिया था।
मातेश्वरी जी अपने भौतिक काया से अनुपस्थित होते हुए भी सदा अपनी सूक्ष्म उपस्थिति से आज भी मार्गदर्शन करती है। वास्तव में, दिव्य व्यक्तित्व से सम्पन्न महान आत्माएं कभी मरती नहीं हैं बल्कि नश्वर शरीर के बन्धनों से मुक्त होने के बाद मानवता के कल्याण में उनकी भूमिका और अधिक प्रभावशाली हो जाती है। मातेश्वरी जी की सूक्ष्म और दिव्य उपस्थिति हम सभी को विश्व परिवर्तन के कार्य में अपना सर्वस्व त्याग करने के लिए प्रेरित करती है। ब्रह्माकुमारीज़ संस्था में विश्व सेवा के लिए अपने जीवन को समर्पित करने वाली ब्रह्माकुमारी बहनों के लिए मातेश्वरी जगदम्बा जी आदर्श मार्गदर्शक और प्रेरणा का स्रोत बनकर श्रेष्ठ कर्म करने के लिए सदा प्रेरित करती हैं। मातेश्वरी जी का व्यक्तित्व इतना विराट है कि उनके वरदानी बोल और व्यक्तित्व की स्मृति मात्र मनुष्यात्माओं की चेतना का दिव्यीकरण करके जीवन को आध्यात्मिक ऊर्जा से भर देती है।
मानवीय मूल्य जब आचरण में आते हैं तो प्रभावशाली बनकर मानवीय और सामाजिक व्यवस्था को कल्याणकारी बनाते हैं। मानवीय मूल्यों के अभाव में सामाजिक संस्थाएं और व्यवस्थाएं दुःख और अधर्म के रास्ते पर चल पड़ती हैं और यह दुनिया नर्क बन जाती है। मानवीय मूल्यों को व्यावहारिक जीवन में लाने के लिए सत्य आचरण करना आवश्यक है तभी मूल्यों से मानव-मन आलोकित होता है, अन्यथा मानवीय मूल्य वाणी तक ही सिमटकर रह जाते हैं। मातेश्वरी जी अपने व्यावहारिक जीवन में आध्यात्मिक और मानवीय मूल्यों को बहुत महत्व देती थीं। उनके चाल-चलन और कर्म-व्यवहार से मूल्य स्पष्ट रूप से झलकते थे। मातेश्वरी जगदम्बा और मानवीय मूल्य एक-दूसरे के पूरक बन गये थे। मातेश्वरी जी के मन में ब्रह्माकुमारीज़ संस्था के साकार संस्थापक पिताश्री ब्रह्मा के प्रति अपार स्नेह और सम्मान था। पिताश्री ब्रह्मा का दिया गया प्रत्येक आदेश मातेश्वरी जी के लिए ईश्वरीय आदेश था, जिसको पूरा करने के लिए वे सदा तत्पर रहती थीं। इस प्रकार मातेश्वरी जी ने अपने जीवन में उच्चादर्शों को धारण कर मूल्यों का विकास किया जिससे समाज को एक नई दिशा प्राप्त हो रही है।
ज्योतिबिंदु स्वरूप निराकार परमपिता परमात्मा शिव ने अपने साकार मानवीय माध्यम पिताश्री ब्रह्मा को इस धरा पर जिस नई दैवीय संस्कृति की पुनर्स्थापना के लिए निमित्त बनाया गया था, मातेश्वरी जगदम्बा जी उसकी ध्वजवाहक थीं। वे ईश्वरीय कार्ययोजना को पूरा करने के लिए मिलने वाली श्रीमत को सर्वप्रथम स्वयं जीवन में धारण करके अन्य ब्रह्मावत्सों तथा मनुष्यात्माओं तक पहुँचाने के लिए सदा तत्पर रहती थीं। मातेश्वरी जी, आजीवन योगियों के पाँच महाशत्रुओं- काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार की परछाई मात्र से भी सदा दूर रहीं। उनका जीवन दिव्य ईश्वरीय गुणों एवं शक्तियों का अद्वितीय उदाहरण था। आलस्य तो उनके जीवन में कहीं दिखाई भी नहीं देता था। प्रतिदिन 2 बजे उठकर राजयोग के अभ्यास से प्रारंभ होने वाली उनकी दिनचर्या रात्रि तक अति व्यस्त होती थी। परन्तु उनके चेहरे पर कहीं भी थकान का कभी लक्षण दिखाई नहीं दिया। अपने जीवन के अन्तिम श्वास तक मातेश्वरी जी ने अपने चाल-चलन, चेहरे और चरित्र से मानवता की सेवा और दिव्य कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए इस संसार को अलविदा कहा। यह मातेश्वरी जी के जीवन में आध्यात्मिक उत्कर्ष का प्रत्यक्ष प्रमाण है। मृत्यु के भय से प्रायः मनुष्य की चेतना विचलित हो जाती है परन्तु मातेश्वरी जी पग-पग मृत्यु की आहट सुनते हुए भी अपने जीवन के अंतिम क्षणों में सदा अभय रही। वे सच्ची मृत्युंजय थी। यह मातेश्वरी जी के उच्च आध्यामिक पुरुषार्थ की निशानी है।
24 जून, 1965 को मातेश्वरी जगदम्बा ने इस नश्वर देह, संस्कार और संसार की पुरानी स्मृतियों से अपनी चेतना को मुक्त कर नई दैवीय संस्कृति के संस्कारों में स्वयं को पूर्ण रूप से तिरोहित कर लिया था। उनके मन, वचन और कर्म से दैवीय संस्कृति की स्पष्ट झलक दिखाई देती थी। उनके सम्बन्ध-सम्पर्क में आने वाली मनुष्यात्माएं जीवनमुक्ति का अनुभव करते हुए इस धरा पर दैवीय संस्कृति की पुनर्स्थापना के लिए स्वयं को सर्वस्व समर्पण करती थीं। मातेश्वरी जी नई दैवीय संस्कृति की इस धरा पर पुनर्स्थापना की ध्वजवाहक थीं, जिनके स्मरणमात्र से ही मन पवित्र होकर दिव्य अनुभूतियों का अनुभव करने लगता है।
महर्षि व्यास द्वारा रचित अनेक पुराणों में से एक पुराण है श्रीमद् देवीभागवत पुराण, जो माँ दुर्गा की उत्पत्ति और उसके कर्तव्यों की रोचक गाथा है। इसमें बताया गया है कि एक समय सृष्टि पर महिषासुर नाम का एक राक्षस
हम हृदयंगम करते (दिल से कहते ) हैं कि भगवान हमारा साथी है। भगवान हमारा साथी बना, उसने कब, कैसे साथ दिया यह अनुभव सबको है। एक है सैद्धान्तिक ज्ञान कि अपने हाथ परमात्मा के हाथ में दो। उसके प्रति
आज किसान खेती के अवशेषों को जलाते हैं माना माँ धरती की चमड़ी को ही जला देते हैं। जिससे धरती के जीवन तत्व नष्टहोतेहैं तथा धरती की उर्वरक क्षमता भी नष्ट हो जाती है। मानव जीवन में मिट्टी का विशेष
हर वर्ष जन्माष्टमी पर श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव हमें न केवल उनकी लीलाओं का स्मरण कराता है, बल्कि उनके दिव्य गुणों और सोलह कला सम्पूर्णता की ओर भी हमारा ध्यान आकर्षित करता है। श्रीकृष्ण का सौंदर्य और उनकी पवित्रता हमें जीवन
ये वृतान्त सन् 1953 का है। तब इस ईश्वरीय विश्व विद्यालय का मुख्यालय भरतपुर के महाराजा की ‘बृजकोठी’ में स्थित था। यह कोठी आज भी माउण्ट आबू में, वर्तमान बस अड्डे से कोई डेढ़ फर्लांग आबू रोड़ की ओर है।
साकार ब्रह्मा बाबा के जीवन पर जब मन की नज़र डालते हैं तो पाते हैं कि उन्होंने हर पल, हर श्वास दूसरों को दिया ही दिया। जो भी उनके संपर्क में आया, उसे उन्होंने चन्दन-सम जीवन की सुगंध दी, उसको
प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय के साकार संस्थापक पिताश्री प्रजापिता ब्रह्मा के नाम से आज जन-जन भिज्ञ हो चुका है। सन् 1937 से सन् 1969 तक की 33 वर्ष की अवधि में तपस्यारत रह वे “संपूर्ण ब्रह्मा’ की उच्चतम स्थिति
महाशिवरात्रि विकारों पर विजय पाने का यादगार पर्व है महाशिवरात्रि, कल्याणकारी परमपिता परमात्मा शिव के द्वारा इस धर्म भ्रष्ट, कर्म भ्रष्ट, अज्ञान, अंधकारपूर्ण समय पर दिव्य अवतरण लेकर, विकारों के पंजे से सर्व आत्माओं को स्वतंत्र कराकर, ज्ञान की ज्योति
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