नैरोबी, अफ्रीका से ब्रह्माकुमारी ‘वेदान्ती बहन जी’ कहती हैं कि मैं पहली बार नवम्बर 1965 में दादी जानकी जी के साथ मधुबन आयी थी। हमारे ग्रुप में आठ लोग थे। नुमाशाम के समय हम सभी बाबा से मिलने कमरे में गये। हम सभी बाबा के सम्मुख बैठे थे और बाबा एक-एक को दृष्टि दे रहे थे। जब बाबा की दृष्टि मुझ आत्मा पर पड़ी तो मुझे ऐसे लगा कि बाबा की जगह गुलाब के फूलों का ढेर था जिसमें से प्रकाश ही प्रकाश आ रहा था। वह बहुत पॉवरफुल दृश्य था। उसके बाद बाबा एक-एक को वरदान दे रहे थे। जब मैं बाबा के सामने गयी तो मेरी लौकिक माँ भी साथ थी। बाबा के बोलने से पहले ही मेरी माँ ने बाबा से कहा कि बाबा, आप मेरी बच्ची को कहो कि शादी करे। यह शादी के लिए मना कर रही है।
हमारी माता जी तो भक्तिमार्ग के गुरु की नज़र से बाबा को देखकर बात कर रही थी। बाबा ने कहा, “माता, तुम अब तक भक्ति में भगवान को, पतित-पावन आओ, कहकर पुकारती थी और आज तुम्हारी बेटी पावन बनना चाहती है तो उसको क्यों पतित बनाना चाहती हो? तुम्हारी यह बेटी कभी भी पतित नहीं बनेगी। यह पावन रहकर विश्व की सेवा करेगी।” उस समय बाबा के मुख से ये वरदान भरे बोल निकले जो बाद में साकार हो गये।
जब मैं ज्ञान में आयी तब ज्ञान तो बहुत अच्छा लगता था लेकिन मैंने अन्दर ठान लिया था कि ब्रह्माकुमारियों की सफ़ेद पोशाक कभी नहीं पहनूंगी। यह बात मेरे मन में ही थी। मैंने कभी किसी को बतायी भी नहीं थी। मैं जब मधुबन में साकार बाबा से झोपड़ी में मिलने गयी तो बाबा ने अचानक सिलाई करने वाले को बुलाया और कहा कि बच्ची के लिए दो जोड़ी कपड़े सिलाई करके दो। मैं अन्दर ही अन्दर सोचने लगी कि ये कपड़े मिलेंगे तो रख दूँगी, कभी पहनूँगी नहीं। दो घण्टे के बाद बाबा ने बुलाया और सिलाई किये हुए कपड़े मुझे देकर कहा कि बच्ची, ये कपड़े ले जाओ और जल्दी पहनकर बाबा को दिखाओ। मैं आज्ञाकारी बनकर कमरे में गयी और पहनकर जब बाबा के सामने आयी तो बाबा देखकर कहने लगे, “बच्ची, तुम मम्मा की तरह दिखायी दे रही हो। ये कपड़े सदा पहनकर रखना।” उन्हीं कपड़ों में मैं अहमदाबाद गयी। यह घटना मुझे कभी नहीं भूल सकती। वाह बाबा वाह! कमाल है आपकी, जिन्होंने मुझे अपना बनाकर महान् बनने का रास्ता बता दिया।
मधुबन वरदान भूमि की मेरी पहली यात्रा के समय, मेरे मन में कई प्रश्न थे लेकिन प्यार भरी बाबा की पहली मुलाक़ात में ही सारे प्रश्न जैसे हवा में उड़ गये। मेरा लौकिक नाम ‘रंजन’ था। बाबा ने मुझे कहा कि बच्ची तूमने वेद, शास्त्र आदि का अभ्यास बहुत किया है तो बाबा तुम्हें वेदों का अन्त दे रहा है। वेदों का अन्त ‘भगवान’ अब तुम्हें मिल गया। तो तुम्हें बाबा वेद का अन्त जानने वाली ‘वेदान्ती’ कहकर बुलायेगा। इस प्रकार, मेरी नामकरण-विधि बाबा ने की। फिर बाबा ने पूछा, बच्ची, तुम बादल बनकर बरसोगी या ऐसे ही चली जाओगी अर्थात् क्या ज्ञान की सेवा करोगी? अब हमारा वापस घर जाने का समय आ गया। मैं वापस लौकिक घर गयी। लेकिन मेरा पढ़ाई में दिल नहीं लग रहा था। बाबा के वरदानों भरे बोल कानों में गूँज रहे थे। बार-बार वही दृश्य आँखों के सामने घूम रहा था। वही दिव्य अलौकिक बातें याद आ रही थीं। बस मन में यही संकल्प बार-बार आ रहा था कि अभी तो मुझे ईश्वरीय सेवा में लगना है। साथ-साथ शिव बाबा की याद भी बहुत आ रही थी। बहुत कशिश हो रही थी कि मैं उड़कर बाबा के पास चली जाऊँ। लौकिक पढ़ाई से भी जल्दी छूटने का मन कर रहा था कि बस अब समय को ईश्वरीय सेवा में सफल करना है। छह मास के अन्दर ही परिवार को समझा कर मैं ईश्वरीय सेवा में हाज़िर हो गयी। आज तक मुझे यह अनुभव हो रहा है कि बाबा के वरदानों ने ही मुझे जीने की सच्ची राह दिखायी, जिससे मेरा जीवन बहुत ही ऊँचा और श्रेष्ठ बन गया है।
बाबा के अन्दर ज्ञान से पालना करने की अद्भुत शक्ति थी। मैंने सच्चे माँ-बाप का प्यार क्या होता है वह बाबा से पाया। मेरे लिए आश्चर्य की बात यह थी कि मेरे मन में जो विचार चलते थे वे बाबा को पहले से ही मालूम हो जाते थे। मेरे जीवन का भविष्य भी बाबा की नज़रों में पहले से ही स्पष्ट था।
बाबा ने कहा, बच्ची, तुम नौकरी कर धन से सेवा कर सतयुग में साहूकार बनना चाहती हो परन्तु बाबा को तो तुम्हारा धन नहीं चाहिए। बाबा को तो तुम्हारे जैसी बच्ची चाहिए। बाबा ने कहा, लौकिक बन्धनों की बातें सुनाना माना बकरी की तरह बे-बे करना। अब शेरनी बनकर गर्जना करो। इस प्रकार, बाबा ने मुझे निर्बन्धन बना दिया और मैं समर्पित होकर सेवा करने लगी।
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