अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस 21 जून” पर विशेष लेख
इस विराट सृष्टि में अनेकानेक प्रकार के योग प्रचलित हैं। इन अनेक प्रकार के योगों की चर्चा सुन कर प्रायः लोगों के मन में प्रश्न उठता है कि इन सभी में से वास्तविक योग कौन-सा है? वे जानना चाहते हैं कि जिस योग द्वारा मनुष्य को मन की शान्ति मिलती है, वह प्रभु से मिलन मनाता है, अतुल आनन्द प्राप्त करता है तथा उसकी अवस्था अव्यक्त और स्थिति एकरस होती है, भला वह योग कौन-सा है? वे पूछते हैं कि जिस योग से विकर्म दग्ध होते हैं और मनुष्य भविष्य में मुक्ति और जीवनमुक्ति (देव-पद) प्राप्त कर सकता है तथा पवित्रता, दिव्यता और आत्मिक सुख की अथाह प्राप्ति कर सकता है, उस योग की क्या पहचान है? इन सभी प्रश्नों का एक सही उत्तर प्राप्त करने के लिए पहले ‘योग’ शब्द का सही अर्थ जानना जरूरी है।
‘योग’ शब्द का वास्तविक अर्थ
‘योग’ का अर्थ है- ‘जोड़ना’ (Connection) अथवा ‘मिलाप’ (Union)। आध्यात्मिक चर्चा में ‘योग’ शब्द का भावार्थ ‘आत्मा का परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ना’ अथवा ‘परमात्मा से मिलन मनाना’ है। कई ग्रंथकार कहते हैं ‘योग’ का अर्थ है ‘चित्त की वृत्तियों का निरोध’। वास्तव में चित्त को एकाग्र (Concentrate) करना योग का एक जरूरी अंग तो है किन्तु केवल वृत्ति-निरोध ही को ‘योग’ मानना ठीक नहीं है। वृत्तियों को रोक कर ‘परमात्मा में’ एकाग्र करना जरूरी है, तभी उसे ‘योग’ कहा जायेगा। यदि प्रभु से मिलन नहीं, उससे सम्बन्ध नहीं जोड़ा गया तो उसे ‘योग’ नहीं कहा जा सकता। एकाग्रता का अभ्यास तो वैज्ञानिकों तथा शोध कार्य (Research) करने वालों को भी होता है परन्तु उन्हें ‘योगी’ नहीं कह सकते। योग तो प्रभु में तल्लीनता अथवा तन्मयता का नाम है। यह तो ईश्वर की लग्न में मग्न होने का वाचक है। यह तो आत्मा और परमात्मा के मिलाप का परिचायक है।
प्रायः सभी प्रभु-प्रेमी लोग मानते हैं कि परमात्मा सभी आत्माओं का परमपिता है और ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव’ आदि शब्दों द्वारा वे इस पारलौकिक सम्बन्ध का गायन भी करते हैं। अतः प्रश्न उठता है कि जब आत्मा और परमात्मा के बीच पिता-पुत्र नाम का सम्बन्ध है ही तो फिर इसे ‘जोड़ने’ का क्या अर्थ है?
आत्मा का परमात्मा से सम्बन्ध अथवा मिलन
इसका उत्तर यह है कि आत्मा और परमात्मा के बीच का सम्बन्ध आज केवल कथन मात्र ही है, वह प्रैक्टिकल जीवन में बिल्कुल नहीं है। वरना, परमात्मा के साथ आत्मा के माता-पिता, सखा-स्वामी इत्यादि जिन सम्बन्धों का गायन है, वे तो बहुत ही गहरे, उच्च और नजदीकी सम्बन्ध हैं, उनका तो जीवन में बहुत गहरा अनुभव तथा प्रभाव भी होना चाहिए और उनके द्वारा कोई उच्च प्राप्ति भी होनी चाहिए। परन्तु हम देखते हैं कि आज मनुष्य के जीवन पर उन सम्बन्धों का कोई प्रभाव नहीं है और उन द्वारा होने वाली प्राप्ति अर्थात् पूर्ण सुख-शान्ति भी नहीं है। इसलिए हम कहते हैं कि परमात्मा के साथ मनुष्यात्मा का पिता-पुत्र का सम्बन्ध तो है परन्तु आज वह जुटा हुआ नहीं है। माना वह सम्बन्ध आज सिर्फ कहने मात्र तक रह गया है जैसा कि उस पुत्र का सम्बन्ध रह जाता है जो पिता से अलग होकर दूसरे देश चला जाता है और वहाँ वह न पिता को कभी स्नेह से याद करता है, न उससे पत्र-व्यवहार करता है, न उसकी दी हुई आज्ञाओं व कुल की मान-मर्यादा के अनुकूल चलता है परन्तु जब वलदियत (पिता का नामादि) बताने का कोई अवसर आता है तो वो केवल उनके नाम का उच्चारण अथवा उल्लेख मात्र कर देता है।
अतः ‘योग’ का अर्थ स्पष्ट जानने के लिए पहले यह जानना जरूरी है कि परमात्मा के साथ ‘सम्बन्ध’ जोड़ने का क्या अर्थ है और इसके लिए हमें क्या करना है? इस रहस्य को समझने के लिए हम लौकिक सम्बन्धों का सर्वेक्षण करके देखते हैं कि प्रैक्टिकल जीवन में सम्बन्ध जुटे होने का क्या-क्या भाव होता है?
प्रभु का परिचय प्राप्त कर, ‘ईश्वरीय स्मृति’ में स्थिति ही योग है
जब हम सांसारिक सम्बन्धों पर विचार करते हैं तो पता चलता है कि सम्बन्ध जुटाने का पहला साधन है-परिचय, पहचान तथा ज्ञान। बचपन में तो केवल माता-पिता के नाम-रूप ही का परिचय मिलता है परन्तु समझ बढ़ने पर वह बच्चा जब कभी अपने पिता के सन्मुख जाता है अथवा जब भी उसे अपने पिता की स्मृति आती है तो स्वयं को पुत्र अनुभव करता है। फिर, जैसे-जैसे बड़ा होता है, उसे अपने पिता के नाम और रूप के अतिरिक्त यह भी ज्ञान होता जाता है कि उसके पिता कौन-सा धन्धा करते हैं और किस देश अथवा नगर के निवासी हैं। समयान्तर में उसे यह भी परिचय मिल ही जाता है कि उसके पिता की पूंजी, सम्पत्ति अथवा आर्थिक और सामाजिक स्थिति क्या है, उनके क्या गुण है, उसका कौनसा कुल या धर्म है आदि-आदि। अतः उस समस्त परिचय और निश्चय के आधार पर, उसकी बुद्धि में अपने पिता की स्मृति (Consciousness) रहती है, तभी तो वह यह कोशिश करता है कि वह उतना ही खर्च करे जितना कि पिता की आर्थिक स्थिति से सम्भव है, वह वैसे कर्म करे जो उसके कुल और धर्म के अनुकूल हों, वह ऐसे रीति-रिवाज़ अपनाये जो उसके देश और वंश आदि के अनुसार हों।
अतः जैसे सांसारिक दृष्टिकोण से पिता-पुत्रादि का सम्बन्ध जुटने का पहला साधन परिचय (ज्ञान) में निश्चय (Faith) और निश्चय के आधार पर स्मृति (Consciousness) है, ठीक उसी प्रकार योग के लिये अथवा परमपिता परमात्मा से सम्बन्ध जुटाने लिए यह आवश्यक है कि सबसे पहले तो मनुष्य को परमात्मा के गुणवाचक नाम, ज्योतिर्मय रूप, परमधाम, ईश्वरीय गुण, दैवी सम्पत्ति आदि का यथार्थ परिचय हो, तब वह उसमें निश्चय (Faith) करे और उसके आधार पर वह परमात्मा की स्मृति (Consciousness) में रहे। उसी स्मृति में एकाग्रता की स्थिति ही योग है।
प्रभु के प्यार में एकाग्रता अथवा लग्न में मग्न होना ही योग है
पिता-पुत्र, पति-पत्नी, सखा-सखी, प्रेमी-प्रेमिका आदि के सम्बन्ध में हम देखते हैं कि उनका जितना घनिष्ठ और निकट का नाता होता है, उतना ही उनका एक-दूसरे के प्रति अगाध प्यार और स्नेह होता है। एक-दूसरे की याद उनके मन में ऐसी बस जाती है कि भुलाये नहीं भूलती। वे एक-दूसरे की लग्न में लगे रहते हैं। कोई व्यक्ति दफ्तर में काम करता है तो भी उसके मन में यह भान समाया रहता है कि “मैं बाल- बच्चों वाला मनुष्य हूँ, उन बच्चों के लिए तथा पत्नी के लिये मुझे यह धन्धा करके कुछ-न-कुछ तो कमाना ही है।” शाम को वह घर लौटता है तब भी यही सोचता है कि, “बच्चों के लिए अथवा पत्नी के लिए अमुक-अमुक वस्तु मुझे ले जानी है।” इसी प्रकार, कोई प्रेमी सोचता है कि मैं दफ्तर से छुट्टी पाऊँ तो जाकर प्रेमिका से मिलूँ। स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे सोचते हैं कि छुट्टी हो तो हम अपने माता-पिता, भाई-बहनों अथवा सखा-सखियों से मिलें।
परमपिता परमात्मा से सम्बन्ध जुटाने अथवा उनसे योग-युक्त होने का अर्थ भी मन को उनकी लग्न में मग्न करना अथवा बुद्धि को उनकी स्मृति में स्थित करना है। मनुष्य किसी की लग्न में जितना मग्न होता है, उतना ही उसे और सबकुछ फीका लगता है और अन्य सब तरफ से उसका मन उपराम होता है। अतः बुद्धि द्वारा परमपिता परमात्मा की स्मृति का रसपान करने में लगी हुई आत्मा ही वास्तव में योग-युक्त है।
परमपिता परमात्मा की श्रेष्ठ मत पर चलना ही योग है
जिस बालक का सम्बन्ध अपने पिता से जुटा होता है, वह पिता की मत पर चलता है। मत न लेकर मन-मानी करना तो यह सिद्ध करता है कि बालक को पिता का, सेवक को स्वामी का, शिक्षार्थी को शिक्षक का, पुरुषार्थी को मार्गदर्शक का जो सम्मान तथा स्नेह होना चाहिए, वह नहीं है अर्थात् शारीरिक सम्बन्ध भले ही हो, ‘हार्दिक’ अथवा ‘मानसिक’ सम्बन्ध नहीं है। अतः परमप्रिय परमपिता परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ने का भी भाव यह है कि हम उसकी श्रेष्ठ मत पर चलें। यही कारण है कि परमपिता परमात्मा न केवल ‘मनमनाभव’ ‘मामेव बुद्धि निवेश्य’… ‘मामेकं शरणं व्रज’ (अर्थात् मेरी स्मृति में स्थित होवो और मेरे प्रति अर्पणमय होवो) आदि का आदेश देते हैं बल्कि वे यह भी कहते हैं कि “तू मेरी मत के अनुसार चल, मैं तुझे ऐसी उत्तम मत दूँगा जिससे तू संसार सागर को लाँघ कर मुक्ति तथा जीवनमुक्ति को प्राप्त कर लेगा।” अतः योग-युक्त होने का अर्थ मनुष्य-मत या माया के मत पर न चलकर एक परमपिता परमात्मा की ही सर्वश्रेष्ठ मत पर चलना है।
परमपिता से वास्तविक योग तभी सम्भव है जब उनका अवतरण हो। योग का जो सरल और सत्य अर्थ हमने ऊपर बताया है, उससे स्पष्ट है कि यह योग तभी सम्भव है जब परमपिता परमात्मा अवतरित होकर अपने गुणवाचक नाम, ज्योतिर्मय रूप, परमधाम, ईश्वरीय गुण, दिव्य कर्म, स्वभाव, प्रभाव, सम्पत्ति आदि का सच्चा और सम्पूर्ण परिचय (ज्ञान) दें, उस परिचय का प्रैक्टिकल अनुभव करायें और अपनी श्रेष्ठ मत भी बतायें। जब तक परमपिता परमात्मा स्वयं अवतरित न हों तब तक मनुष्य को सत्य ज्ञान नहीं हो सकता और आत्मा का परमपिता परमात्मा से सही तथा प्रैक्टिकल सम्बन्ध तथा स्नेह भी नहीं जुट सकता और आत्मा को पूरा मार्ग-दर्शन या मत भी प्राप्त नहीं हो सकता। इसी कारण गीता के भगवान के महावाक्य हैं कि “हे वत्स, पहले भी यह योग मैंने सिखाया था, बाद में इसका प्रभाव तो रहा परन्तु समयान्तर में यह योग प्रायः लुप्त हो गया अतः अब पुनः मैं यह गुह्यतम और सर्वोत्तम योग तुम्हें सिखलाने के लिए अवतरित हुआ हूँ। इस योग के बारे में तू मेरे ही वचनों को सुन।” इसकी तुलना में अन्य सभी प्रकार के योग मनुष्य-कृत हैं और उन द्वारा केवल अल्पकाल ही के लिये स्वास्थ्य, सुख या शान्ति की प्राप्ति होती है।
अति सहज है यह योग
परमपिता द्वारा सिखाये गये उपरोक्त योग का अभ्यास करने के लिए मनुष्य को कोई आसन-प्राणायाम या हठ-क्रिया इत्यादि नहीं करनी पड़ती, न ही उसके लिए घरबार आदि छोड़ना पड़ता है बल्कि प्रवृत्ति में रहते हुए वह योग-युक्त होकर मुक्ति तथा जीवनमुक्ति की प्राप्ति कर सकता है।
इसी सर्वोत्तम योग के अन्य नाम
चूँकि यह योग परमपिता परमात्मा के तथा आत्मा के ज्ञान ही पर आधारित है इसलिए इसे ही ‘ज्ञान योग’ भी कहा जाता है। इस योग का अभ्यास करने वाला मनुष्य कर्म करते हुए भी इस ज्ञान के आधार पर परमपिता की स्मृति में रहता है इसलिए इसे ‘कर्मयोग’ भी कहा जाता है। इसी का एक नाम ‘संन्यास योग’ भी हो सकता है क्योंकि इसमें सफलता प्राप्त करने के लिए मनुष्य को काम, क्रोध आदि विकारों का संन्यास (त्याग) करना पड़ता है। ‘समत्व योग’ भी वास्तव में यही है क्योंकि इसका अभ्यास करने वाला मनुष्य हानि-लाभ, निन्दा-स्तुति, मान-अपमान आदि की परिस्थितियों में सम-चित्त अथवा एकरस रहने का पुरुषार्थ करता है। इस योग को ‘सहज-राजयोग’ भी कहा जाता है क्योंकि यह योग सभी योगों का राजा अर्थात् सबसे श्रेष्ठ है और इसका अभ्यास करने वाला मनुष्य भविष्य में 21 जन्मों के लिए स्वर्ग का राज्य-भाग्य प्राप्त करता है और यह इतना सहज भी है कि राजा जैसा जिम्मेदार व्यक्ति भी इसका अभ्यास कर सकता है। अतः स्पष्ट है कि सहज राजयोग, बुद्धि योग, ज्ञान योग, कर्म योग, संन्यास योग, समत्व योग, पुरुषोत्तम योग आदि सभी इसके ही नाम हैं।