चण्डीगढ़ से ब्रह्माकुमार भ्राता ‘अमीर चन्द जी’ अपना अनुभव लिखते हैं कि सर्वप्रिय साकार बह्या बाबा से मेरी पहली मुलाकात पाण्डव भवन (मधुबन) में वर्ष 1959 के जून मास के पहले सप्ताह में हुई। उससे पहले मैं करनाल (हरियाणा) में सन् 1958 के अन्त में प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय के सम्पर्क में आया था। मुझे वहाँ की शिक्षाओं को समझकर तथा उन्हें अपने व्यवहारिक जीवन में अपनाकर यह दृढ़ निश्चय हो गया था कि यह ज्ञान स्वयं निराकार ज्योति स्वरूप परमात्मा शिव साकार प्रजापिता ब्रह्मा के तन का आधार लेकर इस नरकमय सृष्टि को पुनः श्रेष्ठाचारी तथा सतयुगी बनाने के लिए दे रहे हैं। अतः इस धरा पर पुनः शीघ्र सतयुगी पावन सृष्टि का निर्माण होगा। यह दृढ़ विश्वास हो जाने पर साकार बाबा को सन्मुख मिलने की चाहना बहुत बढ़ गयी थी परन्तु उन दिनों वर्ष में एक या दो बार ही बहनें मधुबन आती थीं इसलिए मुझे तीन-चार मास तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। पत्रों के माध्यम से तो मैं साकार बाबा से अपने दिल की लेन- देन करता रहा।
जब मैं मधुबन के लिए अपने सेवा-स्थान से चला तो मन की स्थिति बहुत ही विचित्र थी। यात्रा के दौरान यही तड़प थी कि कब वह सुहावनी घड़ी आये, जब मैं बाबा के सन्मुख पहुँचूँ। आखिर वह घड़ी भी आ गयी। मधुबन में प्रवेश करते ही असीम शान्ति का सुखद अनुभव होने लगा। उन दिनों का मधुबन बहुत छोटा-सा भवन था। स्नान आदि करके हम सभी प्यारे बाबा के कमरे की ओर बढ़े। कमरे में प्रवेश करते ही हमने देखा कि बाबा दो-तीन बहन-भाइयों से मुलाक़ात कर रहे थे। स्नेह का सागर उमड़ रहा था। बहन-भाइयों के नयनों में तो स्नेह की धारा बह रही थी, बाबा के नयन भी गीले दिखायी दिये। हम उनके पीछे बैठ गये। उनसे मिलने के बाद जब बाबा की दृष्टि हम बच्चों पर पड़ी तो मुझे लगा कि मेरे शरीर में एक बहुत शक्तिशाली करंट का प्रवाह बहने लगा है। शक्तिशाली अनुभूति कराने के बाद बाबा के नयनों से असीम स्नेह का आभास होने लगा। कानों में जैसे कोई बहुत धीरे से, मधुरता से कह रहा हो-’मीठे बच्चे, आराम से पहुँच गये? आओ बच्चे! आओ बच्चे!!’ ऐसे लगा जैसेकि अनेक जन्मों की प्रभु-मिलन की प्यास तृप्त हो रही हो। पल बीतते जा रहे थे परन्तु मेरे लिए स्वयं को रोकना कठिन होता जा रहा था। मुझे पता ही नहीं चला कि मैं अपने स्थान से कब उठा और बाबा की गोद में समा गया। स्नेह और शक्ति का अद्भुत मिश्रण था। बाबा का शरीर अति कोमल लेकिन उसके चारों ओर लाइट ही लाइट दिखायी पड़ रही थी। देह का भान समाप्त हो गया था। कुछ समय के बाद बाबा ने बहुत ही दुलार से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए मुझे सचेत किया। नयन गीले, शरीर हल्का, आत्मा आत्म-विश्वास रूपी शक्ति से ओत-प्रोत थी।
पहली बार मुझे 6-7 दिन बाबा के संग मधुबन में रहने का सुअवसर मिला। बहुत ही छोटा परिवार था। सारा दिन मम्मा-बाबा के संग ही बीतता था। कई बार भोजन भी बाबा के साथ करते थे। मुरली के समय भी सदा बाबा के सामने और समीप बैठने से ऐसा लगता जैसेकि मुरली चलाते समय बाबा मुझे ही देख रहा हैं। रात्रि को सोने के समय भी बाबा के कमरे के साथ ही हमारा कमरा होने के कारण एक छोटे-से परिवार की भासना आती थी। आखिर लौटने का समय आ गया। मन की स्थिति बदलने लगी, मन लौटने को तैयार नहीं था। ईश्वरीय सुखों को त्याग कर कौन पुरानी दुनिया में जाना चाहेगा? बहुत ही कठिनाई से मन को समझाते, अश्रुधारा बहाते बाबा से तथा मधुबन से विदाई ले आबू रोड रेलवे स्टेशन पर आ पहुँचे। मन उदास था। प्लेटफार्म पर बैठे-बैठे ही प्यारे बाबा को एक पत्र लिखा, “मीठे बाबा, मुझे ऐसा लग रहा है जैसेकि एक फूल अपनी डाली से दूर हो गया हो। आप से अलग होकर मेरी शक्ति क्षीण होती दिखायी देती है, मन उदास है…”। अपने सेवा-स्थान पर लौटने के कुछ ही दिनों के बाद बाबा का पत्र आ गया। बहुत प्यार से बाबा ने लिखा, “नूरे रतन अमीरचन्द बच्चे का पत्र पाया। यह फूल डाली से नहीं टूटा है, इस फूल को अपनी खुशबू फैलाने की सेवा अर्थ भेजा गया है। बाप का घर सो आपका घर है, जब चाहो आ सकते हो…”। प्यारे बाबा के ये शब्द मेरे लिए आज भी वरदान साबित हो रहे हैं। मुझे आज भी यही आभास होता है कि मधुबन मेरा घर है और मैं हर मास वहाँ सेवा के निमित्त जाता हूँ और 15-20 दिन के बाद पुनः लौट आता हूँ। मेरा कार्य खुशबू फैलाना है, अन्य आत्माओं को पुनः दिव्यगुण सम्पन्न बनाना है, यह सदा स्मृति में रहता है। इस आयु में भी मधुबन इतना आना-जाना अति सहज और सुखद अनुभव होता है। मधुबन में बाबा के कमरे में जाते ही वही स्मृतियाँ आने लगती हैं। बाबा की आवाज़ कानों में धीमे-धीमे यही बार-बार कहती है, ‘आओ बच्चे ! आओ बच्चे !! मीठे बच्चे, आराम से पहुँच गये?’
साकार बाबा का व्यक्तित्व अति प्रभावशाली और अति स्नेही था। समीप आने से अपनेपन की भासना आती थी। जब मैं पहली बार मधुबन आया था तब मेरी आयु 19-20 वर्ष की थी। एक दिन प्यारे बाबा ने मेरा हाथ पकड़ा और अपने साथ ले चले। पाण्डव भवन के प्रत्येक कमरे में लेकर गये और बताया कि यह स्टोर है, यह भण्डारा है। स्टोर में भी क्या रखा है, बाबा दिखा भी रहे थे और सुना भी रहे थे। उस समय मुझे यह समझ में नहीं आया था कि इसके पीछे राज़ क्या है। अब मैं समझता हूँ कि बाबा मुझे महसूस करा रहे थे कि बाबा का यह स्थान सो मेरा अपना स्थान है और यहाँ की पूरी जानकारी होना मेरे लिए आवश्यक है।
मेरी ट्रान्सफर फरवरी 1968 में चण्डीगढ़ हो गयी थी। मई 1968 में मैं बाबा से मिलने तथा कुछ आवश्यक दिशा-निर्देश लेने मधुबन आया था। “प्यारे बाबा झोपड़ी में लेटे-लेटे मुझ से बात कर रहे थे। मैंने चण्डीगढ़ की सेवाओं का सारा समाचार सुनाया। बाबा बोले, चण्डीगढ़ राजधानी है। नया शहर बस रहा है। वहाँ ईश्वरीय सेवा का बहुत चान्स है। आगे चलकर आबादी बढ़ेगी। वहाँ पर एक अच्छा-सा संग्रहालय बनाना है। उसके लिए एक अच्छी कोठी किराये पर लेनी है, बहुत ही सुन्दर संग्रहालय बनेगा। बहुत-बहुत सेवा होगी।” यह सुनकर मेरी आँखों से आँसू बहने लगे। मैं जानता था कि वहाँ पर तो सेवाकेन्द्र का खर्चा भी ठीक से नहीं निकल रहा है। भाई-बहनों की संख्या भी बहुत कम है और बाबा कह रहे हैं कि वहाँ एक अच्छी कोठी लेनी है, संग्रहालय बनाना है। आँखों में आँसू देखकर बाबा उठकर बैठ गये, मुझे अपनी छाती से लगा लिया। बहुत प्यार किया और कहा कि इसका फ़िकर आप मत करो, बाबा बैठा है, सब प्रबन्ध बाबा करेगा। बस आप एक कार्य करो, अच्छी-सी कोठी देखो, किराये पर लेंगे और संग्रहालय बनायेंगे। विचित्र बात यह देखी कि मेरे चण्डीगढ़ लौटने से पहले ही बाबा ने बृजमोहन भाई, जो उन दिनों नंगल में लौकिक सेवा करते थे, उन्हें फोन किया और चण्डीगढ़ में संग्रहालय बनाने के लिए आदेश दिया। 18 जनवरी 1969 को बाबा नश्वर देह त्यागकर अव्यक्त फ़रिश्ता बन गये और अक्टूबर 1969 में चण्डीगढ़ में एक भव्य संग्रहालय का उद्घाटन हो गया। आज चण्डीगढ़ में 4000 वर्ग गज़ ज़मीन पर दो भव्य भवनों का निर्माण हो चुका है। सैकड़ों भाई-बहनें नित्य प्रति सेवाकेन्द्र पर आकर अपने जीवन को दिव्य बना रहे हैं तथा अनकों कार्यक्रम स्थानीय, ज़ोनल तथा राष्ट्रीय स्तर के होते रहते हैं यह सब देखकर प्यारे बाबा के बोल कानों में गूंजते हैं, ‘चण्डीगढ़ में बहुत सेवा होगी’।
साकार बाबा के दिनों में मुझे तो सदा स्मृति में यही रहता था कि साकार बाबा के तन का आधार लेकर निराकार शिव परमात्मा सतयुगी दुनिया का पुनर्निर्माण कर रहे हैं। सदा कम्बाइण्ड स्वरूप ही सामने रहता था। फिर भी प्रातः मुरली के समय जब बाबा सभी को दृष्टि देते थे तो उस समय बहुत ही शक्तिशाली स्वरूप का अनुभव होता था। मुरली के बीच-बीच में भी कई बार ऐसा लगता था कि स्वयं निराकार सर्वशक्तिवान, पतित-पावन अपनी वाणी के माध्यम से हम बच्चों में शक्ति भर रहे हैं तथा हमें पुनः सशक्त बना रहे हैं। प्यारे बाबा में बहुत-सी ऐसी विशेषतायें मैंने देखीं जो अन्य किसी में नहीं देखीं। बाबा बहुत ही दृढ़ एवं निर्भय थे। स्वभाव मधुर एवं सरल था, ऊँची हस्ती परन्तु असीम निर्मानता, अद्भुत परख शक्ति एवं निर्णय शक्ति । स्पष्ट परन्तु सरल, सदा निमित्त भाव बाबा में देखा। करावनहार शिव बाबा है, अतः ब्रह्मा बाबा सदा स्वयं को निमित्त करनहार ही समझते थे।
यज्ञ-वत्सों से जब कभी कोई भूल हो जाती तो उनका मार्गदर्शन करने वाले प्यारे बाबा को मैंने एक कुशल सर्जन के रूप में देखा। वे एक ही झटके से सफल ऑपरेशन करते थे अर्थात् उनका संकल्प यही रहता था कि भूल करने वाला वत्स अपनी भूल सभी के सामने स्वीकार कर उस भूल को पुनः न करने का दृढ़ संकल्प ले। अतः बाबा किसी की भी भूल को छिपाने नहीं देते थे। उनका संकल्प यही रहा कि देह-अभिमान को त्याग कर प्रत्येक वत्स अपनी भूल को महसूस करे। ऐसे वत्स को बाबा अपार स्नेह एवं शक्ति का आभास कराकर पुनः शक्तिशाली स्थिति में स्थित कराते थे।
प्यारे बाबा के संग से उनके कुछेक गुण स्वतः ही स्वयं में भी अनुभव होने लगते थे। मैं स्वयं भी अपने में निर्भयता एवं निर्मानता का गुण अनुभव करता हूँ। स्पष्टता का गुण भी मुझे अति प्रिय है। किसी बात पर निर्णय लेना भी सहज लगता है। भेदभाव की दृष्टि नहीं। ऐसा लगता है सभी बाबा के हैं और सभी अपने हैं। स्वयं की स्थिति की ओर विशेष ध्यान रहता है। एकान्त भी बहुत अच्छा लगता है। अपना संगठन शक्तिशाली बना रहे यह संकल्प भी सदा ही रहता है।
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