सायन, मुंबई से ब्रह्माकुमारी सन्तोष बहनजी अपने अनुभव इस प्रकार सुनाती हैं कि ब्रह्मा बाबा से मैं पहली बार सन् 1965 में मिली। उसी समय हिस्ट्री हाल बना था, उसमें ही मैं साकार बाबा से मिली थी। बाबा से पहली मुलाक़ात मैं कभी भी भूल नहीं सकती। मैं तो मधुबन यह देखने आयी थी कि ये लोग कहते हैं कि निराकार परमात्मा ब्रह्मा तन में आते हैं, वो कैसे आते हैं अथवा आते भी हैं या नहीं आते हैं। इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए ही मैं बाबा से मिलने आयी थी। पहली ही नज़र में मुझे यह विश्वास हो गया कि परमात्मा शिव इसी तन में आ सकता है और कोई तन में नहीं; क्योंकि बाबा का दिव्य व्यक्तित्व और फ़रिश्ता रूप था। ऐसा रूप मैंने ज़िन्दगी में कहीं नहीं देखा था। बाबा के व्यक्तित्व और रूहानी स्नेह ने मुझे आकर्षित कर लिया। बाबा से पहली मुलाक़ात में ही मैंने यह फैसला ले लिया कि मुझे जीवन बनाना है तो ऐसा ही श्रेष्ठ बनाना है और बाबा की आज्ञाओं पर चलकर दूसरों का भी जीवन ऊँचा बनाना है।
शुरू-शुरू में बाबा किसी बच्चे को जब पहली बार मिलते थे तब गोद लेते थे। जब मेरी बारी आयी तो मैं खड़ी हो गयी। बाबा मुझे देखकर कहने लगे कि जब बच्चे मेरे से मिलने आते हैं तो मैं भी परमधाम से इस तन में आता हूँ। ये बोल मेरे को पक्के हो गये कि ये शब्द ब्रह्मा बाबा नहीं बोल रहे हैं परन्तु शिव बाबा जो निराकार हैं, परमधाम में रहते हैं, वो बोल रहे हैं।
जब मैं मुंबई में ज्ञान में आयी थी तो बाबा को पत्र लिखा था कि बाबा मैं आपसे मिलना चाहती हूँ। बाबा ने तुरन्त मुझे पत्र लिखा था कि बच्ची, बाबा के पास बहुत सन्तोष हैं, बाबा भी देखना चाहता है कि यह कौन-सी सन्तोष है? तुरन्त आ जाओ बाबा के पास। इस प्रकार मैं मधुबन बाबा के निमंत्रण से आयी थी। बाबा ने मुझे इतना प्यार दिया कि मैं एक पल में सारी पुरानी दुनिया भूल गयी।
मुरली सुनाते-सुनाते जब बाबा मेरी तरफ देखते थे तब मुझे यह भी अनुभव होता था कि बाबा मेरे मस्तक से मेरा भविष्य अथवा जन्म-पत्री पढ़ रहे हैं। उस समय मेरी आयु 18-19 वर्ष की होगी। मुझे देखकर बाबा ने कहा, मुझे ऐसे मैनेजर चाहिए जो सभी सेन्टरों पर चक्कर लगायें और बाबा को समाचार सुनायें। बाबा की यह बात तो मुझे समझ में नहीं आयी क्योंकि मैं तो उस समय ज्ञान में नयी थी और उस समय उतने सेवाकेन्द्र भी नहीं थे जो बाबा कह रहा है कि मुझे चक्कर लगाने वाली बच्चियाँ चाहिए। जब मैं सायन सेन्टर पर रहती थी तब बाबा ने जो भी पत्र लिखे, बाबा उनमें ज़रूर लिखते थे कि बच्ची, तुम मुरली चलाने के लिए अपने जैसे और कोई को तैयार करो और तुम अन्य सेन्टरों पर चक्कर लगाकर आओ। उस समय मुझे यह बात उतनी समझ में नहीं आयी परन्तु उसका अर्थ अभी मुझे समझ में आता है। देखिये, बाबा कितने दूरान्देशी और बच्चों की जन्मपत्री जानने वाले थे।
जब मैं पहली बार बाबा के सामने आयी थी तो उस समय मैंने साप्ताहिक कोर्स भी नहीं किया था। वैसे रोज़ क्लास में जाती थी। मधुबन में ही बाबा ने एक टीचर बहन से मेरा साप्ताहिक कोर्स कराया। रोज़ रात को बाबा मुझसे पूछते थे कि बच्ची, तुमने आज क्या समझा, उसको क्लास में बताओ। मैं बाबा के सामने ही सबको उस दिन का पाठ सुनाती थी। उस समय मैं मधुबन में एक सप्ताह रही। बृजेन्द्रा दादी के साथ मैं आयी थी। जब भी बाबा मुझे देखते थे तो कहते थे कि बच्ची, तुम बड़ी हो गयी हो, तुम्हें सेवा पर जाना चाहिए। मैं सोच में पड़ती थी कि बाबा ऐसे क्यों कह रहे हैं कि सेवा पर जाना चाहिए। मैं अपने लौकिक पिताजी को भी बताकर नहीं आयी थी कि मैं आबू जा रही हूँ क्योंकि वह चाहते नहीं थे कि मैं आश्रम पर जाऊँ। आखिर मैंने बाबा से कहा, ‘ठीक है बाबा, आप कहते हैं तो मैं सेवा पर जाने के लिए तैयार हूँ, जहाँ चाहें वहाँ भेज दीजिये।’ फिर बाबा ने कहा, बच्ची, तुम्हारे लौकिक बाप से चिट्ठी चाहिए। मेरे भाई और माँ ज्ञान में चलने के कारण उनको पता था कि मैं मधुबन आयी हूँ, बाप को पता नहीं था। मैंने पूछा, क्या माँ की चिट्ठी ले आऊँ? बाबा ने कहा, नहीं बच्ची, जब लौकिक बाप ज़िन्दा है तो उसकी ही चिट्ठी चाहिए।
उस रात शिव बाबा को बहुत याद करके लौकिक बाप को चिट्ठी लिखी कि पिताजी, मैं अभी बड़ी हो गयी हूं और अपने बारे में सोच सकती हूँ। मैं सोचती हूँ कि ईश्वरीय सेवा करने में ही मुझे सुख-शान्ति है इसलिए आप खुशीपूर्वक इसके लिए छुट्टी दें। पत्र भेज दिया था परन्तु पिताजी से उसका उत्तर नहीं आया। बाबा तो चिट्ठी बगैर रखने वाले नहीं थे। मैं वापस मुंबई जाने के लिए तैयार हो गयी। उस समय यज्ञ में यातायात की उतनी सुविधायें नहीं थीं। बृजेन्द्रा दादी के लिए आबू रोड से टैक्सी मंगायी गयी थी। उसमें दादी का और मेरा सामान रख दिया गया। हमें विदाई देने के लिए बाबा भी छोटे हाल में आने वाले थे। उसी समय ईशू दादी ने आकर मेरे हाथ में लौकिक पिताजी का पत्र दिया। उस पत्र में पिताजी ने लिखा था कि अगर तुमको उसी में खुशी है तो मैं तुमको ईश्वरीय सेवा करने के लिए छुट्टी देता हूँ। इसको पढ़कर मुझे इतनी खुशी हुई कि उस पत्र को लेकर भागते हुए बाबा के कमरे में गयी और कहने लगी, ‘बाबा, लौकिक पिता की चिट्ठी आयी है, उन्होंने छुट्टी दी है, मैं यहाँ से जाने वाली नहीं हूँ।’
बाबा ने कहा, ‘चलो बच्ची, बाबा हाल में आने वाले हैं।’ मैंने फिर कहा, ‘बाबा अभी मैं अपना सारा सामान उतारती हूँ, मैं नहीं जाने वाली हूँ।’ मैं आगे-आगे जा रही थी, बाबा पीछे-पीछे आ रहे थे। जब क्लास में आकर बाबा बैठे तो मुझे देख बाबा कहने लगे, ‘बच्ची, अभी तो तुम छोटी हो।’ मैंने तुरन्त कहा, ‘बाबा आप रोज़ मुझे कहते थे, तुम बड़ी हो गयी हो, सेवा में जाना चाहिए और अभी बोलते हो कि तुम छोटी हो।’ फिर बाबा ने कहा, ‘बच्ची, तुम वहीं सायन सेन्टर पर रहो, वहाँ तुम्हारे माँ, बाप, भाई, बहनें सब हैं, वहीं सेवा करो।’ मैंने कहा, ‘नहीं बाबा, मैं वहाँ नहीं जाऊँगी। मुझे तो आत्मा की उन्नति करनी है, जहाँ लौकिक सम्बन्धी हैं वहाँ आत्मा की उन्नति हो नहीं सकती। इसलिए मुझे दूसरी जगह भेजो।’ फिर बाबा ने कहा, ठीक है, तुम पूना में जनक बच्ची के पास जाओ। फिर बाबा ने बृजेन्द्रा दादी से कहा, इसको पूना भेज दो। मुंबई से नज़दीक भी रहेगी। जब भी इसके रिश्तेदार मिलना चाहेंगे तब बुला सकेंगे। जाते समय मैंने बाबा से कहा, ‘बाबा, जब दूसरी बार मैं आऊँगी तो पार्टी लेकर आऊँगी। बाबा ने कहा, ठीक है बच्ची, बहुत अच्छा।’ जब दूसरी बार बाबा से मिलने आयी तो 40 भाई-बहनों की पार्टी लेकर आयी। बाबा बच्चों को देख बहुत खुश हुए और मेरी बहुत महिमा की कि बच्ची ने बहुत मेहनत की है, क्वालिटी वाली आत्मायें लायी है। मैंने अनुभव किया कि बाबा सदा बच्चों की विशेषता देख, उन विशेषताओं की महसूसता कराकर उन्हें आगे बढ़ाते थे। पत्रों द्वारा, बोल द्वारा और टेप में भरकर सम्बन्धित बच्चों को भेजकर उनका उमंग, उत्साह, हिम्मत बढ़ाते थे।
बाबा बच्चों के मन को भी पढ़ लेते थे। बच्चों के मन में कोई हलचल भी हो तो उस आत्मा को देखते ही उसको राय सांत्वना आदि देते थे। एक बार बाबा कुटिया में बैठे थे, मैं वहाँ गयी। किसी कारण से मन में हलचल हो रही थी। मुझे देखते ही बाबा तुरन्त बोले, ‘बच्ची, तुम्हें ड्रामा याद नहीं है ? ड्रामा कल्याणकारी है, सदा ड्रामा की पटरी पर चलो तो अचल और अडोल रहोगी।’ बाबा व्यर्थ संकल्प चलने ही नहीं देते थे। बच्चों को ज्ञान और शक्ति द्वारा मज़बूत बनाते थे ।
एक बार हमारे गाँव से शादी का निमंत्रण आया। मेरी बचपन की खास सहेली की शादी थी। हमें जो भी काम करना होता था तो हम बाबा से पूछे बगैर नहीं करते थे। मैंने बाबा से पूछा, बाबा, गाँव से सहेली की शादी का निमंत्रण आया है, क्या करूँ? बाबा ने तुरन्त उत्तर भेजा कि जब तुम्हें शादी नहीं करनी है तो दूसरों की शादी में क्यों जायेगी? इस प्रकार बाबा हम बच्चों को हर कदम क़ायदे पर चलाते थे। बच्चों के हर पत्र का उत्तर बाबा खुद देते थे। बाबा हरेक ब्राह्मणी (टीचर) को कहते थे कि कम से कम हर 15 दिन में एक पत्र ज़रूर लिखो। उसमें सिर्फ़ सेवा समाचार ही नहीं लिखना होता था बल्कि ज्ञान कैसे समझाया, वह भी लिखना पड़ता था। एक बार मैंने पत्र में लिखा, बाबा मैंने फलाने व्यक्ति को कहा कि इस ज्ञान को हम फ्री (मुफ़्त) में देते हैं, यह हम आत्माओं के परमपिता परमात्मा का ज्ञान है, बाप बच्चों से थोड़े ही फीस (शुल्क) लेता है! लेकिन इस ज्ञान की धारणा के लिए पाँच खोटे पैसे ज़रूर देने हैं। इसके उत्तर में बाबा का लम्बा-चौड़ा पत्र आया कि तुमने पाँच खोटे ‘पैसे’ क्यों बोला? वो लोग समझेंगे कि ये पैसा माँगते हैं। इस तरह बाबा हम बच्चों की हर बात पर ध्यान देते थे और सुधारते थे।
एक बार हम बाबा के कमरे में गये। बाबा किसी से बात कर रहे थे। हम जाकर वहाँ बैठे। बाबा हमें बिठाकर कमरे से बाहर चक्कर लगाने गये। बाबा कभी किचन में, कभी आँगन में, कभी बगीचे में थोड़े समय के लिए जाते थे। जब बाहर जाकर वापस आये तो बाबा की नज़र कमरे के बाहर निकाली हुई, किसी बहन की चप्पल पर पड़ी। तब बाबा ने अन्दर आकर हम लोगों से पूछा कि बाहर जो चप्पल हैं वे किसकी हैं। बहुत अच्छी चप्पल हैं, किसकी हैं, आओ बच्ची, इधर आओ। जिसकी थीं उसने कहा, मेरी हैं। बाबा जाकर गद्दी पर बैठे और प्यार से उस बहन से कहा, देखो बच्ची, कभी तुम भाषण करने जाओगी ना तब लोग तुम्हारा भाषण नहीं सुनेंगे, तुम्हारी चप्पल ही देखते रहेंगे। फिर बाबा ने कहा, ‘बच्चे तुमको साधारण रहना है। तुम्हें ऐसी कोई कीमती चीज़ इस्तेमाल नहीं करनी है जिसको देखकर किसी का ध्यान उस तरफ जाये अथवा बाबा के बजाय उस वस्तु की याद आये क्योंकि तुम बच्चों का कर्त्तव्य है सबका कनेक्शन बाबा के साथ जोड़ना।’ इस तरह, बाबा बच्चों को हर कर्म की गुह्य गति भी समझाते थे।
मैं सदा यह ध्यान देती हूँ कि मैं कोई ऐसी चीज़ इस्तेमाल न करूँ जो दूसरों का ध्यान खींचे। भले ही देखा दूसरे व्यक्ति ने और वो बाबा की याद भूला, हिसाब भी उसका बन गया परन्तु इन सबके निमित्त तो मैं बनी ना! इसलिए मैं कोशिश यही करती रहती हूँ कि मैं जो भी वस्तु इस्तेमाल करूँ उससे किसी का व्यर्थ संकल्प न चले। किसी वस्तु और वैभव की तरफ़ हमारा ध्यान भी न जाये और किसी का भी खींचने के निमित्त न बनें यह भी बहुत बड़ी सेवा है। इसमें अपनी भी और दूसरों की भी अवस्था अच्छी रहती है। सादा जीवन कितना ऊँचा है और कितना श्रेष्ठ है, हमने यह बाबा में प्रैक्टिकल देखा है और उनसे सीखा है। बाबा कहते थे कि बच्चे तुम जितना सिम्पल रहते हो उतना अच्छा है, उससे तुम्हारी स्थिति भी हल्की रहेगी और मन भी साफ़ रहेगा। ऐसी छोटी-छोटी बातों की भी सावधानी बाबा देते थे।
एक बार बाबा मुंबई आये हुए थे। उस समय सायन सेन्टर पर बृजेन्द्रा दादी अकेली थी। तो बाबा ने पूना से मुझे वापस सायन सेन्टर पर बुला लिया। तब तक मेरी अवस्था भी पक्की हो गयी थी, लौकिक वालों से मोह-ममता टूट गयी थी। जब सायन सेन्टर से बाबा से मिलने आयी तो बाबा ने पूछा कि वहाँ कौन-कौन रहते हैं? मैंने कहा, बृजेन्द्रा दादी और मैं। मैंने अपनी हिम्मत और अच्छी स्थिति का अभास बाबा को कराने के हिसाब से कहा कि बाबा, मैं कहीं अकेली भी रहूंगी तो मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। तुरन्त बाबा ने कहा, ‘बच्ची, कभी अकेली नहीं रहना। तुम बच्चों में बहुत रूहानी आकर्षण होता है इसलिए कभी अकेली नहीं रहना।’ यह बात मुझे इतनी पक्की हो गयी है कि मैं न कभी अकेली रहती हूँ और न ही अन्य बहनों को अकेली रहने देती हूँ। हर सेवाकेन्द्र पर कम से कम दो बहनें ज़रूर होती हैं। इस तरह हर छोटी-से-छोटी बात पर भी बाबा बहुत ध्यान खिंचवाते थे ।
अलौकिक पिता ब्रह्मा बाबा ने हम बच्चों को इतनी पालना दी है कि यह पालना न लौकिक से मिल सकती है, न देवताओं से मिल सकती है। इतनी सुन्दर, पवित्र, सुखमय, अलौकिक परवरिश बाबा ने की है! बाबा साकार में होते भी आकारी रूप में आ-जाकर सेवा करते थे, ऐसे कईयों के अनुभव हैं। एक बार मैं किसी सेन्टर पर किसी समस्या का समाधान करने गयी थी। मैं जो भी करती थी बृजेन्द्रा दादी अथवा बाबा से पूछकर ही करती थी। मैंने उस स्थान से मुंबई फोन लगाया, बहुत कोशिश की, तो भी नहीं लगा। फिर मधुबन में बाबा को फोन करने की कोशिश की। वहाँ भी नहीं लगा। मैं बहुत परेशान हो गयी। क्या करूँ, परिस्थिति ऐसी थी कि मुझे दादी या बाबा से पूछना ही था। मुझे उस समय ऐसा अनुभव हुआ कि मैं इस दुनिया में अकेली हूँ, मुझे मदद करने वाला कोई नहीं है। मन बहुत भारी हो गया था, क्या करूँ समझ में नहीं आ रहा था। उतने में मुझे लगा कि मेरी बाजू में कोई आकर खड़े हुए हैं। देखा तो बाबा मुस्कराते हुए खड़े थे। मैं आश्चर्य और खुशी से दंग रहकर बाबा को ही देख रही थी। बाबा ने कहा, बच्ची, तुम अकेली कहाँ हो? बाबा तुम्हारे साथ है, सदा रहेगा। उस दिन से लेकर आज तक मुझे अकेलेपन की महसूसता कभी हुई ही नहीं।
बाबा के अव्यक्त होने से एक महीने पहले मैं बाबा से मिलने पार्टी लेकर गयी थी। उस समय जो बाबा से मिली और मुरली सुनी वो दृश्य और इससे पहले जब बाबा से मिली और मुरली सुनी थी उनमें रात-दिन का अन्तर था। आँखों में बहुत फ़र्क था। ब्रह्मा की वो आँखें नहीं थीं, वो श्रीकृष्ण की थीं। मैं घड़ी-घड़ी आँखें मलकर देखती थी कि ये किसकी आँखें हैं? कोई ने ध्यान में देखा होगा कि बाबा की आँखों में और कृष्ण की आँखों में क्या अन्तर होता है। मुझे यही लग रहा था कि ये आँखें बाबा की नहीं हैं, श्रीकृष्ण की हैं। श्रीकृष्ण के वो नेत्र मैं बाबा के नेत्रों में देख रही थी। यह बात मैंने मुंबई आने के बाद क्लास में भी बतायी कि इस बार बाबा के नेत्र बाबा के नहीं थे, श्रीकृष्ण के थे। बाबा इतने नज़दीक पहुँच गये थे उस स्टेज के। बाबा के हर अंग में चमक और एक विशेष अलौकिक कशिश थी।
बाबा जब किसी बच्चे को गोद में लेते थे तब उसे पहले ही बोलते थे कि शिव बाबा को याद करके आओ, ऐसा समझो कि मैं शिव बाबा की गोद में जा रही हूँ/जा रहा हूँ, नहीं तो तुम्हारे ऊपर पाप चढ़ेगा। ब्रह्मा बाबा बोलते थे कि “बच्चे तुम ईश्वरीय सन्तान हो, तुम देहधारी की गोद में नहीं जा सकते हो।”
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