आप विश्वकिशोर भाऊ की युगल (धर्मपत्नी) थीं। आप बहुत सरल स्वभाव की और बहुत मिलनसार थीं। आपको दिव्यदृष्टि का बहुत अच्छा पार्ट मिला हुआ था। शिवबाबा से जब भी कोई संदेश वा श्रीमत लेनी होती तो बाबा सन्तरी दादी को ही वतन में बाबा के पास भेजते। सन्तरी दादी यज्ञ का पूरा स्टॉक, वस्त्रों आदि का स्टोर संभालती। बाबा उन्हें बहुत प्यार से सन्तरू कहकर पुकारते। आपने कुछ समय कोलकाता में भी दादी निर्मलशान्ता जी के साथ रहकर सेवायें दी। आपको जैसे ट्रांस में जाने का अभ्यास था वैसे ही अचानक मधुबन में 13 दिसंबर, 1990 को रात में सोए-सोए अव्यक्त वतनवासी बन गईं।
मेरा ‘सन्तरी’ नाम बाबा ने रखा। लौकिक में मेरा नाम सावित्री था। छोटेपन में हम बहुत लाल दिखती थीं। यज्ञ स्थापना के शुरू में, हैदराबाद में, ओम निवास में योग के समय हम ध्यान में चली गई थीं, जिसमें हम श्रीकृष्ण को देख रही थीं और हमारे नयनों से जल टपक रहा था। बाबा ने देखकर कहा, यह तो जैसे लाल-लाल संतरे का जूस निकल रहा है। उसी समय से बाबा ने मुझे सन्तरू बेटा कहना शुरू कर दिया। इस प्रकार सन्तरी नाम बाबा से मिला। अव्यक्त नाम मिला ‘निर्मल इन्द्रा’, पर उस नाम से मुझे कोई नहीं जानता।
मुझे कोई बंधन नहीं था क्योंकि बाबा के साथ मेरा लौकिक संबंध ससुर का था। बाबा का एक बड़ा भाई था, उसने शरीर छोड़ दिया था। उसकी युगल थी घर में सबसे बड़ी, सभी भाई उसी को मानते थे। विश्व किशोर उन्हीं का बेटा था। वो मेरी सास थी। विश्व किशोर, 15 वर्ष की आयु से ही बाबा के साथ रहता था। मेरी जब शादी हुई, वो बाबा के पास कोलकाता में था। मैं भी शादी होकर कोलकाता ही आई, सिन्ध-हैदराबाद में रही ही नहीं। कोलकाता में नीचे गद्दी थी, ऊपर मकान था। मैं बाबा के साथ ही उस मकान में रहती थी। विश्व किशोर ने सदा बाबा को ‘हाँ जी’, ‘हाँ जी’ कह रिगार्ड दिया तो मैं भी उसी रीति से चल पड़ी। मैं छोटी थी, बाबा मेरे को बच्ची समझके चलता था, बहू नहीं समझा। बहू तो बहुत अदब से चले, घूंघट करे, यह नहीं। मैं तो चुनरी ओढ़ती थी, उसके लिए भी बाबा कहते थे, यह अभी छोटी है, यह बंधन क्यों रखा है। बाबा ने कहा, जैसे पुड्डु, जैसे पालू, वैसे ये। यह बाप को छोड़ आई तो हमारी हो गई ना। तो बाबा ने मेरी पालना इस रीति से की। मैं भी बाबा के साथ इसी रीति से चली। मेरे को कोई बंधन नहीं था।
घर में भक्ति बहुत थी। हम भक्ति में ही रहते थे। मैं छोटी थी, बाबा मुझे कहते थे, सुबह उठकर गीत गाओ। जसोदा मैया तीन बजे उठकर माला फेरती थी। मैं बाबा के पास चली जाती थी। पुड्डु होती थी, हम सब एक ही खटिया पर बैठ जाते थे। बाबा कहते थे, गीत गाओ। मैं ब्रह्मानन्द की पोथी का एक गीत रोज याद करती थी और बाबा को सुनाती थी। बाबा को अच्छा लगता था। फिर बाबा हॉकी लेकर बाहर घूमने चले जाते थे। हम लोग पीछे जाते थे और झाड़ के नीचे बैठकर गीता पढ़ते थे। जब बाबा लौटते थे हॉकी खेलके तो गेंद फेंकते थे, कहते थे, दौड़ो, दौड़ो। इस प्रकार हमको खेल कराते थे, फिर हम इकट्ठे चले आते थे। सात बजे हमको लेने के लिए गाड़ी आती थी।
मैं पूजा करती थी जैसे कि जसोदा मैया करती थी। हम लोग कहीं नहीं जाते थे। घर में मन्दिर था। जब ज्ञान में आये, ध्यान में बैठे तब कई बातें स्पष्ट हुई परन्तु बाबा ‘विशेष है’ यह फीलिंग पहले से ही आती थी। जो बाबा बोले, उसे राइट समझ मैं उस पर कदम-कदम चलती थी। मैं जब 15 वर्ष की थी तब ज्ञान में आई थी, मेरे मन में आता था कि मैं बाबा की सेवा करूँ। बाबा आते थे, स्नान करते थे, खाना खाते थे, खाना तो नौकर खिलाते थे, मैं बाबा के आगे खड़ी हो जाती थी। ग्यारह बजे नीचे दुकान पर जाते थे। जाते समय बाबा जूते पहनते थे, घर में खड़ाऊँ पहनते थे। जब जाते थे, मैं इलायची हाथ में देती थी।
विश्व किशोर तो बाबा के संग-संग रहता था, बाबा की दुकान चलाता था। बाबा शाम को पाँच बजे दुकान से चले जाते थे हॉकी लेकर मैच खेलने। बाबा को हॉकी का शौक था। जब भी बाबा दुकान से ऊपर आते थे, ऐसे ही नौकरों के भरोसे सब छोड़कर आते थे। दरबान ही बंद करते थे। इस प्रकार कभी चोरी भी नहीं देखी। बाबा सब पर विश्वास करते थे। बाबा नौकरों पर जितना विश्वास करते थे, उतनी ही उनकी पालना करते थे। उनके परिवार की देखभाल करते थे ताकि वो चोरी न करें। तिजोरी में सब जेवर आदि भरे रहते थे लेकिन बाबा पूजा में निश्चिन्त होकर बैठता था। कोई भी संकल्प नहीं चलता था कि ये चोर है या अलमारी खुली हुई है। इस कारण बुद्धि हल्की रहती थी। फिर सात बजे दुकान पर आते थे। बाज़ार में सभी से मिलजुलकर फिर घर आ जाते थे। फिर घर के मन्दिर में आरती होती थी, उस समय तक सब पहुँच जाते थे। मेरी खटिया के आगे बाबा का चित्र लगा रहता था, विश्व किशोर की खटिया के आगे श्रीकृष्ण का चित्र लगा रहता था। सुबह उठ पहले बाबा का चित्र देखती थी, उससे फिलिंग आती थी, कोई चीज़ मुझे प्राप्त हो रही है, जिसे मैं पकड़ती रही। मैंने यह बात किसी को सुनाई नहीं, पर महसूस करती थी।
एक बार तबीयत खराब हुई, अपेन्डिक्स का दर्द हुआ। बाबा ने डॉक्टर बोस को बुलाया। उसने मेरी नाड़ी देखी, हाथ लगाते ही मुझे दर्द-सा हुआ। मेरे मुख से ‘आह’ की आवाज आई। बाबा ने सुन लिया। बाबा बोले, बच्ची, ये आह की आवाज तुम्हारी थी, क्या हुआ? मैं तो कमजोर और छोटी थी। मैने कहा, हाँ बाबा। बाबा बोले, बेटी, तुमको दर्द हुआ, तुम्हारे में इतनी शक्ति नहीं है जो दर्द सहन कर सको। कोई तुमको डाँटे तो क्या करोगी, रोओगी? अभी कभी ऐसे नहीं करना। ऐसी शिक्षा बाबा ने दी कि दुख में भी खुशी का आभास होना चाहिए। सहनशीलता का गुण सबसे बड़ा है।
बाबा को देखते ही बीमारी भूल जाती थी। नर्स इंजेक्शन लगाकर जाती थी। मैं सोई रहती थी पर बाबा को याद करते ही दर्द महसूस नहीं होता था। विश्व किशोर आए, मेरे पास बैठे, कुछ कहे, करे, ऐसा कुछ नहीं था। वो अपनी रीति से बाबा का बच्चा, मैं अपनी रीति से बाबा की बच्ची, ऐसे ही पवित्र जीवन हमने निभाया। मेरा जीवन बचपन के समान था, और अभी भी बचपन लाइफ समझकर चल रही हूँ।
मैं अपनी बुद्धि को बाबा के पास रखकर जवाब देती हूँ। बाबा कहता था, जिस समय पास कोई आये, याद दिलाना, बच्ची, बाबा भूल तो नहीं गये। बाबा ने जो मेरे से कराया, वो मैं तो अपने पास जमा रखूँ ना।
एक बार बाबा बनारस अकेले गए थे, वहाँ जो अनुभव होता था, लिखकर भेजते थे, बच्ची, मैं ध्यान में चला गया आदि-आदि। बाबा का वायदा था जसोदा मैया के साथ कि तुम और हम इकट्ठे ही चलेंगे। बाबा जब ऊपर गया तो सोचा, मैं जसोदा को साथ लाया ही नहीं, तो नीचे उतर आया। यह बाबा ने पत्र में लिख भेजा। रोज़ पत्र आता था। मैं भी सुबह में चार बजे ध्यान में बैठती थी तो अनुभव होता था, बाबा मेरे को बता रहे हैं, बाबा मेरे से बात कर रहे हैं। मैं फिर वो ही लिखती थी। हम तब दादा बोलते थे, बाबा बाद में बोला है।
बाबा के कई गुरु आते थे, बाबा सेवा करते थे। एक महाराज था, वह गरीब था। उसके पास पाँच-सात लड़कियाँ थीं। बाबा उसको खिलाता-पिलाता था, बच्चियों की शादी में भी मदद की। बाबा का अन्तिम गुरु गुजराती था। बाबा का दूसरा भाई, ‘रूपचन्द ब्रदर्स’ वाला ही बाबा को उस गुरु के पास ले गया। वह गुरु करांची में आया। बाबा ने वहाँ एक मकान लिया। हम उस मकान में रहे। उसकी बाबा ने बहुत सेवा की। उससे बाबा को ज्ञान की रीति से कुछ मिला, जिससे बाबा चेंज होता गया। हम भी साथ-साथ चेंज होते गए। जैसे जसोदा मैया करती थी, मैं भी वही करती थी। हम उसको भाभी जसोदा कहते थे। मैं तीन घंटा पूजा करती थी। सारी सुखमणि, जपसाहेब, भागवत गीता, पाण्डव गीता पढ़ती थी। संस्कृत मैने पाँच क्लास पढ़ी थी, गुरुमुखी भी पढ़ी। बाद में सिन्धी पढ़ी और अंग्रेजी की भी दो क्लास पढ़ी। उसके बाद बाबा मुझे ले गया। बाद में बाबा ने जो पढ़ाया, वही पढ़ी।
कभी पैसा पास नहीं रखा, मेरे मन में जो संकल्प आता था वो बताती नहीं थी, बस कागज़ पर लिख देती थी, और वह संकल्प समाप्त हो जाता था। मैंने कभी एक पाई भी अपने पास नहीं रखी इसलिए कि संकल्प उठेगा, मेरे पास पैसा रखा है। घर में आठ नौकर थे, मैंने कभी भण्डारे की शक्ल नहीं देखी। मैं घण्टी बजाती थी, पानी भी हाथ में मिलता था। बोलती मैं बहुत कम थी, सभी कहते थे, कितना धीरे बोलती है। छोटेपन में भी पढ़ाई में ध्यान रहता था, मैं किसी के संग में नहीं आती थी। कभी जरूरत पड़ी, बाज़ार गई और कपड़ा अच्छा लगा तो दुकान पर चला जाता था, पैसे वो दे देते थे। हज़ार का सामान लूँ या दस हज़ार का, मेरे पर कोई रोक-टोक नहीं थी। हमारी ममता तो होती नहीं थी, ले आती थी तो भी सबके लिए। घर तो भरा हुआ था।
सिन्ध में तीनों भाइयों (बाबा तीन भाई थे) का इकट्ठा परिवार था। विश्व किशोर की माँ ने बाबा की अपने हाथों शादी कराई, अपनी भांजी देकर इसलिए फिर बाबा ने भी विश्व किशोर को अपने साथ रखा। तीसरा भाई ज्ञान में नहीं आया। थोड़े समय उसकी युगल आई थी।
बाबा शुरू से फ़राख़दिल थे। गरीबों पर विशेष दया भावना थी कि इनको सुखी रखना चाहिए। ज्ञान में आने के बाद तो बाबा की पूरी समदृष्टि हो गई। सिन्ध में बाथरूम साफ करने वाली आती थी। वह ध्यान में जाती थी तो बाबा उसको ऐसे नहीं समझता था कि यह क्यों आती है। बाबा ने अपने गुरु को बुलाया था सिन्ध में तो अपने सामने बाथरूम साफ कराया। वह सफाई वाली साफ करके जाती थी तो बाबा गुलाब जल ले जाकर छिड़कता था, इतनी भावना थी।
जब बाबा ने कारोबार समेटा, उस समय मैं वहीं थी। एक दिन बाबा रात में चौपड़ खेल रहे थे तब बाबा का जो लौकिक पार्टनर (भागीदार) था, उसे बाबा प्यार से भाऊ कहते थे। खेलते-खेलते बाबा को संकल्प आया कि छोड़ो तो छूटे। तो थोड़ी देर बात हँसते हुए, कौड़ी फेंकते हुए बाबा बोले, भाऊ, देखो सोच चलता है कि इसको छोड़ दूँ। भाऊ बोले, किसको बाबा बोले, इस धंधे को, सचमुच बोलता हूँ, आप इसको संभालो। तो पार्टनर भी बड़ी-बड़ी चीजें माँगने लगे। मेरे को यह घर देंगे, बाबा कहे, हाँ। मेरे को यह अलमारी देंगे (जिसमें सोने-चाँदी के बर्तन व जेवर भरे हुए थे) बाबा बोले, हाँ। मेरे को ये देंगे, वो देंगे। माना भाऊ माँगता जाये, बाबा हाँ-हाँ करता जाये। ऐसा सब चीजों को देने में हाँ-हाँ करने पर भागीदार का सोच चला कि दादा का दिमाग तो कहीं ठीक नहीं है? तो रात में तो ऐसे ही बातें करते-करते सो गये। सवेरे होते ही भाऊ ने बाबा को कहा, पक्का है, पक्का है, ठीक है? बाबा ने कहा, हाँ। फिर बाबा बोले, अच्छा भाऊ, जो तुमने कहा है, उसे कोर्ट में जाकर पक्का लिखा-पढ़ी कर लें। इस प्रकार बात-बात में ही स्थूल व्यापार को छोड़कर बेहद ज्ञान-रत्नों के व्यापार में लग गये।
बाबा का एक काका था मूलबन्द। उसकी बाबा बहुत मानते थे, सेवा भी करते थे। उसने अपना सारा जीवन प्लेग पीड़ितों की सेवा में लगाया। दान-पुण्य में अपनी सारी मिलकियत दे दी थी। धर्मशाला बनवाई थी। सारे सिन्धी लोग उसे ‘आजवाला सन्त’ के नाम से जानते थे। मुम्बई में उसका आज (हाथी दांत) का व्यापार था। प्लेग में हाथों से सेवा करता था। बहुत मान था उसका। वह सारी रात गोद में तकिया रखकर बैठा रहता था और जपता रहता था, ‘हरि तुम शरणं, हरि तुम शरणं..।’ बाबा ने मूलचन्द काका को कहा था, मैं व्यापार छोडू पर काका ने कहा, जब मैं कहूँ तब छोड़ना, पहले नहीं। फिर बाबा ने बोला, मेरी इच्छा है, काका, जब आप शरीर छोड़ेंगे तो मैं भी व्यापार छोहूँगा तथा अपने हाथों से आपका अंतिम क्रियाकर्म करूँगा। बाबा, सिन्ध में अम्मी को बोलकर गया था, जब ऐसा हो, हमको (कोलकाता से) बुलाना। रात में बाबा ने व्यापार छोड़ने की बात भागीदार से की और अगले दिन ही बाबा को तार मिल गया कि काका मूलचन्द ने शरीर छोड़ दिया है। ‘बस, बाबा के अंदर का जो संकल्प था वो भी पूरा हुआ’ कारण बाबा ने संकल्प लिया था कि काका शरीर छोड़ेंगे तो मैं व्यापार छोड़ दूँगा। अब बाबा सिंध के लिये रवाना हुए। जैसे ही इलाहाबाद से बाबा गुजर रहे थे तो त्रिवेणी का संगम याद आया। अचानक बाबा को साक्षात्कार ट्रेन में बैठे-बैठे ही होने लगा। घुँघरू की आवाज व सतयुगी दृश्य, श्रीकृष्ण सबको दिखाई देने लगा। साक्षात्कार में ही बाबा ने त्रिवेणी नदी में काका के क्रियाकर्म का कार्य किया। इस प्रकार बाबा का सूक्ष्म संकल्प, साक्षात्कार में व साकार रूप में पूर्ण हुआ। सिन्ध में आने के बाद बाबा रोज़ शाम को गीता पढ़ते थे और उस पर समझाते थे। कई लोग आकर सुनते थे। धीरे-धीरे क्लास बढ़ता गया। बाद में, बाबा ने करांची में आठ बंगले लिए जिनमें अलग-अलग वर्ग की आत्माओं को रखा। दीदी का लौकिक पति भी बारह मास आया, ध्यान में भी गया पर बाद में एण्टी हो गया, कहने लगा, मुझे कुछ साक्षात्कार नहीं हुआ, मैंने तो ऐसे ही बोल दिया था।
जब मैं लौकिक घर में थी, हमको अलग-अलग अलमारी मिली हुई थी, उसी में भण्डारी होती थी। जो कुछ मिलता था, हम उसमें डालते थे। फिर मैं बाबा के पास आ गई पर जब कोई विशेष दिन होता था या अन्य बच्चों को खर्ची देते थे तब भी मेरे नाम से उस भण्डारी में (लौकिक घर में) कुछ-कुछ डालते रहे। हम लौकिक में भी चाँदी के बर्तनों में खाते थे, बाबा के पास भी चाँदी के बर्तनों में खाते थे, तब हमारे यहाँ चाँदी ही चलती थी। तो मेरे चाँदी वाले बर्तन भी उसी भण्डारी में पड़े थे। एक दिन बाबा ने कहा, जब विश्व किशोर सरेण्डर है तो तुम भी सरेण्डर हो। पर बच्ची, तुम्हारे नाम पर लौकिक में जो रखा है, वह तुम्हारा है, वह तुम लिखकर भेजो। हमारी माँ दो मास, छह मास बाद करांची आती थी, मिलकर जाती थी। कहती थी, इस जैसा सुख किसी को नहीं है। जब वो आई, हमने बोल दिया कि हमारे नाम पर यह सब है क्या? बोली, हाँ, हम तो कभी खोलते भी नहीं हैं। फिर सब सामान जिसमें काले हो गए चाँदी के बर्तन, 60 या 70 गिन्नियाँ थीं, लेकर आई। पैसा भी था कुछ, सब ले आई। बाबा बोला, यह तुम्हारा कर्ज उन्हों के पास पड़ा था, तभी तुम्हारी तबीयत ऊपर-नीचे हो जाती है। ऐसे-ऐसे चरित्र बाबा के देखे।
एक बार गेहूँ की 40 बोरियाँ बाहर टेनिस कोर्ट में सुखाने के लिए रखी हुई थीं। बाबा ने बोला, मम्मा, गेहूँ अन्दर रख दो। मम्मा ने कहा, ठीक है बाबा। फिर दीदी ने कहलवाकर भेजा, बाबा नौकर तो आया ही नहीं है। तो बाबा ने कहा, मम्मा तुम्हारी मिलिट्री मैदान में नहीं आयेगी? सब लगे हाथ सारी बोरियां अन्दर पहुँचा दी। एक बोरी बच गई तब इतनी बरसात आ पड़ी। इससे पहले कड़ी धूप थी, बरसात का मौसम भी नहीं था। ऐसे कई प्रकार के चमत्कार बाबा के देखे।
ज्ञान में आने के बाद बाबा एक बार दिल्ली में रूप ब्रदर्स (बाबा के बड़े भाई की दुकान) गये हुए थे। बाबा का रोहतास वाला 11 वां गुरु आया। तो बाबा को देखकर गुरु जी बोले, दादा, आप को तो भगवान मिल गया तथा उसी समय बाबा के चरणों पर गिर पड़ा तो बाबा को बड़ा आश्चर्य लगा कि कल जो मेरा गुरु था, आज वह कैसे चेले की तरह चरणों में गिर रहा है।
बाबा में परखने की शक्ति इतनी आ गई थी कि जो भी घर में जिस किसी संकल्प को लेकर आता था, बाबा उसको ऐसे पूछते थे जैसे सब जानते हैं। उसको वही बात, राय व सौगात देकर संतुष्ट करके भेजते थे कि उसका संकल्प साकार होने पर वह आश्चर्य व खुशी से हमेशा बाबा का गुणगान करता रहता था।
मेरे को कभी दमा होता था, बाबा ऐसे हाथ रखता था, दमा उतर जाता था। मैं कभी डॉक्टर की दवा नहीं करती थी। एक बार पेट में बहुत दर्द हुआ। उठके खड़ी नहीं हो सकती थी। बाबा को चिन्तन चला, यह हॉस्पिटल भी दिखाने नहीं जाती है। मैंने तो सोच रखा था, बाबा बैठे हैं आपे करेंगे। डॉक्टर ने राय दी थी, इसे हॉस्पिटल भेजो। मैंने कहा, मैं कभी हॉस्पिटल नहीं जाऊंगी, अविनाशी हॉस्पिटल में बैठी हूँ, बाबा है ना। बाबा को बहुत औना था। रात को एक बजे मेरे लिए योगदान दिया। मैंने बाबा को सामने बैठे हुए देखा। एक से चार बजे तक बाबा बैठे रहे, मैं यह थोड़े समझी थी कि मेरे लिए बैठे हैं। बाबा तो वैसे भी जागते थे, लिखते थे, पढ़ते थे। तो मैंने देखा, बाबा शिवबाबा से इतना योग लगा रहे थे और मेरे पेट में जैसे कटा-कुटी की फीलिंग आ रही थी। चार बजे बाबा सामने आकर खड़े हुए, पूछा, बेटी, रात को नींद की? मैंने कहा, बाबा, नींद तो नहीं आई पर मेरे अन्दर कुछ कटा-कुटी चल रही थी, पता नहीं क्या हो रहा था। बाबा ने कहा, हाँ, अच्छा, उठो, यहाँ से वहाँ बाथरूम तक चलो। मैं उठ गई, चली, कुछ नहीं हुआ। नहीं तो उठने से ही इतनी तकलीफ होती थी। एकदम दर्द बंद हो गया, खत्म हो गया। एकदम ऑप्रेशन हो गया। मेरे अंदर तो भावना इतनी बढ़ गई कि बाबा जो भी करता है, ठीक ही करता है।
बाबा दो बजे उठ जाते थे, धीरे-धीरे चलते थे, मैं भी जग जाती थी। बाबा कहते थे, तुमको नींद ही नहीं आती है क्या, जो तुम उठ जाती हो। मैं कहती थी, नहीं बाबा, नींद तो करती हूँ, ऐसे ही जाग गई। अभी तक भी मैं रात को जागती हूँ। सवा तीन बजे तो खटिया छोड़ देती हूँ, सोने की इच्छा नहीं होती है। जागृत रहने का मेरे को अभ्यास है। डॉक्टर बोलेगा, नींद की गोली लो, मैं कहती हूँ, मुझे जरूरत ही नहीं है। कभी भी मैं अलार्म नहीं लगाती, स्वतः उठने का अभ्यास है। दो बजे, तीन बजे, जब चाहूँ, आँख खुल जाती है।
मेरा सतोगुणी संस्कार बचपन से ही था। धीरे बोलना, किसी को दुख न देना, यह हमको समझ थी। बाबा से सीखा, जिसकी बात हो, उसको सामने बोल दो, मैं बोलती हूँ। अभी कारोबार में, कभी किसी को जोर से कुछ बताना, कहना हो जाता है परन्तु अंदर से नहीं, बाहर से बोलती हूँ। अन्दर से मेरे को रहेगा, कोई समय इसे बैठकर समझाऊँ ताकि इसकी ग्लानि ना हो। जैसे बाबा रहम करता था, मुझे भी रहम आता है कि इसकी ग्लानि माना बाबा की ग्लानि। कोशिश करती हूँ, यह सुधर जाए तो अच्छा है। बाबा ने मेरे को समझा दिया है कि कुछ देखो तो डायरेक्ट बोलो। मैं डायरेक्ट ही बोलती हूँ कि ऐसे नहीं, ऐसे करो। इसकी बात उसको नहीं बोलती हूँ। सुधारने की रीति से बताती हूँ ताकि उसका रिकार्ड अच्छा रहे।
हमारे को कभी हद का संकल्प आया नहीं कि बाबा उसको ज्यादा प्यार करता है या इसको ज्यादा करता है। मेरे को एक बार बाबा मिल गया और मिला भी भरपूर है। अभी भी कोई बोले, बाबा अव्यक्त हो गया, मैं कहती हूँ, बाबा मेरे साथ है। चाहे व्यक्त है, चाहे अव्यक्त, बाबा ने देह से न्यारा तो कर ही दिया। मेरे को अभी भी कोई बोलेगा, यह काम करो, बुद्धि में आयेगा, करूँ। अंदर में रहेगा, बाबा को कराना होगा तो करेंगी, बाबा ले चलेगा तो जायेंगी, बाबा बोलेगा, तो करेंगी। पहले तो मैं ध्यान में भी जाती थी। बाबा का संदेश लाना, ले जाना-यह मैं ही करती थी। बीमारी में दवाई करती हूँ पर अंदर में रड़ियाँ (शोर-आवाज) नहीं हैं। सहनशीलता का गुण बाबा ने सिखा दिया। बचपन में मुझमें सहनशीलता नहीं थी। अंदर रोना आ जाता था कि मेरे को ऐसा क्यों बोला? लेकिन वो बाबा ने छुड़ा दिया। अब चाहे जो हो, मुझे कुछ नहीं होता। बाबा गये, वो भी देखा, मम्मा गई, वो भी देखा, आँसू नहीं बहाए। विश्व किशोर के भी सामने थी, वो गया, तो भी नहीं रोई। बाबा जो कर रहा है वो राइट है।
मैं विदेश अकेली गई, अंग्रेजी नहीं जानती हूँ। जमैका, न्यूयार्क आदि कई शहरों में गई। जहाँ से निकलती थी, वहाँ से लिखाकर निकलती थी कि मुझे क्या चाहिए, दूध चाहिए, फल चाहिए। प्लेन वाले मेरे कागज़ आपे ठीक कर देते थे। कोई न कोई सहयोगी भी मिल जाता था। लौटते समय जब हम लंदन में उतरी, मुझे दादी जानकी से बात करनी थी पर फ़ोन कहाँ है, मालूम नहीं था। एक गुजराती भाई गया। पासपोर्ट देखने वाली बाहर ले गई, बाहर सभी क्लास वाले खड़े थे। वो मुझे सेन्टर पर ले गए। जब कभी कहीं लिफ्ट में चढ़ती थी, मुझे देख कहते थे, ये तो फरिश्ते आये हैं। आकर्षण हो जाता था। सफेद कपड़े पहने हैं, फरिश्ते आये हैं ऐसे कहते थे। भावना में कई गिफ्ट भी देते थे। बाबा को याद करते-करते बोलती थी, बाबा पहुँचाओ। बाबा कहते हैं; बाबा को याद करो, भूलो नहीं पर मैं कहती हूँ, मेरे से बाबा कभी भूलता नहीं। शरीर रूपी प्रकृति चलती रहती है, मैं बाबा को याद करती रहती हूँ। भले कोई बात करता है, पर मैं बुद्धि नहीं लगाती हूँ जैसे सुना, असुना। खाने पर कोई बात करेगा, मैं जवाब नहीं देती हूं। कोई समय देती भी हूँ तो सोचकर देती हूँ। मैं बुद्धि को बाबा के पास रखकर जवाब देती हूँ।
बेगरी पार्ट में मुझे कोई फीलिंग नहीं आई, और ही अच्छा लगा। जमना घाट पर मनोहर बहन सेवा में थी। वहाँ गौरी शंकर मन्दिर में जाकर सेवा करते थे। वहीं खाना-पीना करते थे। अनाज मिलता था, बनाके खाते थे। मैं जिस दिन आबू से जमना घाट पहुँची तो दो पैसे के एक किलो टमाटर लेके गई थी। उस दिन मैं जमनाघाट पर अकेली रही। सब खुला-खुला था। साधुओं का चूल्हा (लकड़ी) जलता रहता था। थोड़ा आटा पड़ा था, उसमें नमक पड़ा था। मैंने आटे को रोटी की तरह करके, चूल्हे में पका लिया। मैं इतना ही खाती थी। बाबा कहता था, मम्मा, एक गिट्टी मैं खिलाऊँ, एक तुम खिलाओ तो इसका पेट भरा। एक टमाटर डाला कटोरी में, उसका रस निकल आया, उसके साथ खाया, बहुत मीठा लगा। यह समाचार मैंने अपनी लौकिक माँ को लिख भेजा कि माँ, आपने मेरी राजाई भी देखी और आज उस राजाई को त्यागकर मैंने ऐसे खाना खाया, बहुत मीठा लगा। मेरी माता बहुत खुश हुई। वह तो जानती थी, मैने क्या-क्या पहना, कैसे-कैसे रही। मेरे को बोलते थे, तुम इतना जेवर पहनकर मत आया करो, किसी की नज़र पड़ जायेगी। हम लोगों ने देखा है, तुम्हारे पास बहुत है। पिताजी भी ऐसे बोलते थे। मेरा पत्र पढ़कर माँ ने कहा, यह तो और ही अच्छा है, तुमको दुख तो नहीं हुआ ना। आज तक मैंने क्या-क्या खाया होगा, याद नहीं पर वो खाना आज तक भी याद है क्योंकि उसमें रसना भरी थी, बाबा की ताकत थी। भरी और भाखर में एक समान रहे, बाबा ने यह सिखाया।
दो साल बाद हमारी लौकिक माँ ने लिखा, तुम यहाँ क्यों नहीं आती हो। उसने बाबा को निमंत्रण दिया। बाबा ने कहा, मम्मा, इसे भेज दो, दो दिन के लिए, फिर मुझे कहा, बेटी, दिल नहीं लगे तो दो दिन में लौटकर आना। अब देखो, बॉम्बे, पूना जाऊँ, वहाँ से बैंगलोर जाऊँ, दो दिन में कैसे लौटूंगी। पर वो भी सोच नहीं चला, हम बॉम्बे में रही, पूना में रही, पूना में लौकिक बहन थी, अभी वो विदेश में है। उसके पास हमारी लौकिक माँ आई थी, उसकी लड़की की शादी थी। मुझे वहाँ से बैंगलोर भेज दिया, हमारा जापान वाला राम भाई उस समय वहाँ रहता था, जापान तो बाद में गया है। उसके पास रही। सत्संग करने लगे, वहाँ 5 मास लग गये। चन्द्रमणि की बहन भी वहाँ रहती थी। मैं सेवा में लग गई, सबको सेवा पसंद आई। फिर होली आई तो बाबा ने लिखा, बच्ची, चली आओ। होली के दो मास बाद उन्होंने फिर बुला लिया सेवा पर। बाबा ने भेजा था एक मास के लिए, मैंने 15 मास लगाए। बाबा की गुप्त पालना हेतु शिलांग में भी ईश्वरीय सेवार्थ गई। वहाँ माताओं का सत्संग होता था। वहाँ मुझे 7 मास रोक लिया। मद्रास में शान्तामणि की भाभी थी, उससे फोन में बातचीत होती थी। सबसे मदोगरी मिलती गई, हम यज्ञ में भेजती गई, यह बेगरी पार्ट में हुआ। गुवाहाटी में गई तो वहाँ वाशी भाई था। बहन भी थी। जाते ही, उसे पहला तलब (पैसा) जो मिला, बोला, भेजो वहाँ (यज्ञ में), उनको ज्ञान नहीं था पर बाबा टच करता था ना। वह पूना में रहता था। तब दादी जानकी को बाबा कहता था, मकान आदि के बारे में तुम उस बच्चे से पूछो, वह बहुत अच्छा है। वो तुमको सब बतायेगा। बाबा की भावना ऐसी थी। उनको भी बाबा में बड़ी भावना थी। उसको छाती में एक गोली-सी निकली थी, डॉक्टर बोले, ऑप्रेशन करना पड़ेगा, क्या पता, कैन्सर है, क्या है? टाटा हॉस्पिटल में जगह खाली न होने के कारण इसे घर पर रोक दिया था और एक पहचान वाली ने कहा, जैसे ही कमरा खाली होगा, मैं तुमको फोन करके बता देंगी। रात को वह सोया, सुबह चार बजे उठा तो देखा, बाबा सामने खड़ा है, एक डॉक्टर भी खड़ा है, एक और भी कोई है। बाबा ने कहा, इस बच्चे को तो कुछ है ही नहीं, डॉक्टर इसका ऑप्रेशन करना है? वो तो मैं कर देता हूँ, यह गोली देता हूँ, खा लेना। जैसे ही वह उठा, अपनी युगल को सब बताया। वह ओम मण्डली में छोटेपन में आता था, ध्यान में जाता था। सात बजे बॉम्बे से फोन आया, कमरा खाली है, आओ। उसने फौरन जवाब दिया, मैं नहीं आऊँगा, आना कैंसिल है। बाबा ने जो दवाई का नाम बताया, वह ली और उसी घड़ी से वह बीमारी चली गई। बाबा की भावना में सारा परिवार चला, ज्ञान उठाए, ना उठाए पर यह बाबा है, हर जगह बाबा का चित्र रख दिया। पासपोर्ट में, ऑफिस में सब जगह चित्र रखे। इस प्रकार आत्माओं को अनुभव होते रहे। राम भाई आबू में आते थे, बाबा हाथों से माखन-रोटी खिलाते थे। उस पालना के प्रभाव से अभी बहुत सहयोगी हैं।
मैं पूना में थी, फोन द्वारा बुलावा आया। मैं पूना से मुंबई आ गई। बाबा का यूरिन आना अचानक बंद हो गया इसलिए प्रोस्टेट का ऑप्रेशन था। ऑप्रेशन करने वाला डॉक्टर चेन स्मोकर था। रात को नर्स आती थी, बाबा जी, बाबा जी बोलती थी। शान्तिलाल डॉक्टर था। सिगरेट पर सिगरेट पीता था। अंदर घुसते ही सिगरेट फेंक दी। वह हाल-चाल पूछता था, बाबा कहता था, ओके। वह कहता था, ऐसा ओके वाला पेशेन्ट तो आज तक नहीं देखा। बाबा कहता था, कुछ भी हो जाये, चेहरे पर असर ना आये। यह गुण मैंने बाबा से उठाया। कुछ भी होता है, मैं कहती हूँ, ठीक है, सब ठीक है।
कोई समस्या आती है, मेरे पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। बाबा ने तो पहले ही बोल दिया है, ऐसे-ऐसे होगा। वो सब मेरे दिल में जँचा हुआ है। फिर मैं सोच क्यों करूँ, पर पुरुषार्थ हर बात में करना है। किसी बात में ढिलाई नहीं करनी है। जो आज करना है, वो अब करो। चाहे लाखों की चीज़ हो, चाहे हजारों की, कभी ना नहीं बोलना, यह बाबा ने सिखाया। बाबा का मकान बना, उसमें मेरा हाथ सदा (दाता का) था। मकान के लिए पैसा चाहिए पर मौजूद नहीं है। मैं पूछती थी, कब चाहिए, कल ना? कल मिल जायेगा, कल तक प्रबंध हो जायेगा। बाबा ने हाथ डाला है तो पूरा होगा ही। जिसका हाथ ऐसे (दाता का) उसका कोई काम रुक नहीं सकता। अब मेरा पुरुषार्थ यही है, फालतू बातें करनी नहीं, बाबा की देखी हुई दिनचर्या पर चलती हूं, कुछ भी हो, अमृतवेले खटिया छोडकर जरूर जाती हूं, रोज बाबा से ज्ञान के प्वाइंटस मिलती हैं। यही धारणा रखती हूँ कि बाबा जो कहता है, उसमें रेस करो, रीस मत करो।
मम्मा जिस दिन गई, उस दिन सुबह में सबको अंगूर की टोली मिली थी। रेस्ट के बाद शाम को चार बजे बाबा उठे, बोले, बच्ची जाओ, मम्मा को देखकर आओ। मैं बाबा को पानी हाथ में देकर गई और मम्मा की स्थिति देखकर दौड़कर आई, कहा, बाबा, बाबा, आओ। बाबा चले और मम्मा को देखकर बोले, बाबा को जो करना था सो किया, मम्मा, बाबा के पास चली गई। बस इतना बोला। बाहर से बाबा पर कोई प्रभाव रहीं दिखा, पर अंदर से बाबा जाने। फिर पंजाब से मनोहर दादी, मिठू दादी आई, बाबा झोंपड़ी में पत्र लिख रहा था। ये दोनों बाबा के पास चुप करके आकर बैठी, फिर रोने लगीं। बाबा ने कहा, तुम बाबा के आगे, मम्मा के लिए रोने आई हो क्या? यह किसका काम है? समझ चली गई है क्या, रोते कौन हैं, विधवा होते हैं तो रोते हैं, यह अज्ञान लेके आई हो?
मम्मा की विशेषता थी, बाबा ने जो कहा, फौरन करती थीं। बाबा ने कहा, आज 10 बजा है, प्लेन में विश्वरत्न को भेजूंगा। आज मुरली लेकर जायेगा, टेप में भरी है। आपको दस कापी, दस सेन्टर में भेजनी हैं; कैसे भेजोगी? मम्मा कहती थी, मिल जायेंगी बाबा आपको, मिल जायेंगी। मम्मा बाहर निकलती थी। कहती थी, चलो, चलो, उठाओ पैन्सिल, सब लिखने बैठ जाते थे। मम्मा बोलती रहती थी, कापियाँ बन जाती थी, समय पर चली जाती थीं। मम्मा ने कभी ना नहीं की। मम्मा में हाँ जी भी था और प्रैक्टिकल करने की हिम्मत भी थी। हम हाँ करें पर प्रैक्टिकल करने की हिम्मत नहीं है। वह बाबा की मुरली को फौरन पकड़ लेती थीं। बाबा कुछ बोलते थे, मम्मा चुप रहती थी, कुछ नहीं बोलती थी। कभी बाबा कहता था, मम्मा, ऐसे-ऐसे रिपोर्ट सुनी है, आप देखो अपनी हमजिन्स को, क्यों ऐसे करते हैं, उनको समझाओ। मम्मा फौरन उसको बुलाती थी, ऐसे कुछ कहेगी नहीं, पूछती थी, सब ठीक है, कारोबार तुम्हारी ठीक रहती है, सब अच्छा है, आपस में मिलजुलकर चलते हो ना, कभी कोई ऐसी बात तो नहीं होती है, शिवबाबा को याद करो, कर्म अच्छा करो, बस। यह तुमने भूल की, ऐसा नहीं बोलती थी। बाबा भी ऐसे थे। मानलो किसी ने भूरी दादी की रिपोर्ट कर दी। बाबा ऐसी सब्जी लेके आई है, सब काली ही काली, कड़वी ही कड़वी, पैसा खर्च करके आई है। फिर भूरी बाबा के पास आती थी, बाबा कहता था, बच्ची, तुम थककर आई होंगी, ठीक है, टोली खाओ। टोली खिला देते थे, उसे प्यार मिल जाता था। बाबा रिपोर्ट नहीं देते थे। फिर सब्जियों पर बाबा जाते थे। बाबा कहते थे, कड़वी, इसका दोष नहीं है, बाबा मीठी कर देगा। फिर बाबा कहते थे, जल्दी-जल्दी छीलो। छीलकर, नमक डालकर कड़वापन निकाल दिया। सब्जी बनाकर खिलाई, बहुत मीठी बनी। तो बाबा की पालना, मम्मा की पालना ऐसे चलती थी। मम्मा का धैर्य, जी हाँ, उलाहना नहीं, ये गुण हमें भी अपने में भरपूर करने चाहिए।
बाबा सबकी बातें सुनते थे, अंत में बहुत समय देना छोड़ दिया था। एक अक्षर में जवाब देकर पूरा करते थे, एक अक्षर में ही सब जवाब मिल जाते थे। बाबा शान्ति में रहते थे। जब बाबा अव्यक्त हुए, मैं कोलकाता में थी। एक दिन पहले शाम को पत्र आया था, शनिवार का दिन था, लिखा था, अब आ जाओ। उसी रात 3 बजे फोन बॉम्बे से आया, बाबा अव्यक्त हो गये। मैंने और निर्मलशान्ता ने प्लेन की टिकट ली। रात को एक बजे हम आबू पहुँचे। इससे पहले बस, बस स्टैण्ड पर उतारती थी, उसी दिन पहली बार बस हमें अंदर तक लेके आई थी। बाबा को हॉल में सुला रखा था। हम बर्फ लेकर आये थे। बाबा की सारी कारोबार मुझे करनी पड़ी। शिव बाबा मेरे तन में आया, अपने हाथों से श्रृंगारा रथ को, फिर बाबा ने मेरे तन से ही वाणी चलाई। बाबा ने ऐसी मुरली चलाई, मेरे को भी कभी-कभी वो सुनाते हैं। जगदीश भी था, कहा, बाबा से पूछकर आओ, क्या करना है। कन्या सौ ब्राह्मणों से उत्तम, कुमारका दादी ने घृत डाला, सब किया। बाबा का जो कलश था, उसमें फूल थे। देह त्यागने पर आदमियों की हड्डी-हड्डी दिखाई पड़ती है पर बाबा की नहीं। समुद्र में होता है ना जीव एकदम पोला-पोला, बाबा के शंख वैसे थे। दूध, फूल और शंख। वो शंख गागर में डालकर रखे। बहुत दिन रखे रहे। कई दिन दूध फटा नहीं। जब हमने निकाले, धुलाई किये, एकदम सफेद-सफेद। बाबा ने कहा, इनको त्रिवेणी में डालो। हमने बाबा के डायरेक्शन प्रमाण सब किया।
फिर दादी ने मुझे कहा, तुम बाबा को कहो, बाबा तुम्हारे में आये। मैंने कहा, मुझे यह पार्ट लेना नहीं है। दादी ने, बृजइन्द्रा ने, निर्मलशान्ता ने सबने मुझे समझाया पर मैंने कहा, नहीं। दादी ने कहा, गुलजार बहन बार-बार दिल्ली से आती है, तुम क्यों नहीं यह पार्ट बजाती, तुम तो बाबा की प्राइवेट संदेशी रही हो। मैंने कहा, यही तो आप समझो ना। प्राइवेट संदेशी माना मेरे मन में बाबा की सब प्राइवेट बातें हैं। अगर मेरे पर जोर करोगी तो बाबा ने जो मेरे आँसू बंद कराये वो आने लगेंगे। बाबा तो गये नहीं, मेरी फीलिंग है, वो मेरे साथ हैं। मानो, किसी को भी बाबा मेरे माध्यम से कुछ बोलेंगे, तो कहेंगे, इसको तो मालूम ही है इस बात का, तभी यह बोल रही है। जिसको नहीं जँचेगा, वह इतना भी बोल देगा कि इसी ने बोला होगा, ऐसा आप सुनेंगे क्या, ग्लानि हो जायेगी। यह कर्म मैं नहीं कर सकती।
बाबा ने शरीर छोड़ा, ख्याल भी नहीं आया कि यज्ञ कैसे चलेगा। बिगड़ी बनाने वाला बाबा बैठा है। जो अभी मुन्नी के हाथ में है, वो सब मेरे हाथ में था। ऑफिस खर्चा विश्वकिशोर, ईशू बहन को देता था। चीजें जो आती थी, कपड़ा रखना, लेना-देना, भाई-बहनों को कपड़ा देना, सिलाई का कारोबार- ये सब मेरे हाथ में था। भण्डारे का सामान भूरी संभालती थी। स्टॉक मैं संभालती थी। विश्वकिशोर का भी स्टॉक, बाबा के संग-संग प्राइवेट रहता था, वो भी मेरे को ही मालूम था। लास्ट में जब तबीयत खराब हुई तो मैं धीरे-धीरे चार्ज देती गई। अचानक मेरा शरीर छूट जाये तो, इसलिए सब बता दिया। कभी संकल्प नहीं आया, यज्ञ कैसे चलेगा। चल ही रहा है, करनकरावनहार कर ही रहा है। हुण्डी सकारने के लिए कोई-न-कोई निमित्त बन जाता है।
लौकिक परिवार में जैसे हम सभी भाई-बहनें अंग-संग थे वैसे ही एक और विशेष आत्मा थी जो भाऊ यानि दादा विश्व किशोर की युगल थी, जिसे सभी सन्तरी दादी के नाम से जानते हैं। वैसे तो यह हमारे घर में बहू के रूप में आई थी लेकिन उनका पूरा ही पार्ट बेटी के समान था। बाबा मुझे ‘पालू’ के नाम से पुकारते थे। कारण, उस समय कोलकाता में एक आम आता था जिसका नाम ‘पाली’ था। बाबा सिन्धी भाषा में कहते थे- ‘पाली आम मीठो’ यानि पाली आम मीठा है, ऐसे ही तुम पालू बेटी हो। उसी उक्ति के अनुसार एक दूसरा फल जो बाबा को बहुत प्रिय था, वह था सन्तरा। आप जानते हैं आज भी भारत में सबसे मीठा सन्तरा दार्जिलिंग का है। उसका रंग-रूप बहुत सुन्दर होता है। सन्तरी दादी का चेहरा, मीठी-प्यारी बातें व सेवा के कारण बाबा हमेशा उसे ‘सन्तरू बेटा’ कहते थे।
मुझे याद है कि बहू के रूप में तो उसे बाबा के सामने कम बोलना वा एकदम नहीं बोलना पड़ता था। वह सिर झुकाकर चलती थी। उस समय के समाज के अनुसार लौकिक ड्रेस में साड़ी वा सलवार- कुर्ता और चुन्नी आदि पहनना होता था। सिर ढककर चलना यह घर का रिवाज था लेकिन बाबा ने क्या किया, शुरूआत में जब उसका एक-दो बार सिर पर चुन्नी ढककर तथा गर्दन झुकाकर चलना वा शर्म करना देखा तो सभी के सामने जसोदा मैय्या यानि मम्मी को कहा कि आज से कभी भी यह बहू के रूप में इस प्रकार का कोई भी चाल-चलन नहीं अपनायेगी। जैसे पालू पहनती है, रहती है, ऐसे ही पहने, चले और बोले। तब से वह बाबा की बहुत प्यारी ‘सन्तरू बच्ची’ बन गई।
बाबा ने खास सन्तरे के कारण ही दादी का नाम ‘सन्तरू’ रखा। जब सीजन में रोज टोकरा भरकर सन्तरे आते थे तो उनका रस निकालने की सेवा सन्तरी दादी ही करती थी। घर में तो सभी को मिलता ही था, साथ-साथ गद्दी में जो भी ग्राहक वा काम करने वाले होते थे उनको भी उस समय चाँदी की ट्रे (थाली, तश्तरी) में सजाकर गिलास भरकर देने का कार्य भी सन्तरी दादी का ही होता था। खाना बनाना, पकाना यह तो हमने लौकिक घर में कभी सीखा ही नहीं। सीखना तो छोड़ो, बाबा करने ही नहीं देता था, कारण कि उस समय भी घर में दो मेड सर्वेन्ट यानि काम करने वाली थीं। एक अंग्रेजी और दूसरी मारवाड़ी। उनकी भी अलग-अलग ड्यूटी थी। नौकर तो थे ही। अतः घर की सफाई, खाना बनाना, नहलाना, कपड़े सन्तरी दादी भी प्यार से सेवा करते हुए भाऊ के साथ हमारे घर में ही थी। भाऊ को एक अलग कमरा, गद्दी के पास बाबा ने दिया हुआ था लेकिन सन्तरी दादी तो हमारे पास ही सोती वा रहती थी। उन्होंने अंत तक बाबा के यज्ञ में रहकर कई प्रकार की सेवायें की। हैदराबाद (सिन्ध) से मधुबन तक उनका तो सन्देश का भी पार्ट यज्ञ में चला।
साकार बाबा के शरीर छोड़ने के बाद, अव्यक्त बापदादा की पहली-पहली पधरामनी सन्तरी दादी के तन में ही हुई थी और अव्यक्त पार्ट की पहली मुरली भी 19-01-1969 को सन्तरी दादी के तन द्वारा ही चली थी। उसके बाद गुलजार दादी के माध्यम से अव्यक्त पार्ट चल रहा है। लेकिन प्रथम अर्थात् आदि अव्यक्त पार्ट बाबा ने सन्तरी दादी के रथ से बजाया। तो मैं समझती हूँ कि कितनी भाग्यशाली, पवित्र, निमंत आत्मा होगी जिसमें बाबा ने प्रवेश किया।
इसके बाद मीठी दादी ने मधुबन में स्टॉक संभालने की सेवा की। अव्यक्त बापदादा ने स्टॉक संभालने की सेवा सन् 1970 में मुन्नी बहन को दे दी। कारण, बाबा ने सन्तरी दादी को सेवा अर्थ मेरे साथ सहयोगी-साथी के रूप में कोलकाता भेज दिया। मैं तो सन् 1964 से ही कोलकाता में थी। सन् 1990 में कोलकाता में एक बहुत बड़ा राजयोग भवन “बांगूर एवेन्यू” में बना। उसका हिसाब-किताब, धन का लेन-देन यह सब सन्तरी दादी ही करती थी। ग्यारह नवंबर, 1990 को भवन निर्माण का कार्य पूरा करने के बाद मैं बाबा से मिलने मधुबन आ रही थी। हम दोनों कभी एक-साथ मधुबन नहीं आते थे। हम दोनों में से किसी एक को सेवाकेन्द्र पर रहना होता था। उस दिन मैं एयरपोर्ट पर जा रही थी तो दादी सन्तरी ने कहा, ‘दीदी, मैं भी बाबा से मिलने चलूँगी।’ मैने कहा, ‘भला अभी अचानक यह संकल्प कैसे आया?’ फिर उसने कहा, ‘नहीं, बाबा से मिलने का दिल हो रहा है, मैं वापिस दो दिन में आ जाऊँगी।’
ड्रामा की भावी, उसे मधुबन ले आई। तेरह दिसंबर, 1990, सतगुरुवार अव्यक्त बापदादा के आने का दिन था। मधुबन घर में 4,000 भाई-बहनें आये हुए थे तथा मीठी सन्तरू दादी ठीक अमृतवेले 3 से 4 बजे के बीच में वतनवासी बाबा के पास सोये-सोये ही पहुँच गई। फिर शाम को बाबा की पधरामनी हुई तो बाबा के संदेश का सार यही था कि सन्तरी बच्ची की दिल थी कि बाबा की गोदी में शरीर छोड़ूं। बच्ची का सारा कर्मबन्धन चुक्तू था। बच्ची ने संकल्प किया, बाबा मैं आऊँ, बाबा ने बुला लिया। तो आप सभी भी ऐसे ही शरीर छोड़ना चाहते हो ना! ऐसे बाबा का संदेश सुनकर, मैं समझती हूँ कि मेरे लौकिक वा अलौकिक परिवार की महान आत्मा कितनी यज्ञ की वफादार, फ़रमाबरदार और विशेष थी, जिसे आज भी याद करते स्नेह से दिल गदगद हो जाता है।
सन्तरी दादी जी लौकिक रूप में दादा विश्वकिशोर की युगल थीं। उनका लौकिक पुत्र भ्राता खुशाल जी अभी विदेश में स्थायी हो गया है। हमने कभी भी दादी के मुख से, उनके लौकिक बेटे के बारे में कोई भी बात नहीं सुनी। संतरी दादी जी यज्ञ के शुरू से ही मुख्य संदेशी रही थीं और जब-जब यज्ञ-कारोबार में जरूरत पड़ती तब संतरी दादी को ब्रह्मा बाबा वतन में भेजते और शिव बाबा से संदेश मंगवाते। दुनिया में कई धर्मस्थापकों ने धर्म की स्थापना के समय चमत्कार किये। इस आधार पर मैंने संतरी दादी से सवाल पूछा कि आपके अनुभव में शिव बाबा के ऐसे चमत्कारों के कोई प्रसंग हों तो हमें बताइये। संतरी दादी पहले तो मना करती रहीं कि चमत्कारों की बातों में हमें नहीं जाना है, ये तो ड्रामा में होते हैं, तो बाबा करता है। मैंने फिर अपना बचपना दिखाया और कहा कि दादी आपको बताना ही है। संतरी दादी ने दो अनुभव बताए।
एक बार साकार बाबा ने संतरी दादी को, शिवबाबा के पास विशेष किसी बात की श्रीमत लेने भेजा। संतरी दादी का नियम था कि शिव बाबा के पास खाली हाथ नहीं जाना है, कुछ न कुछ साथ में लेकर जाना है चाहे टोली, चाहे भोग। उस दिन तो ब्रह्मा बाबा ने अचानक ही प्रोग्राम दिया, इस कारण संतरी दादी ने किचन से एक छोटी-सी प्लेट में 8-10 दाने इलायची के और 10-15 दाने मिश्री के लेकर उनके ऊपर रूमाल ढककर सामने मेज पर रखा और बाबा के पास चली गईं। ड्रामानुसार शिवबाबा संदेश देने की बजाय, स्वयं ही उनके तन में अवतरित हो गए। बाबा को देखकर सारा दैवी परिवार इकट्ठा हो गया और बाबा ने संदेश भी सुनाया, मुरली भी चलाई। बाद में सबने कहा कि बाबा, अपने हाथ से टोली दो। यह बाबा की अनौपचारिक पधरामनी थी, कोई पूर्व तैयारी नहीं थी। सामने एक छोटी-सी मेज पर प्लेट में इलायची और मिश्री के दाने रखे थे, ऊपर रूमाल ढका हुआ था। बाबा ने खुद रूमाल के नीचे हाथ डालकर एक-एक कर सबको मिश्री-इलायची देना शुरू किया। एक बहन ने सोचा कि मैं बाबा को जाकर मदद करूं परंतु शिव बाबा ने मना किया। बाबा ने उस समय मौजूद 300-400 भाई-बहनों को उस छोटी-सी प्लेट से इलाचयी और मिश्री दी और फिर विदाई ली। मैंने संतरी दादी से पूछा कि फिर तो सबको एक-एक इलायची तथा मिश्री का टुकड़ा मिला होगा। लेकिन दादी ने कहा कि बाबा ने सबको मुट्ठी भरकर दिया। बाद में, जब संतरी दादी वापस आई तब देखा कि इलायची और मिश्री तो प्लेट में पहले जितनी ही थी।
इसी प्रकार से दूसरा प्रसंग दादी ने करांची का बताया कि एक दिन भोजन के बाद सब ऐसे ही बैठे थे। अचानक संतरी दादी को बाबा ने ऊपर बुला लिया। दादी को बाबा ने कहा कि आप बच्चों को यज्ञ का ध्यान रखना चाहिए। थोड़े समय बाद बारिश होने वाली है। आंगन में गेहूँ-चावल ऐसे ही रखे हैं, जाओ, जाकर अनाज को इकट्ठा कर स्टोर रूम में रखो। संतरी दादी ने कहा कि बाबा, बारिश की सीजन तो नहीं है, एक भी बादल आकाश में नहीं है, यह कैसे हो सकता है? बाबा ने कहा, मेरी बात मानो, नीचे जाकर अनाज समेट लो। संतरी दादी नीचे आई, सबको कहा कि बारिश आने वाली है। सब हँसने लगे, फिर दादी ने बाबा का डायरेक्शन बताया तो सबने अनाज इकट्ठा करना शुरू किया। जैसे ही अनाज इकट्ठा कर स्टोर रूम में रखा, जोर की बारिश आई। इस प्रकार से बाबा ने अपने यज्ञ की सुरक्षा की। संतरी दादी को श्रद्धांजलि देने के लिए उनके जीवन का एक महान प्रसंग लिखे बिना मैं नहीं रह सकता। यज्ञ के लिए किया गया उनका यह त्याग, उनकी सबसे बड़ी महानता थी। बात बड़ी विचित्र है पर फिर भी उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पण करने के लिए, न सिर्फ मेरी परंतु सारे ब्राह्मण परिवार की श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए यह बात लिखनी मुझे जरूरी लगती है।
जब से यज्ञ की स्थापना हुई, तब से यज्ञ को मुख्य संदेशी (चीफ़ ट्रांस मैसेंजर) होने के नाते, हर छोटे-बड़े प्रसंग पर संतरी दादी ही अव्यक्त बापदादा से संदेश लेकर आती थीं। अठारह जनवरी, 1969 को ब्रह्मा बाबा अव्यक्त हुए। धीरे-धीरे सारा दैवी परिवार चारों दिशाओं से माउंट आबू आने लगा। उन्नीस जनवरी, शाम के करीब 7 बजे हिस्ट्री हॉल में हम सब इकट्ठे हो गये। अचानक संतरी दादी को खींच हुई, वह उठकर संदली पर जाकर बैठ गई और बाबा के पास चली गई। संतरी दादी के तन में शिवबाबा की पधरामनी हुई और बाबा ने करीब सवा घंटे मुरली चलाई। ब्रह्मा बाबा के बारे में भी बताया कि बच्चा अभी वतन में आराम कर रहा था, इसलिए उसे साथ लेकर नहीं आये, 21 तारीख को भले आप अग्नि संस्कार करो, अग्नि संस्कार के बाद मैं आऊँगा और भविष्य के कारोबार के संबंध में पूर्ण मार्गदर्शन दूंगा।
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