मेरा लौकिक जन्म अफ्रीका के तंजानिया देश में हुआ। सन् 1973 में वहाँ की परिस्थितियाँ बहुत खराब होती गयीं तो परिवार वाले सोच रहे थे कि पढ़ाई के लिए अमेरिका भेजें या यू.के.। लेकिन पिता जी ने भारत को ही पसन्द किया। पिता जी का विचार था कि हम तो भारत के हैं, हमारे बच्चों में भी भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता के संस्कार भरें। इसलिए मुझे भारत के गुजरात प्रान्त के बड़ौदा (वडोदरा) में पढ़ाई के लिए भेजा गया। मैंने ऑडिटिंग तथा अकाउंटिंग में बी.कॉम. पास किया।
छोटेपन से ही, लगभग तीन साल की आयु से माता-पिता के कहने अनुसार मैंने भक्ति करनी शुरू की। बचपन से ही बड़ों को ‘हाँ जी’कहने का पाठ पक्का था, जो आज अलौकिक जीवन में भी मुझे बहुत काम आता है। सन् 1979 में जब मैं पढ़ाई के अन्तिम वर्ष में थी, तब ज्ञान मिला। कॉलेज के सामने ही ईश्वरीय विश्वविद्यालय का सेवाकेन्द्र था। मेरी एक सहेली मुझे वहाँ यह कहकर ले गयी कि वहाँ भगवान के बारे में बहुत अच्छी बातें बताते हैं, अगर तुम सुनना चाहती हो तो चलो। एक दिन उसके साथ वैसे ही सेवाकेन्द्र देखने के लिए गयी। जैसे ही मैंने सेन्टर में प्रवेश किया, वहाँ ब्रह्मा बाबा का खड़ा हुआ चित्र नज़र आया। सबसे पहले मेरी दृष्टि बाबा की आँखों पर ही गयी। मेरे अन्दर यह आवाज़ आने लगी कि आप जो चाहती हो, वो यहाँ है। मैंने सोचा, मुझे तो कुछ नहीं चाहिए। मैं अच्छी रीति पढ़ रही हूँ, मेरे माता-पिता अच्छे हैं, पिता जी की अच्छी कमाई तथा सम्पत्ति है। मुझे कुछ नहीं चाहिए। फिर दो-तीन बार आवाज़ आयी कि बच्ची, तुमको जो भी चाहिए, वह यहाँ है। ऐसे अन्दर वार्तालाप चल रहा था, उतने में ब्रह्माकुमारी बहन ने आकर मुझे एक फॉर्म दिया और कहा, इसको भरो। मैंने भरा। जब हम वापिस जा रहे थे तो मेरी सहेली ने कहा कि आपने तो फॉर्म भर दिया तो आपको सात दिन वहाँ जाना पड़ेगा। मैंने कहा, यह कैसे हो सकता है, कुछ दिनों में ही फाइनल ईयर की परीक्षा आ रही है। परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि उस दिन से लेकर आज तक मैंने क्लास में जाना कभी मिस नहीं किया। सन् 1979 फरवरी, शिवरात्रि के दिनों में मुझे यह ज्ञान मिला। तब से लेकर मेरी अलौकिक पढ़ाई कभी रुकी नहीं है।
बचपन से ही मेरा यह लक्ष्य था कि जीवन में ऐसा कार्य करूँ जो किसी ने नहीं किया हो। परन्तु जिस कुल में मैंने जन्म लिया, उस कुल में आज तक कोई कन्या अविवाहित नहीं रही। जब मैंने कहा कि मुझे शादी नहीं करनी है, तो बिरादरी में थोड़ा हंगामा शुरू हो गया।
पहली बार जब मैंने साकार बाबा का चित्र देखा था तभी मुझे अनुभव हो गया था कि जो भी सत्य है, वह यहाँ ही है। ईश्वरीय ज्ञान का कोर्स करने से पहले मैं भक्तिमार्ग का एक योग किया करती थी। उस योग में मुझे शान्ति तो मिलती ही थी, साथ-साथ श्रीकृष्ण का साक्षात्कार भी होता था। कभी-कभी एक गोले पर श्रीकृष्ण का बैठा हुआ चित्र नज़र आता था। वो रूप इतना सुन्दर होता था कि उसको देखकर बहुत खुशी होती थी और उसको देखते-देखते तीन-चार घंटे बीत जाते थे।
जब मेरी पढ़ाई पूरी हो गयी तो रिश्तेदार शादी करने की बात सोचने लगे। इन्हीं दिनों, परिवार वाले लन्दन स्थानान्तरित हुए तो मुझे भी वहाँ बुलाने लगे। शादी के लिए घर वाले मेरे पीछे ही पड़ गये। वे मुझे डराने भी लगे तथा धमकाने भी लगे कि अगर तुम शादी नहीं करोगी तो तुम्हारी छोटी बहनों से भी कोई शादी नहीं करेगा। तब तक पिताजी शरीर छोड़ चुके थे, तो रिश्तेदार कहने लगे कि समाज वाले क्या सोचेंगे? कहेंगे, पिता ने शरीर छोड़ा तो लड़की साध्वी बन गयी। एक दिन मैंने माता जी से कहा कि देखो, अगर हम अच्छे रास्ते पर जाते हैं तो भी लोग बोलेंगे और बुरे रास्ते पर जाते हैं तो भी बोलेंगे। इसलिए आप ही बताओ, मैं किस रास्ते पर चलूँ? इस तरह के प्रश्न मैं रिश्तेदारों से भी पूछती थी तो उन्होंने समझा कि ब्रह्माकुमारियों ने इसपर जादू किया है। तो वे किसी गुरु के पास जाकर भस्म आदि लेकर आये। इसके लिए उन्होंने बहुत पैसे भी ख़र्च किये। गुरु ने घर वालों से कहा कि इस भस्म को एक लॉकेट के अन्दर डालकर उसको पहना दो तो दो मास में वह शादी करके विदेश चली जायेगी। उन्होंने मुझे वह लॉकेट पहनाया। बाद में मैंने अपने कमरे में जाकर उसको उतारकर एक ऐसे कोने में रखा जो किसी को दिखायी न पड़े और मुझे भी दिखायी न पड़े। फिर मैंने बाबा से कहा, बाबा, मैं तो आपकी बन चुकी हूँ, आप ही इसका निर्णय कीजिये कि मैं आपकी बनकर रहूँ या लौकिक वालों की बनकर रहूँ? घर वाले तो शान्त हो गये क्योंकि उन्होंने सोचा कि लॉकेट से ठीक हो जायेगी और दो महीने के अन्दर शादी कर लेगी। कुछ दिनों बाद, मेरा लन्दन जाने का प्रोग्राम बना। परिवार वालों ने सोचा कि अगर यह लन्दन जायेगी तो इसका मन परिवर्तन हो जायेगा। मैं मन में सोच रही थी कि ये लोग मुझे क्यों नहीं पहचानते हैं! लौकिक जीवन के लिए क्यों जबरदस्ती कर रहे हैं! उतने में मेरी नज़र आइने पर गयी तो, ऐसा अनुभव होने लगा कि मेरा प्रतिबिम्ब मुझ से कह रहा है, यदि तुम इस तरह के वस्त्र पहनती हो तो लोग कैसे समझेंगे? लौकिक वाले तो बाहर के रूप-रंग को ही देखेंगे ना, उनको तुम्हारी अन्दर की दुनिया कैसे दिखायी पड़ेगी? मुझे लौकिक में रंगीन कपड़े पहनने का, फैशन करने का, बाल बनाने का बहुत शौक था। यह बात मेरे में तीर की तरह घुस गयी। उसी क्षण से मैंने रंगीन कपड़े छोड़कर सफेद कपड़े पहनना शुरू किया। मुझे लन्दन भेज दिया गया। उन्होंने यह भी सोचा कि लन्दन जायेगी और सेवाकेन्द्र पर नहीं जा पायेगी तो अपने आप ठीक हो जायेगी। लेकिन लन्दन जाने से पहले ही मैंने सारी जानकारी ले ली थी कि सेन्टर, हमारे रहने के स्थान से कितना दूर है। मेरी सहेलियाँ भी वहाँ थीं, मैंने उनसे ये सारी बातें कह दी थी। उन्होंने कहा कि तुम चिन्ता मत करो, हम तुमको रोज़ सेन्टर जाने के लिए सहयोग करेंगी। यह सन् 1981, फरवरी की बात है। लन्दन में मैं मामा जी के पास रहती थी, वहाँ सप्ताह में दो ही बार स्नान करने का नियम था। मैं भारत में रही हुई थी तो मुझे रोज़ स्नान करने का अभ्यास था। क्या करें, कैसे करें यह सोच रही थी। वह घर लकड़ी का था। ऊपर रहने का स्थान था, नीचे किचन तथा अन्य कामकाज का स्थान था। बाथरूम जायें तो वह लकड़ी का होने के कारण आवाज़ होती थी। एक रात में मैंने चेक किया कि किस तरफ़ से जाने से आवाज़ नहीं होती। फिर सुबह जल्दी उठकर धीरे-धीरे बाथरूम में जाकर स्नान करके आती थी। घर वालों को पता ही नहीं पड़ता था। सेन्टर जाने के लिए मुझे दो बसें बदलनी पड़ती थी लेकिन मुझे बहुत खुशी होती थी कि मैं बाबा के घर जा रही हूँ। थकावट या मुश्किलात का कोई अनुभव नहीं होता था। जब मैं सेन्टर जाकर वापिस आ जाती थी, तब ही घर वाले उठते थे। इसलिए उनको पता ही नहीं पड़ता था कि मैं बाहर गयी थी। मेरे साथ माता जी भी थी। तीन मास हो चुके थे हमें लन्दन आये हुए। हमने भी अपना एक मकान ढूँढ़ लिया था। वहाँ मैं और माता जी रहने लगे। माता जी को पक्का हो गया कि यह बदलने वाली नहीं है, यह अपने इरादे में पक्की है। तो माता जी ने कहा कि देखो, तुमको सेन्टर जाना है तो मेरी कोई आपत्ति नहीं है लेकिन जब तक मैं जिन्दा हूँ तब तक तुम सेन्टर में नहीं रहना, मेरे मरने के बाद भले तुम वहाँ चली जाना। माता जी की बात से मुझे राहत मिली कि कम से कम ईश्वरीय मार्ग में चलने के लिए छुट्टी तो मिली। कोई बात नहीं, बाबा है, जो चाहे, जैसे चाहे मुझे सेवा में उपयोग करे। धीरे-धीरे सप्ताह के अन्त में दो दिन सेन्टर पर मैंने रहना शुरू किया। माता जी भी कुछ नहीं बोलती थी। उस समय लन्दन का सेन्टर भी बहुत छोटा था, जिसको अभी बाबा भवन कहते हैं। वहाँ दादी और 10-12 कन्यायें ही थीं। इन दो दिनों में दादी जी मुझे सेवा करने का बहुत मौका देती थीं। बाबा का ज्ञान सुनाना, योग सिखाना बहुत अच्छा लगता था, खुशी होती थी। एक दिन दादी जानकी जी ने कहा कि तुम नौकरी ढूँढ़ो, लौकिक सेवा भी करो और साथ-साथ ईश्वरीय सेवा भी करो। लौकिक में पिता जी ने नौकरी करने के लिए मना किया था, जब दादी जी ने कहा कि नौकरी ढूँढ़ो तो मुझे बहुत खुशी हुई कि कम से कम अपने पैरों पर तो खड़ी हो जाऊँगी। एक्सपोर्ट तथा इम्पोर्ट की एक कंपनी में मुझे अकाउण्टेंट की नौकरी मिली। कंपनी भी बहुत अच्छी थी और काम भी बहुत सरल था, कोई झंझट नहीं था। ऑफ़िस में मैं बहुत योग करती थी। वहाँ वायब्रेशन्स बहुत पॉवरफुल बन गये थे। जब भी बॉस मेरे पास आता था तो कहता था कि आपके आफिस में बहुत शान्ति है। सहकर्मचारी भी मुझसे बहुत प्यार और इज़्ज़त से व्यवहार करते थे। वह भारतीय कंपनी थी। बाबा की याद की शक्ति से और दादी जानकी जी की कन्याओं को आगे बढ़ाने की प्रेरणा से मुझमें भाषण करने की शक्ति का विकास हुआ। एक दिन दादी जानकी जी ने कहा कि तुम नौकरी छोड़ो और अमेरिका चली जाओ सेवा के लिए। ‘हाँ’ कहने के सिवाय मेरे पास और कोई चारा ही नहीं था। जब न्यूयार्क सेन्टर पहुँची तो रात के दो बजे थे। सोये हुए एक घंटा भी नहीं हुआ था, एक बहन ने आकर मुझे उठाया, बोली, अमृतवेला हो गया। अमृतवेले के योग के बाद मोहिनी बहन ने कहा, मुरली क्लास के बाद मेरे से मिलना। जब मैं मिली तो उन्होंने कहा कि दादी गुलज़ार जी यहाँ आने वाली हैं,इसलिए आपको हम भंडारे के निमित्त बनाते हैं। मुझे तो खाना बनाना नहीं आता था लेकिन बड़ों की बात पर ‘हाँ जी’ कहना मेरा संस्कार था। मेरे साथ, चार माताओं को दिया गया। लेकिन बाबा की मदद थी कि वे मातायें खाना बनाने में बहुत माहिर थीं। मुझे सिर्फ उनके साथ रहकर उनसे सेवा लेनी थी। तो मैंने बाबा को थैंक्स कहा। उनके उमंग-उत्साह भरे सहयोग से भोजन बनाने की सेवा पूरी भी हुई और कार्यक्रम भी बहुत अच्छा हुआ ।
कार्यक्रम पूरा ही हुआ था कि उतने में लन्दन से दादी जानकी जी का फोन आया कि गीता को सनफ्रैन्सिस्को भेजो। मोहिनी बहन ने कहा कि आपको वहाँ जाना है। मुझे वहाँ जाने की इच्छा नहीं थी इसलिए मैंने मोहिनी बहन से कहा कि बहन जी, मुझे वहाँ नहीं जाना है। उन्होंने कहा कि दादी का बार-बार फोन आ रहा है कि आपको वहीं जाना है। फिर दादी गुलज़ार जी ने कहा कि ठीक है, मैं कल अमृतवेले बाबा से पूछती हूँ, आप अभी सो जाओ, कल मैं बताऊँगी। सुबह दादी गुलज़ार जी ने कहा कि आप एक मास के लिए वहाँ जाओ, यही बाबा का सन्देश है। फिर मैंने खुशी-खुशी से कहा, ठीक है दादी, मैं जा रही हूँ। पाँच मिनट में तैयार होकर मैं एअरपोर्ट गयी। टिकट नहीं करवायी थी, वहाँ जाकर टिकट खरीदी, वेटिंग लिस्ट में थी। मुझे एअरपोर्ट में बारह घंटे बैठना पड़ा। यह मेरे लिए एक चुनौती थी, न मैं वापिस लन्दन जा सकती थी, न घर। मैं युद्ध के मैदान से हार मानकर भागना नहीं चाहती थी,इसलिए आने वाली परिस्थितियों का सामना करने के लिए मैं तैयार हो गयी। वहाँ बैठे-बैठे मुझे बाबा के वरदान याद आये। बाबा ने कहा था कि “आप स्टेज पर रहने वाली हीरो एक्टर हो, सब आत्मायें आपको देख रही हैं।” बच्ची, आप जहाँ भी जाओगी,बापदादा आपके साथ रहेंगे। आपको सेवा ढूँढ़नी नहीं पड़ेगी, सेवा ही आपके पास आयेगी और सफलता आपका जन्मसिद्ध अधिकार है।” मुझे सनफ्रैन्सिस्को की टिकट नहीं मिली, लॉस एंजिल्स के लिए टिकट मिली। जब वहाँ पहुँची तो वहाँ भी रात हो गयी थी। एक भाई मुझे लेने आया था। जब सेन्टर पर गयी तो वहाँ डेनिस बहन थी। उन्होंने कहा, रेस्ट करो, बाद में प्रोग्राम बनायेंगे। वहाँ भी दादी गुलज़ार जी का प्रोग्राम था। सुबह डेनिस बहन ने पूछा कि आज भारत के कुछ भाई-बहनें आने वाले हैं, आप हिन्दी मुरली पढ़कर सुनायेंगी? मैंने कहा, हाँ जी। उसी समय सनफ्रैन्सिस्को से चन्दू बहन का फोन आया कि गीता को अभी ही यहाँ भेज दो। फिर मुझे उसी समय वहाँ से निकलना पड़ा। जब न्यूयार्क में थी उस समय मैंने पूछा था कि सनफ्रैन्सिस्को का मौसम कैसा है। उन्होंने कहा था कि बहुत अच्छा है। न सर्दी है, न गरमी। तो मैं न्यूयार्क से कोई गरम कपड़े नहीं ले गयी थी। वहाँ जाकर देखा तो इतनी ठण्ड थी कि बात मत पूछिये। मेरे पास न जुराब, न शाल-स्वेटर। एक सप्ताह के बाद चन्दू बहन दादी के साथ चली गयी। मैंने देखा, वहाँ दो ही आत्माएं क्लास में आती थीं। लन्दन में कहाँ दो सौ आत्मायें और यहाँ दो आत्मायें! ऐसे कैसे चलेगा? मैंने सोचा, यहाँ मुझे नहीं रहना है, वापिस चले जाना चाहिए।
फिर मन में आया कि क्या तुम हारकर चली जाओगी? दो आत्माओं में, एक सिन्धी माता थी। एक दिन उसने मुझसे एक प्रश्न पूछा, बहन जी, यहाँ कोई भी बहन आती है तो थोड़े दिनों में चली जाती है, ऐसा क्यों? आप तो योगी हो। योगी माना त्यागी और तपस्वी। आपको अच्छा लगता है, अच्छा नहीं लगता है यह क्यों होता है? मुझे हँसी आयी और मन ही मन बाबा से कहा, बाबा,आप तो बहुत चतुर हो, मेरे सामने ऐसी आत्मा को भेजा, जिसने हमारे व्यक्तित्व के लिए सवाल उठा दिया। मैंने उसी समय दृढ़ निश्चय किया कि मुझे बड़ों ने जब तक रहने के लिए आदेश दिया है, तब तक रहना है। मैंने योगी जीवन अपनाया है तो मुझ पर अच्छे-बुरे, कम-ज़्यादा संख्या आदि का प्रभाव नहीं होना चाहिए। एक सप्ताह बाद, चन्दू बहन लौट आयी और कहा कि एक आत्मा आयी है, उसको कोर्स कराओ। मैंने कभी इंग्लिश में कोर्स नहीं कराया था। पहली बार इंग्लिश में कोर्स कराया। उस दिन मैंने प्रतिज्ञा की कि जब तक 50 आत्माओं को कोर्स नहीं कराऊँगी तब तक मधुबन नहीं जाऊँगी। एक साल के अन्दर मैंने 50 आत्माओं को कोर्स कराया। फिर बाबा की सीजन आयी। पार्टी को लेकर मुझे मधुबन भेजा गया, बापदादा से मिलने। बाबा ने मेरे से पूछा, “अच्छा, फुलवारी लेकर आयी हो!” फिर बाबा ने कहा, “आपमें बहुत विशेषतायें हैं, उनको सेवा में यूज़ करते जाओ।” मैं सोचती रही कि मेरे में क्या विशेषतायें हैं? बाबा ऐसा क्यों बोल रहे हैं? लेकिन बाबा तो सर्वज्ञ हैं, जानीजाननहार हैं, उनको सब पता रहता है। सनफ्रैन्सिस्को में मैंने बहुत कुछ सीखा। माँ-बाप ने, परिवार वालों ने मुझे बहुत प्यार और इज़्ज़त से पाला था। बाहर की दुनिया कैसी होती है, मुझे पता नहीं था। लोगों के अलग-अलग संस्कार कैसे होते हैं, यह भी पता नहीं था। लेकिन मैंने वहाँ बहुत कुछ सीखा। मैं दूसरों को अपने जैसा समझने लगी। मुझे जिस चीज़ की आवश्यकता होती थी, मैं समझने लगी कि दूसरी बहन को भी उसकी आवश्यकता होगी तो मैं उसके लिए भी लेती थी। कुछ समय के बाद मुझे लगने लगा कि मुझे कुछ बदलाव (Change)चाहिए। तो दादी जानकी जी को मैंने अर्जी डाली और बाबा को भी अर्जी डाली कि मुझे कुछ चेन्ज चाहिए। उन्हीं दिनों, टर्की में सेवाकेन्द्र खुलने वाला था। दादी ने मेरे से पूछा, गीता, वहाँ जायेगी? मैंने खुशी-खुशी से हाँ बोल दिया। एक बहन मुझे लेने आयी एअरपोर्ट पर। हम मकान में गये तो वहाँ कुछ भी नहीं था, न बर्तन, न फर्नीचर। वह बहन टर्किश थी और बी.के. भी नहीं थी,सहयोगी आत्मा थी, संस्था के प्रति अच्छी भावना वाली थी। धीरे-धीरे एक-एक सामान बना लिया सेन्टर में। दादी जानकी जी ने जाते समय मेरे से कहा था कि ‘अच्छी टीचर वो, जो एक महीने में सेन्टर को हरा-भरा करती है।’ वहाँ की भाषा मुझे नहीं आती थी और वहाँ रहने वाले सारे मुस्लिम लोग थे। क्या करूँ, समझ में नहीं आ रहा था। उन्हीं दिनों, जर्मनी से एक बहन आयी। वहाँ की द्वितीय भाषा थी जर्मन। मुस्लिम देश में यह पहला सेन्टर था। जयन्ती बहन ने फोन किया कि मैं एक सप्ताह के लिए वहाँ आ रही हूँ। हमने सोचा, यहाँ दो लोग भी क्लास में नहीं आते, जयन्ती बहन को कैसे व्यस्त रखें! उन्हीं दिनों राखी पर्व आने वाला था। तो हमने राखी प्रोग्राम का मैटर बनाया और जिन-जिन ऑफिसों में फैक्स मशीन थीं, उन सबको वह मैटर तथा निमन्त्रण भेज दिया। राखी प्रोग्राम के दिन जयन्ती बहन ने पूछा कि कितने लोग आयेंगे? मैंने कहा, पता नहीं कितने आयेंगे। लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि प्रोग्राम में 90 लोग आये। जब यह समाचार दादी जानकी जी को सुनाया गया तो वे बहुत खुश हुईं और कहा कि मैं भी वहाँ आऊँगी। हम सोच में पड़ गये कि दादी जी आयेंगी तो बड़ा प्रोग्राम करना पड़ेगा। हमने यह बात उस प्रोग्राम में आये हुए लोगों के सामने रखी। उनमें से एक भाई निकला, जिसने किसी सम्मेलन में दादी जानकी जी को देखा था। उसने कहा कि अगर दादी जी आयेंगी तो उस प्रोग्राम की सारी ज़िम्मेदारियाँ मैं लूँगा। वह एक बड़ा व्यापारी था। उसने कहा, हम युनिवर्सिटी में 500 लोगों का कार्यक्रम रखेंगे। सारी व्यवस्था उसी भाई ने की। दादी जी आयीं, उस कार्यक्रम में 400 लोग आये। शहर में दादी जी के बड़े-बड़े पोस्टर छपवा के उस भाई ने सारा प्रचार कार्य किया था। इस सेवा से मेरा अनुभव यह रहा कि करन-करावनहार बाबा है, हमें तो सिर्फ निमित्त बनना है। ईश्वरीय जीवन में मैंने यह भी अनुभव किया है कि बड़ों की आज्ञाओं पर ‘हाँ जी’ करते चलो, अपने को निमित्त समझकर, बाबा को साथ रखते हुए सेवा करते चलो, सफलता हमारे गले का हार है। बाबा किसी न किसी आत्मा को टच कराकर सेवा करा लेता है। फिर तीन महीने के बाद दादी जी ने मुझे सनफ्रैन्सिस्को बुलाया। वहाँ से फिर वाशिंगटन भेजा। इस प्रकार, ज़्यादातर जहाँ भी नयी सेवा शुरू करनी होती थी, दादी मुझे वहाँ भेजती रहीं। फिर दादी ने मुझे लॉस एंजिल्स भेजा। अभी मैं यहीं रहती हूँ।
प्रश्नः विदेश सेवा में सफलता प्राप्त होने का क्या राज है?
उत्तरः एक तो बाबा का वरदान था कि आप जहाँ भी जाओगी सफलता आपके पीछे- पीछे आयेगी । दूसरी बात यह है कि जो भी आत्मा मेरे साथ रहती है या जो भी बाबा के नये-नये बच्चे आते हैं, उनके स्वभाव-संस्कार के बारे में मैं सोचती नहीं हूँ। वे जो हैं, जैसे भी हैं उनको स्वीकार करती हूँ। तीसरी बात है, सब आत्माओं को मैं साक्षी होकर देखती हूँ क्योंकि हर आत्मा का पार्ट अलग-अलग है। चौथी बात, मैं सब के साथ प्यारी बनकर भी रहती हूँ और न्यारी बनकर भी रहती हूँ। पाँचवीं बात, सदा मैं यह समझती हूँ कि सब आत्माओं के लिए बाबा ज़िम्मेवार है, मैं नहीं। मुझे तो अपना कर्त्तव्य तथा पार्ट बजाना है, मालिक तो बाबा है। मुझे अपने प्रति बहुत स्नेह होने के कारण अपने प्रति रिस्पेक्ट भी है तथा दूसरों के प्रति भी स्नेह और रिस्पेक्ट है। इसलिए सभी मुझे उतने ही स्नेह और सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। मेरे साथ चार बहनें रहती हैं, जो अलग-अलग भाषा तथा धर्म वाली हैं। वहाँ एक पाण्डव भवन है,उस में दो भाई रहते हैं। मैं अपने साथी सहयोगी बहन-भाइयों को हमेशा आगे रखती हूँ। उन्हीं को सेवाक्षेत्र में भेजती हूँ। जब वे लोग नहीं जा पाते तो मैं सेवा करने जाती हूँ। लॉस एंजिल्स में तीन भाषाओं में सेवा चलती हैः इंग्लिश, स्पैनिश तथा हिन्दी। वहाँ 90%शिक्षित लोग हैं। विश्व विख्यात हॉलीवुड भी यहीं है। क्लास में लेखक, फिल्म एक्टर्स, फिल्म प्रोड्यूसर्स भी आते हैं। लॉस एंजिल्स की विशेषता यह है कि वहाँ पूरी दुनिया के लोग आते हैं। एक बार सिनेमा क्षेत्र के लोगों से पूछा गया कि आप मेडिटेशन क्यों चाहते हैं? उन्होंने दो बातें कहीं, एक तो हमें प्रख्यात होना है, दूसरा, भय से बचना है। लॉस एंजिल्स में लोगों को डर बहुत है। आजकल अमेरिका में लोगों को ब्रह्मचर्य, शाकाहार, आध्यात्मिक ज्ञान तथा मेडिटेशन अच्छे लग रहे हैं। इनको अपनाना वहाँ का फैशन भी हो गया है। ज्ञान में मुझे 28 साल हुए लेकिन आज तक यह जीवन कभी कठिन नहीं लगा, बहुत ही सरल तथा स्वाभाविक अनुभव हो रहा है। शुरुआत में यहाँ सेवा करने में मुझे डर लगता था क्योंकि अनुभव की कमी थी। एक बाबा के बल और भरोसे से मैं आराम से, ख़ुशी-खुशी से चल रही हूँ। बड़ों के आशीर्वाद का भी मुझे अनुभव होता है। जैसे-जैसे हम बड़ों की आज्ञा मानते हैं, उनका आदर करते हैं, उनकी शुभभावना और शुभकामना भी जीवन में सफलता पाने में बहुत मदद करती है। यह मैंने बहुत अनुभव किया है और कर भी रही हूँ। रोज़ क्लास में यहाँ सुबह बीस भाई-बहनें आते हैं। रविवार के दिन चालीस से पचास तक आते हैं। ये बाबा के पक्के बच्चे हैं, जो सारे ईश्वरीय नियमों पर चलते हैं। मास में एक बार सार्वजनिक कार्यक्रम रखते हैं। यहां तीन शाखा केन्द्र हैं।
प्रश्नः पहली बार आप बापदादा से कब मिली?
उत्तरः सन् 1979 में। तब मैं बड़ौदा से ही बाबा से मिलने आयी थी और लन्दन जाने के लिए छुट्टी भी लेनी थी। मेरी आँखें बाबा की आँखों से मिलते ही बाबा ने मुझे अनुभव कराया कि हम दोनों आपस में पहले से ही बहुत अच्छी तरह से परिचित हैं। हमारी पूरी पार्टी कुमारियों की थी। बाबा से मिलते समय किसी बहन ने बाबा से कहा कि बाबा, इसको बन्धन है। तब बाबा ने मुझ से कहा, “कभी अपने को अकेली कन्या नहीं समझना। सदा यह समझना, मैं शिवशक्ति कम्बाइण्ड स्वरूप हूँ, बापदादा सदा मेरे साथ हैं।”बाबा ने मुझे लम्बे समय तक जो दृष्टि दी, उसने मुझमें बहुत ताक़त भरी। मुझे लगा कि बाबा मुझमें एक्स्ट्रा बल भर रहा है। बापदादा से मिलने के बाद, मैं अन्दर से इतनी हल्की और शक्तिशाली हो गयी थी कि मुझे किसी व्यक्ति या बात का डर नहीं था। उसके बाद परिवार वालों के बन्धन का जो नाटक चला, उसका सामना करने का बल बाबा ने मेरे में भर दिया था और उन सब परीक्षाओं तथा परिस्थितियों में पास होकर आज बाबा की सेवा में उपस्थित हूँ।
प्रश्नः आपने अपने रिश्तेदारों की सेवा नहीं की?
उत्तरः जब लौकिक माँ ने शरीर छोड़ा तब उसकी अन्तिम क्रिया में लगभग 300 लोग इकट्ठे हुए थे। उन्होंने देखा कि अन्तिम क्रिया मेरे हाथ से ही हुई तो उनकी भावनायें बदल गयीं कि ब्रह्माकुमारियाँ भी ऐसी क्रिया विधि करते हैं, इन्होंने अपनी संस्कृति-सभ्यता को नहीं छोड़ा है। इसके बाद रिश्तेदारों में परिवर्तन आया। उन्होंने समझा कि गीता ने कुछ पाया है, उसमें एक है; आन्तरिक शक्ति है। इसके बाद दादी जानकी जी अमेरिका आयी थी। उस समय लॉस एंजिल्स में एक कार्यक्रम रखा था और मेरे बड़े जीजा जी को बुलाया गया था, वे सबसे ज़्यादा मेरा विरोध करते थे। दादी जानकी जी के कार्यक्रम में आकर उनका बहुत परिवर्तन हुआ। उन्होंने समझा कि यह साधारण संस्था नहीं है, ये लोग साधारण नहीं हैं। अभी मधुबन आने से पहले मैं एक सप्ताह लौकिक गाँव जाकर आयी क्योंकि मेरे बड़े जीजा के लड़के की शादी थी, जीजा ने ख़ास निमन्त्रण देकर मुझे बुलाया था। वर-वधू का स्वागत समारोह पूरा होने के बाद स्टेज पर मेरे लिए भी एक कुर्सी डलवायी और जीजा जी आकर मेरे पाँव छूने लगे। मैंने कहा, आप मेरे से बड़े हैं,ऐसे नहीं करना चाहिए। लेकिन उन्होंने माना नहीं, कहने लगे, हम तो आयु में बड़े हैं, आप ज्ञान और साधना में बड़ी हैं। किसी परिवार वाले को मैंने मुँह से ज्ञान नहीं सुनाया परन्तु धारणा तथा व्यवहार से अनुभव कराया है। इस बार मैंने देखा, सारे परिवार वालों में बहुत परिवर्तन आया है। उनमें संस्था के प्रति, ब्रह्माकुमारियों के प्रति सम्मान भाव है। वे सब मधुबन भी आये, लन्दन और अमेरिका में भी बाबा के सेवाकेन्द्रों पर होकर गये। अभी वे सब ईश्वरीय सेवा में सहयोगी बने हैं। हम लोग सरदार वल्लभ भाई पटेल जी के रिश्तेदार हैं। जब मुझे थोड़ा-बहुत मुश्किलात का अनुभव होता है तो मैं अपने लौकिक कुल को याद करती हूँ कि मैं सरदार वल्लभ भाई पटेल के कुल की हूँ। उन्होंने देश की सेवा के लिए इतनी हिम्मत से काम किया तो मुझे भी ईश्वरीय सेवा के लिए साहसी और निर्भय बनना है।
प्रश्नः भारत के प्रति आपकी क्या भावना है?
उत्तरः मुझे बहुत गर्व है कि मुझे भारतीय शरीर मिला है। भले ही मेरा जन्म विदेश में हुआ है लेकिन मेरे माता-पिता भारतीय हैं। उन्होंने मेरे में भारतीय सभ्यता के संस्कार भर दिये हैं। जब हम विदेशियों के जन्मों के बारे में अध्ययन करते हैं तो लगता है कि किसी भी जन्म में हमें विदेशी शरीर में जन्म नहीं लेना चाहिए। पिता एक तरफ़, माँ एक तरफ़, बच्चे एक तरफ़। न माँ-बाप का रिश्ता है, न भाई-बहन का रिश्ता। पारिवारिक सम्बन्ध क्या होते हैं, मानव जीवन क्या होता है इसका पता ही नहीं। इसलिए मैं अपने को बहुत सौभाग्यशाली समझती हूँ कि मुझे भारतीय शरीर मिला है, भारतीय संस्कार मिले हैं। अमेरिका में भारतीय का बहुत मान है। एक बार ऐसे ही अंग्रेज़ी भाई-बहनों से बात करते हुए, मैंने उनसे कहा कि अगर मेरे बदले कोई अंग्रेज़ी बहन होती, कितनी अच्छी रीति से अंग्रेज़ी में आपकी सेवा करती! तब उन्होंने कहा, ऐसा नहीं सिस्टर, जिस आध्यात्मिकता (Spirituality) को आप सिखा सकती हैं,उसको पश्चिमी लोग नहीं सिखा पायेंगे। यह भी मालूम होता है कि परमात्मा ने क्यों भारत को अपनी अवतरण भूमि चुना। भारत का महत्त्व क्या है, उसकी विशेषतायें क्या हैं, हमें विदेश में रहने से ही अच्छी तरह पता पड़ा। मुझे नाज़ है कि भले ही मेरा लौकिक जन्म अफ्रीका में हुआ लेकिन अलौकिक जन्म मेरा भारत में हुआ। इसलिए मुझे बहुत गर्व है भारतीय होने का।
प्रश्नः विदेश में सेवा करने का आपका क्या अनुभव है?
उत्तरः शुरुआत में जब मैं सनफ्रैन्सिस्को में थी, तब मैं बहुत अपसेट (परेशान) थी। एक दिन दादी गुलज़ार से पूछा, दादी, मैंने कौन-सा पाप किया है, जो बाबा ने मुझे यहाँ भेज दिया। मुझे न यहाँ की भाषा आती है, न इनकी सभ्यता मुझे पसन्द है, क्यों मुझे यहाँ आना पड़ा? दादी जी ने बड़े प्यार से कहा, गीता, तुम्हारे में दो विशेष शक्तियाँ और विशेषतायें हैं, बाबा ने उनको यहाँ बाँटने के लिए भेजा है। तुम बचपन से अविभक्त परिवार (Joint family) में बड़े प्यार से पली हो। बेचारे यहाँ के लोगों को सच्चा प्यार क्या है, पारिवारिक प्रेम क्या है, इसका अनुभव ही नहीं है। इसलिए बाबा ने तुमको सच्चा, निःस्वार्थ प्यार दान करने के लिए यहाँ भेजा है। दूसरी विशेषता है, पवित्रता। यहाँ के लोगों को पवित्रता का भी महत्त्व तथा अनुभव नहीं है। इसको भी तुम्हें इनको सिखाना है। इसलिए यहाँ लेने की इच्छा नहीं रखो। हम भारतवासी हैं, आध्यात्मिक शक्ति के मूल स्थान के वासी हैं। इसलिए हमें दुनिया को प्रेम, पवित्रता, सुख, शान्ति देना है और उसका रास्ता बताना है। तब से मेरा मन हल्का हुआ और मन में यही रहता है कि देने वाले हैं,न कि लेने वाले या चाहने वाले। बड़ी दीदी जी ने भी एक बार हम बहनों को कहा था कि विदेश में रहने वालों को कम से कम साल में एक बार भारत अर्थात् मधुबन आना चाहिए। यहाँ प्रेम-पवित्रता, सुख-शान्ति, त्याग-तपस्या के वायब्रेशन्स भरे पड़े हैं। यहाँ से भरके जाना और वहाँ जाकर बरसना है। तब से विदेश में रहने वाला बाबा का हर बच्चा, साल में कम से कम एक बार बाबा के घर आने का प्रयत्न करता है। विदेश में कोई ज़्यादा ज्ञान सुनना नहीं चाहते। वे वायब्रेशन्स से प्रभावित होते हैं। अमेरिका जाने के बाद दादी गुलज़ार जी के साथ मेरा सम्बन्ध अति समीप का रहा। विशेष रूप से जब दादी जी उपचार के लिए अमेरिका आयी थीं, उस समय मुझे दो मास उनके साथ रहना पड़ा। उस बार नीलू बहन को अमेरिका के लिए वीज़ा नहीं मिला तो मैं ही उनके साथ रही। उस समय के अनुभव तो पूछिये मत। सीजन में हर बार जब भी अव्यक्त बापदादा आते हैं, उसके बाद मैं दादी गुलज़ार से फोन द्वारा बात करती हूँ, उस समय क्लास में सब भाई-बहनें बैठे रहते हैं, वे भी हमारा वार्तालाप सुनते हैं। दादियों की, बड़ों की आवाज़ से भी वायुमंडल में फ़रक पड़ता है। इस बार जून, 2006 में जब गुलज़ार दादी जी लॉस एंजिल्स आयी थीं, तब पाँच कुमारियों का समर्पण समारोह किया था।
प्रश्नः ईश्वरीय जीवन में आपको क्या अच्छा लगा? उत्तरः पवित्रता, ईश्वरीय सभ्यता और बहनों का श्रेष्ठ जीवन। योग में बाबा के साथ की रूहरिहान मुझे बहुत अच्छी लगती है। पिता जी राधास्वामी मार्ग को मानते थे, माता जी स्वामी नारायण मार्ग को मानती थी। उनके पंथ में गुरुओं के पाँव पड़ना होता था, वो मुझे अच्छा नहीं लगता था। जब यह ज्ञान मिला तो इसमें कोई गुरु नहीं, कोई अन्धश्रद्धा वाली बात नहीं, डायरेक्ट ज्योति स्वरूप परमात्मा के साथ बात करने की पद्धति मुझे बहुत अच्छी लगी।
प्रश्नः आप व्यक्तिगत पुरुषार्थ कैसे करती हैं?
उत्तरः मेरे लिए बाबा की मुरली अक्षय निधि है। मुझे कोई भी समस्या आती है, उसका समाधान उस दिन की मुरली में मिल जाता है। उस दिन की मुरली में से कोई न कोई धारणा की एक बात लेती हूँ और सारा दिन उस बात को धारण करने का पुरुषार्थ करती हूँ। जीवन में जो विचित्र अनुभव हुए हैं, दिव्य घटनायें घटी हैं, विशेष प्राप्तियाँ हुई हैं उनकी स्मृति बार-बार लाती हूँ। बड़ों के आदेशों का बहुत प्यार और आदर से पालन करने का पुरुषार्थ करती हूँ।
प्रश्नः परमात्मा के साथ आपको कौन-से सम्बन्ध अति प्रिय हैं और क्यों?
उत्तरः पिता और मित्र। जीवन में बड़ों का साया चाहिए। पिता तो ज़रूर चाहिए क्योंकि पिता जैसेकि छत्रछाया होता है। पिता के आश्रय में बच्चे एकदम सुरक्षित रहते हैं। मित्र अपने समान होता है, उसके साथ अपनी दिल की बातें कहकर, हल्के हो जाते हैं। अगर कोई सहयोग चाहिए तो मित्र से ले सकते हैं।
प्रश्नः आप भारत में भी रही हुई हैं, लन्दन और अमेरिका में भी। अपने अनुभवों के आधार पर भारतवासियों को क्या सन्देश देना चाहती हैं?
उत्तरः मैंने यह अनुभव किया है कि जीवन में ईमानदारी का बहुत बड़ा महत्त्व है। अगर हमारे में ईमानदारी, सत्यता तथा एकता के गुण आ जाते हैं ना तो बाक़ी सब गुण अपने आप आ जाते हैं। इन गुणों से हम बापदादा को आसानी से प्रत्यक्ष कर सकते हैं। विदेश के भाई-बहनों में हम देखते हैं, ये दो गुण- ईमानदारी और सत्यता आमतौर पर होते हैं। इन दो गुणों के कारण ही विदेश में सेवा इतनी सहज हो पा रही है। विदेश में समानता की भावना ज़्यादा होती है। वहाँ टीचर स्टूडेण्ट, इंचार्ज असिस्टैण्ट ऐसी भावना नहीं चल सकती। हम वहाँ कभी स्टूडेण्ट के धन को अपने हाथ में नहीं लेते। उनको कहते हैं कि बाबा की भंडारी में डालो। आपका हिसाब-किताब बाबा के साथ ही रहे, न कि टीचरों के साथ। हमारे यहाँ क्लास में 15-16 अलग-अलग धर्म, देश, भाषा वाले आते हैं। चीनी भी हैं, अफ्रीकन भी हैं, स्पैनिश भी हैं, इंडियन भी हैं। सेन्टर पर भी जितनी बहनें हैं, वे भी अलग-अलग देश की हैं। हम आपस में बहुत प्यार और पारिवारिक भावना से रहते हैं। मेरी यही आश है कि हमारे भारत के भाई-बहनें भी इस संगम की महानता को समझ कर आपस में स्नेह, सत्यता, ईमानदारी तथा एकता से रहें।
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