घाटकोपर, मुंबई से ब्रह्माकुमारी नलिनी बहन जी लिखती हैं कि बाबा ने हरेक बच्चे को इतना स्नेह दिया, उसे इतना आगे बढ़ाया और योग्य बनाया कि हरेक बच्चा यही समझता है कि बाबा तो बस उसका ही बाबा है। हूबहू, हर एक गोपी द्वारा श्री कृष्ण को अपने संग देखने वाली बात पुनरावृत्त हुई। यदि एक-एक बच्चा बाबा के अनेकानेक चरित्रों का वर्णन करने लगे तो सैकड़ों भागवत, पुराण तैयार हो जायें।
हमारा अनुभव है कि कैसे बाबा कर्म करते-करते बीच में गुम-से हो जाया करते थे और घड़ी घड़ी बच्चों का ध्यान भी याद की यात्रा की ओर खिंचवाते रहते थे। बाबा कहते-“बच्चे! याद में ही कमाई है, यही गुप्त मेहनत है। माया याद की यात्रा में ही विघ्न डालती है।” बाबा ने मधुबन एवं सेवाकेन्द्रों की दिनचर्या ऐसी बनायी कि बच्चों में ज्ञान, योग, दैवी गुणों एवं सेवा, इन चारों मुख्य बातों की धारणा सहज ही हो जाये और बड़े से बड़े संगठन में रहते हुए भी सदैव शान्ति, तपस्या, पवित्रता और स्नेह का वातावरण बना रहे। बाबा जानते थे कि सभी बच्चे एक साथ मधुबन में बाबा के सन्मुख नहीं रह सकते क्योंकि बच्चों को अपने लौकिक गृहस्थ-व्यवहार को भी संभालना है अथवा दूसरी मनुष्यात्माओं के कल्याणार्थ सेवाकेन्द्र भी संभालने हैं। बाबा बच्चों को ‘दोनों तरफ से तोड़ निभाने’ की श्रीमत देते थे । अतः बाबा ने बच्चों को एक ऐसी दिनचर्या सिखलायी जिस पर चलकर वे चाहे किसी भी परिस्थिति में, कहीं भी रहें, अपने पुरुषार्थ को आगे बढ़ा सकें और यह अविनाशी कमाई करते रहें। बाबा के पत्र-व्यवहार के कारण बच्चों को कभी भी ऐसा महसूस नहीं होता था कि वे बाबा से दूर हैं। हम तो हैरान हो जाते थे कि नित्य ढेर सारी डाक आते हुए भी बाबा सभी बच्चों के पत्रों के उत्तर वापसी डाक से भेज देते थे। बच्चों को, बाबा से पत्रों द्वारा व्यक्तिगत समस्याओं को हल करने की राय मिलती रहती थी। ‘ब्रह्मा की राय‘ मशहूर है, उसका शास्त्रों में भी गायन है।
सबसे अधिक आश्चर्य की बात तो यह लगती थी कि इतनी वृद्ध अवस्था होते हुए भी कैसे बाबा अथक होकर बहुत सवेरे से लेकर रात्रि देर तक कार्य करते रहते थे। इतने बड़े मधुबन यज्ञ के सैंकड़ों सेवाकेन्द्रों तथा प्रवृत्ति में रहने वाले हज़ारों परिवारों की पूरी-पूरी ज़िम्मेदारी संभालते हुए भी बाबा को जब देखो तब बिल्कुल फारिग, निश्चिन्त और निर्संकल्प नज़र आते थे। इतने बड़े अलौकिक गृहस्थ और ईश्वरीय व्यवहार को संभालते हुए भी समय पूरा होने से पूर्व ही सम्पूर्ण अवस्था (अव्यक्त स्थिति) को प्राप्त कर लेने की समर्थता बाबा में ही थी। यह उन्हीं की कमाल थी। अज्ञान काल में जब कोई साधु-महात्मा शरीर छोड़ता था तो हम बिना अर्थ समझे ही कहते थे कि वह ‘पूरा हो गया’। परन्तु इस ‘पूरा होने’ अथवा ‘सम्पूर्ण अवस्था’ को पाने का वास्तविक अर्थ अब ही समझ में आया है। अन्य धर्म-स्थापक जब शरीर त्यागते हैं तो जीवन-भर प्रयास के बाद भी मुश्किल से दो-चार व्यक्ति ही उनकी शिक्षाओं का पूरा अनुकरण करने वाले तैयार हो पाते हैं परन्तु हम देखते हैं कि जब ब्रह्मा बाबा सम्पूर्ण हुए तो उन्होंने ‘आप समान’ बच्चों का एक विशाल समूह अथवा एक पूरी शक्ति सेना तैयार कर दी थी, जो अब कुशलतापूर्वक इस अलौकिक ईश्वरीय कार्य को आगे बढ़ाते हुए पूरा करने में तत्पर हैं।
ब्रह्मा बाबा चाहे साकार रूप में हमारे बीच नहीं रहे हैं परन्तु हम जानते हैं कि अव्यक्त रूप से आज भी वही हमारे मार्गदर्शक हैं और हम उन्हीं की छत्रछाया में चल रहे हैं। वे हमें ऊपर उठाने के लिए ही ऊपर गये हैं, हमें सम्पूर्ण बनाने के लिए ही सम्पूर्ण हुए हैं और यदि देखें तो साकार बाबा का एक-एक चरित्र भी हम बच्चों को सही राह दिखाने में इतना सहयोगी है कि शब्दों द्वारा इस अनुभव का वर्णन नहीं किया जा सकता। ऐसे स्नेही बाबा के हम बहुत-बहुत आभारी हैं।
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