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Brahma baba outside history hall

गुणमूर्त ब्रह्मा बाबा

ब्रह्मा बाबा अपने लौकिक जीवन में खिदरपुर के बादशाह के रूप में प्रसिद्ध थे। उनके घर पर चार-चार सेविकाएँ थीं और भारत भर में कई स्थानों पर उनका हीरे-जवाहरात का व्यापार चलता था। अनेक सहयोगियों, नौकरों और संयुक्त परिवार के बीच रहते वे सबके प्रिय भी थे, सबके आदर्श भी और सर्व के मार्गदर्शक भी । ऊँची कमाई वाला धंधा होते भी सच्चाई और ईमानदारी, धनी होते हुए भी धन के दुरुपयोग से मुक्त, समाज के उच्च वर्ग में सम्मानित होते हुए भी अहम भाव से मुक्त, पुरुष प्रधान समाज में रहते हुए भी नारी को प्रधानता देने वाले – ये उनके चरित्र की चादर में जड़े हुए हीरे समान मूल्य थे।

सन्‌ 1936-37 में जब उन्हें दिव्य साक्षात्कार हुए और परमात्मा शिव की उनके तन में प्रवेशता हुई तो उन्होंने अपना सब कुछ माताओं-बहनों के आगे समर्पित कर दिया। इसके बाद स्वयं पैसे को हाथ नहीं लगाया और चौदह वर्षों तक समर्पित हुए चार सौ बच्चों की पालना उसी पैसे से करते रहे। धन-वैभव और साधनों के प्रति पूर्ण अनासक्ति के साथ-साथ उनका एक मुख्य गुण जोकि उनके व्यक्तित्व में सदा झलकता रहता, उनके चारों ओर पवित्रता बिखेरता रहता और लोगों के जीवन को पलट देता रहा, वह था – आत्मिक दृष्टिकोण। बाबा स्वयं आत्म-स्थिति में रहते हुए, सब देहों में आत्मा ही को देखते। बाबा की क्लास (ज्ञान-सभा) में छोटे बच्चे भी बैठे होते, बूढ़े भी उपस्थित होते, ग्रामीण भी होते और बड़े-बड़े नगरों में ठाठ-बाट से रहने वाले व्यक्ति भी विराजमान होते। परंतु बाबा सबको आत्मिक दृष्टि से देखते। यदि किसी अन्य उच्च वक्ता की सभा में छोटी आयु वाले बच्चे बैठे हों तो वह मन में सोचेगा कि ये बच्चे भला मेरी गहरी बातों को क्‍या समझेंगे अथवा ये अत्यंत वृद्ध आयु वाले शक्तिहीन व्यक्ति मेरी इन अनमोल बातों को सुनकर क्या करेंगे? परन्तु बाबा तो यही देखते कि ये भी आत्माएँ हैं। किसी की कर्मेन्द्रियाँ छपी उपकरण अविकसित हैं किसी के जर्जरीभूत, परंतु इन आत्माओं का भी येन-केन-प्रकारेण कल्याण तो करना ही है। अत: वे ऐसे सरल, स्पष्ट, सुबोध और सरस तरीके से अत्यंत उच्च आध्यात्मिक सत्यों को दर्शाते कि बालक, वृद्ध, सभी उनको भली-भाँति समझकर कल्याण के भागी बनें, तभी तो वे सभा के बाद छोटे व बड़े, हरेक शरीरधारी आत्मा से अलग बैठ करके भी उसे ज्ञान-धन से लाभान्वित करते, उसे पितृवत स्नेह देते, उसके मन की उलझनों को दूर करते, उसे आत्मा तथा परमात्मा का बार-बार परिचय देते, सृष्टि के आदि-मध्य- अंत का हाल सुनाते और उसे यथायोग्य ईश्वरीय सेवा में लगाकर आत्मिक स्थिति में स्थित कर देते।


 

दिखाई देती बाबा की भृकुटी में दिव्य ज्योति

बाबा की आत्मिक स्थिति इतनी तो उच्च और प्रभावशाली थी कि उनके पास बैठे हुए वत्स प्राय: ऐसा महसूस करते कि वे अपनी देह से न्यारे हो रहे हैं। वे भार-शून्यता अथवा हल्कापन अनुभव करते और उनके मन में अशुद्ध संकल्प शान्त हो जाते। उस समय वे शुद्ध पुरुषार्थ एवं आध्यात्मिक जीवन के लिए प्रेरित होते और उन्हें अपनी अवस्था की उच्चता में कमी खटकने लगती तथा पावन बनने की अन्त: प्रेरणा मिलती। बहुत-से पुरुषार्थियों को तो कई बार कुछ समय के लिए इस संसार का अनुभव न रहता बल्कि उनके नेत्र मानो दिव्य-दृष्टि से युक्त होकर बाबा के चारों ओर दिव्य आभा अथवा श्वेत अव्यक्त प्रकाश को देखते और उस समय का अलौकिक अनुभव उन्हें इतना भाता कि उनका मन चाहता कि बस, इस अवस्था का, इसी आत्मिक सुख का हम रस लेते ही रहें। उन्हें बाबा की भ्रकुटि में एक दिव्य ज्योति प्रकाशमान दिखाई देती और वे एक ऐसे आत्मिक सुख तथा सच्ची शान्ति का अनुभव करते कि बस, उसी में टिके रहना चाहते। किन्हीं के मन में कोई प्रश्न होते तो उनका उत्तर उनके अंतर्मन में उन्हें मिल जाता। वे बाबा के आध्यात्मिक प्रभाव से अभूतपूर्व स्नेह और सुख अनुभव करते। जो दुखी और चिन्तित अवस्था में बाबा से मिलने आता, वह मुस्कराता हुआ और शान्त होकर लौटता। प्राय: लोगों को ऐसा लगता कि वे (आत्मा) जिस पिता को जन्म-जम्मान्तर से ढूँढ़ रहे थे, वह उन्हें मिल गया है।


 

सबके शुभचिन्तक

बाबा कभी भी किसी का अशुभ या अमंगल नहीं सोचते। दूसरों को भी वे सदा यही शिक्षा देते कि न किसी के अकल्याण की बात सोचो और न कभी मुख से अशुभ बोलो। वे यह भी कहते कि जिस-किसी भी जिज्ञासु को आप ईश्वरीय ज्ञान सुनाने लगते हैं उसके लिए भी पहले मन-ही-मन शिव बाबा को याद करके कहो – “शिव बाबा! यह भी किसी तरह समझ जाये, इसकी भी अन्तरात्मा के कपाट खुल जायें और इसका भी कल्याण हो जाये, और फिर जब आप योग में बैठें तो उस अवस्था में उस व्यक्ति को भी अपनी अंतर्दृष्टि के सामने लाकर, उसे भी योग का दान दें ताकि उसका मन निर्मल हो जाये और ईश्वरीय ज्ञान का बीज उसमें अंकुरित हो।’” देखिये तो, साकार ब्रह्मा बाबा किस पराकाष्ठा तक सभी के शुभविन्तक थे! बाबा कहते कि हमें अपकारी पर भी उपकार करना है और जो हमारी निंदा करता है उसे भी अपना मित्र समझना है। वे कहते कि किसी के प्रति शुभचिन्ता का सबसे श्रेष्ठ रूप यह है कि हम उसकी बुरी आदतों को सुधार दें और उसका योग परमपिता परमात्मा से जुटा दें।


 

अपार उत्साह और अदम्य हिम्मत

बहुत कोशिश करने पर भी यदि कोई कार्य संपन्न न होता तो भी अंतिम क्षण तक बाबा उसके लिये पूरा प्रयत्न करते तथा कराते रहते। पुरुषार्थ की चरम सीमा देखनी हो और हिम्मत तथा उत्साह की पराकाष्ठा जाननी हो तो ये दोनों पिताश्री अर्थात्‌ साकार ब्रह्मा बाबा के जीवन में सदा स्पष्ट मिलते। कभी भी किसी ने उनमें उत्साह की कमी, पुरुषार्थ के प्रति उदासीनता या हारी हुई हिम्मत या आलस्य को नहीं देखा होगा। उन्हें कोई भी कार्य अधूरा छोड़ना, अपूर्ण रीति से करना अथवा बिना कोई परिणाम निकाले उसे छोड़ देना, अच्छा नहीं लगता था। वे हरेक कार्य को द्रुत गति से परंतु सोच-समझकर और योगयुक्त होकर करने के लिए कहते और वे स्वयं इस विषय में आदर्श थे। पूरा पुरुषार्थ करने के बाद जैसा भी परिणाम होता उसे वे ‘भावी” या ‘ड्रामा’ कहकर सदा प्रसन्न रहते तथा उसी में कल्याण मानते। वे गतकाल के वृत्तांत से शिक्षा लेकर, नि:संकल्प होकर आगे बढ़ने को कहते। अतः वे बार-बार किसी कार्य के पीछे वत्सों को लगाकर भी उन्हें हिम्मतवान बनाते हुए सफलता तक लाने में तत्पर रहते। ऐसे अथक पुरुषार्थ करने के कारण ही तो वे ‘भगीरथ’ अर्थात्‌ परमपिता परमात्मा के भाग्यशाली रथ (माध्यम) बने और ज्ञान-गंगा को लाने के निमित्त बने।


 

स्वयं मेहनत करके दूसरों को प्रेरणा देना

बाबा यज्ञ के स्थूल कार्य भी पहले स्वयं करने लग पड़ते। दूसरों को कहने की बजाय वे स्वयं करने लग जाते। इतनी वृद्ध आयु में उन्हें स्थूल-से-स्थूल कार्य में लगे देखकर अन्य लोग दौड़ कर उस कार्य को करने लगते। वे कहते – “बाबा! यह तो हम युवा-वर्ग वालों का कार्य है। बाबा, आप ऐसे स्थूल कार्य क्यों करते हो?” तब बाबा कहते – “इस ईश्वरीय यज्ञ की सेवा बड़ी मधुर और प्यारी लगती है। यह मन को बहुत भाती है। बच्चे! सारे कल्प में एक ही बार तो शिव बाबा यह सर्वोत्तम ज्ञान-यज्ञ रचते हैं उसके लिए वे इस वृद्ध तन में आते हैं, तो क्या इस तन को ‘ वृद्ध’ देख कर मैं कल्प-कल्पांतर स्थूल सेवा ही न करूँ? मैं भी तो शिव बाबा का स्टूडेन्ट (विद्यार्थी) हूँ। यदि मैं इस शरीर से कोई कार्य नहीं करूँगा तो मुझे कैसे निरोगी व कंचन काया मिलेगी? बच्चे, सर्विस करने की हिर्स (लालसा) तो होनी चाहिए। दधीचि ऋषि के समान इस यज्ञ की सफलता के लिये अपनी हड्डियाँ भी दे देनी हैं तभी तो शरीर पावन बनेगा। हम ब्राह्मणों का यह सेवा का जीवन कैसा सुहावना है! ऐसा अवसर तो सारे कल्प में फिर कभी मिलता ही नहीं। जबकि शिव बाबा ही कहते हैं कि मैं आप बच्चों का फ़रमाँबरदार सेवक हूँ तो मैं भी आप बच्चों का सेवाधारी हूँ।’” इस प्रकार के वचन जब बाबा बोलते और स्वयं भी सेवा में जुटे रहते तो सोचिये कि किसके मन को कार्यरत होने के लिए प्रेरणा नहीं मिलती होगी; रात्रि की क्लास में भी बाबा प्राय: पूछा करते – ‘लाडले बच्चो! बताओ और कोई सेवा है बाबा के लिये? यह बाप भले ही ऊँचा बनाने वाला है परंतु फिर भी बच्चों का गुलाम है।”

बाबा सदा यही शिक्षा देते कि यथासंभव अपना कार्य स्वयं करो ताकि आप पर कर्मों का बोझ न चढ़े।


 

खुशी में लाना और हल्का करना

बाबा सदा खुशी में रहते और सदा ऐसी ही बातें सुनाते कि कोई मनुष्य कितना भी अशान्त क्यों न हो, चाहे कितनी भी उलझनों में पड़ा हुआ हो, बाबा की मधुर मुस्कान को देखते ही उसकी उदासी और चिन्ता भाग जाती और उसकी खुशी का पारा चढ़ जाता। किसी ने भी आज तक बाबा के चेहरे पर चिन्ता या उदासी की रेखा नहीं देखी। इस ईश्वरीय विश्व विद्यालय की स्थापना के समय से लेकर अंत तक न जाने कितने विघ्न, विरोध, आपदायें और तूफान आये परंतु बाबा सदा कहते – “बच्चे, सत्य की बेड़ी डोलेगी परंतु डूबेगी नहीं। बच्चे, कल्प पहले भी यह हुआ था, यह कोई नई बात नहीं है; सच्चाई की स्थापना करने वालों के सामने ऐसा होता ही है।”

बाबा कहते – “ बच्चे, आप ही पवित्र रहने वाले सच्चे ब्रह्मा कुलभूषण हो। अत: आप पदमापदम भाग्यशाली हो। “’ इस प्रकार, बाबा बच्चों को सदा खुशी और उल्लास में लाते रहते और कहते – “बच्चे! माया के विघ्न तो बहुत ही आयेंगे, संबंधियों या लोगों की ओर से विरोध भी होगा, बहुत तूफान भी आयेंगे परंतु घबराना नहीं और हिम्मत मत हारना। जबकि आपने शिवबाबा को हाथ दिया है तो आपका अकल्याण नहीं हो सकता। अब आपकी ‘चढ़ती कला’ है, इसलिये सदा यह सोचते हुए चलो कि सर्व-समर्थ शिव बाबा हमारे साथ है। ऐसा निश्चय रखने वाले निश्चयात्मा की विजय होती है। आप मनोविकारों पर विजय पाने का पुरुषार्थ करने वाले ‘विजयी रत्न” हो, विजय का तिलक तो आपके माथे पर मानो लगा ही हुआ है। बस, आप इतना करना कि घबराना नहीं, थकना नहीं और रुकना नहीं, गफ़लत मत करना और आलस्य मत करना, बल्कि जो राह अब शिव बाबा दिखा रहे हैं, उस पर चलते रहना।”’ इस प्रकार बाबा विघ्नों को ‘ऊँचे पद की निशानी, परीक्षाओं को “उच्च पुरुषार्थ की प्रतिक्रिया, बड़े तूफानों को ‘ऊँची मंज़िल के नज़दीक पहुँचने का चिह्न’ बताकर सदा यही कहते कि – “बच्चे! ये सब अन्तिम सलाम करने आये हैं। बस, ईश्वर के सदके (प्रेम में) इनको पार करो तो आपके कदम-कदम में पद्मापद्म की कमाई होगी।’ बाबा कहते कि सच्ची खुशी तभी होगी जब विकर्म करना बंद करोगे और आत्मिक स्मृति तथा ईश्वरीय स्मृति में स्थित होवोगे। उस अवस्था में खुशी का पारावार नहीं रहेगा। इन युक्तियों से बाबा नित्य-प्रति सबको खुशी का प्याला पिलाते हुए उनमें नया दम, नया जोश भरते हुए, उन्हें ऐसे तो ले चलते रहते कि मनुष्य को सब अशुद्ध संकल्प भूल जाते, समस्याएँ हल्की मालूम होतीं और मनोविकार उनसे सहज ही छूट जाते।

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