मधुबन की ब्रह्माकुमारी मोहिनी बहन जी कहती हैं कि पहले-पहले ये ब्रह्माकुमारी बहनें जो सेवा के लिए बाहर निकली थीं, कहती थीं कि सात दिन में भगवान के दर्शन कर लो। यह सुनकर मुझे भी जिज्ञासा जागी कि देख लेते हैं कि सात दिन में भगवान के दर्शन कैसे होते हैं। वो कैसा भगवान है, हम भी देख लें। मैं सेन्टर पर गयी। मैं समझी थी, कोई संन्यासी, महात्मा होंगे लेकिन देखा तो सफ़ेद वस्त्रों वाली बहनें थीं। मुझे देखकर एक बहन ने पूछा कि कैसे आना हुआ ? मैंने कहा, बोर्ड पर लिखा था कि सात दिन में भगवान का दर्शन, तो मैंने सोचा कि देख लें, सात दिन मैं कैसे भगवान के दर्शन होते हैं। मुझे जाना था और कहीं परन्तु आश्रम पर गयी थी थोड़ा टाइम पास करने। उन्होंने पूछा कि क्या गीता पढ़ी है ? मैंने कहा, मैंने न तो गीता पढ़ी है, न रामायण। मैं तो स्कूल में पढ़ रही हूँ, स्कूल की किताबें पढ़ रही हूँ, और कुछ पढ़ी नहीं हूँ। फिर पूछा, आपके घर में कोई भक्ति करते हैं ? मैंने कहा, मेरा बाप शिव की भक्ति करता है, मेरी माँ अम्बा की भक्ति करती है, मेरी दादी राधा-कृष्ण की भक्ति करती है। मैंने उन बहनों से पूछा, हमारे घर में इतने सब की भक्ति होती है लेकिन भगवान कौन है ? वो हँसने लगी और कहा, कोई बात नहीं, यहाँ आपको भगवान कौन है यह पता पड़ जायेगा।
इस ज्ञानमार्ग में कोई का ज्ञान से जन्म होता है, कोई का योग से जन्म होत है। मेरा जन्म दिव्य दृष्टि से हुआ। पहले दिन ही मुझे साक्षात्कार हुआ। लौकिका हमारे घर में अरविन्द आश्रम जाते थे, वहाँ का योग घर में करते थे। मैं भी करत थी। मुझे कहा गया था कि आँखें बन्द करके योग लगाना है, अरविन्द जी तुमव एरोप्लेन में सैर करायेंगे आदि-आदि। रोज़ मैं वैसे ही करती थी लेकिन मेरी को सैर हुई नहीं थी। सबके साथ बैठ जाती थी। इस आश्रम पर भी मैं पालथी मारव आँखें बन्द कर बैठ गयी। फिर बहन जी ने कहा, ऐसे नहीं, आँखें खोल कर बैठर ते हैं जो की उसको मन में कहना है। वे जैसे कहते थे वैसे मैं मन में
संकल्प करती रही लेकिन उतने में मुझे लगा कि कोई मुझे खींच रहा है। मैं सिर हिलाकर इधर-उधर देखने लगी। कुछ नहीं दिखायी पड़ा। फिर मैं मन में कहने लगी, मैं आत्मा हूँ… उतने में मैं गुम हो गयी। फिर जिस दुर्गा अम्बा की मेरी माँ पूजा करती थी वो सामने दिखायी पड़ी। वो मेरे से कहने लगी, तुम यहाँ आओ, तुमको ले जाने के लिए मैं आयी हूँ। मैंने कहा, मैं अभी जाना नहीं चाहती हूँ। उसके बाद एक बूढ़ा बाबा आ गया। उसने भी कहा, बच्ची, तुमको लेने के लिए आया हूँ, चलो, वापस घर जाना है। फ़रिश्ते जैसे उस बूढ़े को देख मुझे आकर्षण तो हुआ पर मैं कहती थी कि अभी जाना नहीं चाहती हूँ, अभी मुझे नहीं जाना है। अभी मरना नहीं चाहती हूँ, मेरी माँ रोयेगी। माँ का मेरे से बहुत मोह था। ऐसे कहते-कहते मैं खो गयी। बाद में नीचे उतर आयी। मुझे आश्चर्य होने लगा कि मैं कहाँ गयी थी, अभी कहाँ हूँ ? उतने में सामने मम्मा का चित्र देखा। मैंने बहन जी से पूछा, यह कौन हैं ! उन्होंने कहा, ये हमारी मम्मा है। मैंने कहा, ये आपकी मम्मा कैसे हो सकती हैं, इनको तो मैंने अम्बा के रूप में ऊपर देखा था। फिर पास में ही बाबा का चित्र था। मैंने पूछा, ये कौन हैं? ये हमारे बाबा हैं। मैंने कहा, इन दोनों को मैंने ऊपर देखा था, यहाँ कैसे आ गये? उन्होंने कहा, आज पहला दिन है, आप धीरे-धीरे सारी बातें समझ जाओगी। मैं कुछ घबरा गयी थी। मैंने कहा, ठीक है, चलो, कल आयेंगे, ऐसा कहकर वहाँ से चली गयी। घर जाकर माँ से ये बातें कही तो उन्होंने कहा, तुम वैसी जगह पर नहीं जाना, वो लोग तो जादू कर देते हैं। ठीक है, आगे नहीं जाऊँगी, ऐसे कहकर सो गयी। फिर सुबह चार बजे कोई आकर हिलाने लगे और कहने लगे कि उठो, यही समय है, वहाँ चलो, तुम्हें मैं लेने आया हूँ। मैं कहती थी, मुझे नहीं जाना है, मुझे नहीं मरना है। रोज़ मुझे यही होता रहा। तीन दिन के बाद मैं वहाँ गयी और उस बहन से कहने लगी कि मैं जैसी थी, वैसी बना दो। उन्होंने कहा, आपको क्या हुआ ? मैंने कहा, रोज़ ऐसा होता है, कोई कहता है मैं तुम्हें लेने आया हूँ, चलो। मैं जाना नहीं चाहती हूं। उन्होंने कहा, भगवान की कृपा है तुम्हारे ऊपर। मैंने कहा, यह कैसी कृपा है? रोज़ मैं आठ बजे उठने वाली, सुबह चार बजे आकर मुझे उठाना, मेरी नींद फिटाना, यह कौन-सी कृपा है ? फिर उन्होंने कहा, तुम सात दिन का कोर्स करो, सब ठीक हो जायेगा। मैंने कहा, एक दिन के कोर्स में ही मेरी हालत यह हुई तो सात दिन करूँगी तो क्या होगा ! कहीं मैं सच में ही यहाँ से चली ना जाऊँ। उन्होंने कहा, हम गैरन्टी देते हैं, कुछ नहीं होगा, तुम जाओगी नहीं, सात दिन आओ। फिर मैं सात दिन गयी।
फिर उन्होंने कहा, तुम भगवान से मिलो, उनकी गोद लो तो स्वर्ग की मालिक बनोगी। स्वर्ग कहाँ है, स्वर्ग का मालिक कौन होता है – यह पता तो नहीं था परन्तु भगवान की गोद ज़रूर लेनी है यह मुझे इच्छा हुई। मैंने पूछा, भगवान कहाँ है जो उसकी गोद लूँ। उन्होंने कहा, माउण्ट आबू में। मुझे मन में लग गया कि माउण्ट आबू जाना है, माउण्ट आबू जाना है, भगवान की गोद लेनी है। वे बहनें यह भी कहती थीं कि विनाश होना है। मेरे मन में यही आता था कि विनाश होने से पहले मुझे भगवान की गोद लेनी है। उस समय मैं मैट्रिक में पढ़ रही थी। मैंने पिताजी से कहा, मुझे माउण्ट आबू जाना है। उन्होंने कहा, अभी तुम्हें पढ़ना है, पहले पढ़ो; माउण्ट आबू जाने की बात मत कहो। उन्होंने कहा, पहले पढ़ाई पूरी करो, बाद में आबू जाने की बात। फिर पढ़ाई पूरी कर ली, परीक्षा भी दे दी। उसके बाद मैं सबको बोलने लगी कि मैं माउण्ट आबू जाऊँगी। मैंने सफ़ेद कपड़े आदि सब तैयार करके रखे। मेरे रिश्तेदारों में जीजाजी थे, वो ज्ञान में चलते थे। उनको कहा, आप माउण्ट आबू चलो, आपके साथ मुझे भी छुट्टी मिलेगी। लेकिन वे तैयार न हो सके। मैं अकेली निकल पड़ी। यह मेरी ज़िन्दगी में पहली बार था जो मैं माँ-बाप को छोड़ अकेली जा रही थी। चली तो बहुत ख़ुशी-खुशी से पर जब गाड़ी चली तो रोना शुरू कर दिया। फिर दिल्ली आयी तो वहाँ से कुछ बहनें भी साथ में चलीं। हम आबू रोड पहुँच गये। उस समय अम्बाजी का मेला चल रहा था। सब बसें वहीं जा रही थीं, आबू के लिए बस नहीं थी। आख़िर आठ बजे एक बस आबू के लिए निकली। उस समय मुख्यालय कोटा हाउस में था।
आख़िर मेरा स्वप्न साकार हुआ। आबू पर्वत की गोद में बसा हुआ शान्त,मीठा, तपोवन, ‘मधुबन स्वर्गाश्रम’ मेरे सामने था। मैंने अन्दर क़दम रखा तो मुझे ऐसा लगा कि मैं यहाँ की हर चीज़ और हर व्यक्ति से पहले से ही परिचित हूँ। शुभ्र वस्त्रधारी बहनों एवं भाइयों के तपस्वी चेहरों ने मधुर मुस्कान से मेरा स्वागत किया। परन्तु मेरी नज़रें तो इस मधुबन रूपी सुन्दर डिब्बी के अन्दर रहने वाले उस ‘कोहिनूर हीरे’ को ढूँढ़ रही थीं जिससे मिलने को मैं व्याकुल थी। वह घड़ी भी आ पहुँची जब मुझे ब्रह्मा बाबा से मिलाने के लिए उनके कक्ष में ले जाया गया। मैंने सामने बाबा को देखा और अपलक देखती ही रह गयी। श्वेत वस्त्रधारी, लम्बा- ऊँचा, उन्नत ललाट, असाधारण एवं आकर्षणमय व्यक्तित्व- जिनके चेहरे से ज्योति की आभा फूट रही थी; आँखों से वात्सल्य, प्रेम, शक्ति, दया सब कुछ एक साथ ही छलक रहा था; जिनके होठों पर एक मधुर मुस्कान थी मेरे सामने था। – उस क्षण मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसेकि उन्होंने मेरी समस्त शक्तियों को अपने वश में कर लिया हो और मेरे मन-बुद्धि बिल्कुल शान्त होकर रह गये हों।
बाबा, मनुष्य को देखते ही उसकी जन्मपत्री को जान लेते थे। मुझे याद है कि एक पार्टी जब मधुबन से बाबा का लाड़, प्यार, दुलार लेकर और ज्ञान-रत्नों से भरपूर होकर वापस जाने के लिए विदाई ले रही थी तो सबके नयन गीले थे और वे सभी एक अद्भुत चुम्बकीय शक्ति से खिंचे खड़े थे। दिल की पीर (पीड़ा) नयन से नीर (पानी) बनकर बह रही थी। बाबा बच्चों को सांत्वना दे रहे थे- “बच्चे ! तुम तो सर्विस पर जा रहे हो। पण्डा बनकर वापस आना…।” उस पार्टी में एक विदेशी भाई मिस्टर डॉन भी था। बाबा ने उसे दो बार कहा “मुझे याद रखना, मैं तुम्हें अब धर्मराजपुरी में मिलूँगा।” मैंने बाबा से पूछ लिया कि बाबा आप इस बेचारे को ऐसा क्यों कहते हैं। इसको भी कह दीजिये ना कि तुम्हें जल्दी यहाँ बुलाऊँगा । परन्तु बाबा को तो उसकी जन्मपत्री का पता था। कुछ समय बाद मुझे पता चला कि उस भाई डॉन का देहान्त हो गया है। तब वे वचन मुझे याद आने लगे। उस दिन से यह बात मेरी बुद्धि में अच्छी तरह से बैठ गयी कि बाबा के महावाक्य पत्थर पर लकीर हैं जो कभी निष्फल नहीं जाते । बाबा के चरित्र रमणीक भी थे और शिक्षाप्रद भी। बाबा का हरेक कर्म हम बच्चों के लिए आदर्श था। आज भी मुझे बहुत-सी समस्याओं का हल बाबा के चरित्रों के स्मरण से ही प्राप्त हो जाता है कि ऐसी हालत में बाबा ने क्या किया था।
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