Bk sister batul anubhavgatha

बी के सिस्टर बतूल- अनुभवगाथा

सिस्टर बतूल का लौकिक जन्म तथा पढ़ाई तेहरान में हुई। जब आप उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए फ्राँस गयी, तब वहाँ सन् 1981 में ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त हुआ।

वर्तमान समय आप तेहरान में रहती हैं। लौकिक रीति से आप लोगों को इंग्लिश तथा फ्रेंच भाषा पढ़ाने की सेवा करती हैं और तेहरान के राजयोग मेडिटेशन केन्द्र की निर्देशिका भी हैं।

बाबा ने कहा, आप गोल्डन ट्रस्टी हो

मेरा जन्म तथा शुरुआत की पढ़ाई तेहरान में हुई। मुझे ईश्वरीय ज्ञान सन् 1981 में पेरिस में मिला। लौकिक में मैं सिया इस्लामिक धर्म की हैं लेकिन मस्जिद आदि में नहीं जाती थी। वैचारिक रूप से मैं कम्युनिस्ट थी। उच्च शिक्षा के लिए मैं फ्राँस गयी। मैं मानती थी कि जीवन में जो कुछ भी है, वह भौतिक है, भौतिक सुख-सन्तोष ही वास्तविक सुख-सन्तोष है। पेरिस में मैंने ऑप्टोमोलॉजी (नेत्रविज्ञान) में अध्ययन किया। उसके बाद मैं विश्वविद्यालय में पढ़ने लगी। वहाँ रहकर मैं फ्रेंच भाषा भी सीखने लगी।

उन दिनों ईरान में बहुत बड़ी क्रान्ति हुई। वहाँ के लोग शाह शासन के खिलाफ़ प्रदर्शन कर रहे थे। उसकी सत्ता बदलने की कोशिश कर रहे थे। सारे अधिकार उसके पास थे। कम्युनिस्ट विचार वालों का वहाँ जीना मुश्किल था, उनको अलग ही कर दिया गया था। वहाँ रहने के लिए इस्लामिक नियमों के अनुसार चलना पड़ता था। कम्युनिज़म (साम्यवाद) में विश्वास होने के कारण मैं फ्राँस गयी। उस समय मेरी उम्र 28 साल रही होगी। पेरिस आने के बाद लगातार पढ़ते रहने के कारण मैं कमज़ोर हो गयी, कमज़ोरी के कारण गुस्सा भी जल्दी आता था।

एक दिन मेरी सहेली ने कहा कि तुम बहुत थकी-थकी तथा अधीर रहती हो। इसलिए तुम राजयोग सेन्टर पर जाओ, उनका ज्ञान सुनो, राजयोग सीखो, वो तुमको मदद करेगा। उन दिनों मैं शारीरिक रूप से तथा मानसिक रूप से बहुत कमज़ोरी का अनुभव करती थी। मैं जीवन में बड़े-बड़े लक्ष्य रख उन्हें पाने की कोशिश में रहती थी। सब धर्मों की, सब सिद्धान्तों की पुस्तकें पढ़ने के बाद मुझे साम्यवाद अच्छा लगा था। जब मेरी सहेली ने राजयोग सीखने के लिए कहा तो फीस के लिए मेरे पास पैसे नहीं थे। उसने कहा, राजयोग सीखने के लिए फीस देने की आवश्यकता नहीं है, निःशुल्क है यह। फिर मैं सेन्टर पर गयी। ब्रह्माकुमारी बहन से एक के बाद एक पाठ सुना। ज्ञान सुनते-सुनते मेरे मन में बहुत से प्रश्न उठते थे जिनको मैं पूछा करती थी। सच में, उस बहन में बहुत ही सहनशक्ति थी। वह हँसते-हँसते, प्यार से मेरे सब प्रश्नों का उत्तर देती थी। बाहर की बहुत पुस्तकें पढ़ने के कारण, ईश्वरीय ज्ञान मुझे जल्दी समझ में नहीं आता था। जब वे कहते थे कि आत्मा भृकुटि के बीच में है तो मैं पूछती थी, वहाँ ही क्यों है? जब उन्होंने कहा कि आत्मा में एनर्जी है तो मैंने पूछा, इस सृष्टि में बहुत प्रकार की एनर्जी हैं, आत्मा में किस प्रकार की एनर्जी है? आप जो ज्ञान सुना रही हो इसका मूल दाता कौन है? वह कहाँ रहता है?

आध्यात्मिक ज्ञान समझने के लिए मुझे तीन बार कोर्स करना पड़ा। तीनों बार तीन अलग-अलग निमित्त बने कोर्स कराने के। तीसरी बार एक भाई ने कोर्स कराया जो भारत का था। कोर्स में जब सतयुग, स्वर्ग की बात आयी तो मैं उससे वाद-विवाद करने लगी। मुझे स्वर्ग-नरक में विश्वास नहीं था। मुझे शान्ति चाहिए थी। परमधाम की बातें अच्छी लगीं। फिर उस भाई ने कहा, कोई बात नहीं, आपको स्वर्ग नहीं चाहिए तो छोड़ दो, आपको शान्ति चाहिए ना, तो मेडिटेशन करो, आपको सब प्रश्नों के उत्तर मिल जायेंगे। यह ज्ञान मुझे बहुत पेचीदा लग रहा था, समझ में नहीं आता था, खास कर, तीन लोक, चक्र और आत्मा। मैं दिमाग से ही सुनती थी, न कि दिल से। क्योंकि मैंने पहले ही बताया है कि मैं कम्युनिस्ट तथा भौतिकवादी थी। 

जैसे-जैसे मेडिटेशन करती गयी, धीरे-धीरे शान्ति का, खुशी का, शक्ति का अनुभव होने लगा। सुनने से मुझे ज्ञान समझ में नहीं आता था, मेडिटेशन में आहिस्ता-आहिस्ता ज्ञान की समझ आने लगी। फिर मैं सेन्टर जाकर कहती थी कि आज यह अनुभव हुआ, वह अनुभव हुआ। फिर वे कहने लगे, आप रोज़ मेडिटेशन करते रहो और सेन्टर पर आते रहो।

जिस दिन मैंने पहली मुरली सुनी, मुझे उसके दो ही वाक्य समझ में आये। एक था, आप सदा सहनशील रहो। दूसरा था, स्वयं को रिस्पेक्ट (मान) दो। ये बातें सुनकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ क्योंकि मैं अपने आपको कभी रिस्पेक्ट नहीं देती थी। यह करना है, वह करना है, यह पढ़ना है, वह पढ़ना है इसी भागदौड़ में मुरली का हरेक शब्द मुझे नया तथा विचित्र लगता था। स्वर्ग, लक्ष्मी-नारायण, विश्व-महाराज तथा विश्व-महारानी इन शब्दों को मैंने कभी सुना ही नहीं था। धीरे-धीरे मुरली समझ में आने लगी। ज्ञान से ज़्यादा जिसने मुझे प्रभावित किया वो थी सेन्टर पर रहने वाले भाई-बहनों की सत्यता, ईमानदारी तथा हर्षितमुखता। मुझे इस ज्ञान में तुरन्त निश्चय नहीं हुआ परन्तु धीरे-धीरे जैसे-जैसे मुझे मेडिटेशन में शान्ति, खुशी और रूहानी प्यार के अनुभव होते गये, वैसे-वैसे निश्चय होता गया।

सन् 1992 में दादी जानकी जी पेरिस आयीं एक नये सेन्टर का उद्घाटन करने। तब तक मेरी पढ़ाई पूरी हो चुकी थी। वहाँ और ज़्यादा समय रहने की अनुमति नहीं थी। इसलिए मैं तेहरान जाना चाहती थी। दादी जानकी जी ने मुझसे कहा कि और एक साल यहाँ रहो और ईश्वरीय जीवन के सारे नियम-संयम जानो और अनुसरण करो, उसके बाद मधुबन आओ। वहाँ कुछ दिन रहो, मेरे से मिलो तब सोचेंगे, आपको तेहरान जाना है या नहीं। मैंने कहा, ठीक है। 

एक साल मैं पेरिस में रही और ब्राह्मण जीवन की सारी शिक्षाओं को जाना तथा फॉलो किया। ब्राह्मण जीवन को पूर्ण रीति से अपनाने में वहाँ के भाई-बहनों ने मुझे बहुत ही सहयोग दिया। सन् 1993, फरवरी में पहली बार मैं मधुबन आयी। वो क्षण मेरे लिए चिरस्मरणीय हैं। क्योंकि मैं मधुबन पहली बार आयी थी, फिर भी मुझे सारा मधुबन, मधुबन के सारे भाई-बहनें, दीदी-दादी सब जाने-पहचाने लगे। मुझे ऐसा नहीं लगा कि मैं अनजान स्थान पर, अनजान व्यक्तियों के पास आई हूँ। बाबा से मिलने आये हुए भारतीय भाई-बहनों के साथ भी मैं बहुत सहज रूप से मिक्स हो जाती थी। मुझे ऐसा लगता ही नहीं था कि वे परदेशी हैं या मैं परदेशी हूँ। ब्राह्मण भाई-बहनों से मिलकर मुझे बहुत खुशी होती थी। मधुबन आकर मैं बहुत खुश थी। मधुबन देखकर मुझे लगा कि इससे पहले भी मैं यहाँ रही हूं। उन दिनों मधुबन में 2-3 बहनें बीमार थीं तो मैंने उनकी सेवा की। सेवा करके मुझे बहुत खुशी मिली।

जब मैं मधुबन आयी थी तो मेरे पास ज़्यादा सफ़ेद कपड़े नहीं थे इसलिए मैंने दो जोड़ी कुर्ता-पायजामा लेने के लिए आबू के मार्केट में जाना चाहा लेकिन मुझे जाने के लिए मना किया गया क्योंकि उन दिनों हिन्दू मुस्लिम झगड़ा चल रहा था। फिर जयन्ती बहन ने मुझे साड़ी दी, उसको पहनने की विधि बतायी। मैं एक सप्ताह तक साड़ी ही पहनती रही। मुझे साड़ी पहनना अच्छा लगा, नया नहीं लगा। इस प्रकार, ब्राह्मण संस्कार मुझे सहज तथा स्वाभाविक लग रहे थे। जब बापदादा से मिली तो बाबा ने मुझे बहुत पॉवरफुल, प्यार भरी दृष्टि दी और टोली खिलायी। मैंने बाबा से बहुत शक्तिशाली रूहानी प्यार और आनन्द का अनुभव किया।

फिर मैंने दादी जानकी जी से तेहरान जाने की छुट्टी ली। मधुबन से पेरिस गयी और मार्च, 1993 में पेरिस से तेहरान गयी। मेरा जीवन तो पूर्णतः बदल गया था। मेरा यह अलौकिक जीवन देख प्रारम्भ में, न मेरे परिवार वालों ने सहयोग दिया, न स्नेही सहयोगियों ने परन्तु कुछ दिनों बाद, सुव्यवस्थित तथा अनुशासित जीवन देखकर उन्होंने मुझे सहयोग देना शुरू कर दिया। सब मुझे सम्मान की नज़र से देखने लगे। मुझ से उनको कोई तकलीफ़ नहीं थी, न कोई अड़चन, इसलिए सब मेरे से खुश रहने लगे। 

धीरे-धीरे अपने सब परिवार वालों को, रिश्तेदारों को मैंने यह ज्ञान दिया। उनको परमात्मा के बारे में यह अनुभव कराया कि परमात्मा कोई सज़ा देने वाला या हमारी बुराइयों को देखने वाला नहीं है। वह तो हमारा मालिक है, रक्षक है। वह प्यार का सागर है, दया का सागर है, ज्ञान का सागर है। जैसे माँ-बाप अपने बच्चों की भलाई ही सोचते हैं, ऐसे परमात्मा भी सदा हमारे कल्याण का ही सोचता रहता है, हमें मदद करने के लिए सदा तैयार रहता है। मैंने उनको समझाया कि परमात्मा कोई क्रोधी नहीं है, वह तो करुणा का सागर है, बेहद है, गुणों का भण्डार है, उसमें कोई कमी-कमज़ोरी नहीं है। वह एक ही निराकार है।

इन सभी बातों को उन्होंने बहुत अच्छी रीति से सुना और स्वीकार भी किया क्योंकि उनकी आवश्यकता तथा मान्यता के अनुरूप उनको ईश्वरीय ज्ञान सुनाया गया। धीरे-धीरे घर में और मोहल्ले में स्नेह का वातावरण तथा सम्बन्ध स्थापित हो गये। वहाँ के लोगों को ब्राह्मण जीवन पद्धति स्वीकार्य नहीं हुई क्योंकि वे मुस्लिम जीवन पद्धति के अलावा और किसी जीवन-पद्धति को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे लेकिन उनको ईश्वरीय ज्ञान तथा दैवीगुण बहुत अच्छे लगे। वे दैवी मूल्यों को अपने जीवन में लाने की कोशिश करने लगे। उनको मैंने मेडिटेशन भी सिखाया। वे मेरे साथ बैठकर मेडिटेशन भी करते थे। मेडिटेशन उनको अच्छा भी लगता था। वहाँ तीन-चार स्थानों पर जाकर मेडिटेशन कराती भी थी। अभी वहाँ 20 मातायें आती हैं। 

मैं वहाँ के पार्क में जाकर बैठती थी। वहाँ बैठी हुई औरतों से बात करते-करते उनको बाबा का ज्ञान देती थी। मैं उनके टेलीफोन नम्बर लेती थी, फिर उनसे समय लेकर उनके पास जाकर मेडिटेशन सिखाती थी। मधुबन से मैं बहुत-सी सौगात ले गयी थीं। उनके घर जाते समय फूल अथवा कोई न कोई सौगात लेकर जाती थी। शुरू-शुरू में सेवा करने वहाँ के रेलवे स्टेशन पर भी जाती थी, पारिवारिक उत्सवों में जाती थी। और इस्लामिक ज्ञान के आधार से ही में ईश्वरीय ज्ञान राजयोग सिखाती है। राजयोग में जो बताया जाता है, वह कुरान में भी है, उसका मैं उदाहरण देती हूँ। ईश्वरीय ज्ञान बहुत विचित्र ज्ञान है। कुछ बातें वे मानते हैं, कुछ को नहीं मानते हैं। मैं वहां का ही लौकिक ड्रेस पहनती हूं। ईश्वरीय ज्ञान पाने के बाद इस्लामिक कल्चर की भी मैं बहुत इज़्ज़त करने लगी। हमारा एक बड़ा मकान है, उसके नीचे वाला हिस्सा पूरा मुझे दिया गया है। उसमें मैं अकेली रहती हूँ। ऊपर की मंजिलों में माँ, बहन आदि रहते हैं। बाबा के कमरे में निराकार शिव बाबा तथा तीन लोकों का चित्र लगाया है। साकार बाबा का एक छोटा-सा फोटो अपने बेडरूम में रखा है। बाबा के कमरे में मेरी लौकिक माँ, बहन तथा भाई बादि जाते हैं बौर थोड़ा समय मेडिटेशन करते हैं। वे बहुत शान्ति का अनुभव करते हैं।

इस बार वहाँ एक माता के घर में हमने दीपावली उत्सव मनाया। मोमबत्तियाँ, केक, फूल, टोली लेकर गयी थी जिनको मैंने ही घर में बनाया था। मोमबत्तियां जलायी गयीं और हम सबने मिलकर उन पर मेडिटेशन किया। जिस माता के घर में इस उत्सव को मनाया गया था, वहाँ रोज़ शाम को मेडिटेशन चलता है। इस साल उसके घर में यह त्यौहार मनाकर उसका अर्थ समझाया गया। 

प्रश्नः सिस्टर, आप तो उनको डायरेक्ट ज्ञान नहीं बताती हैं, तो ज्ञान बिना वे लोग मेडिटेशन कैसे करते हैं?

उत्तरः पहले मैं, आत्मा का परिचय देती हूं कि कौन हूँ; परमात्मा के बारे में उनको हम सीधा नहीं बता सकते। यहाँ पर किसी देह तथा देहधारी के बारे में बता नहीं सकते। शिव बाबा का चित्र सामने रखकर बिन्दू पर एकाग्र करने के लिए कहती हूं। साथ में उनको आत्मा के परिचय में आत्मा के रूप तथा गुणों के बारे में बताया जाता है। इस प्रकार, शिव बाबा के चित्र पर हम सब मिलकर मेडिटेट करते हैं। बीस माताओं में से चार मातायें मधुबन आना चाहती हैं लेकिन कुछ पारिवारिक समस्याओं के कारण नहीं जा पा रही हैं। 

प्रश्नः ईरान में महिलाओं की स्थिति कैसी है?

उत्तरः अच्छी है लेकिन उनको कोई स्वतंत्रता नहीं है। वहाँ इस्लामिक नियमों का बडी सख्ती से अनुसरण करना पड़ता है। तभी समाज में, सरकार में अच्छे अवसर मिलते हैं, प्रगति के लिए सब सुविधायें मिलती हैं। वहाँ के सरकारी काम-काज में बहुत-सी इस्लामिक महिलायें कार्य करती है। युनिवर्सिटी में, प्रशासन में भी महिलाओं को अच्छे स्थान मिले हुए हैं। 

पेरिस से आने के बाद मुझे वहाँ के एक हॉस्पिटल में बहुत अच्छी नौकरी मिली थी। वहाँ रोगियों के उपचार के साथ-साथ में ईश्वरीय ज्ञान भी दे रही थी। तो वे मुझे वार्निंग देने लगे कि यहाँ ऐसा नहीं कर सकती। आखिर मुझे उस नौकरी को छोड़ना पड़ा। जो इस्लामिक नियमों का अनुसरण नहीं करते, उनके लिए वे कोई मदद या अच्छे अवसर नहीं देते।

प्रश्नः बापदादा से आपको कोई वरदान मिला है? 

उत्तरः हाँ, बाबा ने कहा, ‘आप गोल्डन ट्रस्टी हो’। 

प्रश्नः आप पुरुषार्थ कैसे करती हैं?

उत्तरः मैं हमेशा बाबा के साथ ईमानदार रहती हूं, सच्चाई-सफ़ाई से रहती हूँ। कोई भी सेवा हो, कोई भी बात हो, बाबा के कमरे में जाकर, बाबा से कहकर उनकी अनुमति लेती हूँ। बड़ों के साथ अच्छे सम्बन्ध रखती हूँ, उनके आदेशों का पालन करती हूँ। बाबा के साथ सच्चाई तथा सफ़ाई से रहना यह आत्मा में बहुत ताकत तथा हिम्मत भरता है। हमेशा मैं यही समझती हूं कि बाबा मेरा मार्गदर्शक है, मेरा साथी तथा सलाहकार है। बाबा मुझे बहुत मदद करता है। वहां कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ आती हैं कि क्या करें, कैसे करें समझ में नहीं आता। उस समय में बाबा के कमरे में जाकर बैठती हूँ तो बाबा बुद्धि को टच करता है, प्रेरणायें देता है। कोई भी समस्या आती है, तब बाबा मेरे सामने खड़े हो जाते हैं और कुछ न कुछ सलाह देते हैं।

शुरू-शुरू में सारे लौकिक रिश्तेदारों ने मुझे इनकार कर दिया तो बाबा ने मुझे माँ-बाप, भाई दोस्त, प्रियतम-गाइड सब सम्बन्धों का प्यार दिया, पालना दी तथा अथाह शक्ति भरी। इससे में वहां बहुत सेवा कर सकी। मुझे यह अच्छा अनुभव है कि बाबा के लिए ब्रह्मा भोजन बनाने से घर के वातावरण, मन के भावों पर बहुत ही अच्छा प्रभाव पड़ता है। भोजन अपने लिए बनाने के बदले, यह समझकर बनायें कि मैं बाबा के लिए ब्रह्मा भोजन बना रही हूं और बाबा को भोग लगाकर उसको स्वीकार करने से आत्मा में बहुत ही ताकत भरती है। यह मेरा प्रैक्टिकल अनुभव है। 

प्रश्नः आप की आजीविका का आधार क्या है?

उत्तरः मेरे लौकिक फादर की बहुत सम्पत्ति है। वे बहुत कुछ कमाकर गये हैं। इसके अलावा मेरे भाई भी देते हैं। मेरे साथ मेरी मां भी रहती है। हम दोनों आपस में मिलकर खर्च करते हैं। मैं वहां लोगों को इंग्लिश तथा फ्रेंच भाषा पढ़ाती हूँ। उससे भी मुझे कमाई होती है लेकिन मैं उनसे ज़्यादा पैसे नहीं लेती, नाम मात्र लेती हूँ क्योंकि इससे भी मुझे ईश्वरीय सेवा करने का चान्स मिलता है।

प्रश्नः आपने कहा कि में बाबा को सर्व सम्बन्धों से याद करती हूं परन्तु कौन-सा सम्बन्ध आपको अति प्रिय है?

उत्तरः सलाहकार और प्रियतम का। सेवाक्षेत्र में मुझे बड़ों के आदेशों की बहुत आवश्यकता होती है। इसलिए बाबा को एडवाइजर तथा गाइड के रूप में याद करना मुझे अच्छा लगता है। बाबा मुझे समय-समय पर एडवाइज़ भी देता है। तेहरान में सब यही समझते हैं कि मैं विवाहित हूँ, बच्चेदार हूं। क्योंकि मेरा व्यवहार देखकर वे समझते हैं कि यह माता है। मुझे भी खुशी होती है कि मेरा पति भी शिव बाबा है और मेरा बच्चा भी शिव बाबा है। यह भी मेरे लिए बहुत अच्छा है कि कोई मेरी तरफ आकर्षित नहीं होता। मेरा चेहरा भी ऐसा है कि लोग समझते हैं कि यह बहुत अनुभवी महिला है।

प्रश्नः अनेक सालों से आप राजयोग मेडिटेशन का अभ्यास करती आयी हैं, उसके आधार पर आप भारतवासियों को क्या कहना चाहती हैं? 

उत्तरः भारत में रहने वाले बहुत ही भाग्यशाली हैं। भारत में उनको आध्यात्मिक जीवन के बहुत-से मौके मिलते हैं। तेहरान में मैं अकेली हूँ, यहाँ ब्राह्मणों का संगठन नहीं है। जो भी मेडिटेशन करते हैं, अपने-अपने घरों में करते हैं और किसी न किसी के घर में आपस में मिलकर मेडिटेशन करते हैं। यहाँ आप बाबा के बच्चे, योगी ब्राह्मण आपस में मिलते हैं, खुशी मौज मनाते हैं, बाबा की सेवा करते हैं। मधुबन भारत में है जहाँ भगवान आता है। यह बहुत बड़ा भाग्य है भारतवासियों का कि भगवान भारत में ही आता है। आप इस ज्ञान में, योग में बहुत ही आगे बढ़ सकते हैं क्योंकि भारत का वातावरण ही आध्यात्मिकता का है। इसलिए आप समय को नष्ट मत कीजिये। प्यार के सागर परमात्मा यहाँ आये हुए हैं, उनसे खूब प्यार लूटिये। आप इस ईश्वरीय परिवार के रूहानी प्यार तथा सम्बन्ध का अनमोल लाभ पा सकते हैं। इसलिए आप तो बहुत ही भाग्यशाली हैं जो भारत में जन्मे हैं। मैं हर साल मधुबन जाती हूं। मुझे भारतवासियों से बहुत प्यार है। आप भाई-बहनों के निःस्वार्थ प्यार और सहयोग ने विदेश के हम भाई-बहनों को भगवान का प्रिय बनाया है, सारे विश्व को अपना बना दिया है। हम सब एक हैं, एक बाप के बच्चे भाई-बहने हैं – इस विशाल तथा सत्य सम्बन्ध को स्थापित कर दिया है। भारत के देवी परिवार से मैं बहुत ही प्रेरणा लेती हूँ। आपके प्यार और व्यवहार से ही हम रिफ्रेश होकर अपने-अपने देशों में उमंग-उत्साह से बाबा की सेवा करने में व्यस्त हो जाते हैं।

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