कटक, उड़ीसा से ब्रह्माकुमारी ‘कमलेश बहन जी’ कहती हैं कि मुझे ईश्वरीय ज्ञान सन् 1962 में मिला और साकार बाबा से सन् 1965 में मिली, पर पत्रों द्वारा सम्पर्क पहले से ही था। बाबा से प्रथम मिलन में तो मुझे बहुत ही सुन्दर अनुभव हुए। मैं बहुत बाँधेली गोपिका थी। जिसको मैं खोज रही थी उस भगवान को मैंने पा लिया। बाबा को देखते ही लगा कि पाना था सो पा लिया, अब कुछ नहीं है पाने का।
जब मैं पहली बार बाबा की गोद में गयी तो मुझे अतीन्द्रिय सुख का अनुभव हुआ और नशा चढ़ा कि मैं स्वयं भगवान की गोद में हूँ। फिर बाबा ने मेरी परीक्षा ली। पूछा, बच्ची, मैं अपने बच्चों को कितना प्यार करता हूँ! क्या तुम्हें अपने बच्चे याद नहीं आते? क्या उनसे मोह नहीं है? मैंने कहा, नहीं बाबा। मैं तो आपकी बच्ची हूँ। मुझे बहुत सेवा करनी है। तो बाबा ने मुझे बहुत प्यार दिया, पीठ पर हाथ रख शाबाशी दी, गोद में लिया और कहा, “बाबा को ऐसी साहसी बच्चियाँ चाहिएं। शाबाश बेटी, तुम ऐसे ही सर्विस करते आगे बढ़ती रहना। तुम मेरे विजयी रत्न हो।” दादी निर्मलशान्ता जी की ओर देखकर बाबा ने कहा, इस बच्ची को यहाँ मधुबन में जी भरकर रखना। मैं प्रथम बार ही मधुबन में तीन मास साकार बाबा के पास रही। एक झलक में ही मुझे बाबा ने दो वरदान दिये-“विजयी भव” और “सेवा करते रहो।” आज भी ये वरदान प्रैक्टिकल हर पल अनुभव करती रहती हूँ। साकार बाबा का वो दृश्य आँखों के सामने आते ही मेरे पैर खुशी के मारे पृथ्वी पर नहीं रहते, अतीन्द्रिय सुख में खो जाती हूँ।
बाबा के इन वरदानों के कारण ही, ईश्वरीय जीवन में जितनी भी अलौकिक और लौकिक परीक्षायें, परिस्थितियाँ आयीं, मैं उनमें सदा विजयी रही। साहस और सहनशीलता बहुत बढ़ गयी। कई बार मुझे ऐसा लगता कि बाबा मेरे सामने खड़े हैं। कई बार भाषण करते समय अनुभव होता है कि बाबा ने ही करवाया, मैंने कुछ नहीं किया। अनुभव होता है कि बाबा मेरे सिर पर हाथ रखते और शक्ति भरते हैं। जब बाबा मुरली सुनाते थे तब मैंने कई बार अनुभव किया कि बाबा के मस्तक में लाइट चमक रही है और उससे मुझे शक्ति मिल रही है। मैंने बाबा के कई रूपों का अनुभव किया है। जैसे कभी गोपियों के साथ श्रीकृष्ण का रूप, कभी सखा का स्वरूप, कभी शिक्षक का स्वरूप, कभी गुरु का वरदानी स्वरूप, कभी गिरे हुओं को ऊपर उठाने वाले पतितोद्धारक का स्वरूप, कभी निर्बलों को बल देने वाले बलवान का स्वरूप, कभी बेसहारों को सहारा देने वाले दीनबन्धु का स्वरूप ।
जब मैं बन्धन में थी उस समय प्यारे बाबा के पत्रों को हमारे घर वाले पढ़ने नहीं देते थे। उनको मैं साड़ियों में छिपा कर रखती थी। जब घर वाले उनकी खोजबीन करते थे तो एक भी पत्र उन्हें नहीं मिलता था। साड़ी झाड़ने के बाद भी वे नीचे नहीं गिरते थे, मानो कोई ने अपनी जादूगरी से उन्हें साड़ी के अन्दर चिपका कर रखा हो। वे लोग चुप रह जाते। यह प्यारे बाबा का चमत्कार नहीं था तो और क्या था! एक बार मेरा लौकिक भाई आया और चेतावनी देकर गया कि तुम जहाँ भी होगी, तुम्हें मैं वापिस घर ले जाऊँगा। गुण्डों को लेकर पहुँचूँगा। तुम्हें रहना है तो ससुराल में रहो, या मेरे पास रहो। मैं थोड़ा डर गयी। यह बात मैंने बाबा को कमरे में सुनायी तो बाबा ने प्यार से सिर पर हाथ रखकर कहा, “बच्ची, तुम बिल्कुल नहीं डरो। तुम बाबा पर बलिहार हो गयी हो, अनुभवी हो, तुम्हें दुनिया की कोई शक्ति मुझसे दूर नहीं ले जा सकती। बलिहार होने वाले बाबा के गले के हार होते हैं। तुम बाबा के गले का हार हो। तुम्हें माया नहीं हरा सकती।” मुझे बहुत हिम्मत और साहस आ गया। मेरा भाई कुछ नहीं कर सका। वह हार गया, बाबा की जीत हो गयी। कैसा भी बड़ा बन्धन और भयभीत करने वाली बात मेरा कुछ नहीं कर सकी।
सन् 1966 की बात है। उस समय मैं एक सेन्टर पर थी। मैं बहुत बीमार हो गयी। ऐसी परिस्थिति आयी कि कमज़ोरी के कारण चलना भी मुश्किल हो गया। पता नहीं जानी-जाननहार बाबा को कैसे पता पड़ा, दूसरे दिन ही साकार बाबा का टेलीग्राम आया कि बच्ची को फ़ौरन मधुबन भेजो। उस बीमार अवस्था में मेरे श्वास-श्वास में बाबा और मधुबन की ही याद थी। जब मधुबन पहुंची तो बड़ा विचित्र और रोमांचकारी दृश्य था। पहुँचते ही बाबा मेरा हाथ पकड़कर बगीचे में ले गये और एकदम पास में बिठाकर सारा समाचार पूछा। दिलाराम बाबा ने मेरे दिल की आश जान ली और साकार में सुन भी ली। उस समय मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि मैं अपने प्यारे दिलबर के सामने सब दिल की बातें सुना रही हूँ। बाबा ने इतना प्यार किया जिसे कि मैं वर्णन नहीं कर सकती। मैं अपने सारे दुःख-दर्द को भूल गयी और बाबा की प्रीत में खो गयी। बच्चों को खुश रखना ही, बाबा का एकमेव उद्देश्य होता था। एक बार मधुबन में मैं और सत्यवती बहन झूले में झूल रहे थे। बाबा आकर बीच में बैठ गये। हमें ऐसा अनुभव हुआ कि बाबा एक छोटा, सुन्दर बच्चा है, वह हमारे साथ बैठा हुआ है। हमें बहुत खुशी हो रही थी। तब बाबा ने बोला, बच्ची, तुम ऐसे ही सदा अतीन्द्रिय सुख के झूले में झूलते रहना।
एक बार की घटना है, मुझे सब्ज़ी कटवाने की ड्यूटी मिली हुई थी। बाबा मेरे पास आकर बैठ गये। एक तरफ़ मैं थोड़ा डर गयी, दूसरी तरफ़ अपने भाग्य पर नाज़। बाबा ने कहा, बच्ची क्या कर रही हो ? मैंने कहा, बाबा कच्चे टिण्डों को पके हुओं से और पके हुओं को कच्चे टिण्डों से निकाल रही हूँ। बाबा ने कहा, बच्ची, देखो मैं तुम्हारे कच्चे टिण्डों से पके टिण्डों को निकाल दूँगा और पके हुए टिण्डों से कच्चे टिण्डों को निकाल दूँगा। सचमुच, बाबा ने टोकरियों में हाथ डाला और कच्चों में से पक्के को निकाल दिया जिन्हें कि हम अलग-अलग कर चुके थे। इस प्रकार बाबा बच्चों को हँसाते थे, बहलाते थे और आश्चर्यचकित कर देते थे। जब भी बाबा हमारे आस-पास होते तब हमारे में खुशी की लहरें प्रवाहित होती थीं, मन आनन्द से विभोर हो जाता था।
एक बार बाबा ने मेरे साथ आँख मिचौली खेली। बाबा क्लास में जा रहे थे। छोटे हाल में क्लास होना था। मैंने सोचा कि बाबा जिस गेट से प्रवेश करते हैं मैं भी उधर से ही जाकर क्लास में बैठूंगी। जब मैंने देखा कि बाबा पीछे के गेट की तरफ़ जा रहे हैं तो मैं पीछे के गेट की तरफ़ गयी परन्तु फिर बाबा आगे के गेट की तरफ़ जाने लगे। मुझे लगा शायद मेरी आँखें ही मुझे धोखा दे रही हैं। फिर एक सेकण्ड चुप होकर बाबा से पूछना चाहा, उतने में बाबा ने मुझसे कहा, बच्ची, तुमने आज बाबा के साथ आँख मिचौली खेली ना? तुम जहाँ भी बैठोगी बाबा तुम्हारे साथ है।
हमेशा बाबा में सम्पूर्णता और सम्पन्नता दिखायी पड़ती थी। उनके सामने जाते ही मैं सब कुछ भूल जाती थी, एक तरह की अलौकिक मस्ती में डूब जाती थी। बाबा का पुरुषार्थ उच्च श्रेणी का था। अमृतवेले दो बजे जागकर बाबा योग साधना करते थे। चलते-फिरते बाबा खुद याद में रहते थे और जो भी मिले उनको भी बाबा की याद दिलाते थे। बाबा फ्राकदिल थे। शिव बाबा पर और शिव बाबा के सिद्धान्तों पर उनका अचल, अटल और अविनाशी निश्चय था। वे किसी भी परिस्थिति में हिले नहीं। जब समाज में इस ज्ञान को कोई मानता नहीं था, कई बड़े-बड़े परिवारों की मातायें, कन्यायें घर त्यागकर आयीं, उनको शरण देना, उनकी पालना करना कितनी हिम्मत की बात है! किसी की पत्नी, किसी की माँ, किसी की बच्ची, किसी की बहन एक बूढ़े व्यक्ति के साथ सब कुछ छोड़कर चली जाये तो कितने हंगामें मचे होंगे, कितने केस चले होंगे! फिर भी ब्रह्मा बाबा एकदम निश्चिन्त थे। दुनिया वाले भी कुछ नहीं कर पाये, आश्चर्य से देखते रहे। आख़िर जीत उन गोपियों की ही हुई जो मुरलीधर शिव बाबा पर न्यौछावर हुई थीं, उसकी मुरली पर मोहित हुई थीं। बाबा सर्व गुणों से सम्पन्न थे। उनमें से बाबा का एक गुण मुझे बहुत पसन्द आया, माताओं और कन्याओं को सम्मान देकर उनको ऊँचा उठाया और दुनिया के सामने दर्पण बनाया, सेम्पल बनाया। अपना सब कुछ उनको समर्पण कर सिर्फ आध्यात्मिक नेता नहीं, सफल एवं समर्थ प्रशासक भी बनाया। नारी समस्त विश्व के लिए मार्गदर्शक भी बन सकती है यह सिद्ध करके दिखाया।
एक बार कर्नाटक की पार्टी मधुबन में बाबा से मिलने आयी थी। उसमें एक माता बाबा के लिए गुड़ की पोटली लेकर आयी थी जो उसने अपनी ब्राह्मणी को दी कि बाबा को दे दे। टीचर बहन ने सब सामान दे दिया था परन्तु गुड़ की पोटली नहीं दी थी। बाबा ने तुरन्त टीचर से पूछा, वो पोटली कहाँ है जो यह माता लायी थी। टीचर घबरा गयी कि यह बात बाबा को कैसे पता पड़ी! फिर बाबा ने कहा, जाओ, पहले पोटली ले आओ। उस बहन ने लाकर बाबा को दी। बाबा ने उसे खोलकर देखा और लच्छू बहन को बुलाकर कहा, आज ही इस गुड़ से मीठा चावल बनाओ, बाबा भी खायेगा और बच्चों को भी खिलायेगा।
एक बार मैं बाबा के पास बैठी थी। उस समय बाबा से एक पार्टी मिलने आयी। उनमें से एक भाई ने बाबा से कहा कि बाबा, हमारे यहाँ कोई बहन ठहरती नहीं है, सन्तुष्ट नहीं रहती। तुरन्त बाबा का रूप बदल गया। मुझे लगा कि बाबा ने धर्मराज का रूप धारण किया है। बाबा ने उस भाई से कहा, जिसमें बहुत देह-अहंकार होता है, उससे कोई सन्तुष्ट नहीं रह सकते और कोई वहाँ टिक भी नहीं सकता। इसलिए पहले अपने देह-अहंकार का त्याग करो, तब सन्तुष्ट होंगे। इस तरह प्यारे बाबा बहुरूपी बन बच्चों को प्यार भी करते थे और सब शिक्षा भी देते थे।
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