Dadi pushpshanta ji

दादी पुष्पशान्ता – अनुभवगाथा

आपका लौकिक नाम गुड्डी मेहतानी था, बाबा से अलौकिक नाम मिला ‘पुष्पशान्ता’। बाबा आपको प्यार से गुड्डू कहते थे। आप सिन्ध के नामीगिरामी परिवार से थीं। आपने अनेक बंधनों का सामना कर, एक धक से सब कुछ त्याग कर स्वयं को यज्ञ में संपूर्ण रूप से समर्पित किया। आप बहुत ही गम्भीर, शान्तमूर्त, धारणा स्वरूपा थीं। आपमें पालना के विशेष संस्कार थे। आप शुरू से ट्रांस मैसेन्जर भी रहीं। मुंबई में कोलाबा सेवाकेन्द्र पर रहकर महाराष्ट्र की सेवाओं में अपना योगदान दिया। आप 7 फरवरी, 1983 को पुराना शरीर छोड़ अव्यक्त वतनवासी बनी।

ब्रह्माकुमार भ्राता रमेश शाह जी दादी पुष्पशान्ता के साथ का अनुभव इस प्रकार सुनाते हैं –

ईश्वरीय सेवार्थ प्राण प्यारे ब्रह्मा बाबा ने दादी पुष्पशान्ता जी को पहले अहमदाबाद भेजा था और अहमदाबाद में, मुंबई के एक व्यापारी के निमंत्रण पर दादी पुष्पशान्ता जी और दादी बृजेन्द्रा जी मुंबई गये। मुंबई में दादी पुष्पशान्ता उस व्यापारी के गेस्ट हाऊस में ठहरे हुए थे, वहीं हमने उनको देखा और वहीं हमारा उनके साथ पहली बार संपर्क हुआ। दादी पुष्पशान्ता एक बहुत ही धनवान और प्रतिष्ठित परिवार से संबंध रखतीं थीं और पाँच बच्चों की माँ भी थीं। पहले उनका परिवार योकोहामा (जापान) में रहता था जहाँ उनके पति की समृद्धि इतनी थी कि हरेक बच्चे की आया द्वारा पालना होती थी। बाद में जब दादी जी भारत आईं तो ईश्वरीय ज्ञान के संपर्क में आकर, अपना जीवन ईश्वरीय सेवार्थ समर्पित कर दिया। सन् 1957 में जब मेरे निमंत्रण को ब्रह्मा बाबा ने स्वीकार किया और ब्रह्मा बाबा मुंबई पधारे तब मैं और मेरा परिवार दादी पुष्पशान्ता के घनिष्ठ संपर्क में आए। ब्रह्मा बाबा और मातेश्वरी जी के रहने के लिए योग्य प्रबंध ढूँढ़ने में उन्होंने मेरी बहुत सहायता की। दादी जी बाबा के महावाक्यों में सौ प्रतिशत विश्वास रखती थीं। जब बाबा-मम्मा के रहने के लिए मकान किराये पर लेना था तब मैंने कहा कि मकान साढ़े चार मास के लिए किराये पर ले लेते हैं पर दादी ने कहा कि नहीं, बाबा ने कहा है कि चार महीने के लिए लेना है। तब मैंने दादी जी को अपने विचार सुनाये, तब दादी पुष्पशान्ता मेरे विचार से सहमत हुईं और फिर हमने साढ़े चार मास के लिए मकान किराये पर लिया। बाद में, यह 15 दिन की अतिरिक्त अवधि कारोबार में बहुत ही मददगार बनी। उन दिनों मैं पुष्पशांता दादी जी की ईमानदारी से बहुत प्रभावित हुआ। मैंने दादी पुष्पशान्ता को कहा कि बाबा-मम्मा मेरे निमंत्रण पर मुंबई आए हैं तो मेरी जिम्मेवारी है कि मैं बाबा-मम्मा के माउंट आबू से आने, यहाँ रहने और वापस आबू जाने का खर्च वहन करूँ इसलिए आप इस खर्च के लिए समय प्रति समय मुझे बतायें तो मैं आपको सहयोग देता रहूँगा। दादी पुष्पशान्ता ने ईमानदारी से कहा कि नहीं रमेश, जिन्होंने भी बाबा-मम्मा के यहाँ आने, रहने के खर्च के लिए धन का सहयोग दिया है, मैं वह धन मम्मा-बाबा के यहाँ रहने के खर्च में ही उपयोग करूँगी। आपसे मैं जितनी जरूरत पड़ेगी, उतना ही धन लूँगी। तब मैने दादी को कहा कि ऐसी कोई बात नहीं, मम्मा-बाबा के लिए जो धन आपको मिले, आप उसे इकट्ठा करना और वह मधुबन भेज देना। अभी आप मेरे से पूरा ही धन का सहयोग लीजिए तब भी दादी ने मेरी बात नहीं मानी और कहा कि नहीं रमेश, जो भी धन मिलता है वो मैं यहाँ ही खर्च करूँगी, बाद में ही मैं आपसे खर्च के लिए धन मांगूँगी। दादी जी की इस बात के आधार पर मैंने, यज्ञ कारोबार तथा ईश्वरीय सेवा में ईमानदारी क्या चीज है और मम्मा-बाबा को ईमानदार बच्चे कितने प्यारे हैं, यह बात जानी और सीखी। तब से अपने लौकिक और ईश्वरीय कारोबार दोनों में संपूर्ण ईमानदारी से दादी पुष्पशान्ता को फॉलो करता आ रहा हूँ। इस प्रकार ईमानदारी का गुण मुझे दादी पुष्पशान्ता से सीखने को मिला।

विचार सागर मंथन की शिक्षा

बाद में उनके लौकिक रिश्तेदारों द्वारा कोलाबा का फ्लैट मिला और परिणामरूप गामदेवी सेन्टर से कोलाबा सेवाकेन्द्र खुला और दादी पुष्पशान्ता कोलाबा सेन्टर की मुख्य संचालिका बन गईं। दादी जी ने मेरे से वचन लिया कि मैं हर रविवार को कोलाबा सेन्टर पर क्लास कराऊँगा और ज्ञान के विचार सागर मंथन से सबको लाभान्वित करूँगा। इस प्रकार विचार सागर मंथन करने की शिक्षा भी मुझे दादी पुष्पशान्ता से मिली और इसी बात के आधार पर दादी जी ने मुझसे वचन लिया कि मैं हर मास एक लेख ज्ञानामृत में लिखने का प्रयत्न करूँ और यह वचन मैं आज तक पालन कर रहा हूँ। दादी जी की तबीयत ठीक नहीं रहती थी। उनको दिल का दौरा पड़ता था। दादी प्रकाशमणि जी ने, उनको आराम मिले के दृष्टिकोण से दादी बृजेन्द्रा को महाराष्ट्र जोन की मुख्य संचालिका नियुक्त किया, तब तक दादी पुष्पशान्ता ने मुख्य संचालिका के रूप में महाराष्ट्र में ईश्वरीय सेवा का कारोबार बहुत ही अच्छी तरह से संभाला था।

इच्छा-मृत्यु

दादी जी से बहुत-सी बातें सीखने को मिली परंतु उनमें से एक बात जो मुझे बहुत ही अच्छी लगती है, वह है उनका अपने पर नियंत्रण। शास्त्रों में तो हमने पढ़ा था कि महाभारत में भीष्म पितामह को इच्छा-मृत्यु का वरदान प्राप्त था परंतु इच्छा-मृत्यु क्या है और स्वेच्छा से कोई कैसे शरीर छोड़ सकता है, उसका मेरे पास कोई सबूत नहीं था। दादी जी के अंतिम समय पर एक रात उन्हें फिर से दिल में दर्द हुआ और इसलिए हमारी बड़ी बहन ने उन्हें अस्पताल में एडमिट कराया। दादी जी ने मना किया कि मुझे अस्पताल नहीं भेजो, यहाँ सेन्टर पर ही शरीर छोड़ना है परंतु सभी डॉक्टर्स के कहने पर रात को दादी मुंबई के अस्पताल में एडमिट हो गये। दूसरे दिन सुबह दादी जी ने स्नान-पानी किया, मुरली सुनी और अपनी साथी मोहिनी बहन से पूछा कि घड़ी में कितना समय हुआ है। उन्होंने कहा, 7.45 बजा है तो दादी पुष्पशान्ता ने मोहिनी बहन को अस्पताल के सभी डॉक्टर्स की सेवा के लिए भेजा कि उनको कहो कि दादी पुष्पशान्ता 8.30 बजे शरीर छोड़ेंगी। मोहिनी बहन सभी को यह समाचार सुनाकर 8.15 बजे वापस आई तो दादी जी ने कहा, अभी भी 10 मिनट बाकी हैं, अन्य सभी की भी सेवा करो, 10 मिनट बाद मेरे पास आना। इसके बाद सुबह 8.25 बजे मोहिनी बहन तथा अस्पताल के सभी मुख्य डॉक्टर्स हाजिर हो गये। दादी जी ने गीत बजवाया और जैसे गीत के स्वर के आधार पर संदेशी वतन में जाती है, वैसे ही गीत के स्वर पर इच्छा-मृत्यु के बल के आधार से दादी जी ने अपनी देह का त्याग किया। अस्पताल के स्टाफ सदस्य दादी की इस इच्छा-मृत्यु को देख आश्चर्य में पड़ गये और उन्हें अनुभव हुआ कि कैसे एक राजयोगी आत्मा इच्छा-शक्ति के आधार पर शरीर छोड़ती है।

धन से धारणाओं का निर्माण

दादी पुष्पशान्ता को शरीर निर्वाह अर्थ पैसे एवं कपड़े लौकिक रिश्तेदारों से मिलते थे और दादी निर्मलशान्ता दादी, जो ब्रह्मा बाबा की लौकिक सुपुत्री हैं, को भी अपने लौकिक भाई नारायण दादा से धन आदि का संपूर्ण सहयोग मिलता था। मैंने ब्रह्मा बाबा से पूछा कि अपने लौकिक रिश्तेदारों से धन, कपड़े आदि का सहयोग एक समर्पित ब्रह्माकुमारी बहन कैसे और कहाँ तक ले सकती है? मैंने यह भी ब्रह्मा बाबा को बताया कि दोनों दादियों की इच्छा यही है कि इसी बहाने उनके लौकिक परिवार के सदस्यों का धन सफल हो और वे अलौकिक कारोबार में सदा मददगार बने रहें। तब ब्रह्मा बाबा ने मुझसे पूछा, बताओ, तुम्हारी मत के मुताबिक अपने लौकिक संबंधियों का धन कौन इस्तेमाल कर सकता है और कौन नहीं? मैंने कहा, दादी निर्मलशान्ता का भाई नारायण तो बाबा का बच्चा है ही इसलिए दादी निर्मलशान्ता अपने लौकिक भाई से मिले धन का उपयोग कर सकती है परंतु दादी पुष्पशान्ता के रिश्तेदार तो ईश्वरीय परिवार के सदस्य नहीं हैं इसलिए उनसे धन का सहयोग दादी पुष्पशान्ता नहीं ले सकती। तब ब्रह्मा बाबा ने मुझे एक बहुत ही गुह्य रहस्य बताया कि आत्माओं के दृष्टिकोण से आपका जवाब सही है परन्तु बाप तो त्रिकालदर्शी है और त्रिकालदर्शी बाप की श्रीमत के आधार पर ही दोनों बच्चियाँ लौकिक के धन और कपड़े का उपयोग अपने लिए कर रही हैं। उसमें भी बाबा ने पुष्पशान्ता बच्ची को खास छूट दी है क्योंकि आगे चलकर दादी के इस प्रकार के धन के उपयोग के आधार पर उनके लौकिक परिवार के मन में ईश्वरीय सेवा करने की प्रबल इच्छा उत्पन्न होगी और यज्ञ-सेवा में उनके परिवार का बहुत ही सुन्दर सहयोग बनेगा।  पुष्पशान्ता बच्ची के लौकिक के धन के सहयोग से उनके परिवार में ईश्वरीय धारणा बढ़े, इसलिए त्रिकालदर्शी बाप ने पुष्पशान्ता बच्ची को धन से धारणा बढ़ाने का प्रयोग करने की छुट्टी दी है। यह प्रयोग करने की छुट्टी बाप ही दे सकता है, आप बच्चे नहीं क्योंकि आप बच्चे त्रिकालदर्शी नहीं हो। ब्रह्मा बाबा के द्वारा शिवबाबा के इस निर्देश ने आगे चलकर इतना महत्त्वपूर्ण पार्ट बजाया कि आबू के ग्लोबल हॉस्पिटल आदि के लिए उनकी बेटी के ससुराल “वाटूमल परिवार” द्वारा सहयोग दिया गया और आज यह हॉस्पिटल एक वटवृक्ष की तरह अनेक आत्माओं की सेवा कर रहा है और इसका कारोबार आगे बढ़ता ही जा रहा है। इस प्रकार दादी पुष्पशान्ता द्वारा, धन से परिवार की धारणायें कैसे बढ़ सकती हैं, सीखने को मिला और इसी बात के आधार पर मैंने पवित्र धन के नाम से अनेक लेख लिखे। ऐसी हमारी दादी पुष्पशान्ता को मैं ‘हमारे पूर्वज’ किताब के अंदर इस लेख के माध्यम से अपनी श्रद्धांजली अर्पित करता हूँ।

*******

दादी पुष्पशान्ता की चौथे नंबर की संतान (सुपुत्री) ‘माता विष्णु प्रिया’ के नाम से अपने मठ में जानी जाती हैं। वे अपनी माता पुष्पशान्ता के प्रति हार्दिक भावनायें इस प्रकार व्यक्त करती हैं –

पीछे मुड़कर कभी भी नहीं देखा

आज 80 साल की आयु में, स्मृति को उस समय की ओर ले जा रही हूँ जब मैं छह वर्ष की थी और उस भविष्यसूचक दिवस को याद करती हूँ जब हमारी परमप्रिय माँ दादी पुष्पशान्ता ने घर छोड़ा था। दोपहर के लगभग 3 बजे थे, सूर्य आग उगल रहा था। हमारी माँ अपनी दैनिक ओम मण्डली की क्लास में उपस्थित होने के लिये गईं। यही वह विशेष दिन था, जब माँ ने अपना घर-संसार छोड़ दिया और फिर पीछे मुड़कर कभी भी नहीं देखा। उन्होंने अपना यह फैसला बहुत सोच-विचार कर और आत्म-विवेचन के बाद लिया था। निश्चित रूप से उस अन्जान स्थान पर चले जाना आसान नहीं रहा होगा। उन्होंने घर और बच्चों पर अपने को पूर्णतः समर्पित किया था; उनको पीछे छोड़ना, जिन्हें उन्होंने जना और प्यार किया, निश्चित रूप से बहुत कठिन और वेदना से परिपूर्ण रहा होगा। उन्हें इस प्यार के बंधन को, दिल की तार से झटके से खींचना पड़ा होगा। पांच छोटे बच्चों को भगवान् के भरोसे छोड़ना, जिनकी आयु 12, 8, 7, 6 और 3 थी, कोई मज़ाक नहीं था।

सारा विश्वास सर्वशक्तिवान पर कायम रखा

उन्होंने बाद में मुझे बताया और यह तर्क दिया था कि यदि उनकी मृत्यु हो जाती तो निश्चित रूप से भगवान् ही उनके बच्चों की देखभाल करेंगे और उस स्थिति में हरेक को अपनी नियति का पालन करना होता है। अतः उन्होंने अपना सारा विश्वास सर्वशक्तिवान पर कायम रखा, और उस ‘अज्ञात मार्ग’ पर चल पड़ीं। भगवान ने उन्हें बुलाया था, उन्होंने वह पुकार सुन ली थी, इसलिये उन्हें तो जाना ही था। हम चार छोटे बच्चे (सबसे बड़े भाई की पालना जापान में हो रही थी)– माँ से लिपटे हुए उनकी साड़ी खींचते रहे; हम नहीं चाहते थे कि वह हमें छोड़ कर जाएं। हम सबमें सबसे छोटी, सती, जो तीन साल की थी, बहुत ज़ोर से रोई और उसने अपनी नन्हीं बाँहें उनकी ओर कर दीं। परन्तु, माँ ने हल्के से अपने आपको उसकी नन्ही बांहों से बन्धनमुक्त किया, जिनसे उसने कसके पकड़ा हुआ था, फिर तेजी से सीढ़ी उतर कर नीचे सड़क पर चली गई और हमारी नजरों से ओझल हो गई। वह वर्ष 1938-39 था। बहुत साल बाद, माँ ने मुझे बताया कि उस नन्ही सती का जोर से रोना उनके कानों में बार-बार गूंजता रहा और उनको उस भविष्यसूचक दिन को भूलने में तीन साल लगे। एक ममतामयी माँ के लिये उसके बच्चों को छोड़ना कोई मज़ाक नहीं था परन्तु उन्हें मजबूरन ऐसा करना पड़ा। वह हमको अपने साथ ओम मण्डली में रखना चाहती थी परन्तु पिता जी सबको वापस ले आए। इस प्रकार लौकिक जीवन से मरकर ब्रह्माकुमारी दादी पुष्पशान्ता के रूप में उन्होंने पुनर्जन्म लिया। उनकी हिम्मत और सामर्थ्य को मेरा सादर नमन। 

सत्रह वर्षों तक सम्पर्क नहीं हुआ

माँ ने यज्ञ-भट्ठी के आरम्भ के वर्ष बाबा के निरीक्षण और मार्गदर्शन में, आध्यात्मिक अनुशासन का अभ्यास करते हुए बिताये। सत्रह वर्षों के लम्बे काल तक, माँ और हमारे बीच कोई सम्पर्क नहीं हुआ। इस बीच, हम बच्चे बड़े हो गये थे और अपनी धनी जीवनशैली; पूर्वी और पश्चिमी संस्कृतियों के सम्मिश्रण में अच्छी तरह रम चुके थे। फिर वह समय आया जब बाबा ने हमारी माँ को बॉम्बे के कोलाबा क्षेत्र में पहला सेवाकेन्द्र खोलने के लिये भेजा। मैं उनकी वो पहली सन्तान थी, जो अपने परिवार (ससुराल) के सदस्यों सहित उनके सम्पर्क में आई। हमारी माँ और मैं एक ही लिफ्ट में एक-दूसरे के सामने थे और दोनों ने एक-दूसरे को पहचाना नहीं जब तक कि मैंने परिचय नहीं कराया। यह काफी नाटकीय था।

आन्तरिक अच्छाई और स्नेही स्वभाव

मेरे वाटूमल परिवार ने माँ को बड़े विशाल दिल के साथ प्यार किया। बड़े गर्व के साथ मुझे याद है, हमारे साथ-साथ, जो कोई भी उनके सम्पर्क में आया उसे उनसे तुरन्त ही स्नेह हो गया और बड़े आकर्षण के साथ उनकी ओर खिंचा चला आया। उनकी आन्तरिक अच्छाई और स्नेही स्वभाव प्रशंसनीय थे। सदा मुस्कराती हुईं वे सभी को अपने आकर्षण में बाँध लेती थीं, एक सच्ची स्वाभाविक दाता के गुण थे उनमें। जब मैंने उनके गुजर जाने की खबर सुनी, तब मैंने हर किसी को यह कहते हुए सुना कि दादी ने हमें बहुत प्यार दिया था।

उच्च विचार भरे

मुझे एक स्नेही, ध्यान रखने वाली माँ के रूप में भी उनकी याद आती है। वह हम बच्चों की हर बात पर विशेष ध्यान देती थीं। वह एक शानदार कुक (खाना पकाने वाली) थीं। वह हमें चुनिंदा भोजन खिलाती थीं। एक महान अनुशासक के रूप में उन्होंने हमें अच्छी आदतें और आचरण सिखाये। उन्होंने हममें उच्च विचार भरे थे, जिनसे बाद में हमें अपनी ज़िन्दगियों को आकार देने में सहायता हुई। एक असाधारण व्यक्ति के रूप में उन्होंने हम सब बच्चों पर अविस्मरणीय छाप छोड़ी।

विलासिता की गोद में भी शून्यता का अहसास

उन्होंने एक धनवान घर में एक सुखपूर्ण जीवन जिया था। उन्होंने अपना ज़्यादा समय जापान में बिताया जहाँ मेरे दो बड़े भाइयों का और मेरा भी जन्म हुआ था। हमारी एक आया थी जो जापान में हमारा ध्यान रखती थी, यह कुछ ऐसा था जो उन दिनों में असामान्य था। विलासिता की गोद में रहने के बावजूद, माँ ने एक बार मुझे बताया कि उन्हें उनके भीतर एक महान शून्यता की महसूसता उस समय से अनुभव हो रही थी, जब वे अपने पैतृक घर में थीं और यह शून्यता भौतिक पदार्थों से भरी नहीं जा सकी। घर में सबसे बड़ी सन्तान होने के कारण, उनके अभिभावकों और भाई-बहनों की देखभाल की ज़िम्मेदारी उनके नाजुक कन्धों पर आ गई थी। आंतरिक भूख के कारण, वह अपना कुछ समय निकालकर शास्त्रों और धर्मग्रन्थों का गहन अर्थ समझने में लग गई और अपने आपको भक्ति से सराबोर कर दिया। फिर भी उन्हें किसी विशेष बात की कमी महसूस होती ही रही; उन्होंने मुझे बताया कि उन्हें भक्ति से अधिक किसी और चीज़ की आवश्यकता थी, जो उन्हें बाद में निराकार शिव परमात्मा द्वारा प्रचुर मात्रा में मिल गई। यह तब की बात है, जब उन्होंने अन्ततः अपने आपको भरपूर अनुभव कर लिया था। अवश्य ही यही उनके लिये आदेश था।

माँ अपनी सर्व बहनों को यज्ञ में ले आईं। परन्तु वह जो अन्त समय तक माँ के साथ रहीं, जो 13 वर्ष की अल्प आयु में इस मार्ग में माँ के साथ जुड़ गई, वह बाल ब्रह्मचारिणी हमारी मौसी दादी आत्म मोहिनी थीं। जब कोलाबा सेवाकेन्द्र आरम्भ हुआ, हम बच्चे हमारी माँ और मौसी से मिलने जाया करते थे।

बाबा अपने हाथों से खिलाते थे

उन दिनों (ओम मण्डली के समय) मैं छः साल की एक नन्हीं लड़की थी; माँ ने मेरा दाखिला बाल निवास में करवा दिया था, जहाँ मैं अन्य आश्रम निवासियों के साथ रहने लगी। मुझे याद है, बाबा प्यार से मुझे अपनी गोदी में ले लेते थे या स्वयं अपने हाथों से मुझे खिलाते थे। कुछ समय बाद, जब हम अपनी आँखें खोलते थे तब बाबा पूछते थे कि हमने क्या देखा था। इस पर मेरा स्थिर रूप से जवाब होता था –’मैंने श्रीकृष्ण को देखा।’ तब बाबा ने भविष्यवाणी की और माँ को बताया – ‘तुम्हारी इस बच्ची का बहुत अनोखा पार्ट रहेगा।’ 

ऋषि-मुनियों की कहानियाँ सुनाती थी

माँ अपनी शादी होने से पहले से ही काफी आध्यात्मिक थीं, अतः यह स्वाभाविक था कि वह यह चाहती थी कि हम भी उन महापुरुषों के गुणों और विशेषताओं को धारण करें जिनके महान् कर्मों से हमारे धर्म-शास्त्र भरे पड़े हैं। वह हमें महाभारत, रामायण और श्रीमत भागवत से सन्त, ऋषि-मुनियों की कहानियाँ सुनाया करती थीं, विशेष रूप से रानी मदालसा की जिन्होंने अपने राजकुमार-पुत्रों में त्याग के संस्कार भरे थे। इन बातों ने निश्चित तौर पर, हमारे पहले से ही ग्रहणशील मन पर एक भिन्न छाप छोड़ दी थी। जब मैने वाटूमल हाउस छोड़ा और श्रीकृष्ण की नगरी वृन्दावन गई, तो माँ ने सबसे अधिक मिलनसारिता के साथ मुझे कोलाबा सेन्टर पर रहने के लिये स्थान दिया (बालकनी में एक पलंग) ताकि मेरे बॉम्बे आगमन के दौरान मुझे मेरे लौकिक परिवार वालों के पास जाने की आवश्यकता महसूस न हो।

योग्य और माननीय आत्मा

यह हम बच्चों के लिये विशेष बात थी कि हमारी माँ को इतना सम्मान मिला और वह पहली आठ दादियों में से एक थीं जो बाबा और मम्मा के पास आईं थीं। वह सचमुच में भरपूरता के साथ सबसे अधिक योग्य और माननीय आत्मा थीं जिनका सबसे अधिक अभिनन्दन हुआ। वह वास्तव में एक महान् आत्मा थीं, जो शिव बाबा के प्यार के प्रति लालायित होकर अन्य आत्माओं को ज्ञानवान बनाने और उनका मार्गदर्शन करने आई थीं। मैं हमारी माँ दादी पुष्पशान्ता जी को अपने हृदय से अभिवादन और श्रद्धांजलि अर्पित करती हूँ। हम इस धरती पर उन्हें अपनी माँ के रूप में पाकर धन्य- धन्य हो गये।

ब्रह्माकुमारी मोहिनी बहन (कोलाबा) जो छह साल दादी पुष्पशान्ता के साथ रही, उनके साथ का अनुभव इस प्रकार सुनाती हैं –

प्रदर्शनी के चित्रों को ट्रांस में देखा

दादी जी पाँच बहनें थी- पुष्पशान्ता, आत्ममोहिनी, केवल, कोयल, धनी। इनमें से दादी पुष्पशान्ता तथा आत्ममोहिनी यज्ञ में समर्पित हुई। दादी जब यज्ञ में आई तो बच्चों को साथ लेकर आई लेकिन पति बच्चों को वापस ले गया। पति ने दूसरी शादी कर ली। पति ने कहा, तुम्हें जो कुछ चाहिए, ले जाओ परंतु दादी ने कुछ नहीं लिया, गले में पहनी सोने की चेन भी निकाल कर दे दी। एक धक से त्याग कर दिया। माता होने के कारण दादी में पालना के संस्कार बहुत थे। उम्र में बड़ी और अनुभवी होने के कारण छोटी बहनों को पालना देने में नंबरवन थी। दादी चारों धारणाओं को युक्ति से पक्का करवाती थी। उनमें भी विशेष पवित्रता की धारणा पर अटेन्शन खिंचवाती थी। कुछ समय मुंबई वाटरलू मेन्शन में रही फिर कोलाबा सेन्टर खुला तो वहाँ जाकर रही। कोलाबा सेन्टर का फिर आगे विस्तार किया जिससे कल्याण, मुलुंड, दहिसर आदि सेन्टर खुले। सन् 1970 में जब पहली प्रदर्शनी ‘विश्व नवनिर्माण प्रदर्शनी’ बनी, उस समय दादी कोलाबा सेन्टर पर थी। दादी ट्रांस में जाकर सारे चित्र देखकर आई और उस आधार पर प्रदर्शनी के सारे चित्र बने। जन्माष्टमी पर दादी के तन में श्रीकृष्ण की आत्मा का पार्ट चलता था।

पालना देने का विशेष संस्कार

दादी साधारण आत्मा में भी उमंग-उत्साह भरकर योग्य बना देती थी। योग्य आत्मा को और भी योग्य बना देती थी। परखने की शक्ति जबर्दस्त थी। आलराउंडर सेवाधारी थी। जिन आत्माओं को दादी ने पालना दी, उन्हें भी आलराउण्डर बनाया। दादी का सरल स्वभाव था। छोटे, बड़े, युवा सबको कैसे चलाना है, यह कला दादी में थी। मुंबई का पुराना कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं जिसने दादी की पालना न ली हो। चंद्रिका बहन-महादेव नगर (अहमदाबाद), वेदान्ती बहन (अफ्रीका), हेमलता बहन (ट्रिनिडाड), सुषमा बहन (जामनगर) जैसी कुमारियों को पालना देकर दादी ने सेवा के क्षेत्र में उतारा और आज ये बहनें ब्राह्मण परिवार में नक्षत्र की भांति चमक रही हैं। निर्वैर भाई, रमेश भाई, डॉ. निर्मला बहन, शीलू बहन– इन अमूल्य रत्नों ने भी दादी से पालना ली है।

देने में दिलदार

दादी जी के पाँच बच्चे थे जिनमें दो लड़कियाँ और तीन लड़के थे। एक लड़की संन्यासिनी बन गई। दादी के दामाद खूबा वाटूमल को दादी के प्रति बहुत भावना थी। उन्होंने दादी की याद में माउंट आबू के ग्लोबल हॉस्पिटल का निर्माण कराया। दादी के बेटे और दामाद ने मिलकर कोलाबा में सेन्टर खुलवाया। दादी को हार्ट की तकलीफ थी। उन्होंने 7 फरवरी, 1983 को मुंबई में पुरानी देह त्याग की, उस समय माउंट आबू में पहली अंतर्राष्ट्रीय कांफ्रेंस चल रही थी। जब दादी ने शरीर छोड़ा तो अलमारी में सिर्फ 8 साड़ी और एक जोड़ी चप्पल थी। दूसरों को देने में दिलदार थी परंतु खुद के लिए कभी कुछ नहीं रखा।

समर्पित कराने के निमित्त

आदरणीया पुष्पशान्ता दादी जी हमारे लौकिक घर में सप्ताह में तीन बार क्लास कराने आती थी। उस समय हमें बाबा की तथा यज्ञ इतिहास की बातें सुनाती थी। लौकिक घर के कुछ सदस्य इतना समझते नहीं थे। दादी जी और बाबा की प्रेरणा से जब हमें ट्रांस का पार्ट मिला तो धीरे-धीरे सारे घर का वायुमण्डल परिवर्तित होने लगा। घर के सभी सदस्यों को ऐसी अलौकिक शक्ति प्राप्त हुई जो निश्चयबुद्धि बनकर हमें इस यज्ञ में समर्पित कर दिया। दादी जी हमेशा कहती थी कि योगबल के द्वारा ही संपूर्ण विजयी बनना है और मौन की भाषा से कर्मबंधनों से निर्बन्धन बनना है। दादी जी द्वारा दी गई ऐसी अनेकानेक सूक्ष्म शिक्षाओं ने हमें लौकिक स्वभाव-संस्कार, संबंध-संपर्क परिवर्तित करने में बहुत मदद की।

सदा आगे बढ़ाया

दादी जी की सरलता, सहयोग, स्नेह, बाबा के समीप ले जाने की उत्कंठा ने ही हमें बाबा के समीप लाया। उन्होंने ही बाबा से हमें मिलाया। हम ज्ञानमार्ग में आगे बढ़ते रहें, उसके लिए दादी जी ने दिन-रात सहयोग दिया। हर पल, हर घड़ी दादी जी चाहती थी कि चारों ही विषयों में इस आत्मा को मैं बहुत ही आगे बढ़ाऊँ जो बाबा का नाम बाला करे। सेवा के हर कार्य में तथा मनसा, वाचा, कर्मणा से आगे बढ़ाने में अग्रसर रहती थी। ईश्वरीय नियमों की पालना में भी दादी जी हमें निश्चयबुद्धि बनाकर आगे बढ़ाती रही।

दुआओं का सहयोग

दादी जी सिखाती थी कि आने वाली आत्माओं को बाबा का परिचय देकर कैसे उनकी पालना करनी चाहिए। जब ब्रह्मा बाबा मुंबई में आये तो दादी जी ने ब्रह्मा बाबा से हमारा परिचय कराया। ब्रह्मा बाबा ने दृष्टि दी और कहा कि कल्प पहले वाली बिछुड़ी हुई बच्ची है, सेवा में और योगशक्ति में बहुत ही आगे बढ़ेगी। उस समय बाबा ने हमें विजयी भव का वरदान दिया। वह दिन और आज की घड़ी दादी पुष्पशान्ता जी का आत्मीय प्यार, अलौकिक स्नेह, साथ में ब्रह्मा बाबा का अनमोल दिल व जान का प्यार, दुलार और वरदानों की दृष्टि मैं कभी भी भूल नहीं सकती। दादी पुष्पशान्ता का साथ जीवन में अधिक मिलने से लगता है कि जैसे मेरे भाग्य का सितारा जग गया। उनकी सूक्ष्म दुआयें, स्नेह और सहयोग का साथ और शक्तियों का हाथ अभी तक भी अनुभव होता है। उनकी दुआओं से लगता है कि मैं दिन दुगुना, रात चौगुना ईश्वरीय यज्ञ में आगे बढ़ती जा रही हूँ।

जामनगर से ब्र.कु. सुषमा बहन दादी पुष्पशान्ता के बारे में लिखती हैं- 

मैं दादी जी के साथ मुंबई में चार साल सेवासाथी बनकर रही। दादी जी अपने लौकिक जीवन के बारे में कई बार सुनाती थी- ‘मैं अपने बच्चों को रुई में लपेट कर रखती थी, सिले हुए कपड़े भी नहीं पहनाती थी इसलिए कि कहीं सिलाई बच्चों को चुभ न जाये। घर में बहुत पैसा था।

बचत का संस्कार

एक बार दादी जी की एक बहू जापान से खास दादी जी से मिलने आई थी। उसके मन में यह प्रश्न था कि इतनी अमीर घर की मेरी सास, इतनी अमीरी को छोड़कर क्यों इतनी त्यागमूर्त बन गई। वह कोलाबा सेन्टर पर आई, एक थाली में पूजा की सामग्री रखकर उसने दादी जी की पूजा की। दादी जी से मिलकर वह बहुत खुश हुई और उसे अपने प्रश्न का जवाब भी मिला।

जिन दिनों मैं वहाँ थी, तब दादी पुष्पशान्ता कंप्लीट बेडरेस्ट में थी। अमृतवेले का गीत बजाने की मेरी ड्यूटी थी। गीत बजाकर मैं दादी के कमरे का दरवाजा थोड़ा सा बंद कर देती थी ताकि दादी की नींद डिस्टर्ब ना हो लेकिन दादी मना करती थी और बेड रेस्ट में होते भी अमृतवेला अवश्य करती थी। बीमारी में भी क्लास रूम में बैठकर प्रतिदिन मुरली भी सुनती थी और सप्ताह में एक बार मुरली भी अवश्य सुनाती थी। यज्ञ की बहुत बचत करती थी। अरबपति घर की होते भी दादी अपने लिए व्यक्तिगत कभी कुछ नहीं रखती थी।

धर्मराज की सजा से मुक्त

दादी को सिखाने का बहुत शौक था। टोली बनाना, खाना बनाना, यह सब मुझे सिखाया। मेरी कोई बात चित्त पर नहीं रखी। इशारा देती थी और फिर नॉर्मल हो जाती थी। दिसंबर 1981 में दादी जी के साथ पार्टी लेकर मैं मधुबन आई थी, तब मेडिटेशन हॉल में, व्यक्तिगत मुलाकात में बाबा ने उनसे कहा था, ‘बच्ची, तुम्हारा सारा कर्मों का हिसाब-किताब पूरा हो चुका है, अब तुम्हें धर्मराज की सज़ा नहीं मिलेगी।’

 

महादेवनगर, अहमदाबाद सबजोन की निमित्त संचालिका ब्र.कु. चन्द्रिका बहन दादी जी के साथ बिताए अनमोल पलों को याद करते हुए कहती हैं- 

दादी का बाबा में अटूट निश्चय था। ससुराल में उनको संभालने के लिए 7-8 नौकरानियाँ रहा करती थी। लौकिक जीवन में इतने धनी परिवार की होते हुए भी यज्ञ में जीवन समर्पित करने के बाद उन्होंने बहुत साधारण जीवन व्यतीत किया। मैं सन् 1969 से 1973 तक दादी पुष्पशांता जी के साथ रही हूँ। उस समय वे 78 वर्ष की थी। दादी जी का मुझमें बहुत विश्वास था और मेरा भी दादी जी के प्रति बहुत श्रद्धाभाव था जिस कारण दादी जी ने मुझे अपने साथ अपनी पर्सनल सेवा में रखा हुआ था। दादी जी की दिनचर्या बहुत नियमित और योगी जीवन के अनुकूल थी। दादी जी को कैंसर, डायबिटीज, बी.पी., हृदयरोग, टी.बी. आदि कई तकलीफें थीं। फिर भी कभी उनके मुख से बीमारी का वर्णन नहीं सुना और न ही चेहरे से कभी दुख की फीलिंग महसूस हुई। उन्हें कई प्रकार की ट्रीटमेंट लेनी पड़ती थी लेकिन फिर भी बह्ममुहूर्त में ठीक 3.30 बजे उठती थी और बाबा के साथ अपनी लगन लगाती थी। दादी जी का सभी को पालना देने का ढंग बड़ा निराला था। वे छोटे-बड़े सभी को अपनी बाजू में बिठाकर, हाल-चाल पूछती थी। बाबा के घर का भोजन, नाश्ता, टोली बड़े प्यार से खिलाती थी। बड़ी उम्र की होते हुए भी दादी की भोजन बनाने-खिलाने में बहुत रुचि थी। वे बाबा को नया-नया भोग बनाकर खिलाती थीं।

सन्देश पुत्री

यज्ञ स्थापना के कार्य में कई प्रकार की मुसीबतों को झेलते हुए भी आपका परमात्म निश्चय और सेवाभावना अविरत रूप से चालू रहे। आप महाराष्ट्र जोन की जोन इंचार्ज दादी थी। आपके साथ होने के नाते आपकी सारी पोस्ट लिखने का सौभाग्य मुझे मिला था। आप संदेश-पुत्री भी थी। बाबा को भोग लगाना, दिव्य संदेश ले आना और ईश्वरीय सेवा कार्यों के प्रति स्पष्ट मार्गदर्शन देना-यह आपका विशेष पार्ट रहा। मुंबई के कोलाबा एरिया में रेडियो क्लब के पास गीतांजलि बिल्डिंग में सेवाकेन्द्र था, जो ‘गेटवे ऑफ इंडिया’ से बिल्कुल पैदल की दूरी पर ही था। दादी हमें पैम्फलेट देकर गेटवे ऑफ इंडिया पर सेवार्थ भेजती थी। वैसे दादी बहुत कम और आवश्यकता प्रमाण ही बोलती थी।

विशेष स्नेह और विश्वास

मेरे व्यक्तिगत जीवन की दादी के साथ की एक घटना अविस्मरणीय है। मुंबई में रहते, समुद्र की हवा ने धीरे-धीरे मेरे स्वास्थ्य को खराब असर पहुँचाया और स्किन एलर्जी, दमा, कान में पस आदि बहुत तकलीफें होने लगी। काफी इलाज और दवाइयों के बावजूद भी कोई असर नहीं हो रहा था। डॉक्टर ने कहा, इनको वेदर चेंज कराओ। दादी ने कहा, नहीं, इनको अच्छी से अच्छी ट्रीटमेंट दो, जितना भी खर्च हो, मैं करने को तैयार हूँ लेकिन इनको अपने पास से कहीं जाने नहीं दूँगी। बाद में दादी जी ने डॉक्टर की राय से थोड़े समय के लिए वेदर चेंज करने मुझे अहमदाबाद भेजा और वहाँ मेरा स्वास्थ्य तीव्र गति से ठीक होने लगा। फिर भी दादी जी के आग्रह पर मुझे वापस मुंबई आना ही पड़ा। मुंबई आने के बाद फिर स्वास्थ्य खराब होने लगा। आखरीन स्वयं बाबा ने और दादी प्रकाशमणि जी ने यही फैसला लिया कि मुझे मुंबई छोड़ना है। जब मैं मुंबई छोड़ रही थी, तब दादी जी गद्गद होकर कहने लगी, ‘चन्द्रिका, तुम बाबा की दुकान की बहुत अच्छी मैनेजर हो। जब मैंने घर छोड़ा था तब भी मुझे इतना कष्ट नहीं हुआ था जितना आज तुम्हें विदाई देने पर महसूस कर रही हूँ।’ मैं महसूस करती हूँ, आज मैंने जो कुछ भी सीखा है और जीवन में जो भी विशेष प्राप्तियाँ की हैं, वो दादी जी का मुझमें विश्वास, प्रेमभाव तथा उनके आशीर्वाद रूपी वरदान का ही असर है। मैं अपने को बहुत ही भाग्यशाली समझती हूँ कि मेरे इस जीवन के प्रारंभकाल में मुझे ऐसी ममतामयी दादी माँ मिली जिससे सद्‌गुणों को जीवन में मैं सहज ही उतार पाई। दादी पुष्पशान्ता जी के साथ ही उनकी छोटी बहन दादी आत्ममोहिनी जी भी रहते थे, उनका भी मेरे साथ इतना ही स्नेहपूर्ण व्यवहार रहा।

मुख्यालय एवं नज़दीकी सेवाकेंद्र

अनुभवगाथा

Bk sudha didi - moscow anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी सुधा बहन के जीवन की कहानी प्रेरणा देती है—दिल्ली में शुरू हुआ ज्ञान, समर्पण से बढ़ते हुए रूस में सेवा का विस्तार। जानें उनके जीवन की यात्रा, जगदीश भाई और दादी गुलज़ार से प्राप्त मार्गदर्शन, और कैसे उन्होंने कठिनाइयों

Read More »
Bk satyavati didi anubhavgatha

तिनसुकिया, असम से ब्रह्माकुमारी ‘सत्यवती बहन जी’ लिखती हैं कि 1961 में मधुबन में पहली बार बाबा से मिलते ही उनका जीवन बदल गया। बाबा के शब्द “आ गयी मेरी मीठी, प्यारी बच्ची” ने सबकुछ बदल दिया। एक चोर का

Read More »
Bk nirwair bhai ji anubhavgatha

मैंने मम्मा के साथ छह साल व बाबा के साथ दस साल व्यतीत किये। उस समय मैं भारतीय नौसेना में रेडियो इंजीनियर यानी इलेक्ट्रोनिक इंजीनियर था। मेरे नौसेना के मित्रों ने मुझे आश्रम पर जाने के लिए राजी किया था।

Read More »
Bk sutish didi gaziabad - anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी सुतीश बहन जी, गाजियाबाद से, अपने आध्यात्मिक अनुभव साझा करती हैं। उनका जन्म 1936 में पाकिस्तान के लायलपुर में हुआ था और वे बचपन से ही भगवान की प्राप्ति की तड़प रखती थीं। भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद, उनका परिवार

Read More »
Dadi dhyani anubhavgatha

दादी ध्यानी, जिनका लौकिक नाम लक्ष्मी देवी था, ने अपने आध्यात्मिक जीवन में गहरा प्रभाव छोड़ा। मम्मा की सगी मौसी होने के कारण प्यारे बाबा ने उनका नाम मिश्री रख दिया। उनकी सरलता, नम्रता और निःस्वार्थ सेवाभाव ने अनेक आत्माओं

Read More »
Didi manmohini anubhav gatha

दीदी, बाबा की ज्ञान-मुरली की मस्तानी थीं। ज्ञान सुनते-सुनते वे मस्त हो जाती थीं। बाबा ने जो भी कहा, उसको तुरन्त धारण कर अमल में लाती थीं। पवित्रता के कारण उनको बहुत सितम सहन करने पड़े।

Read More »
Bk ramesh bhai ji anubhavgatha

हमने पिताश्री जी के जीवन में आलस्य या अन्य कोई भी विकार कभी नहीं देखे। उम्र में छोटा हो या बड़ा, सबके साथ वे ईश्वरीय प्रेम के आधार पर व्यवहार करते थे।इस विश्व विद्यालय के संचालन की बहुत भारी ज़िम्मेवारी

Read More »
Bk meera didi malasia anubhavgatha

मीरा बहन का जीवन सेवा और आध्यात्मिकता का अद्भुत संगम है। मलेशिया में ब्रह्माकुमारी संस्थान की प्रमुख के रूप में, उन्होंने स्व-विकास, मूल्याधारित शिक्षा और जीवन पर प्रभुत्व जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर प्रवचन दिया है। बाबा की शिक्षाओं से प्रेरित

Read More »
Bk kamla didi patiala anubhav gatha

ब्रह्माकुमारी कमला बहन जी, पटियाला से, अपने आध्यात्मिक अनुभव साझा करते हुए बताती हैं कि 1958 में करनाल सेवाकेन्द्र पर पहली बार बाबा से मिलने के बाद, उनके जीवन में एक अद्भुत परिवर्तन आया। बाबा की पहली झलक ने उनके

Read More »
Bk elizabeth didi africa anubhavgatha

ब्र.कु. एलिज़ाबेथ बहन का जीवन एक प्रेरणादायक सफर है। अफ्रीका में जन्म, नन बनने का अनुभव और फिर ब्रह्माकुमारी मार्ग पर चलते हुए नैरोबी और नाकरू सेवाकेन्द्र पर ईश्वरीय सेवा का विस्तार किया।

Read More »
Dada anandkishore ji

दादा आनन्द किशोर, यज्ञ के आदि रत्नों में से एक, ने अपने अलौकिक जीवन में बाबा के निर्देशन में तपस्या और सेवा की। कोलकाता में हीरे-जवाहरात का व्यापार करने वाले दादा लक्ष्मण ने अपने परिवार सहित यज्ञ में समर्पण किया।

Read More »
Dadi sandeshi ji

दादी सन्देशी, जिन्हें बाबा ने ‘रमणीक मोहिनी’ और ‘बिंद्रबाला’ कहा, ने सन्देश लाने की अलौकिक सेवा की। उनकी विशेषता थी सादगी, स्नेह, और ईश्वर के प्रति अटूट निष्ठा। उन्होंने कोलकाता, पटना, और भुवनेश्वर में सेवा करते हुए अनेकों को प्रेरित

Read More »
Bk erica didi - germany anubhavgatha

एरिका बहन का सफर दिल छू लेने वाला है। क्रिश्चियन धर्म से ईश्वरीय ज्ञान तक, उनके जीवन में आध्यात्मिक बदलाव, बाबा के साथ अटूट रिश्ता और भारत के प्रति उनके गहरे प्रेम को जानें। राजयोग से मिली शांति ने उनके

Read More »
Dadi santri ji

ब्रह्मा बाबा के बाद यज्ञ में सबसे पहले समर्पित होने वाला लौकिक परिवार दादी शान्तामणि का था। उस समय आपकी आयु 13 वर्ष की थी। आपमें शुरू से ही शान्ति, धैर्य और गंभीरता के संस्कार थे। बाबा आपको ‘सचली कौड़ी’

Read More »
Bk laxman bhai anubhavgatha

लक्ष्मण भाई, दिल्ली, मालवीय नगर से, 1933 में करांची में जन्मे। 1958 में ब्रह्माकुमारी ज्ञान प्राप्त किया और बाबा से मिलकर जीवन बदल गया। 1962 में दिव्य विवाह किया और योगी जीवन अपनाया। बाबा की शिक्षाओं ने उन्हें साकार बाबा

Read More »