Bk sister kiran america eugene anubhavgatha

बी के सिस्टर किरन – अनुभवगाथा

बाबा ने कहा, अमेरिकन ग्रुप को हिन्दी सीखनी चाहिए    

न्यूयार्क राज्य के एक छोटे-से गाँव में मेरा जन्म हुआ। मेरे माता-पिता क्रिश्चियन धर्म के थे। वे क्रिश्चियन धर्म के प्रति बहुत ही भावना वाले थे, इसलिए उस धर्म के कार्यों में भी समर्पित भाव से भाग लेते थे। बाल्यकाल से ही मुझे क्रिश्चियन धर्म में उतनी भावना नहीं थी क्योंकि चर्च में आने वालों की मान्यता एक होती थी और करनी दूसरी होती थी। किशोर अवस्था में आने तक मैंने चर्च जाना लगभग छोड़ ही दिया था। युनिवर्सिटी में पढ़ने के लिए मैं घर छोड़कर शहर गयी तो फिर से वहाँ चर्च में जाना आरम्भ किया। इसके बाद मैंने धर्म तथा दर्शन के बारे में अध्ययन तथा अन्वेषण करना शुरू किया। चीनी दर्शन का अध्ययन किया। ज्योतिष शास्त्र का भी अध्ययन किया। विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी मेरे जीवन में आध्यात्मिकता ने बहुत बड़ी भूमिका निभायी। मैंने शादी की, मुझे एक बच्ची भी हुई। इसके बाद मैं दो सालों तक गाँव में रही। मैंने पूरा ग्रामीण जीवन जीया। उन दिनों मेरे मन में आध्यात्मिकता के बारे में बहुत-से प्रश्न तथा जिज्ञासाएं पैदा हुईं। वहाँ अपने पड़ोसियों से, स्नेही सम्बन्धियों से आध्यात्मिकता के बारे में चर्चा करती थी तथा इस विषय पर सोचा करती थी।

मुझे युनिवर्सिटी में ‘होलिस्टिक हेल्थ’ के बारे में अध्ययन करना था तो मैं वहाँ से कैलिफोर्निया चली गयी। उन दिनों होलिस्टिक हेल्थ विषय नया-नया निकला था इसलिए वहाँ के लोग उसके लिए बहुत प्रोत्साहन दे रहे थे। तीन साल तक मैंने युनिवर्सिटी में उस विषय का अध्ययन किया और पदवी प्राप्त कर ली। इसके बाद मैंने उसी विषय पर मास्टर डिग्री पाने की सोची। शारीरिक स्वास्थ्य के बारे में, मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य के बारे में सब जानते हैं लेकिन आध्यात्मिक स्वास्थ्य के बारे में कोई नहीं जानता। होलिस्टिक हेल्थ में ‘आध्यात्मिक स्वास्थ्य’ का अध्ययन किया जाता था। इस विषय पर मैं रिसर्च भी कर रही थी। रिसर्च के दौरान मुझे किसी ने राय दी कि आप ब्रह्माकुमारी बहनों से मिलो। उनसे आपकी थीसिस (शोध प्रबन्धन) के लिए कुछ विषयवस्तु (Subject Matter) मिल जायेगी।

परन्तु ब्रह्माकुमारी बहनों के पास जाने से पहले, मुझे एक और गुरु मिले जिनका ऑकलैण्ड में एक बहुत बड़ा आश्रम था। उन दिनों वे बहुत जनप्रिय थे। सैनफ्रैन्सिस्को के डॉक्टर, वकील तथा अनेक गण्यमान्य व्यक्ति उनके पास जाते थे। सप्ताहान्त प्रशिक्षण (Weekend Training) होता था उनके आश्रम पर। डेढ़ सौ डालर उस ट्रेनिंग की फीस थी। मेरे पास उतना धन नहीं था लेकिन मुझे वहाँ जाने की बहुत इच्छा हो रही थी, तो कैसे भी करके मैंने उतने पैसे इकट्ठे कर लिये। पैसे इकट्ठे कर वहाँ पहुँचने तक वो स्वामी जी वहाँ से दूसरे स्थान पर चले गये थे। उनके स्थान पर उनकी एक शिष्या ट्रेनिंग दे रही थी। उससे मैंने ट्रेनिंग ली। मेडिटेशन में वे लोग ‘ॐ नमः शिवाय’ मंत्र का उच्चारण करवाते थे। ट्रेनिंग के अन्तिम दिन स्वामी जी लौट आये। मेडिटेशन करते समय स्वामी जी प्रशिक्षणार्थियों के पास से गुजरते थे। उनके हाथ में मोर के पंखों का एक गुच्छा होता था। वहाँ से चलते-चलते वे किसी न किसी प्रशिक्षणार्थी के सिर पर उस गुच्छे को रख देते थे। जिसके सिर पर वह गुच्छा रखा जाता था, वह व्यक्ति एक तरह की आवाज़ ‘हा-हा-हा’ करते-करते काँपना शुरू करता था। या तो विचित्र भाषा में बोलता था या फिर ध्यान में चला जाता था। जब गुरु जी मेरे पास आये और मेरे सिर पर मोर के पंखों का गुच्छा रखा तो मुझे ऐसा कुछ नहीं हुआ। मुझे लगा कि शायद मेरे में कोई कमी है इसलिए मुझे कुछ भी अनुभव नहीं हुआ। मुझे प्रबल इच्छा हुई कि मुझे इस आश्रम पर जाते ही रहना है, मुझे वह सिद्धि प्राप्त करनी है जो दूसरों को हो रही है। मैंने यह भी सोचा कि मैं अपनी बच्ची के साथ इसी आश्रम पर रह जाऊँ। उस आश्रम पर स्थानान्तरित होने से पहले मुझे संकल्प आया कि ब्रह्माकुमारी बहनों से मिलूँ। वहाँ सिस्टर डेनिस तथा सिस्टर चन्दू रहती थीं। वे भी सैनफ्रेन्सिस्को के लिए नयी-नयी थीं। उन दिनों वे एक छोटे-से मकान में रहती थीं जिसके नीचे एक ऑटोपार्टस की दुकान थी। सीढ़ी चढ़कर मैं ऊपर गयी इन दोनों से इंटरव्यू लेने। अन्दर जाकर देखा तो वहाँ दो छोटे कमरे थे। कोई फर्नीचर नहीं था परन्तु सफ़ाई बहुत थी तथा वहाँ के प्रकम्पन बहुत शक्तिशाली थे, प्रभावकारी थे। वहाँ के वातावरण में बहुत शान्ति तथा पवित्रता थी। मुझे अन्दर से अनुभव होने लगा कि आध्यात्मिकता का वातावरण तो यहाँ है। उस आश्रम में मैंने देखा, लोग हाँफते थे, काँपते थे लेकिन यहाँ देखा, अन्दर जाने से ही व्यक्ति को शान्ति तथा शक्ति का अनुभव होता है! मुझे पक्का हो गया कि सच्ची आध्यात्मिकता यहाँ है। उस समय मुझे ईश्वरीय ज्ञान का कोई परिचय नहीं था, केवल सेन्टर के अन्दर पाँव रखते ही यह अनुभव होने लगा।

फिर मैं सिस्टर डेनिस से इंटरव्यू लेने लगी कि ‘आध्यात्मिक स्वास्थ्य’ क्या है? सिस्टर डेनिस ने बहुत चतुराई से कुछ ही बातों में तथा संक्षेप में उत्तर दिया और कहा कि कल के दिन इसी विषय पर हमारा कार्यक्रम है, आप आना। वह कार्यक्रम एक भारतीय परिवार के घर में था। मैं वहाँ गयी, उस कार्यक्रम में मिस्टर हर्मन की पत्नी मुख्य अतिथि थीं। ‘लाइफ आफ्टर डेथ’ (Life after Death; मरणोपरान्त जीवन) पुस्तक के लेखक भी उसमें आमंत्रित अतिथि थे। मैं जिस होलिस्टिक हेल्थ का अध्ययन कर रही थी, उस संस्था के अध्यक्ष भी उस कार्यक्रम में थे। उस कार्यक्रम में मुश्किल से 25-30 लोग आये थे। मैं उस कार्यक्रम के नोट्स ले रही थी। वह बहुत रुचिकर कार्यक्रम था सिस्टर डेनिस ने श्रीमती हर्मन को गाइडेड मेडिटेशन द्वारा आत्मलोक में जाने का तथा गॉड को महसूस करने का अनुभव कराया। इससे श्रीमती हर्मन को बहुत अच्छा अनुभव हुआ, उसकी आँखों में आँसू आ गये। इन सब बातों के नोट्स लिखकर अख़बार के लिए रिपोर्ट तैयार करना, मेरा काम था और मेरे लिए यह ज्ञान की भूमिका भी थी। इसके बाद मेरा कोर्स शुरू हुआ। अभी कोर्स पूरा भी नहीं हुआ था कि मैं बाबा की बच्ची बन गयी। यह थी सन् 1979, मई की बात। उसी साल सितम्बर में वहाँ दादी जानकी आयीं। जैसे ही मैंने दादी जानकी को देखा, मेरे मन में आया कि मुझे भी इन जैसा बनना है। यह बात मैंने दादी जानकी को कही तो उन्होंने कहा, हाँ हाँ, क्यों नहीं! आप भी मेरे जैसी बन सकती हो। उनकी बात सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ क्योंकि उस गुरु ने कहा था कि मेरे जैसा बनने के लिए आपको कई जन्म लेने पड़ेंगे, फिर मेरे चरणों में आना पड़ेगा, तब जाकर मेरे जैसा बन पाओगी। दादी जानकी ने कहा, मेरे जैसी बनने के लिए कोई पैसे आदि की ज़रूरत नहीं है, केवल ज्ञान-योग से मेरे जैसी बन सकती हो। मुझे बहुत ख़ुशी हुई क्योंकि मैं तो मध्यम वर्ग की एक महिला थी। मेरे पास उतने पैसे भी नहीं थे। यहाँ कहा गया कि यह सब फ्री में आपको मिलेगा। जब दादी जानकी और जयन्ती बहन वापिस जा रहे थे, तो उस समय जयन्ती बहन ने कहा कि हम फिर मधुबन में मिलेंगे। मैं सोचने लगी कि क्या मैं भारत जाऊँगी? यह कैसे हो सकता है? मेरे पास तो पैसे हैं नहीं, पासपोर्ट भी नहीं है। मैं गाँव में रहने वाली, कैसे देश से बाहर जा सकती हूँ! फिर मुझे संकल्प आया कि शायद जयन्ती बहन मेरा भविष्य जानती होगी। ठीक है, देखा जायेगा आगे क्या होता है।

इसके बाद एक दिन मेरी एक सहपाठी मिली। उसको मैं अपना अनुभव सुना रही थी। अनुभव सुनाते-सुनाते मैंने उससे कहा कि उस बहन ने (जयन्ती बहन ने) मुझे कहा कि हम आप से भारत में मिलेंगे। मैं वहाँ कैसे जा सकती हूँ, मेरे पास कुछ भी नहीं है! तुरन्त उसने कहा कि मैं तुमको उधार दे सकती हूँ। अभी तुम मेरे से पैसे ले लो और जब तुमको सुविधा हो तब लौटा देना, मुझे कोई आपत्ति नहीं है। जयन्ती बहन तथा दादी जानकी मधुबन जा रही थीं दिसम्बर में, उस समय चल रहा था अक्टूबर। मेरे पास जन्म प्रमाणपत्र (Birth Certificate) भी नहीं था जो मैं पासपोर्ट बनवाऊँ। वह प्रमाणपत्र भी गाँव से मिलना था। लेकिन मेरी उस सहपाठी ने तुरन्त चेक दिया और मेरा जन्म प्रमाणपत्र मंगवाने का प्रबन्ध भी किया। दो सप्ताह के अन्दर मेरा पासपोर्ट बन गया और दिसम्बर में मैं मधुबन भी आ गयी।

प्रश्नः मधुबन आने तक के छह महीनों के दौरान ईश्वरीय ज्ञान-योग से आपने क्या अनुभव किया?

उत्तरः कोर्स द्वारा मुझे यह अनुभव हुआ कि यह ईश्वरीय ज्ञान बहुत श्रेष्ठ है इसलिए यह बहुत पसन्द आया। ये बहनें मुझे फ़रिश्ता नज़र आयीं। सेन्टर के अलौकिक वातावरण, रूहानी वायब्रेशनों ने मुझे बहुत प्रभावित किया। जब दादी जानकी को मैंने देखा तो उस समय मुझे यह पक्का हो गया कि जीवन है तो यही है और मुझे सही रास्ता दिखाने वाले यही लोग हैं। मुझे ज्ञान उतना समझ में नहीं आया था लेकिन सेन्टर का वातावरण, वहाँ के वायब्रेशन्स, बहनों के चमकते हुए आकर्षक व्यक्तित्व ने मुझे प्रभावित किया। यह शिव बाबा का ही कमाल था जिसने मुझे अपना बनाया। बाबा उन द्वारा मुझे खींच रहा था। इन सब अनुभवों के पीछे बाबा की ही शक्ति तथा खिंचावट थी।

प्रश्नः पहली बार मधुबन आने का अनुभव क्या रहा?

उत्तरः मधुबन आने वाले अमेरिकन ग्रुप में हमारा ही सबसे पहला ग्रुप था। जब हम मुंबई में उतरे तो वहाँ की गरमी देखकर मैं तो हैरान हो गयी। मुझे बहुत तकलीफ़ होने लगी तो मैंने सोचा कि वापिस अमेरिका चला जाये। फिर हम एरोड्रोम से बाहर आये, टैक्सी से मुंबई की गलियों को, फुटपाथ पर सोये हुए लोगों को, रास्ते में भीख माँग रहे भिखारियों को देख मुझे लगा कि क्या भारत की यह परिस्थिति है! मैंने पढ़ा था कि कलियुग की आयु 40,000 वर्ष है। लेकिन भारत की यह दुर्दशा देख मुझे लगा कि यह सृष्टि इतने सालों तक रही तो दुनिया का क्या हाल होगा! उतना समय नहीं है। बाबा जो कहते हैं कि सृष्टि-नाटक का यह अन्तिम समय है, यही सच है। फिर हम मधुबन पहुँच गये। बाबा के सम्मुख बैठकर जो पहली मुरली मैंने सुनी, उसको मैं कभी भूल नहीं सकती। वह मुरली थी विनाश के बारे में। बाबा ने कहा कि अन्तिम समय में एक तरफ़ बमबारी होती रहेगी, दूसरी तरफ़ प्राकृतिक प्रकोप होंगे, तीसरी तरफ़ सिविल वार होगा और चौथी तरफ़ अशुद्ध आत्माओं का आक्रमण होगा। वह बहुत सीरियस तथा स्ट्रांग (गंभीर तथा शक्तिशाली) मुरली थी। मुरली पूरी होने के बाद सब दादियाँ बापदादा से मिलीं। उस दिन क्रिसमस था तो बापदादा के साथ क्रिसमस मनाना आरम्भ हुआ। सब हँस रहे थे, केक काट रहे थे, ख़ुशी से बापदादा के सामने नाच रहे थे। यह सब देख मैं हैरान हो गयी क्योंकि बापदादा ने इतनी सीरियस मुरली सुनायी थी और सब अभी बापदादा के साथ खुशी मना रहे हैं! यह कैसा विचित्र दृश्य है! ये लोग कितने निश्चिन्त हैं, ऐसी डरावनी बातें सुनकर भी कितने खुश हैं! इसके बाद मैं भी उस उत्सव में सम्मिलित हो गयी, मैंने भी ख़ुशी मनायी। अगले दिन हम सब भाई-बहनों का दादी गुलज़ार से मिलना हुआ। मैंने पूछा कि दादी, बाबा ने विनाश के बारे में इतनी गंभीरता से कहा, फिर मुरली के तुरन्त बाद इतने हल्के होकर क्रिसमस भी मनाया, सबने बाबा के साथ हँसा, बहला; यह क्या बात है? यह मुझे समझ में नहीं आया। दादी ने सहज रूप से उत्तर दिया। उन्होंने पूछा कि सुख और दुःख में क्या अन्तर है? मैंने कहा, मैं नहीं जानती। उन्होंने कहा, ॐ शान्ति। सुख और दुःख, विनाश और ख़ुशी इन दोनों के बीच में “ॐ शान्ति” अर्थात् मैं आत्मा शान्त स्वरूप, यही एक है। दादी की यह बात सुनकर मेरा मन हल्का हो गया, मैं रिफ्रेश हो गयी। उस समय मैं मधुबन में दस दिन रही। उन दिनों मधुबन में दादियाँ तथा वरिष्ठ भाई-बहनें बाबा के साथ की, यज्ञ के आदि दिनों की बातें सुनाते थे। यज्ञ के प्रति हमारा प्यार और वफ़ादारी कैसे रहे, ये बातें सुनाते थे। रोज़ मुरली से पहले बड़ी दीदी हम से मिलती थीं। हम विदेशी भाई-बहनों से दीदी सबसे पहले यही प्रश्न पूछती थीं, आप हिन्दी जानती हो? हम कहते थे, नहीं। तो कहती थीं, हे बुद्धू ! हिन्दी नहीं जानती! एक बार बाबा ने भी कहा था कि अमेरिकन ग्रुप को हिन्दी सीखनी चाहिए।

जब से मैं ज्ञान में आयी तब से मुझे यही अनुभव होता था कि मुझे बाबा खींच रहा है, हम इस दुनिया से अलग हैं, हमारी अपनी ही एक विशेष तथा अनोखी दुनिया है। मधुबन देखकर मुझे निश्चय हो गया था कि यह भगवान का यज्ञ है, यह मेरा घर है। यज्ञ के प्रति मुझे बहुत प्यार हो गया। मधुबन में दस दिन रहने के बाद हमें वापिस अमेरिका जाना था लेकिन मेरा वापिस जाने का दिल नहीं हो रहा था। मधुबन में ही रहने की इच्छा हो रही थी। मुझे संकल्प आया कि हमें कलियुगी दुनिया में क्यों जाना चाहिए, हम तो भगवान के बच्चे हैं, हमारा नया जन्म हो गया है। उस दुनिया से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है इसलिए हमें वापिस नहीं जाना है।

प्रश्नः ईश्वरीय ज्ञान में आगे बढ़ने के लिए आपको यहाँ कौन-सी विशेष बातें अच्छी लगीं?

उत्तरः यहाँ के मूल्य, सत्यनिष्ठता तथा अखण्डता (Values, truthfulness and integrity)। परमात्मा के अवतरण की बात, वर्तमान दुनिया की परिस्थिति आदि सब बातें, ज्ञान में पूरा विश्वास रखने तथा पुरुषार्थ में आगे बढ़ने का कारण बनीं। इससे भी ज़्यादा, मैं यह कहूँगी कि आत्मा में रहे हुए अनादि तथा आदि संस्कार, भरा हुआ संगमयुगी पार्ट तथा कल्प पहले की स्मृति ने मुझे आगे बढ़ाया। मुझे यह आभास होता था कि मैं पहले भी इस यज्ञ में थी। ब्रह्मा बाबा का फोटो देखते ही मुझे अनुभव हुआ कि इस व्यक्ति को मैं पहले से ही जानती हूँ, इस व्यक्ति के साथ मेरा बहुत गहरा सम्बन्ध है, इस व्यक्ति को मैं अच्छी तरह जानती हूँ।

प्रश्नः आपने ईश्वरीय सेवा किस रूप में और किस दिन से करना आरम्भ किया?

उत्तरः ज्ञान मिलने के पहले दिन से ही मैंने ईश्वरीय सेवा करना आरम्भ किया। जिस दिन मैं सिस्टर डेनिस से इंटरव्यू लेने गयी थी, अगले दिन से ही मैंने उस कार्यक्रम की रिपोर्टिंग करके ईश्वरीय सेवा का श्रीगणेश कर दिया था। उसके बाद मेडिटेशन कराना, कोर्स कराना शुरू किया। ज्ञान में आने के बाद से मैं हर साल मधुबन आ रही हूँ। साल में दो बार भी आयी हूँ। मैंने एक साल भी मिस नहीं किया मधुबन आने का। सन् 1981 से मैंने नियमित रूप से ईश्वरीय सेवा करना आरम्भ किया। सन् 1986 से मैं ईश्वरीय सेवार्थ समर्पित हुई।

प्रश्नः आपकी बच्ची क्या कर रही है?

उत्तरः जब मैं समर्पित हुई, उस समय उसकी आयु 18 साल की थी। उसने कहा कि मैं अपने पाँव पर खड़ी होना चाहती हूँ। तो मैंने कहा, ठीक है, जैसे तुम चाहो।

प्रश्नः क्या आपने उसको ईश्वरीय ज्ञान में लाने का प्रयत्न नहीं किया?

उत्तरः किया, उसकी दस साल की उम्र से ही मैंने ज्ञान में लाने की कोशिश की लेकिन उसकी आध्यात्मिकता में रुचि न होने के कारण, उसने ज्ञान में उत्सुकता नहीं दिखायी तो मैंने उसको उसके रास्ते पर चलने के लिए छोड़ दिया। अभी वह सैनफ्रेन्सिस्को में नौकरी करती है। भले ही वह ज्ञान में नहीं चल रही है लेकिन सेन्टर पर कोई सेवा है तो सहयोग देती है। कभी-कभी सेन्टर पर जाती रहती है।

प्रश्नः वर्तमान समय आपका क्या विशेष पुरुषार्थ है?

उत्तरः कर्म करते हुए सदा आत्म-अभिमानी रहने का तथा बाबा की याद में रहने का पुरुषार्थ करती हूँ। इसके अलावा मन को हमेशा स्वच्छ तथा सकारात्मक रखने का पुरुषार्थ करती हूँ।

प्रश्नः भारत के प्रति आपकी क्या भावना है?

उत्तरः भारत मेरा घर है, मेरी मातृभूमि है। मुझे यह पूरा निश्चय है कि पहले भी मैं यहाँ थी और आगे भी रहूँगी। सारे विश्व में दुःख है परन्तु भारत में सबसे ज़्यादा दुःख है। दुःख का मूल कारण है स्वार्थ तथा भ्रष्टाचार। विश्व के अन्य देशों में भी भ्रष्टाचार है लेकिन भारत में ज़्यादा है। इसके साथ एक विशेष बात यह भी है कि न केवल भारत के परन्तु सारे विश्व के दुःखों को दूर करने की चाबी भी भारत के पास है और वह है आध्यात्मिकता

प्रश्नः परमात्मा के साथ आपका अति प्रिय सम्बन्ध कौन-सा है?

उत्तरः माँ का। बाबा ने मुझे माँ के रूप में बहुत ही शक्तिशाली पालना दी है। जब मैं ग्यारह साल की थी तब लौकिक माँ को खोया। जब मुझे ज्ञान मिला और मधुबन आयी तो दादियों को मैंने माँ के रूप में अनुभव किया। हमेशा मैंने माँ की आवश्यकता का अनुभव किया और मैंने माँ को चाहा भी था। पिछली बार जब मैं बाबा से मिली तब सच में, बाबा ने मुझे माँ का बहुत प्यार दिया। बाबा के सामने मैं बिल्कुल एक छोटी-सी बच्ची बन गयी थी और बाबा ने मुझे माँ का प्यार और दुलार दिया। वह तो एक अनोखा अनुभव था जिसको मैं शब्दों में वर्णन नहीं कर सकती । मैं बाबा को पिता के रूप में, शिक्षक के रूप में तथा गुरु के रूप में भी अनुभव करती आयी हूँ परन्तु बाबा का माँ का स्वरूप मन को सकून देता है, शक्ति भरता है।

मुख्यालय एवं नज़दीकी सेवाकेंद्र

Dadi brijindra ji

आप बाबा की लौकिक पुत्रवधू थी। आपका लौकिक नाम राधिका था। पहले-पहले जब बाबा को साक्षात्कार हुए, शिवबाबा की प्रवेशता हुई तो वह सब दृश्य आपने अपनी आँखों से देखा। आप बड़ी रमणीकता से आँखों देखे वे सब दृश्य सुनाती

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Bk radha didi ajmer - anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी राधा बहन जी, अजमेर से, अपने साकार बाबा के साथ अनुभव साझा करती हैं। 11 अक्टूबर, 1965 को साप्ताहिक कोर्स शुरू करने के बाद बाबा से पत्राचार हुआ, जिसमें बाबा ने उन्हें ‘अनुराधा’ कहकर संबोधित किया। 6 दिसम्बर, 1965

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Bk suresh pal bhai shimla anubhavgatha

ब्रह्माकुमार सुरेश पाल भाई जी, शिमला से, 1963 में पहली बार दिल्ली के विजय नगर सेवाकेन्द्र पर पहुंचे और बाबा के चित्र के दर्शन से उनके जीवन की तलाश पूर्ण हुई। 1965 में जब वे पहली बार मधुबन गए, तो

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Dadi mithoo ji

दादी मिट्ठू 14 वर्ष की आयु में यज्ञ में समर्पित हुईं और ‘गुलजार मोहिनी’ नाम मिला। हारमोनियम पर गाना और कपड़ों की सिलाई में निपुण थीं। यज्ञ में स्टाफ नर्स रहीं और बाबा ने उन्हें विशेष स्नेह से ‘मिट्ठू बहन’

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Bk mohini didi america anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी मोहिनी बहन जी की जीवन यात्रा आध्यात्मिकता और सेवा के प्रति समर्पण का उदाहरण है। 1956 में ईश्वरीय विश्व विद्यालय से जुड़ने के बाद, उन्होंने न्यूयॉर्क में ब्रह्माकुमारी सेवाओं की शुरुआत की और अमेरिका, कैरेबियन देशों में आध्यात्मिकता का

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Dadi santri ji

ब्रह्मा बाबा के बाद यज्ञ में सबसे पहले समर्पित होने वाला लौकिक परिवार दादी शान्तामणि का था। उस समय आपकी आयु 13 वर्ष की थी। आपमें शुरू से ही शान्ति, धैर्य और गंभीरता के संस्कार थे। बाबा आपको ‘सचली कौड़ी’

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Bk kamla didi patiala anubhav gatha

ब्रह्माकुमारी कमला बहन जी, पटियाला से, अपने आध्यात्मिक अनुभव साझा करते हुए बताती हैं कि 1958 में करनाल सेवाकेन्द्र पर पहली बार बाबा से मिलने के बाद, उनके जीवन में एक अद्भुत परिवर्तन आया। बाबा की पहली झलक ने उनके

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Bk raj didi nepal anubhavgatha

काठमाण्डु, नेपाल से ब्रह्माकुमारी “राज बहन” जी लिखती हैं कि उनका जन्म 1937 में एक धार्मिक परिवार में हुआ था। भौतिक सुख-सुविधाओं के बावजूद, उन्हें हमेशा प्रभु प्राप्ति की इच्छा रहती थी। 1960 में पंजाब के फगवाड़ा में, उन्हें ब्रह्माकुमारी

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Bk vijaya didi haryana anubhavgatha

विजया बहन, जींद, हरियाणा से, श्रीकृष्ण की भक्ति करती थीं और उनसे मिलने की तीव्र इच्छा रखती थीं। उन्हें ब्रह्माकुमारी ज्ञान की जानकारी मिली, जिससे उनके जीवन में बदलाव आया। ब्रह्मा बाबा से पहली मुलाकात में, उन्हें अलौकिक और पारलौकिक

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Bk sundari didi pune

सुन्दरी बहन, पूना, मीरा सोसाइटी से, 1960 में पाण्डव भवन पहुंचीं और बाबा से पहली मुलाकात में आत्मिक अनुभव किया। बाबा के सान्निध्य में उन्हें अशरीरी स्थिति और शीतलता का अनुभव हुआ। बाबा ने उनसे स्वर्ग के वर्सा की बात

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Mamma anubhavgatha

मम्मा की कितनी महिमा करें, वो तो है ही सरस्वती माँ। मम्मा में सतयुगी संस्कार इमर्ज रूप में देखे। बाबा की मुरली और मम्मा का सितार बजाता हुआ चित्र आप सबने भी देखा है। बाबा के गीत बड़े प्यार से

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Didi manmohini anubhav gatha

दीदी, बाबा की ज्ञान-मुरली की मस्तानी थीं। ज्ञान सुनते-सुनते वे मस्त हो जाती थीं। बाबा ने जो भी कहा, उसको तुरन्त धारण कर अमल में लाती थीं। पवित्रता के कारण उनको बहुत सितम सहन करने पड़े।

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Bhau vishwakishore ji

बाबा के पक्के वारिस, सदा हाँ जी का पाठ पढ़ने वाले, आज्ञाकारी, वफादार, ईमानदार, बाबा के राइट हैण्ड तथा त्याग, तपस्या की प्रैक्टिकल मूरत थे। आप लौकिक में ब्रह्मा बाबा के लौकिक बड़े भाई के सुपुत्र थे लेकिन बाबा ने

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