तिनसुकिया, असम से ‘ब्रह्माकुमारी सत्यवती बहन जी’ अपने अनुभव सुनाती हैं कि प्यारे, मीठे साकार बाबा से मेरा पहला मिलन सन् 1961 में मधुबन में हुआ। जैसे ही हम आये तो बाबा धोबीघाट पर खड़े थे। देखते ही बाबा ने हमें गले लगाया और कहा, “आ गयी मेरी मीठी, प्यारी बच्ची।” बाबा के ये बोल सुनते ही मुझे अनुभव हुआ कि जो कुछ है, सर्वस्व यही है। उसी क्षण मेरा बुद्धि का लगाव, झुकाव सब तरफ़ से खत्म हो गया।
एक बार मैं अपने गाँव में सवेरे क्लास में जा रही थी तो बीच में एक चोर मिला और उसने मेरे गले की चेन खींची, मैंने उसका सामना किया। जब बाबा को मैंने यह समाचार सुनाया तो बाबा ने मुझसे कहा, ‘यह मेरी शेरनी बच्ची है जो गुण्डे का सामना करके आयी है।’ उसी समय से डर बिल्कुल समाप्त हो गया। जब-जब कोई परिस्थिति आती है तो ऐसा महसूस होता है जैसेकि बाबा का वरदानी हाथ मेरे सिर पर है।
एक बार मैं क्लास में बाबा के सामने बैठी थी। मुझे ऐसा लग रहा था कि एक ज्योति बाबा में आकर समा रही है और बाबा के मस्तक से जैसे कि किरणें निकल रही हैं। इससे पहले मुझे ब्रह्मा बाबा से तो बहुत प्यार था लेकिन यह निश्चय नहीं था कि शिव बाबा इनमें आते हैं। परन्तु उस दिन से ऐसा अनुभव हुआ कि संसार की कोई हस्ती मेरे निश्चय को हिला नहीं सकती। एक बार बाबा से मिल रही थी तो बाबा ने मेरे सिर पर हाथ रख कर बोला, बच्ची, तुम्हारे जैसी एक दर्जन मातायें मिल जायें तो बाबा का कार्य जल्दी हो जाये। उसके बाद जब मैं कोलकाता गयी तो टिबरेवाल धर्मशाला में प्रदर्शनी की। उसी प्रदर्शनी से एक दर्जन मातायें निकलीं और निश्चय बुद्धि बनीं। इस प्रकार, बाबा का महावाक्य सिद्ध हो गया।
सन् 1965 में जब मम्मा अव्यक्त हुई तो बाबा को देखा कि बाबा ड्रामा की पटरी पर अटल, अडोल खड़ा था। बच्चों को धीरज दे रहा था कि ड्रामा में होगा तो तुम्हारी माँ वापस ज़रूर आयेगी। बाबा जैसे बिल्कुल निश्चिन्त थे। बाबा अशरीरी स्थिति का कैसे अभ्यास करते थे यह हमने प्रैक्टिकल देखा।
एक बार बाबा लेटे हुए अख़बार देख रहे थे। देखते-देखते बाबा एकदम साइलेन्स में चले गये। मैं सामने खड़ी देख रही थी कि बाबा को क्या हुआ। फिर थोड़ा समय के बाद जब बाबा की पलकें झपकीं तो लगा कि बाबा कैसे अशरीरी हो जाते हैं! हमने देखा, बाबा को बच्चों को अलौकिक पालना देने का, उन्हें ज्ञान-रत्नों से श्रृंगारने का, गुणों से सम्पन्न बनाने का, सेवा में बच्चों को आलराउण्डर बनाने का बहुत शौक था। बाबा की दृष्टि जैसे सर्च लाइट का अनुभव कराती थी। इतनी उम्र होते हुए भी बाबा ऐसे चलते थे जैसे कि फ़रिश्ता चल रहा है। बाबा के एक-एक बोल ऐसे होते थे जो दिल में जगह बना लेते थे। सर्व के प्रति बाबा की दृष्टि समान और सम्मानयुक्त रही।
एक बार बाबा के साथ झूले में झूल रही थी। बाबा ने पूछा, बच्ची, किसके साथ झूल रही हो ? मुझे ऐसे लग रहा था जैसेकि छोटे मिचनू श्री कृष्ण के साथ झूल रही हूँ। बाबा कितने निरहंकारी थे! मुरली क्लास पूरी होने के बाद जब बाबा उठते थे तो दरवाज़े के बाहर जाने तक बाबा बच्चों को नमस्ते नमस्ते कहते बच्चों की तरफ़ पीठ न करके ऐसे ही पीछे चलते थे और बाहर जाने के बाद मुड़कर जाते थे। उस समय मैंने देखा कि बाबा के सिर से एक ज्योति बाहर निकल रही थी।
एक बार मैं अमृतवेले 3.30 बजे बाबा के पास गयी। बाबा गद्दी पर बैठे थे। जैसे ही मैंने कमरे में प्रवेश किया, बाबा ने मुझे गले से लगाया तो ऐसा महसूस हुआ जैसेकि कोई शक्तिशाली फ़रिश्ता और रूई जैसा बहुत हल्का है। हड्डी-मांस का शरीर महसूस ही नहीं हुआ। बाबा मुझे ‘फूल बच्ची’ कह पुकारते थे।
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