अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस 21 जून” पर विशेष लेख
शारीरिक बीमारी से भी मानसिक बीमारी कई गुना बढ़कर हानिकारक है क्योंकि एक मानसिक बीमारी, अनेक शारीरिक बीमारियों का कारण बन जाती है। शरीर भले ही बीमार हो परन्तु मन अगर स्वस्थ है तो जीवन कठिन नहीं लगता। परन्तु जब मन बीमार हो जाता है तब शरीर की दुरुस्ती, धन-दौलत, सुविधाएँ सब कुछ रहते हुए भी जीवन निष्फल हो जाता है।
रोगों पर विजय पाकर भी सुखी क्यों नहीं?
प्लेग, कॉलरा (हैजा), मलेरिया, इनफ्लूएंजा (भारी नजला), रेबीस (रेबीज़), ट्यूबरकलोसिस (क्षयरोग) आदि महामारियों पर मनुष्य ने विजय हासिल कर दिखाई। इन रोगों पर विजय पाने के बाद मनुष्य को सदा सुखी रहना चाहिए था परन्तु विडम्बना है कि उसका दुःख, रोगों के उस जमाने के लोगों से भी ज्यादा बढ़ता जा रहा है, क्यों?
संस्कारों का संस्कार करने वाले हैं परमात्मा पिता
कारण स्पष्ट है। शारीरिक रोगों के कारण हैं कीटाणु, जो पंच महाभूतों से बने हैं। पंच महाभूतों से बनी दवाइयों से इन कीटाणुओं को नष्ट करके मनुष्य निरोगी बनने में सफल हुआ है। लेकिन मानसिक अशांति के मूल कारण पांच विकार हैं जो पंच महाभूतों से बने हुए नहीं हैं। कोई भी दवाई, केवल मस्तिष्क को शांत कर सकती है लेकिन अशांति का उद्गम स्थान मस्तिष्क नहीं, मन है जो आत्मा की एक शक्ति है। मन अशांत होता है काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष आदि नकारात्मक वृत्तियों से, जो संस्कार के रूप में आत्मा के अंदर हैं। कोई भी दवाई, आसुरी संस्कारों को नष्ट नहीं कर सकती। डॉक्टर भी जब रोगी की काउन्सलिंग करता है, तो कुछ हद तक मन तक पहुंच कर, मनोवृत्ति में थोड़ा-सा सुधार ला सकता है परन्तु गलत संस्कारों को भस्म नहीं कर सकता। आसुरी संस्कारों का नाश कोई भी मनुष्य मात्र नहीं कर सकता क्योंकि हर एक मनुष्य खुद भी संस्कारों से बंधा है। इनका नाश तो केवल वही कर सकता है जो विकारों के बंधन से मुक्त हो अर्थात् केवल परमपिता शिव परमात्मा ही हैं जो संस्कारों के बंधन से मनुष्य को छुड़ा सकते हैं।
मनोरोग चिकित्सा दो स्तरों में होती है। एक काउन्सलिंग (वार्तालाप या परामर्श) से मरीज़ को भ्रम से निकालकर वास्तविकता में ले आना। दूसरा, दवाई से बीमारी को नष्ट करना और जख्म भरना। भगवान शिवपिता की भी यही दो विधियाँ हैं। काउन्सलिंग अर्थात् ईश्वरीय ज्ञान और दवा (मेडिकेशन) अर्थात् सहज राजयोग।
काउन्सलिंग
परमपिता शिव केवल पांच मार्गदर्शक भागों के माध्यम से मनुष्य को इस हद तक मनोविकारों से मुक्त कर देते हैं कि वह व्यक्ति देवत्व को पद प्राप्त कर लेता है।
पहला मार्गदर्शन
सबसे पहले, एक दैत्याकार के भ्रम से हमें बाहर निकाल कर सत्यता की ओर ले जाते हुए शिवपिता कहते हैं- मीठे बच्चे! आप यह विनाशी शरीर नहीं बल्कि अविनाशी ज्योतिबिंदु आत्मा हो। आप आत्मा रथी हो और शरीर आपका रथ है। न किसी ऋषि-मुनि, न किसी साधु-संत, न किसी वैज्ञानिक या न ही किसी दार्शनिक ने आज तक यह कहा है कि मैं आत्मा हूँ और मेरा यह शरीर है। आत्मा और शरीर दोनों अलग-अलग हैं। यह उनको पता तो था लेकिन उन्होंने मेरी आत्मा कहकर, खुद को शरीर समझ लिया। मैं ही आत्मा हूँ, इस राज़ को वे जान नहीं पाए। मैं आत्मा हूँ और मेरा यह शरीर है, शिवपिता के ये महावाक्य सारे कल्प के सबसे बड़े क्रांतिकारी उच्चारण हैं। वर्तमान में इसी समझ के आधार पर, अगले आधे कल्प (सतयुग और त्रेतायुग) में देवताएँ देह अभिमान से मुक्त रहते हैं।
मैं आत्मा हूँ, यह महसूस होते ही जिज्ञासु यह अनुभव करता है कि कड़े से कड़ी जंजीर से छुटकारा पाकर मैं आसमान में उड़ रहा हूँ। मैं शरीर हूँ, इस गलत समझ से मनुष्य हजारों दुःखों का शिकार बन गया था। मैं लूला हूँ, लंगड़ा हूँ, अंधा हूँ, काला हूँ, पतला हूँ, मोटा हूँ, बौना हूँ, मेरा पेट बड़ा है, मेरे सर पर बाल नहीं हैं, मैं रोगी हूँ, मुझे बी.पी.-शुगर है, मैं मरने वाला हूँ ऐसे अनेक प्रकार के असत्य, जो मनोरोग के कारण बने थे, उनसे मुक्ति मिली और सत्य का सुंदर रूप सामने आया कि, मैं ज्योतिबिंदु आत्मा अजर- अमर-अविनाशी हूँ; ज्ञान, गुण और शक्तियों का स्वरूप हूँ। जैसे किसी को फांसी की सजा हो जाए और एक दिन न्यायाधीश अचानक उसको कह दे कि तुम निर्दोष साबित हुए हो, उस वक्त, उस व्यक्ति के आनंद और उत्साह को नापा जा सकता है क्या? यह जैसे कि उसको पुनर्जन्म मिल गया। ऐसे ही, जो इस राज़ को अनुभव कर लेता है कि मैं आत्मा हूँ, शरीर नहीं, वह देह अभिमान जनित अनेक प्रकार की मानसिक पीड़ाओं से मुक्त होकर अतींद्रिय सुख व शान्ति का भंडार बन जाता है। जीते जी पुनर्जन्म पा लेता है।
दूसरा मार्गदर्शन
काउंसलिंग के अगले कदम पर अपना परिचय देते हुए शिवपिता कहते हैं मैं परमात्मा शिव हूँ और तुम सब आत्माओं का परमपिता हूँ। मैं ज्ञान का सागर हूँ, सर्व गुणों का सिंधु हूँ और सर्वशक्तिवान भी हूँ। ज्ञान, गुण और शक्तियों का वर्सा आप बच्चों को देकर, घोर कलियुगी मानव से सतयुगी देवता बनाने के लिए मैं आया हूँ। ये केवल महावाक्य ही नहीं बल्कि हजारों हाथियों का बल भरने वाली शक्तिशाली खुराक है। क्योंकि मनोरोग को बढ़ाने वाला और एक मुख्य घटक है अनाथपन। उन्हें लगता है कि इस दुनिया में उनको अपना समझने वाला कोई नहीं है, उनसे सभी नफरत करते हैं। जीने की उम्मीद को खत्म करने वाले इस मनोभाव से आदमी डिप्रेशन का शिकार बन जाता है। अनाथपने से तंग होकर लोग जीवघात भी कर लेते हैं। लेकिन जब इस परमसत्य को जान लेते हैं कि परमात्मा शिव मेरे पिता हैं, वे मेरे लिए ही इस धरती पर अवतरित हुए हैं और मुझे इस दारूण अवस्था से उठाकर, श्रेष्ठ देवता बनाने की जिम्मेवारी उन्होंने ले ली है तब कमजोर व्यक्ति भी खुद को बलवान अनुभव करने लगता है। भगवान मेरा साथी है; इस बात का नशा और मैं देवता बनने वाला हूँ, इस बात का उमंग, उसे सर्व प्रकार की मनोव्याधियों से छुड़ा देते हैं।
तीसरा मार्गदर्शन
शिवपिता कहते हैं यह धरती एक बेहद का रंगमंच है। इस पर बना-बनाया सृष्टि नाटक चलता रहता है और पुनरावृत्त होता रहता है। वास्तव में, हम सब आत्माएँ परमधाम की निवासी हैं और आपस में भाई-भाई हैं। सृष्टि नाटक में भूमिका निभाने के लिए परमधाम से ही यहाँ आए हैं। यहाँ हर एक अभिनेता को अपनी-अपनी भूमिका मिली हुई है, “एक का पार्ट न मिले दूसरे से”। इस महावाक्य का राज़ हमें, तेरे-मेरे की कड़ी जंजीर, जो मन की बीमारी की जड़ है, से स्वतंत्र कर देता है। एक तो हम यहाँ के निवासी नहीं हैं बल्कि केवल अभिनेता हैं, हम सभी एक पिता के बच्चे आपस में भाई-भाई भी हैं, साथ- साथ सभी अपने को मिले हुए पार्ट अनुसार अभिनय कर रहे हैं, तो तेरा-मेरा रहा ही कहाँ? इस वास्तविकता का दर्शन, अशांति व उग्रता को मिटाकर, मन को शांत, शीतल और स्थिर बना देता है।
चौथा मार्गदर्शन
इसमें शिवपिता, सृष्टि का एक कायदा बताते हुए समझाते हैं कि मनुष्य के सुख और दुःख के कारण हैं कर्म। दैवी गुणों पर आधारित कर्म- सुकर्म और पांच विकारों अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार के वशीभूत होकर जो कर्म किए जाते हैं, वे हैं पापकर्म। हर आत्मा की वर्तमान की स्थिति-गति उसके भूतकाल के कर्म पर आधारित है। जैसी करनी वैसी भरनी। सुकर्म का फल है सुख, शांति, संपत्ति और पापकर्म का परिणाम है दुःख, अशांति व अभाव। मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है? लोग मेरे से गलत व्यवहार क्यों करते हैं? मुझे ही क्यों झेलना पड़ता है? ये तीनों प्रश्न, जो आज तक अनसुलझे थे और डिप्रेशन में जाने के दरवाजे बने खड़े थे, उनको शिवपिता ने कर्म का रहस्य समझाकर सुलझा दिया। इससे मैं दुःखी हूँ, उससे परेशान हूँ, नहीं। मेरे सुख और दुःख का कारण मैं ही हूँ, बाकी सब निर्दोष हैं। यह समझ ऐसे चमकती है जैसे कि बिजली चमकी। मन, प्रश्नचित्त के बदले प्रसन्नचित्त बन जाता है। फिर से उमंग- उत्साह खिलता है। औरों के लिए मन में प्रेम, दया उत्पन्न होते हैं और जीने के लिए एक नई राह मिलती है।
पाँचवा मार्गदर्शन
अंत में शिवपिता कहते हैं, यह ड्रामा कल्याणकारी है। इस ड्रामा का हर सेकेण्ड का दृश्य रचयिता शिवपिता को पसंद है। ‘जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है वह भी अच्छा और जो होगा वह और अच्छा होगा।’ इस शब्द के साथ शिवपिता काउंसलिंग को पूर्णविराम देते हैं। शिवपिता का यह आखिरी अख है जो दुःख-अशांति को क्षण में भस्म कर देता है। जब पूरा ड्रामा ही कल्याणकारी है और रचयिता को पसंद है तो दुःख का अस्तित्व ही कहाँ रहा?
जैसे ही काउंसलिंग पूरी होती है तो जिज्ञासु, केवल नए विचार नहीं बल्कि नया जन्म मिलने का अनुभव करते हैं। मैं कौन, मेरा कौन और मुझे क्या करना है? इन तीनों प्रश्नों का सरल, स्पष्ट और शक्तिशाली उत्तर मिलने के कारण व्यक्ति सर्व प्रकार की खिन्नता से बाहर निकल आता है।
दवा (मेडिकेशन)
चिकित्सा का दूसरा स्तर है दवा। ईश्वरीय ज्ञान से सत्य और असत्य स्पष्ट होने के कारण, दुःख-अशांति के भ्रम से तो हम बाहर आ गए। लेकिन अन्दर जमा जन्म-जन्मांतर के पाप कर्मों के संस्कार, मन व बुद्धि को फिर से पाप करने के लिए दुष्प्रेरित करते हैं। इन्हें सदाकाल के लिए नष्ट करने और साथ-साथ दैवी गुण व दैवी शक्तियों का आत्मा में वर्धन करने के लिए “दवा है सहज राजयोग”।
किसी भी चीज को शुद्ध या उसका नवीनीकरण करने के लिए विधि-विधानों का प्रयोग करना पड़ता है। जैसे कि धातुओं को शुद्ध करने के लिए आग में डालते हैं, बैटरी डिस्चार्ज होने पर उसको बिजली से जोड़ा जाता है, वैसे ही आत्मा के नवीनीकरण की विधि है: सहज राजयोग। इस विधि में मन व बुद्धि को परमात्मा से जोड़ा जाता है, जो सर्वगुणों के सागर और सर्व शक्तिवान हैं।
राजयोग की विधि
कई बार व्यक्ति, वस्तु या स्थान आँखों के सामने न होते हुए भी हम उनको आँखों के सामने ला सकते हैं। जैसे कि हम कहीं पेन भूल कर आ जाते हैं। जब उसकी याद आती है तब पेन सामने नहीं होते भी वह दिखता है। इसको कहते हैं बुद्धि के नेत्र से देखना या याद करना। इस बुद्धि रूपी नेत्र से खुद को ज्योतिबिंदु आत्मा समझकर, ज्योतिबिंदु परमात्मा को देखना, यह है सहज राजयोग की विधि। बुद्धि की तार से आत्मा और परमात्मा दोनों जोड़े जाते हैं। जैसे मरीज़ खुद को डॉक्टर के हवाले कर, अचल हो बैठता है तब ही डॉक्टर उसका सही तरीके से इलाज़ कर सकता है। वैसे ही, जब हम मन व बुद्धि को शिवपिता के हवाले करेंगे अर्थात् अचल होकर दिल से उनको याद करेंगे, तब पापकर्म का फल जो आत्मा में आसुरी संस्कार के रूप में भरा है और सारी मानसिक बीमारियों का कारण बना है, उसको शिवपिता अपनी शक्ति के प्रयोग से भस्म कर देते हैं। इससे आत्मा पवित्र बन जाती है। साथ-साथ अपने गुण व शक्तियों से आत्मा को इतना भरपूर भी कर देते हैं कि आधे कल्प तक किसी भी मानसिक कमजोरी को झेलना न पड़े। यहाँ बुद्धि की एकाग्रता को दीर्घ समय तक बनाकर रखना बहुत जरूरी है।