चण्डीगढ़ से ब्रह्माकुमारी उत्तरा बहन जी लिखती हैं कि बाबा से पहली मुलाक़ात सन् 1965 में हुई। जब मैं पहली बार प्यारे बाबा से मिलने चली तो मन में बहुत ख़ुशी थी और तड़प भी। सोच रही थी कि जिसमें स्वयं भगवान आकर पढ़ा रहे हैं, तक़दीर जगा रहे हैं, वो कैसा व्यक्तित्व होगा। परिवार वालों से काफ़ी संघर्ष करने के बाद यह सुअवसर मिला था। दिल चाहता था कि जल्दी मिलूँ। आँखें बेहद लालायित थीं उसे देखने को।
जब आबू पहुँचे और पाण्डव भवन में प्रवेश किया तो अत्यन्त प्रसन्नता हुई। अब इन्तज़ार कि वो बाबा कैसा है, कहाँ मिलेगा? मैं अचल दीदी के साथ ही गयी थी तो कुछ देर में पता चला कि बाबा ग्यारह बजे कुटिया में मिलेंगे। बहुत मुश्किल से समय बीता मिलन के इन्तज़ार में। ठीक ग्यारह बजे झोपड़ी की ओर क़दम बढ़े और जैसे ही झोपड़ी के अन्दर प्रवेश किया तो साकार बाबा को सामने देखा। बाबा गद्दी पर बैठे थे। एक युगल और बैठा था। हमें देखते ही बाबा बोले, ‘आओ बच्ची आओ।’ हम चार बहनें थीं। सब सामने बैठ गयीं। वे सब तो पहले भी मिली हुई थी, मैं पहली बार मिल रही थी। सो मैं तो देखती ही रह गयी, आँखों से स्नेह-जल बह रहा था और इन्हीं नेत्रों से ब्रह्मा बाबा के मस्तक के ठीक बीच में ओजस्वी ज्योति पूँज शिव बाबा को निहारे जा रही थी। अपने तन की सुध भूल चुकी थी। बिल्कुल अशरीरी हो गहरे सागर में हिलोरें ले रही थी। प्रेम का सागर बाबा मुझ आत्मा को निहाल कर रहा था। मैं भी अपने आपको रूहानी स्नेह के सागर में गहराई तक समायी हुई अनुभव कर रही थी। देह और देह की दुनिया का रिन्चक् मात्र भी आभास नहीं था। कुछ पल के बाद बाबा ने रूहानी प्यार-दुलार भरा हाथ सिर पर फेरा और बोले, बच्ची कहाँ हो? लेकिन मैं गहरे अलौकिक प्रभु-मिलन के आनन्द में जैसे डूबी हुई थी। कुछ बोल नहीं पायी। बस आँखों से प्रभु-प्यार में आँसू बह रहे थे। उन सुखद क्षणों का अनुभव व्यक्त कर पाना मुश्किल है परन्तु असीम खुशी, अनोखे सुख का, अनन्त शक्ति का अनुभव हो रहा था।
बाबा ने पहली ही मुलाक़ात में कहा था कि बच्ची, तुम्हें सेवा करनी है। जबकि मैं कभी भी किसी को ज्ञान नहीं सुना सकती थी। बहुत संकोच का संस्कार था। मैं मन ही मन सोच रही थी कि मैं कैसे सेवा करूँगी, मुझे तो बोलना ही नहीं आता। पहली बार जब मधुबन आयी थी तो काफ़ी समय रहने का अवसर मिला था। जब भी बाबा के सामने जाती तो बाबा यही कहते, ‘बच्ची, तुम्हें सेवा करनी है।’ ‘यह बच्ची बहुत सेवा करेगी।’ ‘बच्ची, भेज दूँ सेवा पर?’ मैं ऊपर से तो हाँ कह देती लेकिन मन में सोचती थी कि कैसे करूँगी सेवा? परन्तु बाबा के वरदान ने मुझे सेवा के लायक बना ही दिया।
उन्हीं दिनों मुंबई में प्रदर्शनी का आयोजन किया गया था। तब दादी प्रकाशमणि जी वहाँ रहती थीं। बाबा ने अचल दीदी और अन्य दो बहनों को वहाँ जाने का आदेश दिया, मुझे भी उनके साथ ही जाना था। बाबा ने फिर कहा, बच्ची, तुम्हें जाकर सेवा करनी है। मैं भी बहनों के साथ मुंबई गयी। वहाँ बिरला क्रीडाकेन्द्र में चौपाटी पर प्रदर्शनी लगायी गयी थी। जब मैं अन्य बहनों को प्रदर्शनी समझाते हुए देखती तो कानों में बाबा के मधुर बोल स्पष्ट सुनायी देते कि ‘बच्ची तुम्हें सेवा करनी है।’ अब मैं कैसे ज्ञान सुनाऊँ, समझ नहीं आ रहा था। लेकिन बाबा के मधुर बोल भी कानों में गूँजते। एक दिन फैसला कर लिया कि आज ज़रूर कुछ सेवा करनी है। तब अचल दीदी जी से मैंने कहा कि मैंने भी आज सेवा करनी है। साड़ी पहन कर तैयार हुई।
प्रदर्शनी के स्थान पर जाकर दो-तीन बार प्रदर्शनी समझी। फिर ग्रुप देने वाली बहन से कहा कि अब मुझे पार्टी देना, मैं भी समझाऊँगी। पार्टी देने वाली बहन जी दादी रत्नमोहिनी जी थी। बस फिर क्या था, सेवा की शुरूआत हो गयी और मेरे मन में असीम खुशी, उमंग, उत्साह का सागर हिलोरें मार रहा था। वहाँ परीक्षा सामने आयी। मेरे लौकिक मामा जी वहीं रहते थे, वो मिलने आये और मुझे सफ़ेद साड़ी में देख बड़े क्रोधित हुए। बहुत डाँटा, खूब समझाया। पर मैं बिल्कुल निश्चिन्त थी। ऐसा महसूस हो रहा था कि मुझे अब कोई रोक नहीं सकता। मेरा साथी स्वयं भगवान है और उस परीक्षा में मैं विजयी हो गयी। सेवा के प्रति कहे हुए बाबा के मधुर महावाक्य साकार हुए। सेवा का दृढ़ संस्कार बन गया, सेवा से प्यार हो गया।
पहली बार बाबा से मिलकर वापिस लौटने का समय भी आ गया और मैं सोचने लगी कि वापिस जाने पर क्या लौकिक पिताजी से सेवा की छुट्टी मिलेगी; क्योंकि पिताजी का मुझमें बहुत मोह था और मुश्किल से बन्धन कटे थे। इन्हीं विचारों को लिए बाबा के पास झोपड़ी में चली गयी। बाबा अकेले ही थे, पत्र लिख रहे थे। मैं भी जाकर चुपचाप बैठ गयी। कुछ ही देर में बाबा की नज़रें उठी और बोले, ‘आओ बच्ची।’ मैंने कहा, ‘बाबा, क्या अब मुझे सेवा के लिए छुट्टी मिल जायेगी? लौकिक पिता का बहुत मोह है।’ बाबा बोले, ‘बच्ची, अब तुम्हें कोई रोक नहीं सकता। अब तुम बिल्कुल फ्री हो, खूब सेवा करो।’ तो सेवा के वरदान ने मुझे निर्बन्धन बना दिया और जब वापिस आयी तो वरदान साकार होने लगा। सेवाकेन्द्र पर रहने की छुट्टी मिल गयी और मैं स्वतन्त्र पंछी की तरह सेवा में आगे बढ़ने लगी।
बाबा ने हमें सच्चे दिल से सेवा करना, त्याग की भावना रखना, किसी से बदले की वृत्ति नहीं रखना, सभी गुण और विशेषताओं को धारण करने का पुरुषार्थ करना आदि सिखाया। एक बाबा ही सम्पूर्ण बाप, सम्पूर्ण शिक्षक और सम्पूर्ण सतगुरु है।
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