
महिला सशक्तिकरण का अनूठा कार्य
प्रकृति का शाश्वत नियम है रात के बाद दिन और दिन के बाद रात आने
जब महान दार्शनिक और शिक्षाविद् सुकरात ने लोगों को बौद्धिक रूप से शिक्षित करने के लिए अपनी संस्था ‘एकेडमी’ खोली होगी तो उनके मन में यह ख्याल भी नहीं रहा होगा कि एक दिन ये शिक्षण संस्थान सबसे अधिक आर्थिक लाभ देने वाले करमुक्त (टैक्स फ्री) उद्योग में बदल जाएंगे और शिक्षा व्यवसायिक गतिविधियों का केन्द्र बनकर रह जाएगी। परन्तु वर्तमान समय यह सब कुछ हो रहा है।
क्या शिक्षण संस्थाओं का मूल्य यही है कि वे डिग्री/सर्टिफिकेट देकर व्यक्ति को लिपिक (क्लर्क) बनाने या धन कमाने के लिए सड़क पर छोड़ दें? आखिर, विद्यालय के अतिरिक्त अन्य कोई स्थान है जहाँ एक बालक को बेहतर इंसान बनाने के लिए मानवीय मूल्यों की शिक्षा देने का प्रावधान हो ? विद्यालयों में शिक्षा के गिरते स्तर से सरकार और शिक्षाविद सभी चिन्तित तो दिखाई पड़ते हैं परन्तु मूल्य शिक्षा को लागू करने के प्रति संकोच का भाव क्यों है ? यह बात तो सभी स्वीकार करते हैं कि वर्तमान समय में विद्यालयों से शिक्षा प्राप्त करके निकलने वाले विद्यार्थियों में मानवीय मूल्यों जैसे शान्ति, सहनशीलता, प्रेम, सेवाभाव, सहयोग इत्यादि की निरन्तर कमी होती जा रही है। आज के शिक्षित बच्चों के कंधों पर ही कल के समाज का उत्तरदायित्व है। जब उनमें मानवीय मूल्यों एवं संवेदनाओं का अभाव रहेगा तो उनसे यह कैसे आशा की जा सकती है कि वे सामाजिक और पारिवारिक कर्त्तव्यों के प्रति निष्ठावान बनें? संवेदनशून्य व्यक्ति से कर्तव्य-बोध की आशा नहीं की जा सकती है।
समाज के बुद्धिजीवी लोगों को वर्तमान शिक्षा प्रणाली में मूल्यों को लागू करने के लिए सकारात्मक माहौल बनाने में आगे आना चाहिए। मीडिया और समाचार-पत्र भी मूल्यों को शिक्षा में लागू करने की आवश्यकता के प्रचार प्रसार में प्रभावशाली भूमिका निभा सकते हैं। उच्च शिक्षा के लिए पूरे देश में उत्तरदायी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग मूल्य शिक्षा के महत्व को बहुत पहले ही रेखांकित कर चुका है। इस संदर्भ में शिक्षा शास्त्रियों और सरकार में एक जैसी ही सहमति है परन्तु अब तक मूल्य शिक्षा को बच्चों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने के सम्बन्ध में सरकारें ठोस फैसला नहीं ले सकी हैं। वास्तव , वर्तमान समय राजनीति और राजनीतिज्ञ मूल्यों से भटकाव के दौर से गुजर रहे हैं जबकि शिक्षा का मानवीकरण करने के लिए लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है।
अगर भारत को विश्व गुरु जैसे सर्वोच्च शिखर पर प्रतिष्ठित करना है। तो मूल्य शिक्षा के बिना यह केवलदिवास्वप्न है क्योंकि कोई भी राष्ट्र केवल धन-दौलत और भौतिक संसाधनों के बल पर वैश्विक नेतृत्व नहीं कर सकता है। योग्य, चरित्रवान, कर्त्तव्यनिष्ठ और ईमानदार नागरिक ही किसी राष्ट्र के महान बनने की पटकथा की पृष्ठभूमि की रचना करते हैं और केवल मूल्य शिक्षा ही इस प्रकार के नागरिकों को तैयार करने में सक्षम है। वर्तमान समय शिक्षा में भौतिकवादी दर्शन के तत्व की प्रधानता हो गई है। विद्यार्थी, अभिभावक और शिक्षक, तीनों ही ज्ञानार्जन के बजाय धनार्जन से अधिक प्रभावित हैं। यदि विद्यार्थी को नौकरी नहीं मिलती है तो वह अपने जीवन को व्यर्थ मानकर कुण्ठा और हताशा के सागर में डूब जाता है। यदि वर्तमान शिक्षा प्रणाली से युवा पीढ़ी की ऐसी फौज तैयार हो रही है तो यह बहुत बड़ी राष्ट्रीय क्षति है। यहाँ यह समझना और समझाना आवश्यक है कि नौकरी न मिलने से शिक्षा और जीवन व्यर्थ नहीं हो जाते हैं। जीवन में यदि धन कमाना आवश्यक ही है तो अन्य कई तरीके भी हैं लेकिन जीवन की सार्थकता धन है कमाने से बहुत ऊँची है |
वर्तमान समय के पाठ्यक्रमों की प्राथमिकता देखकर तो यही लगता है कि यह संसार व्यापारिक केन्द्र है और मनुष्य उपभोक्ता से अधिक कुछ भी नहीं है और मनुष्य के जीवन का उद्देश्य वस्तुओं का उत्पादन और विपणन मात्र रह गया है। आधुनिक काल में बिजनेस स्कूल को अच्छी निगाहों से देखा जाता है और जो बिजनेस स्कूल वस्तुओं को बेचने वाले कुशल प्रबन्धकों को तैयार करता है, उसकी चर्चा चारों ओर होती है। लोग ऐसे स्कूल में प्रवेश के लिए लालायित रहते हैं तथा मुंहमांगी फीस देने में भी संकोच नहीं करते हैं। पुनः वही प्रश्न सोचने को मजबूर करता है कि क्या विद्यालयों की स्थापना मात्र वस्तुओं को खरीदने और बेचने की पढ़ाई करने के लिए है? फिर समाज को अच्छा बनाने वाले इंसान कहाँ से आएंगे? क्या मनुष्य का जीवन केवल धन-दौलत से सुखी हो सकेगा? आखिर हम मनुष्य के अन्दर श्रेष्ठ विचार, संस्कार और मूल्यों को जागृत करने के बारे में कब सोचना प्रारम्भ करेंगे? आज मनुष्य के जीवन में दुःख, चिन्ता, निराशा, हताशा की वृद्धि से संसार में हिंसा, आतंक, भ्रष्टाचार, अपराध बढ़ते जा रहे हैं। क्या यह संसार सुखमय जीवन के लिए सुरक्षित जगह रह गया है? यदि इसका उत्तर “नहीं” है तो तुरन्त ऐसी शिक्षा की पहल करने की आवश्यकता है जो समाज के लिए चरित्रवान और ईमानदार नागरिक तैयार कर सके। केवल वही शिक्षा इस प्रयास में सफल हो सकती है जो विद्यार्थियों को आत्म-अनुभूति कराकर उन्हें जीवन के व्यापक उद्देश्य से जोड़े। साथ ही विद्यार्थियों को यह भी समझा सके कि एक बेईमान प्रबन्धक और प्रशासक की तुलना में एक चरित्रवान प्रबन्धक और प्रशासक समाज के लिए महत्वपूर्ण है। यह आत्मभाव विद्यार्थियों में जागृत करना बहुत ही आवश्यक है तब ही वर्तमान संसार की अवस्था और व्यवस्था का सुधार सम्भव है ।
हम जिस प्रकार के शैक्षिक दर्शन के आधार पर विद्यार्थियों को शिक्षित करते हैं, उसी प्रकार के कल के समाज के कर्णधार तैयार होते हैं। समाज में फैले हिंसा, आतंक, भ्रष्टाचार आदि के लिए कोई दैवी सत्ता या समय दोषी नहीं है। सभी बुराइयों के लिए समय या व्यवस्था को दोषी ठहरा देना बहुत आसान होता है परन्तु समय की रचना कौन करता है? स्वयं मनुष्य या कोई ईश्वरीय सत्ता? अपने खाने-पीने, सोने, सोचने, रहने, करने इत्यादि क्रियाओं के लिए समय का निर्धारण मनुष्य स्वयं करता है। आवश्यकता उपर्युक्त क्रियाओं के चयन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है परन्तु कोई अदृश्य सत्ता इसमें हस्तक्षेप नहीं करती है। यदि समय अपराध के लिए दोषी होता तो एक ही समय सर्वत्र एक समान ही अपराध होते परन्तु ऐसा नहीं है। वास्तव में समाज या संसार की अवस्था और व्यवस्था मनुष्य के संकल्प और कर्म से संचालित होती है। जिस देश में, जिस प्रकार के मूल्यों का शिक्षा व्यवस्था में समावेशहोता है, उसी प्रकार का आचरण वहाँ के नागरिकों द्वारा किया जाता है। वर्तमान समय में इस विश्व में कई ऐसे देश हैं जहाँ हत्या जैसे अपराध होते ही नहीं हैं अथवा अत्यन्त नगण्य हैं। उदाहरण के तौर पर मॉरिशस देश में जेब कटने जैसी छोटी-मोटी घटनाएं मात्र होती हैं।
जिन देशों में धन कमाने और वस्तुओं के संग्रह और उपभोग की प्रवृत्ति से शिक्षा प्रणाली का दर्शन प्रभावित है, प्रायः उन देशों में धन, अपराध की मुख्य केन्द्रीय प्रवृत्ति बन गया है। इन देशों में मनुष्य के कर्म, व्यवहार और क्रियाएं व्यापार में बदल गए हैं। ऐसे समाज में हानि और लाभ पहले तय कर लिये जाते हैं और बाद में उसके अनुसार ही मानवीय सम्बन्धों की रूपरेखा तय की जाती है। ऐसे समाज में सलाह देने तक की कीमत वसूली जाती है। इसलिए बच्चों के लिए पाठ्यक्रम बनाते समय मानवीय मूल्यों का समावेश करना बहुत ही आवश्यक है अन्यथा आने वाले समय में घर हमारे लिए इस धरती पर शान्ति और सुकून की अनुभूति का सबसे सुरक्षित स्थान नहीं रह जाएगा। परिवार केवल आवश्यकताओं को पूरा करने वाले विनिमय केन्द्र बनकर रह जाएँगे। मूल्यों के पतन के कारण, आने वाले समय में वृद्ध लोगों के लिए घर, सेवा की जगह नहीं रह जाएगी और वृद्धाश्रम में शरण लेने के लिए उन्हें बाध्य होना पड़ेगा क्योंकि हम बच्चों को धन कमाने की मशीन बनाने के लिए उन्हें बचपन से ऐसी ही शिक्षा दे रहे हैं। जब हमें सेवा के लिए बच्चों की आवश्यकता पड़ेगी तो सेवाभाव की कमी के कारण वे समयाभाव का रोना रोएंगे और स्वयं सेवा न करके वृद्धाश्रम का रास्ता दिखा देंगे।
आखिर समाज की इस पतनशील व्यवस्था के लिए दोषी कौन? क्या बच्चे बच्चों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। कोई भी बालक जन्म से न तो अपराधी होता है और न ही वह किसी विशेष धर्म के अनुयायी के रूप में जन्म लेता है। इस संसार में उसे प्रदान की गई शिक्षा और उसके साथ किए गए प्रतिक्रियात्मक उम्र व्यवहार ही उसे अपराध की दुनिया की ओर धकेल देते हैं। जिस बच्चे के साथ यह समाज प्रेमपूर्ण व्यवहार करता है, तो यह मनोवैज्ञानिक रूप से पूर्णतः सत्य है कि वह अपराधी नहीं बन सकता है। इसी प्रकार माता-पिता द्वारा अपनाए गए धर्म की शिक्षा दिए जाने के कारण ही बालक उनके ही धर्म को स्वीकार कर लेता है। यह बात भी मनोवैज्ञानिक रूप से प्रमाणित हो चुकी है। यदि किसी बालक को जन्म के कुछ महीने बाद किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति के पास रख दिया जाए और 18 वर्ष बाद उसे उसके माता-पिता के धर्म के बारे में बताया जाए तो वह स्वीकार नहीं करेगा।
जीवन में मूल्यों को धारण करने के लिए आत्मिक शान्ति एवं शक्ति की आवश्यकता होती है । परन्तु इस सृष्टि रंगमंच पर लम्बे समय से कर्म, विशेषकर नकारात्मक कर्म करने से मनुष्य की आत्मिक शक्ति अत्यन्त कमजोर हो गई है। इस शक्ति के अभाव में ही क्रोध की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है । प्रेम और शान्ति आत्मा की शक्तियाँ हैं। इन शक्तियों से जीवन में मूल्यों को धारण करने की क्षमता उत्पन्न होती है और मनुष्य सत्कर्म करता है। यदि हम वास्तव में एक वर्गविहीन लोकतान्त्रिक समाज की रचना करना चाहते हैं तो मूल्य और अध्यात्म की शिक्षा अपरिहार्य है। कानून और दण्ड की, समाज की व्यवस्था को बनाए रखने और संचालित करने में भूमिका हो सकती है परन्तु मात्र कानून के द्वारा ही श्रेष्ठ नागरिकों का निर्माण नहीं किया जा सकता।
ईश्वरीय ज्ञान के आधार पर लोगों में व्याप्त अज्ञानता और देहअभिमान को परिवर्तन करके कालचक्र के नकारात्मक प्रवाह को सकारात्मक दिशा में मोड़कर, सतयुगी दुनिया की संकल्पना को साकार करना सम्भव है। यह वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित तथ्य है कि यदि किसीस्थान की जनसंख्या के एक प्रतिशत लोग किसी एक ही प्रकार के संकल्प में स्थित होते हैं तो उससे उत्पन्न प्रकम्पनों के शक्तिशाली प्रभाव से अन्य लोगों के विचार और व्यवहार में भी परिवर्तन आने लगता है। जब सत्कर्म करने वाले व्यक्ति एक ही स्थान पर एक सतयुगी समाज की नवरचना का संकल्प करते हैं तो वायुमण्डल में पवित्रता के प्रकम्पनों का प्रवाह शक्तिशाली होने लगता है । मनुष्य और प्रकृति के तत्वों के गुण-धर्म बदलने लगते हैं ।
मनुष्य का मन अत्यन्त संवेदनशील होता है और वह वातावरण से अत्यन्त सक्रिय रूप से प्रभावित होता है इसलिए यदि हम वास्तव में विद्यालयों के वातावरण को सकारात्मक बनाकर योग्य और चरित्रवान नागरिकों का निर्माण करना चाहते हैं तो इसका एकमात्र साधन है पाठ्यक्रम में मूल्य शिक्षा को लागू करना । यही समय की पुकार है और वर्तमान समाज की सर्व समस्याओं का समाधान भी है।
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