Dada vishwaratan anubhavgatha

दादा विश्वरतन – अनुभवगाथा

आपका जैसा नाम वैसे ही आप यज्ञ के एक अनमोल रत्न थे। आप ऐसे पक्के ब्रह्मचारी, शीतल काया वाले योगी, आलराउण्ड सेवाधारी कुमार थे जिनका उदाहरण बाबा भी देते कि बाबा को ऐसे सपूत, सच्चे, पक्के पवित्र कुमार चाहिए। दादा की वृत्ति सदा उपराम, सदा अनासक्त, सदा त्यागी थी। आपने यज्ञ की हर छोटी-बड़ी सेवा बड़े दिल से एक्यूरेट की और हर एक को अपने कर्म द्वारा गुणों का दान करके सब कुछ सिखाया। आप बाबा के वफादार, ईमानदार और फरमानबरदार, आज्ञाकारी बच्चे थे। आपने यज्ञ के एकाउन्ट विभाग में अपनी अनमोल सेवायें दी, आप तपस्वी कुमार थे। आपको एकाग्रता का बहुत अच्छा अभ्यास था। आप विशेष जब योग कराते तो सभा में सन्नाटा छा जाता। आपने अंत तक सेवायें देते हुए 26 फरवरी, 2007 को पुराना शरीर छोड़ बापदादा की गोद ली।

दादा विश्व रत्न ने अपने अलौकिक जीवन का अनुभव इस प्रकार सुनाया है –

अठारह मार्च उन्नीस सौ अठारह में मेरा जन्म हुआ, नाम वरियल पड़ा। मेरे माता-पिता बड़े अच्छे स्वभाव-संस्कार वाले थे। पिताजी प्राइमरी स्कूल में हेडमास्टर थे। मेरा एक बड़ा चचेरा भाई करांची में स्कूलों का सुपरवाइजर था। उसने मेरे पिताजी के लिए एक स्कूल में टीचर बनाने का प्रबंध किया और मेरे पिताजी को करांची आने के लिए कहा। परिवार के सभी सदस्य करांची आ गये, वहाँ पिताजी प्राइवेट स्कूल में टीचर बनकर रहे। मैं उस समय मैट्रिक में पढ़ता था। 

ओम मण्डली से संपर्क

जब मैं इंटर साइंस में पढ़ रहा था, तब सुना और पेपर में भी पढ़ा कि ‘ओममण्डली’ हैदराबाद से शिफ्ट होकर करांची आ गई है और कोई भी वहाँ जाकर उनसे ज्ञान प्राप्त कर सकता है परंतु वहाँ जाने के पहले पत्र लिखकर उनसे टाइम निश्चित करना होगा। पहले ओम मण्डली के विषय में अखबारों में बहुत कुछ ऐसा उल्टा-सुल्टा लिखा हुआ था, जो कोई भी पढ़े तो उसका माथा ही खराब हो जाये। मैंने भी ऐसा अखबारों में पढ़ा था। मैंने सोचा कि हैदराबाद से कराची में आये हैं तो रूबरू जाकर देखूँ कि ये कौन हैं, क्या हैं और क्या समझाते हैं। मैंने उनको एक कार्ड लिखा कि मैं आपका ज्ञान समझना चाहता हूँ। दूसरे दिन ही उसका उत्तर आया कि इस टाइम पर, इस स्थान पर भले आ सकते हो। मैं उसी टाइम पर वहाँ गया। तभी एक कार वहाँ आई। उसमें से बाबा उतर कर अंदर चले गये।

मैंने बाबा की पर्सनैलिटी देख सोचा कि क्या इनके लिए लोग ऐसे लिखते हैं। ये ऐसे हो नहीं सकते। फिर तो मुझे भी अंदर बुलाया गया और मुझे जसु बहन, जो शान्तामणि दादी की भाभी थी, ने ज्ञान समझाया। उस दिन आत्मा का पाठ पक्का कराया कि तुम आत्मा हो, शरीर नहीं हो। शरीर की सभी कर्मेन्द्रियों को चलाने वाली तुम मालिक आत्मा हो। सारा घण्टा ही उस एक प्वाइंट पर समझाया। मुझे बहुत अच्छा लगा। फिर उसने कहा कि आप कल आना।

शान्ति, आनन्द और खुशी की अनुभूति

ऐसे मैंने रोज जाकर सात दिन का कोर्स पूरा किया। कोई भी बीच में प्रश्न नहीं पूछा। सब कुछ ठीक समझ में आ रहा था। फिर मुझे एक परमिट कार्ड मिला कि आप अब सुबह को रेग्यूलर क्लास में आ सकते हो। फिर मैं रोज सुबह को निश्चित समय पर क्लास में आने लगा। मुझे अंदर में शान्ति, आनन्द और खुशी की अनुभूति होने लगी। साथ-साथ यह भी देखा कि वहाँ ओम् मण्डली की कन्यायें-मातायें कितनी मीठी, पवित्र दृष्टि वाली हैं। बाहर वाली दुनियावी कन्याओं और यहाँ की कन्याओं में रात-दिन का अन्तर देखा। बस, उनके चेहरों और आँखों में पवित्रता की झलक और पवित्र दृष्टि-वृत्ति को देखकर मैं समझ गया कि यही सच्चा परमात्म-ज्ञान है और इन बहनों को परमात्मा स्वयं ही आकर ज्ञान देता है जिससे ये ऐसा पवित्र, सुख-शान्तिमय जीवन बना रही हैं।

मैने बाहर अखबारों में जो कुछ भी पढ़ा था, वह सब उड़ गया। समझा कि वह शत-प्रतिशत गलत है। बस, मैंने तो अंदर में प्रतिज्ञा कर ली कि मैं इस ज्ञान को कभी नहीं छोडूंगा, रेग्यूलर आता रहूँगा। ऐसे ही कहें कि मैं बुद्धि से सरेण्डर हो गया, परमात्मा का बच्चा बन गया अथवा इस परिवार में आ गया। मैं जो इण्टर साइंस पढ़ रहा था, उससे भी मेरी रुचि खत्म हो गई। ज्ञान की रूहानी पढ़ाई में जैसे-जैसे रुचि बढ़ती गई, वैसे-वैसे लौकिक पढ़ाई से रुचि खत्म हो गई और आखिर में उस पढ़ाई को भी छोड़ दिया।

मैं समर्पित हो गया

करांची में ओम मण्डली को देखने और ज्ञान सुनने के लिए हजारों लोग आये। कोई एक दिन आकर चले गये, कोई दो-चार दिन ज्ञान सुनकर चले गये, कोई-कोई एक-दो मास ज्ञान में चलकर चले गये। कोई-कोई छह-आठ मास भी ज्ञान में चलकर छोड़कर चले गये। बाकी थोड़े ऐसे रहे जो आते रहे। इन बाहर से आने वालों में से तीन भाई – कृष्णा, विष्णा और वरियल (मै) रोज़ ज्ञान सुनने के लिए क्लास में तो आते ही थे लेकिन शाम को भी यज्ञ-सेवा अर्थ ओम मण्डली में जाते थे। बाबा की जो मुरली चलती थी, उसमें से प्वाइंटस निकालते थे, फिर उनको अंग्रेजी में ट्रांसलेट करते थे, टाइप भी करते थे, छोटी-छोटी किताबें बनाते थे और बड़े-बड़े लोगों, मंत्रियों आदि को देकर आते थे। ये हम त्रिमूर्ति भाइयों की ड्यूटी थी। धीरे-धीरे एक मूर्ति निकल गई। बाकी दो मूर्ति रहीं। एक दिन कृष्णा और मैंने सोचा कि अब हम दोनों अपने को पूर्ण रूप से समर्पित करके ओम मण्डली में जाकर ही रहें अथवा इस ब्राह्मण परिवार में आ जायें। यह बात हम दोनों ने जाकर मम्मा को बताई। मम्मा ने सारा समाचार पूछकर हमारी अर्जी को स्वीकार किया और आज्ञा दी कि आप बंगले में जाकर रहो।

सन् 1939 में क्रिसमस की छुट्टियों के वे दिन थे, जब हम दोनों को अंदर रहने की छुट्टी मिली। मैं तन और मन सहित बापदादा के पास समर्पित हो गया अर्थात् मरजीवा जन्म ले लिया और अंदर में यह प्रतिज्ञा कर ली कि बापदादा हमको जैसे चलावे, जहाँ भेजे, जो भी सेवा देवे अथवा जो भी आज्ञा करे अर्थात् जो भी श्रीमत हो, वह मैं पूर्ण रूप से पालन करूँगा। 

भिन्न-भिन्न जिम्मेवारियाँ मिलीं

मम्मा की आज्ञा प्रमाण जिस बंगले में हम जाकर रहे, वह बंगला क्लिफ्टन पर बाबा के बंगले के पास ही था। दोनों के बंगलों के बीच में सिर्फ 2-3 बंगले और थे। नजदीक होने के कारण बाबा से हमारा कनेक्शन अधिक होने लगा। घर से आकर ज्ञान सुनते हुए एक वर्ष के दौरान बाबा को देखा था और बाबा की मुरली भी सुनी थी लेकिन कभी भी बाबा के साथ बातचीत करने का अवसर नहीं मिला था। यहाँ बाबा के पास रहने के कारण और ड्रामानुसार कार्य-व्यवहार के कारण बाबा से भी बातचीत शुरू हो गई।

इस बंगले में ज्ञान में चलने वाले तीन-चार शिकारपुरी परिवार रहते थे। उनमें से एक माता सवेरे उठकर स्नान के लिए गर्म पानी तैयार करती थी। लेकिन वह गर्म पानी थोड़ा देरी से मिलता था। मैंने सोचा, मैं तो जल्दी ही उठता हूँ, तो क्यों नहीं यह गर्म पानी मैं ही तैयार कर लूँ। मैंने उस माता को कहा, माता जी, आप निश्चिन्त रहें, गर्म पानी मैं तैयार कर दूँगा। फिर रोज मैं गर्म पानी तैयार करता रहा। इस बात का बाबा को मालूम पड़ गया। मुझे बाबा ने अपने बंगले पर बुलाया और पूछा, सवेरे कितने बजे उठते हो? मैंने कहा, बाबा, साढ़े तीन बजे उठता हूँ। बाबा ने पूछा, उस समय क्या करते हो? मैंने कहा, बाबा, उस समय गर्म पानी करता हूँ और जिसको चाहिए उसको पानी पहुँचा कर भी आता हूँ। बाबा ने कहा, अच्छा, मैं एक ड्यूटी दे दूँ? मैंने कहा, हाँ बाबा, दे दीजिये। फिर बाबा ने कहा, तुम भले पहले गर्म पानी करना, फिर स्नान-पानी करके, सीनियर सिस्टर्स के बंगले में जाना, वहाँ से साइकिल पर दो बड़े डिब्बे ले जाना और सदर बाजार में जाकर 80 पाउण्ड मिल्क क्रीम खरीद करके सीनियर सिस्टर्स के बंगले पर पहुँचा देना। मैंने कहा, जी बाबा, ऐसे ही करूँगा। ऐसे ही रोज यह ड्यूटी करता रहा। बाबा मेरी रिपोर्ट रोज सीनियर सिस्टर्स से पूछता रहा कि यह बच्चा रोज आपके पास आता है तो ठीक टाइम पर आता है, ठीक टाइम पर मिल्क क्रीम लाता है, चीज़ अच्छी लाता है, ठीक दाम देकर आता है और इसका बहनों से बातचीत करने का ढंग, लेना-देना कैसा है? बाबा को बड़ी बहनों की तरफ से इन सभी बातों की रिपोर्ट अच्छी मिली। तो बाबा ने थोड़े दिनों के बाद फिर मुझे बुलाया, कहा, दूसरी ड्यूटी दे दूँ? मैंने कहा, हाँ बाबा, दे दीजिये। बाबा ने कहा, वह मिल्क क्रीम बड़ी बहनों के बंगले पर पहुँचाने के बाद, फिर वहाँ से ही होलसेल सब्जी बाजार में जाना, वहाँ से सब्जियाँ खरीद कर ले आना। मैंने कहा, हाँ बाबा, ले आऊँगा। हमारा बंगला, बड़ी बहनों के बंगले से दो मील दूर था, वहाँ से सदर बाजार और आगे दो मील दूर था। होलसेल सब्जी मार्केट बड़ी सिस्टर्स के बंगले से दूसरी तरफ चार मील दूर थी।

वह दूसरी ड्यूटी भी आरंभ कर दी। एक ट्राई साइकिल थी (साइकिल की साइड में एक कैरियर था और उसका तीसरा पहिया था), उसमें 5-6 बोरियाँ भरकर सब्जियाँ ले आता था, उसके बाद क्लास चालू हो जाता था। हमेशा कोशिश यही करता था कि क्लास में ठीक टाइम पर पहुँच जाऊँ लेकिन कभी-कभी सब्जियाँ ठीक नहीं होती थी तो कुछ समय अधिक लग जाता था। लेकिन कोशिश यही करता था कि चीज़ भी अच्छी से अच्छी लाऊँ क्योंकि शिवबाबा के बच्चे खाने वाले हैं और चीज़ सस्ती भी हो। तो सभी दुकानों से अच्छी तरह भाव पूछकर अच्छी चीज़ लेता था। किसी दिन अच्छी चीज़ नहीं होती थी, तो चुन-चुनकर थोड़ी-थोड़ी करके कई जगह से निकाल कर लेता था। तो उसमें थोड़ा समय अधिक लग जाता था और क्लास में 15-20 मिनट कब-कब देरी से पहुँचता था। लेकिन मेरे दिल में सदा यह संकल्प रहता था कि मैं अगर बाबा का सपूत बच्चा हूँ, हर आज्ञा अथवा श्रीमत को पूर्ण रूप से पालन करता हूँ तो क्लास में देरी से आने के कारण मैंने जो क्लास में ज्ञान की प्वाइंट मिस की, वह मिस नहीं हो सकती है। वह प्वाइंटस जरूर बाबा कभी न कभी मेरी बुद्धि में भर देगा क्योंकि मैं बाबा की आज्ञा अनुसार, बाबा की ही अथवा यज्ञ की ही सेवा पर गया था।

पुलिसमैन की ड्यूटी

एक वर्ष इस तरह कार्य करते रहने के बाद मेरी ड्यूटी बदल गई। एंटी ओम मण्डली वालों की अपोजिशन चलती थी जिस कारण सोचा गया कि बाबा के बंगले पर कोई पुलिसमैन का पहरा होना चाहिए। भाऊ विश्व किशोर, जिनका लौकिक नाम भेरूमल कृपलानी था, ने बाबा से पूछा कि किसको पुलिसमैन बनायें? क्योंकि यह भी सोचा गया कि पुलिसमैन कोई बाहर वाला नहीं होना चाहिए। बाहर वाले हमारे खिलाफ हैं, इसलिए उन्हों पर विश्वास नहीं रख सकते, अतः अपने ही किसी भाई को पुलिसमैन बनाया जाये। बाबा का मेरे में बहुत विश्वास हो गया था, जिस कारण भाऊ विश्वकिशोर को कहा कि इसको (मुझे) साथ ले जाओ और पुलिसमैन (रामोशी पुलिस) बनाकर ले आओ।

ऐसे मैं रामोशी पुलिसमैन बनकर बाबा के बंगले पर ड्यूटी देता रहा। गेट के सामने कंपाउंड में एक टेबल-कुर्सी रख दी। वहाँ बैठ कर लिटरेचर का कार्य (मुरलियों से प्वाइंटस निकालना) भी करता रहा और पहरे की ड्यूटी भी संभालता रहा। रहने का प्रबंध भी बाबा के उस बंगले में ही मिला। गेट के सामने ही मोटर गैरेज थी, उसके ऊपर एक कमरा था, उसमे रहने लगा। 

एक बार क्या हुआ कि भोली दादी के पति ने केस किया था कि मेरी पत्नी अपनी छोटी बच्ची (मीरा) को साथ लेकर भागकर यहाँ ओम मण्डली में आई है। उसका वारण्ट बाबा के ऊपर निकलवाकर पुलिस इंस्पेक्टर को साथ लेकर आ रहा था। बाबा को पता पड़ गया कि ये लोग हमारे बंगले पर आ रहे हैं, तो फौरन भाऊ विश्वकिशोर को कोर्ट में भेजा कि जाकर वहाँ से स्टे-ऑर्डर ले आओ। थोड़े ही समय में ये लोग पुलिस इंस्पेक्टर के साथ आ गये। मैं गेट पर खड़ा था, उन्होंने आकर मुझे वारण्ट दिखाया और कहा कि बाबा को कोर्ट ले जाना है। मैंने उन्हों को कहा कि आप यहाँ ठहरो, मैं ऊपर जाकर आपका मैसेज देकर आता हूँ। मैं ऊपर फर्स्ट फ्लोर पर, जहाँ बाबा रहते थे, गया और बाबा को सुनाया कि ये लोग वारण्ट लेकर आ गये हैं। बाबा ने कहा कि तुम युक्ति से उन्हों को ठहराओ, जब तक विश्वकिशोर आ जाये। मैंने नीचे आकर उन्हों को कहा कि बाबा जी तैयारी कर रहे हैं, थोड़ी देर में नीचे उतरेंगे। पंद्रह-बीस मिनट के बाद पुलिस इंस्पेक्टर कहने लगा कि अभी तक बाबा जी नहीं उतरे हैं, हम कब तक यहाँ ऐसे ठहरेंगे। मैंने उन्हों को कहा कि मैं जब ऊपर गया था, तब भोजन खाने की तैयारी में थे, अब तो भोजन खा चुके होंगे। अब चलने की तैयारी करते होंगे। अब थोड़ी देर में आ जायेंगे। इस तरह से आधा घण्टा ठहरा दिया। इतनी देर में भाऊ विश्वकिशोर भी आ गये। जब भाऊ ने गेट पर इन सभी पुलिस वालों को देखा और पुलिस इंस्पेक्टर के हाथ में वारण्ट देखा तो स्टे-ऑर्डर निकाल कर उनके हाथ में दे दिया। वह स्टे-आर्डर देखकर वे हैरान हो गये, सभी का मुँह ही पीला पड़ गया। मेरी तरफ देखकर अंदर में गुस्से में आ रहे थे कि इसने हमको बहुत समय बाहर ही गेट पर ठहरा दिया। फिर तो वे सभी वापस चले गये। दूसरे दिन पेपर में समाचार आया कि कल पुलिस इंस्पेक्टर क्लिफ्टन पर गया था और बाबा जी (दादा लेखराज) के लिए वारण्ट लेकर गया था, वहाँ गेट पर एक रामोशी पुलिसमैन खड़ा था, वह इतना कड़ा था जो पुलिस इंस्पेक्टर को अंदर जाने ही नहीं दिया। सबको बाहर ही ठहरा दिया। एक घंटे तक उनको अंदर जाने ही नहीं दिया। बाद में सबको स्टे-आर्डर दिखाकर रवाना कर दिया। इस प्रकार पहरे पर यह एक ही अनुभव हुआ बाकी तो बिल्कुल शान्ति से ड्यूटी बजाता रहा। धीरे-धीरे एन्टी ओम मण्डली के सभी हंगामें आदि खत्म हो गये। फिर तो ये रामोशी पुलिस की ड्यूटी भी खत्म हो गई।

बच्चों का टीचर बना

उसके बाद बाबा ने मुझे बच्चों का टीचर बनाकर उन्हों की संभाल के लिए रखा। ‘ब्वाय भवन’ नाम का बंगला था, जहाँ पर छह वर्ष से बारह वर्ष की आयु के बच्चे रहते थे। वहाँ मैं और भगवान भाई- दोनों बच्चों को संभालते थे। उन्हों को राजविद्या भी पढ़ाते थे और ज्ञान की प्वाइंटस भी सुनाते थे। बंगले के सामने एक बड़ा मैदान था, वहां उन बच्चों को शाम को क्रिकेट आदि का खेल कराते थे। कभी-कभी उन्हों को पिकनिक स्पॉट पर घुमाकर भी ले आते थे। ऐसे इन 20-25 बच्चों को संभालते रहे। यह ड्यूटी भी एक-डेढ़ वर्ष रही। 

धोबीघाट की ड्यूटी

उसके बाद मुझे धोबीघाट संभालने के लिए कहा गया। पहले तो एक कांट्रेक्टर था जो रोज कपड़े ले जाता था और धुलाई करके ले आता था। लेकिन फिर अपना ही धोबीघाट बनाने का विचार आया। “कुंज भवन” (बड़ी बहनों का बंगला) के थोड़ा पास, बीच में एक-दो बंगले छोड़कर एक बंगला था, जिसका नाम “गुलजार भवन” रखा गया था। उसमें अपने ही कई भाई-बहनें रहते थे, उसके कंपाउंड में यह धोबीघाट खोला गया। मैं उस धोबीघाट का हेड बना। एक बड़ी टिन शीट की टंकी, जो लगभग 8 फुट बाई 4 फुट की बनाई गई थी, में पानी डालते थे। उसके नीचे लकड़ियाँ डालकर आग जलाता था। जब पानी खूब गरम हो जाता था, तब साबुन और सोडा डालकर उसमें मैले कपड़े डालकर एक मोटी लकड़ी से कपड़ों को अंदर दबा देता था। ये सब मैं अकेला ही रात को 7-8 बजे करता था। फिर सवेरे 4-5 बजे आकर गर्म-गर्म कपड़े एक लकड़े से बाहर निकालता था। इस टंकी के पास ही 10 फीट व्यास की एक गोल टंकी बनाई थी जिसमें रोज़ सवेरे पानी भरते थे। इसके चारों ओर कपड़े सटने की 3-4 स्लेब्स बनाई हुई थीं, जिन पर मैं और दो-तीन दूसरे भाई, गर्म-गर्म कपड़े सटते और धुलाई करते थे। बंगले के कंपाउंड में कपड़े सुखाने के लिए रस्सियाँ लगाई गई थी। उन रस्सियों पर चार-पाँच भाई कपड़े सुखाते थे। यह सारा कार्य हम लोग क्लास से पहले ही करते थे और बाद में स्नान आदि करके क्लास में जाते थे। दिन में फिर कपड़े प्रेस आदि का कार्य करते थे। मैं रहता भी उस गुलजार भवन में ही था। धोबीघाट का कार्य डेढ़-दो वर्ष चलने के बाद एक पूरन नाम का धोबी आया फिर उसने यह सारा कार्य अपने ऊपर उठा लिया। बाकी कपड़े प्रेस करने का कार्य हम लोग करते थे। थोड़े समय के बाद फिर कपड़े प्रेस करने का कार्य भी बाहर के लोगों ने ले लिया। मैं फिर अन्य कई प्रकार की ड्यूटीज में लग गया।

अव्यक्त नामों की सूची

कुंज भवन में जो बहनें रहती थीं, उनमें से कई बहनों को शिवबाबा सूक्ष्म वतन बुलाकर साक्षात्कार कराकर कई प्रकार के दृश्य दिखाते थे। कुछ बहनें तो रोज़ ही साक्षात्कार में चली जाती थीं। एक बार एक बहन को शिवबाबा ने एक दृश्य में सभी ब्रह्माकुमार-कुमारियों के अव्यक्त नाम बताये। उस बहन को वहाँ सूक्ष्म वतन में एक बोर्ड दिखाई पड़ा, जिस पर हरेक ब्रह्माकुमार-कुमारी के व्यक्त नाम के सामने अव्यक्त नाम भी लिखे हुए थे। वहाँ अव्यक्त बाबा ने उस बहन को कहा कि आज से सभी ब्रह्माकुमार-कुमारियों को इन अव्यक्त नामों से ही बुलाया जाये। फिर तो उस बहन ने अपने हाथ से ऐसा इशारा किया जो सामने बैठी हुई बहनें समझ गई कि यह कापी और पैन माँग रही है। साक्षात्कार वाली बहन के आगे कापी और पैन रखे गये। कापी और पैन उठा कर वह बोर्ड पर लिखे नाम कापी पर लिखती गई। जब सभी व्यक्त, अव्यक्त नाम लिखकर पूरे किये, तब वापस इस साकार वतन में आ गई और आकर साकार ब्रह्मा बाबा को सूक्ष्म वतन का समाचार सुनाया और वे नाम भी दिखाये। फिर तो सभी व्यक्त और अव्यक्त नाम लिखकर बोर्ड पर लगाये गये और सभी ने अपने पास नोट करके भी रखे। उस दिन से लेकर सभी को अव्यक्त नाम से बुलाया जाता है। मेरा नाम विश्वरत्न पड़ा और उस दिन से लेकर मुझे भी इसी नाम से ही बुलाया जाता है। 

झाड़ और गोला का चित्र बनाने की सेवा

हर रोज़ सवेरे को साकार ब्रह्मा बाबा कुंज भवन (बड़ी बहनों के बंगले) में आकर मुरली चलाता था। हम सभी भाई-बहनें, जो अन्य बंगलों में रहते थे, वे भी सभी वहाँ ही जाकर बाबा की मुरली सुनते थे। एक दिन जब बाबा आकर संदली पर मुरली चलाने के लिए बैठे तो बैठते ही कहा कि आज मैं (साकार ब्रह्मा बाबा) सूक्ष्म वतन में गया था। वहाँ अव्यक्त बाबा ने मुझे एक बड़ा सुन्दर झाड़ (वृक्ष) दिखाया, जो मनुष्यों का झाड़ था। बाबा (अव्यक्त बाबा ने साकार बाबा को) ने कहा कि विश्वरत्न को कहो कि इसकी डिजाइन बनावे। मैं क्लास में ही बैठा हुआ था। उसी समय ही साकार बाबा ने मेरे से पूछा कि कैसे बच्चू! ये डिजाइन बनायेंगे? मैंने कहा, हाँ बाबा।

झाड़ के बारे में विचार मंथन

फिर साकार बाबा ने मम्मा को कहा कि मम्मा, इस बच्चे से सभी ड्यूटीज़ छुड़वाकर अन्य बच्चों को बाँट कर दे दो। आज से इसको यही कार्य करना है। यह मोस्ट इंपारटेन्ट कार्य है। मम्मा ने भी कहा, जी बाबा। मुरली पूरी होने के बाद मम्मा ने मुझको बुलाया, मेरे से सभी ड्यूटीज छुड़वाकर अन्य भाइयों को दे दीं और मुझे कुंज भवन में ही आउट हाऊस का कमरा दे दिया कि यहाँ ही बैठकर यह कार्य करना है, साथ में टेबल-कुर्सी, पेन्सिल आदि जो मुझे चाहिए था, वह भी दे दिया गया। मैं भी सोचने लगा कि मुझे आज से यही कार्य करना है। बाबा ने पहले झाड़ का ज्ञान तो दिया ही था कि यह सृष्टि एक उल्टा झाड़ है जिसका बीज ऊपर में शिवबाबा है। उस बीज से यह देवी-देवताओं का तना निकलता है, सतयुग-त्रेता दो युगों के बाद डाल-डालियों के रूप में अन्य धर्म निकलते हैं। अब यह झाड़ जड़-जड़ीभूत अवस्था को पहुँच गया है, अब नया झाड़ स्थापन हो रहा है। यह ज्ञान तो बाबा ने पहले से ही सुनाया हुआ था, बाकी उसकी डिजाइन बनानी थी। अब सोचने लगा कि इसे कैसे बनाऊँ। पहले सोचा कि झाड़ में कोई डाल आगे होगी, कोई पीछे होगी, कोई टेढ़ी होगी और डाल के आगे पत्ते भी आयेंगे, तो उस पर लिखत कैसे लिखेंगे कि वह किस धर्म की डाल है। क्योंकि यह झाड़ लोगों को समझाने के लिए बना रहे हैं तो लिखत जरूर चाहिए कि यह डाल इस्लाम धर्म की, यह बौद्ध धर्म की आदि-आदि। यह सोचते-सोचते आखिर में यही विचार आया कि सभी डालें दोनों तरफ सीधे ही बना देता हूँ, पत्ते डालों के सामने नहीं दिखाता हूँ बल्कि डालों के ऊपर और नीचे बना देता हूँ। ऐसे विचार करके बनाना शुरू किया।

एक सीधी लाइन लगाई, ये धरनी है। फिर ऊपर से, नीचे धरनी तक दो लाइनें लगाई, यह तना है। फिर उस तने के चार बराबर भाग किये, ये चार युग हैं। सतयुग और त्रेता के बाद द्वापर से इब्राहिम द्वारा इस्लाम धर्म की स्थापना होती है तो तने के दो भाग छोड़कर उसके बाईं ओर एक डाल निकाली, उसके बाद उस डाल की शाखायें-प्रशाखायें भी दिखाई। उस डाल पर लिख दिया, इब्राहिम का इस्लाम धर्म। अब सोचा कि दूसरी डाल दाई और निकालनी चाहिए। अगर दूसरा डाल भी बाई ओर ही निकालता हूँ तो बैलेन्स नहीं रहेगा, झाड़ ही गिर जायेगा। इसलिए दूसरी डाल दाईं ओर होनी चाहिए और यह भी सोचा कि बौद्ध धर्म इस्लाम धर्म के 250 वर्ष के बाद में स्थापन होता है तो बौद्ध धर्म की डाल थोड़ी ऊपर करके बनानी चाहिए। ऐसे-ऐसे अंदर विचार आते रहे। ऐसे विचार करके दूसरी डाल दाईं ओर निकाली और उस पर लिख दिया, बुद्ध द्वारा बौद्ध धर्म। अब सोचने लगा कि लेफ्ट अर्थात् वेस्ट और राइट अर्थात् ईस्ट। इसके बाद नंबर है क्राइस्ट का, वह वेस्ट में है। तो लेफ्ट साइड में डाल निकाल कर उस पर लिखा क्राइस्ट का क्रिश्चियन धर्म। फिर नंबर है सनातन धर्म का तो वह डाल निकाली, फिर मुस्लिम धर्म की डाल निकाली। फिर गुरु नानक साहब के सिख धर्म की डाल निकाली। फिर देखा कि लेफ्ट-राइट अर्थात् वेस्ट-ईस्ट नंबरवार धर्म आते गये। जैसे बाबा ने झाड़ का ज्ञान समझाया था, उसी अनुसार ही बिल्कुल नंबर पर डाल आते गये। फिर छोटी-छोटी डालियाँ आदि निकाली। फिर बाहर से एक गोल लाइन लगाई, उसके बीच में डालों के आस-पास पत्ते निकाले। तो देखा धरनी से इतना ऊँचा मोटा-सा अच्छा झाड़ दिखाई पड़ रहा था। वह पेन्सिल से बनाया हुआ झाड़ ही बाबा के पास ले आया और बाबा को सुनाया कि बाबा ऐसे बनाया है। डाल के आगे पत्ते नहीं बनाये हैं क्योंकि लिखत भी लिखनी है और डाल भी ऐसे ही सीधे बनाये हैं। बाबा ने कहा, बिल्कुल ही ठीक है यह तो समझाने के लिए है, ऐसे ही होना चाहिए।

अब इस पर बाबा का मंथन चलने लगा। बुद्धि बाबा की, अंगुली मेरी चलने लगी। फिर तो बाबा जो रोज़ डायरेक्शन देते रहे, उसी अनुसार ही मैं बनाता रहा। बाबा ने कहा कि इसमें तुमने चार युग तो बनाये हैं लेकिन पाँचवां युग कहाँ है? मैंने कहा, बाबा अभी बनाकर ले आता हूँ। फिर झाड़ के नीचे थोड़ी जगह रखकर, उसमें जड़ें बना दी कि यह संगमयुग है। फिर बाबा के पास ले आया। बाबा ने कहा, हाँ, ठीक है, अब इस जगह में बाबा ब्रह्मा का चित्र बना दो। मैंने कहा, हाँ बाबा, बनाकर ले आता हूँ। तो वहाँ तने के नीचे संगमयुग में ब्रह्मा बाबा का चित्र (पेन्सिल से) बनाकर फिर बाबा के पास लेकर आया। बाबा ने कहा, हाँ ठीक है। फिर बाबा ने थोड़ा सोचने के बाद कहा, हमारा तो प्रवृत्ति मार्ग है, इसलिए यहाँ संगमयुग में ब्रह्मा बाबा के साथ मम्मा का चित्र भी बनाओ। मैंने कहा, हाँ बाबा, बनाकर ले आता हूँ। फिर बाबा का चित्र जो बीच में बनाया था, उसको रबर से मिटाकर बाबा और मम्मा दोनों का चित्र बीच में बना दिया। फिर बाबा के पास लेकर आया। बाबा ने कहा, हां ठीक है। सोचते-सोचते बाबा ने फिर कहा, मम्मा-बाबा कहने वाले कौन? बच्चे ही तो मम्मा-बाबा कहेंगे। इसलिए यहाँ बच्चों के भी चित्र बनाओ। मैंने कहा, हाँ बाबा, बनाता हूँ। फिर मैंने बाबा को कहा, बाबा, बच्चे तो बहुत हैं, यहाँ कितने बच्चों को बिठाऊँ? बाबा ने कहा, देखो बच्चू, आठ रत्नों की माला गाई हुई है, इसलिए तुम यहाँ आठ बच्चों के चित्र बना दो, वे सभी बच्चों का प्रतिनिधित्व करेंगे। मैंने कहा, हाँ बाबा। फिर मैंने कहा, बाबा, आठ बच्चों के नाम आप हमको बता दीजिए, उनके फोटो लेकर मैं यहाँ लगा दूँगा। बाबा ने कहा, हाँ, ये बात तुम्हारी ठीक है। अच्छा, आज नहीं, कल मैं तुमको बताऊँगा।

झाड़ में, मम्मा-बाबा के संग बच्चे

फिर बाबा ने संतरी दादी को बुलाया। संतरी दादी संदेशी थी, ध्यान में अव्यक्त बाबा के पास जाया करती थी। उसको बाबा ने कहा, जाओ बाबा के पास और सुनाओ कि यहाँ यह झाड़ बन रहा है, उसमें आठ बच्चों के चित्र बनाने हैं तो कौन-से बच्चे यहाँ बिठायें, उनके नाम आप बता दीजिये। फिर संतरी बहन अव्यक्त बाबा के पास गई और बाबा से आठ बच्चों के नाम ले आई और साकार बाबा को बताया। दूसरे दिन बाबा ने मुझे वे आठ नाम दिये। वे थे-दीदी मनमोहिनी, दादी प्रकाशमणि, दादी बृजइन्द्रा, दादी ध्यानी, दादी शान्तामणि, दादी बृजशान्ता, भाऊ विश्वकिशोर और विश्वरत्न। मैंने फिर तीन दादियाँ और एक भाई के फोटो बाईं तरफ और तीन दादियाँ और एक भाई के फोटो दाईं तरफ वहाँ संगम पर लगा दिये। ऐसे आठ बच्चों के फोटो लगा दिये। ऐसे रोज-रोज बाबा नई-नई बातें बताता रहा, बाबा की बुद्धि चलती रही और मेरी बुद्धि को भी बाबा टच करते रहे और मेरी अंगुली में शक्ति भरते रहे। ज्ञान में आने से पहले यह आर्ट का काम मैंने कभी किया ही नहीं था, ब्रश भी कभी अपने हाथ में नहीं उठाया था। एक गाँव का छोरा था लेकिन करन-करावनहार बाप हर बच्चे की जन्मपत्री को जानते हुए मुझ आत्मा द्वारा यह आर्ट का कार्य कराते रहे, शक्ति भी भरते रहे जिससे इस कार्य में सफलता मिलती रही।

झाड़ के बारे में बाबा के डायरेक्शन

फिर बाबा ने कहा, मम्मा-बाबा के पीछे से कंबाइंड स्वरूप चतुर्भुज का चित्र बनाओ। मैं वह चतुर्भुज का चित्र बनाकर ले आया। फिर बाबा ने कहा, नया झाड़ जैसे उत्पन्न होता है तो पहले दो पत्ते निकलते हैं, ऐसे यहाँ इस चतुर्भुज से दो पत्ते अर्थात् राधे-कृष्ण निकलते हैं, ऐसे दो पत्ते बनाओ। फिर वह राधे-कृष्ण का चित्र बनाया। फिर बाबा ने कहा कि सतयुग की सीन बनाओ, गोल्डन महल बनाओ। त्रेता की भी सीन बनाओ, जिसमें राम-सीता को बिठाओ। सतयुग-त्रेता की वह सीन भी बनाई। फिर बाबा ने कहा, द्वापर से भक्ति-मार्ग शुरू होता है, तो भक्ति मार्ग के चित्र बनाओ। पहले शिवलिंग की पूजा होती है, फिर देवताओं की। फिर आगे चलकर कलियुग में झाड़ की भी पूजा होती है। ये सभी चित्र भी बनाता गया। फिर बाबा ने कहा, सृष्टि के अंत में ब्रह्मा बाबा का खड़ा चित्र बनाओ। वह भी बनाया। फिर बाबा ने कहा, हर धर्म की डाल की आदि में उनके डिवाइन फादर, उनके मस्जिद, गिरजाघर आदि पूजा के स्थान बनाओ। वे भी बनाये। फिर कहा, हर डाल से लटके हुए फल, उन्हों के फालोअर्स के निकालो। वह भी जिस-जिस धर्म की डाल थी, उन्हों के ऐसे-ऐसे फालोअर्स (मनुष्य के रूप में) के चित्र फल के रूप में लटकते हुए दिखाये। फिर बाबा ने कहा, कलियुग की छोटी डालियों में से भी एक डाली में गांधी का चित्र बनाओ, एक में जिन्ना का चित्र बनाओ। वे भी बनाये। फिर बाबा ने कहा, एटामिक वर्ल्ड वार का चित्र बनाओ और दोनों तरफ उन्हों को बिल्लों के रूप में दिखाओ अर्थात् दो बिल्ले लड़ रहे हैं और माखन (नई सृष्टि की राजाई) कृष्ण के हाथ में दिखाओ। आत्मायें कैसे मच्छरों सदृश्य अपने घर मुक्तिधाम में जा रही हैं, वह भी दिखाओ। प्राकृतिक आपदायें और गृहयुद्ध आदि सब दिखाओ। तो ये सभी चित्र भी बनाये। वर्ल्ड वार में बिल्लों के रूप में एक तरफ रूजवेल्ट का चित्र बनाया और दूसरी तरफ स्टालिन का चित्र बनाया क्योंकि उन दिनों में एक-दूसरे के सामने यही थे। झाड़ के चित्र के दोनों तरफ इसकी समझानी की लिखत भी लिखी गई। ऐसे एक मास तक झाड़ के चित्र में सुधार होता रहा। प्यारे बाबा मुझको डायरेक्शन्स देते रहे और मैं उस अनुसार झाड़ का चित्र बनाता गया।

मम्मा ने सब सुविधायें प्रदान की

एक मास के बाद बाबा ने कहा कि अब इस झाड़ में सारा ज्ञान समाया हुआ है। अब मुझे ऐसे बहुत चित्र चाहिएँ जो मैं सभी मंत्रियों को भेजूँ और ये मुझको जल्दी ही चाहिए। फिर जल्दी-जल्दी में कह दिया कि बस मुझे दस दिन के अंदर एक दर्जन चित्र तैयार करके दे दो। मैंने कहा, हाँ बाबा, बना देंगे। मैं बाबा को कभी ना तो करता ही नहीं था। बाद में मैंने सोचा कि बाबा को मैंने हाँ की है तो दस दिन के अंदर 12 झाड़ के चित्र तैयार करने ही हैं लेकिन अंदर में यह भी सोच रहा था कि कैसे बनाऊँ, क्या करूँ क्योंकि एक-एक झाड़ का चित्र तैयार करने में कम से कम चार-पाँच दिन लग जायेंगे तो 12 चित्र तैयार करने में तो बहुत दिन लग जायेंगे। लेकिन अंदर में दृढ़ संकल्प था कि तैयार करना ही है। ये दृढ़ संकल्प रखकर मैं मम्मा के पास गया और कहा, मम्मा, बाबा ने यह कार्य दिया है कि दस दिन के अंदर 12 झाड़ के चित्र बना दो जो मंत्रियों आदि को भेजेंगे। मम्मा ने कहा, हाँ भले बनाओ, तुमको इसके लिए क्या चाहिए? मैंने कहा, मम्मा, मदद चाहिए। मम्मा ने कहा, मदद करने वाले भाई तो थोड़े ही हैं, वे सभी बाहर की खरीदारी आदि के कार्यों में बिजी हैं, वे तो तुमको मदद नहीं कर सकेंगे, बाकी यहाँ बहनें हैं, वे डिजाइन आदि का कुछ भी नहीं जानती हैं, वे तुमको कैसे मदद कर सकेंगी? मैंने कहा, मम्मा, आप मुझको केवल 5-6 हैण्डस दे दीजिये, फिर मैं उनको डिजाइन बनाना सिखाऊँगा भी और उन्हों से कार्य भी कराऊँगा। फिर तो मम्मा ने 5-6 बहनों को बुलाया और उन्हों को कहा कि विश्व रत्न को इस कार्य में मदद करो। जैसे वह कहे, वैसे करते रहना।

झाड़ डिपार्टमेन्ट बन गया

मम्मा ने एक बड़ा कमरा भी उसी कुंज भवन में दे दिया और बड़े तीन-चार टेबल भी रखवा दिये। मैंने उन 3-4 टेबल के ऊपर की लकड़ी के पाटिये निकलवा दिये और उनकी जगह मोटे शीशे रखवा दिए। उस पर एक-दो बने हुए चित्र रखे, उसके ऊपर ड्राइंग पेपर रखा। नीचे से टेबल लैम्प रखकर लाइट ऑन कर दी तो ऊपर से पेपर पर वह डिजाइन दिखाई पड़ने लगी। इस प्रकार बहनों को ट्रेसिंग करना सिखाया। एक बहन को कहा कि ये जो सभी लाइन्स हैं, आप सिर्फ वे पेन्सिल से लगाती जाओ। दूसरी बहन से कहा कि जो ये पत्ते दिखाई पड़ते हैं, इन्हें आप हरी स्याही से भरते जाओ। ऐसे-ऐसे सभी बहनों को कार्य दे दिया। बाकी जो चेहरे आदि थे, वे मैं बनाता गया। फालोअर्स के फीचर्स भी मैं बनाता गया। ऐसे रोज़ 8-10 घंटा कार्य करते दस दिन में 12 चित्र तैयार कर बाबा के हाथ में दे दिये। बाबा देखकर बड़े खुश हुए। मुझे इस पर शाबाशी दी। फिर तो बाबा ने कहा, और भी चित्र बनाते जाओ। फिर मैंने अन्य बहनों को भी ये चित्र बनाना सिखा दिया। ऐसे ये दस-बारह बहनों का ‘झाड़ डिपार्टमेन्ट’ बन गया।

चक्र के चित्र का डिजाइन

थोड़े ही समय के बाद बाबा ने क्लास में मुरली चलाते समय कहा, ‘जैसे झाड़ में यह समझानी दी जाती है कि यह सृष्टि कैसे आदि से अंत तक चलती है अर्थात् सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग चलते हैं और फिर रिपीट होते हैं, ऐसे ही यह सारा ज्ञान चक्र के रूप में समझाना चाहिए। फिर बाबा ने कहा कि मैं आप सभी बच्चों को लेख (Essay) देता हूँ। आप सभी ऐसे चक्र की डिजाइन बनाकर कल यहाँ ले आना जिसमें सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग दिखाना और फिर रिपीट कैसे होते हैं, वह भी दिखाना। फिर तो सभी भाई- बहनें, अपनी-अपनी रीति से डिजाइन बनाकर दूसरे दिन क्लास में ले आये। मैंने जो डिजाइन बनाई थी, उसमें चक्र उल्टे तरफ अर्थात् बाईं तरफ घूमता हुआ दिखाया था। चंद्रहास भाई ने मेरे जैसा ही डिजाइन बनाया लेकिन चक्र राइट की तरफ घूमता हुआ दिखाया। बाबा ने सभी का डिजाइन देखा और कहा कि दो डिजाइन ठीक बने हुए हैं, एक चन्द्रहास बच्चे का और दूसरा विश्वरत्न बच्चे का। लेकिन विश्वरतन के डिजाइन में चक्र उल्टा चल रहा है, इसलिए वह डिजाइन ठीक नहीं है। बाकी चन्द्रहास का डिजाइन ठीक है और चक्र भी सुल्टा चलता हुआ दिखाया है, इसलिए चन्द्रहास पास हो गया है। 

फिर तो बाबा ने मुझे कहा कि अब तुम इस चन्द्रहास के डिजाइन को ठीक रीति से बनाकर, गोल्डन, सिल्वर, कॉपर, आयरन आदि सभी युगों में ऐसे रंग देकर अच्छा चित्र बनाओ। उसमें लक्ष्मी-नारायण, सीता-राम के चित्र भी बनाओ और फिर धर्मपिताओं के चित्र भी दिखाओ। मतलब ऐसे सारा डिजाइन ठीक रीति से बनाओ। फिर तो मैंने वह चक्र का डिजाइन बनाना शुरू किया। उसमें भी बाबा डायरेक्शन देते रहे, रिफाइन कराते रहे। उसमें धर्मशास्त्र गीता, बाइबिल आदि भी दिखाया। संगमयुग भी दिखाया गया। अंत में आत्मायें कैसे उड़ती हुई अपने घर वापस जा रही हैं, फिर चक्र कैसे रिपीट होता है; ये सब राज़ उस चक्र के रूप में दिखाये गये। इस प्रकार, चक्र का डिजाइन भी थोड़े ही दिनों में अच्छा तैयार हो गया।

बृजकोठी में बाबा के अंग-संग रहने का सौभाग्य

माउंट आबू में जब हम सभी आये, तब सभी एक ही बृजकोठी (राजा बृजेन्द्र सिंह, भरतपुर का बंगला) में रहने लगे। करांची में तो हमारे 7-8 बंगले थे। आरंभ में तो 350 के लगभग भाई-बहनें थे। पाकिस्तान होने के बाद धीरे-धीरे कोई-कोई अपने सम्बन्धियों के पास मुंबई में चले गये। माउंट आबू में आने के बाद फिर अन्य और भी अपने संबंधियों के पास चले गये। बाकी हम 200 के लगभग रह गये जो बृजकोठी में रहने लगे। बाबा भी इसी बृजकोठी में अलग कमरे में रहते थे। एक ही बंगले में बाबा और बच्चों का साथ में रहना, सभी बच्चों को सारा दिन बाबा के साथ का अच्छा अनुभव होता रहा। बाबा रोज़ सवेरे क्लास में मुरली चलाने आते थे। फिर क्लास के बाद बाबा के साथ 50-60 भाई-बहनें घूमने जाते थे। बाबा कहते थे, जो भी घूमने चले, वे शर्ट एण्ड शॉर्ट पहन कर चलें और टेनिस शू पहन कर चलें। चप्पल पहन कर चलने की आज्ञा नहीं थी। इसलिए सभी भाई-बहनें इसी ड्रेस में चलते थे। ड्रेस भी यूनिफार्म बनाई थी। शर्ट सफेद और शॉर्ट नीली थी। सभी इस यूनिफॉर्म में चलते थे। बाबा स्वयं भी शर्ट एण्ड शॉर्ट पहन कर ही चलते थे लेकिन बाबा की शॉर्ट सफेद थी। उन दिनों में माउंट आबू में ये बृजकोठी शहर से थोड़ा दूर, लास्ट बंगला था यानि इस बंगले के बाद में आबादी नहीं थी। जो रास्ता नीचे आबू रोड जाता है, वही रोड है। हम सभी घूमने शहर की तरफ नहीं जाते थे, लेकिन पहाड़ों की तरफ जाते थे। कभी कोई पहाड़ पर, कभी कोई पहाड़ पर। ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों पर भी चढ़ जाते थे। सवेरे बाबा तेज चलते थे। अन्य भाई- बहनों को कब-कब दौड़कर चलना पड़ता था। शाम को भी बाबा और हम भाई-बहनें घूमने जाते थे। लेकिन शाम को शर्ट एण्ड शॉर्ट पहन कर नहीं जाते थे। साधारण ड्रेस में जाते थे और तेज नहीं चलते थे लेकिन धीरे-धीरे चलते थे। पहाड़ों पर नहीं जाकर, सीधे रास्ते पर जाते थे। टोल टैक्स तक जाकर वापस आ जाते थे। बाकी सवेरे तो बाबा हमको कभी किस पहाड़ी पर, कभी किसी पहाड़ी पर ले जाते थे। कभी वाटर वर्क्स की पहाड़ी पर, कभी अपर गोदरा डेम पर भी जाते थे। कभी अच्छी-सी पहाड़ी पर बैठकर बाबा क्लास भी कराते थे।

पहाड़ों की सैर

एक पहाड़ी जो समतल थी, उस पर कभी-कभी फुटबॉल, किक्रेट आदि भी खेलते थे। ऐसे बाबा के साथ सभी बहुत खुशी का अनुभव करते थे। जब किसी नये पहाड़ पर जाते थे, तब बाबा मुझे कहते थे कि तुम आगे-आगे चलो, गाइड बनो, रास्ता निकालो कि कहाँ से रास्ता ऊँची चोटी पर जाता है। तो मैं आगे-आगे चलकर रास्ता निकालता था और फिर सब मेरे पीछे आते थे। फिर लौटते समय बाबा मुझे कहता था, अब गार्ड बनो, सभी के पीछे अंत में आओ, तो मेरी गइयाँ (मातायें-बहनें) कहाँ पीछे पहाड़ों में रह न जायें, गुम न हो जायें। तो फिर मैं सभी के पीछे-पीछे आता था। ऐसे हम बाबा के साथ सवेरे सैर करते माउंट आबू की सभी ऊँची-ऊँची पहाड़ियों पर गये। वहाँ पर कभी-कभी चेरी-करौंदा, केरी (कच्चे आम) झाड़ों से तोड़कर खाते भी थे और साथ में भी ले आते थे, घर में बैठे भाई-बहनों को खिलाने के लिए।

रोड आदि बनाने की सेवा

ऐसे रोज़ एक-डेढ़ घण्टा या कभी दो घण्टे बाद लौटकर नौ-साढ़े नौ बजे नाश्ता करते थे। नाश्ता करने के बाद बाबा मुझे कहते थे, बच्चू, अब ले आओ अपनी सेना (ग्रुप) को। मैं जैसेकि मॉनीटर था। मैं जाकर इशारा करता था कि चलो, अब बाबा बुलाता है। तो 20-25 भाई-बहनों की पार्टी उसी शर्ट एण्ड शॉर्ट की ड्रेस में बाहर आ जाते थे। बाबा रोज़ कोई न कोई कार्य देता था। फिर सभी मिलकर वह कार्य करते थे। कभी बाहर के कंपाउंड में बाथरूम बनाते थे। कोई ईंट, कोई सीमेन्ट ले आते थे, कोई मिस्त्री बनकर दीवार उठाता था। कोई फिर बाथरूम के दरवाजे टिन शीट आदि के बनाते थे। ऐसे बाथरूम आदि तैयार करते थे। कभी बाबा हमारे से रोड आदि बनवाता था। हर वर्ष बरसात के कारण रोड (मेन रोड से बंगले तक) खराब हो जाती थी तो उसे हम ही हर वर्ष अपने हाथों से बनाते थे। बाबा भी उसी ड्रेस में वहाँ खड़े होकर देखभाल करते थे। ऐसे सारा दिन यह कार्य-पार्टी (सेना) कोई न कोई कार्य करती थी। कार्य करते बाबा को भी सदा साथ देखते अंदर ही अंदर खुशी में जैसे कि नाचते थे।

आबू से बाहर बहनों का सेवा पर जाना

एक-डेढ़ वर्ष के बाद यहाँ इकानॉमी का पार्ट शुरू हो गया, तो बाबा ने बहनों को कहा कि अब जाओ ईश्वरीय सेवा पर, यहाँ बैठ कर क्या करेंगी, इनसे तो बाहर जाकर लोगों का कल्याण करो। यह अविनाशी ज्ञान सुनाकर उन्हों का भाग्य बनाओ। फिर तो बहनें धीरे-धीरे ईश्वरीय सेवा पर बाहर निकली। पहले दिल्ली में जाकर ईश्वरीय सेवा शुरू की। धीरे-धीरे सेवा बढ़ती गई, पंजाब और उत्तर प्रदेश की तरफ भी सेवा चालू हो गई। सेवा बढ़ने के कारण अन्य बहनों को बुलाना शुरू हो गया। तो बाबा बहनों को बाहर भेजता गया। एक दिन मिट्ठू बहन, जो बाबा की डिस्पेन्सरी संभालती थी, को भी बाबा ने कहा, तुमको भी ईश्वरीय सेवा पर बुला रहे हैं, तुम भी जाओ, मैं तुम्हारी यह डिस्पेन्सरी संभालूँगा। फिर तो बाबा ने मुझे बुलाया और कहा, बच्चू, यह डिस्पेन्सरी तुम संभाल लेना। यह (मिट्ठू बहन) जा रही है सर्विस पर। मैंने कहा कि हाँ बाबा, संभाल लूँगा। फिर मिट्ठू बहन ने मुझे डिस्पेन्सरी में जाकर सभी दवाइयाँ दिखाई और बताया कि जिसको बुखार हो, उसे यह गोली देना। जिसको सिर दर्द हो, उसे यह गोली देना। जिसको पेट में दर्द हो, उसे यह गोली देना। ऐसे सभी दवाइयाँ बताईं। इंजेक्शन कैसे सीरिंज में भरा जाता है और कैसे फिर इंजेक्शन लगाया जाता है, वह भी बताया। फिर तो मिट्ठू बहन के सामने ही एक-दो को मैंने इंजेक्शन लगाया। ऐसे सीख गया।

डिस्पेन्सरी की सेवा

मिट्ठू बहन के जाने के बाद मैंने दवाइयाँ देना आरंभ कर दिया। जो भी पेशेन्ट आता था, उसको प्यार से पूछता था कि बहन जी, भाई जी, बताइये क्या तकलीफ है? वे बीमारी बताते थे। मैं उनको कहता था, बस, अच्छा, यह गोली ले लो, शाम तक ठीक हो जायेंगे। सचमुच बाबा की ऐसी मदद मिलती रही जो शाम तक वह पेशेन्ट ठीक हो जाता था। सवेरे मैं उनसे पूछता था, कैसी तबीयत है? वे कहते थे, नहीं, अब जरूरत नहीं है। ऐसे डिस्पेन्सरी को चलाता रहा। यदि ऐसा कोई पेशेन्ट आता था जिसको कोई बड़ी बीमारी होती थी तो उसको सरकारी अस्पताल ले जाता था और वहाँ के डाक्टर को दिखलाकर उनसे दवाई लिखवाकर बाजार से वे दवाइयाँ खरीद कर उनको दे देता था। वह पेशेन्ट संतुष्ट रहता था। इस तरह मैं भी डाक्टरों के कनेक्शन में आते-आते डाक्टर बन गया। कई दवाइयाँ बुद्धि में रहती थी और हजारों इंजेक्शन लगाये। इस प्रकार लगभग 25 वर्ष तक यज्ञ का डाक्टर बनकर रहा।

विभिन्न विभागों के अनुभव

माउंट आबू में आने के बाद कई भाई-बहनें अपनी तबीयत आदि के कारण या ईश्वरीय सेवा अर्थ मुंबई की तरफ चले गये और वहाँ ही अपने मित्र-संबंधियों के पास रहना आरंभ कर दिया। यहाँ माउंट आबू में वापस ही नहीं आये। ऐसे ही कारपेन्टरी डिपार्टमेन्ट वाले भाई भी मुंबई चले गये तो बाबा ने मुझे कहा, यह डिपार्टमेन्ट भी तुम संभालो। मैं तो सदैव हाँ जी, हाँ जी ही करता था। कोई बिजली डिपार्टमेन्ट वाला चला गया तो भी बाबा ने कहा कि यह भी तुम संभालो। ऐसे अनेक कार्य मिलते रहे। रात को पहरा भी देता था। आधा समय मैं पहरा देता था और आधा समय सरदार सोहन सिंह (जो बाद में पंजाब से आकर समर्पित हुए थे) पहरा देते थे। यहाँ माउंट आबू में भी सवेरे स्नान के लिए गर्म पानी करने की ड्यूटी भी करता रहा। ऐसे अनेक प्रकार के कार्य मिलते रहे और मैं सदैव हाँ जी, हाँ जी का पार्ट बजाते हुए करता रहा। दिन में आराम नहीं करता था। प्यारे बाबा का मेरे में विश्वास हो गया था कि इस बच्चे (मुझे) को जो कुछ कहता हूँ, सदैव हाँ जी करता है, कभी ना नहीं करता है और कार्य भी अपनी बुद्धि अनुसार ठीक ही करता है। सच्चाई-सफाई से भी करता है, आज्ञाकारी-ईमानदार बच्चा है। इसलिए जो भी नया कार्य होता था तो मुझे ही बुलाकर कहते थे कि यह कार्य तुमको करना है। मुझे कार्य देने के बाद बाबा खुद निश्चिन्त हो जाते थे। इसके साथ चित्र बनाने का कार्य भी करता रहा। रोज़ पोस्ट डालकर आना, बाज़ार से खरीदारी करके आना आदि-आदि ड्यूटी भी करता रहा।

बर्तन सफाई

यहाँ बृजकोठी में घर के कमरों आदि की सफाई भी अपने ही भाई-बहनें करते थे। एक बाहर की माता कमरों के बाहर की सफाई आदि करने के लिए रखी हुई थी और एक नौकर भाई भण्डारे के बड़े-बड़े बर्तन सफाई करने के लिए रखा हुआ था। एक दिन वह नौकर बीमार हो गया, आना ही बंद कर दिया। बाबा ने मुझे बुलाया और कहा, बच्चू, ये भण्डारे के बर्तन तुम ही साफ कर देना। मैंने कहा, हाँ बाबा, मैं साफ कर दूँगा। मुझे बड़ी खुशी हुई कि बाबा का मेरे में कितना विश्वास है। बाबा जरूर दिल में समझता होगा कि ऐसे कार्य के लिए इस बच्चे (विश्वरत्न) को कहूँगा तो इसको अंदर में फीलिंग नहीं आयेगी, खुशी-खुशी से दिल लगाकर कार्य करेगा। मेरे से सच पूछो तो उस दिन मुझे बहुत खुशी हुई। अंदर में सोचता ही रहा कि किसने मुझे यह कार्य दिया है, स्वयं बापदादा ने! मैं कितना भाग्यशाली हूँ जो स्वयं बापदादा का इतना मेरे में विश्वास है! बस, यही सोचते सारा दिन बापदादा की ही याद आती रही। यह तो मेरा शुरू से ही स्वभाव था कि हर कार्य में टाइम अधिक लगाता था, धीरे कार्य करता था लेकिन कार्य बहुत अच्छी रीति से संपन्न करता था। तो बर्तन साफ करने का कार्य भी हाथों से अच्छी रीति होता रहा लेकिन बुद्धि फ्री थी क्योंकि बर्तन साफ करने में बुद्धि इतनी नहीं लगानी पड़ती थी इसलिए बुद्धि से बापदादा को बड़ी अच्छी रीति से याद करता रहा और बापदादा को अपने साथ, अपने सामने देखता रहा। जैसे कहावत है, ‘हाथ कार्य में और दिल यार में’ अर्थात् हाथ से कार्य करें और दिल बाबा की तरफ लगी रहे। सारा दिन इस ड्यूटी को बजाते हुए जैसेकि एकांत में योग में ही बैठा रहा। ऐसे एक मास वह नौकर नहीं आया और मैं एक मास तक इस ड्यूटी पर रहा। सच तो यही है कि आज दिन तक जो भी ड्यूटी बजाई हैं और अब तक बजा रहा हूँ, उन सबमें सबसे अच्छा अनुभव इसी ड्यूटी में रहा और बहुत अच्छी अतीन्द्रिय सुख की अनुभूति हुई। वहाँ किचन में पीछे की ओर एकांत में ही बर्तन सफाई करने होते थे, वहाँ किसी का आना-जाना नहीं होता था इसलिए अच्छे से बापदादा को याद करता रहा।

दिल्ली में सेवा के लिए जाना

थोड़े समय के बाद दिल्ली में ईश्वरीय सेवा बढ़ गई, वहाँ बहनों ने कमला नगर में एक फ्लैट किराये पर लिया और सेवा करने लगे। बड़ी दीदी मनमोहिनी जी भी उन दिनों वहाँ ही थी। जैसे-जैसे सेवा आगे बढ़ती गई तो बहनों को बाज़ार से सामान आदि खरीद करने, कहीं संदेश देने आदि के लिए एक भाई को साथी बनाने की आवश्यकता हुई। बाबा ने मुझे बुलाया और कहा, दिल्ली में बहनों को सेवा में मदद करने के लिए एक भाई चाहिए, इसलिए तुम दिल्ली जाओ और उनको मदद करो। फिर मैं दिल्ली गया, वहाँ बाहर आना-जाना, सेवा करना शुरू कर दिया। दिल्ली में उस समय एक ही कमला नगर का सेन्टर था, वहाँ जाकर रहा। वहाँ साइकिल पर सब्जी मार्केट में जाकर सब्जियाँ खरीदकर ले आना, अन्य भी चीजें बाज़ार से खरीद कर लाना शुरू कर दिया। हमारे सेन्टर पर जो बाहर के जिज्ञासु ज्ञान सुनने के लिए आते थे, उन्हों को सप्ताह का कोर्स भी कराता था। ऐसे बहनों को हर प्रकार की मदद करता रहा। एक भाई अविनाश चन्द्र सेन्टर पर आता था। उससे मेरी अच्छी पहचान हो गई। कभी-कभी उसको साथ में लेकर साइकिल पर गाँव में जाते थे और खेतों में जाकर सब्जियाँ भी खरीद कर ले आते थे और कभी गुड़ बनाने की फैक्ट्री से गुड़ खरीद कर बोरियाँ भरकर ले आते थे जो माउंट आबू भेज देते थे।

सन् 1955 में हम लोगों ने बृजकोठी का मकान छोड़ दिया और शहर की तरफ दो बंगले कोटा हाऊस और धौलपुर हाऊस किराये पर लेकर रहने लगे। दोनों बंगलों के बीच में एक कच्चा रास्ता था जिससे एक बंगले से दूसरे बंगले में आते-जाते थे। दोनों बंगले साथ-साथ थे। मैं फिर वहाँ रहने लगा और वहाँ भी सवेरे पानी गर्म करने की ड्यूटी, डिस्पेन्सरी में दवायें देने आदि की ड्यूटी और चित्रों का कार्य संभालता था। 

सन् 1957 में माउंट आबू में गवर्मेन्ट ने हमारे दोनों बंगलों का अधिग्रहण किया क्योंकि उन्हों को ये दोनों बंगले ऑफीसर्स आदि के रहने के लिए चाहिए थे। इसलिए उन्होंने कहा कि आप दूसरा कोई रहने का स्थान ढूँढ़ो और वहाँ जाकर रहो, ये दोनों बंगले हमको चाहिए। तब बाबा ने यह पोखरन हाऊस (पांडव भवन) लिया और हम लोग यहाँ आकर रहे। मैं तो उन दिनों दिल्ली में था। 

डिस्पेन्सरी को संभालते हुए मैं एक घरेलू डॉक्टर बन गया। तो बाबा को भी इंजेक्शन लगाता रहा। बाबा रोज़ दो बार स्नान करते थे। एक बार सवेरे क्लास में आने के पहले और दूसरी बार दिन में भोजन के पहले। पहले बाबा की मालिश तथा स्नान आदि कराने का कार्य भी मैं करता था परंतु बाद में यह ड्यूटी चन्द्रहास भाई ने ले ली। जब हम लोग करांची में थे, उस समय जो भाई थे, उन सभी ने मिलकर सोचा कि हमारे सिर के बाल बाहर का कोई नाई क्यों काटे। क्यों नहीं हम लोग बाल काटना सीखकर एक-दो के बाल काटें। यह निश्चय करने के बाद बाल काटने की मशीन मंगाई गई और चार-पाँच भाई बाल काटना अच्छी तरह से सीख गये। उन भाइयों में से एक मैं भी था। हम चार- पाँच भाई सभी भाइयों के बाल काटते थे। धीरे-धीरे वे भाई अपने इस ब्राह्मण परिवार को छोड़कर अपने मित्र-संबंधियों के पास चले गये, बाकी मैं ही अकेला रह गया। यह भी मेरा एक सौभाग्य ही रहा जो बाबा के बाल काटने का शुभ अवसर भी मुझे ही मिला।

ऐसे बापदादा के साथ यह मेरा अलौकिक नया जीवन चलता रहा और मैं बापदादा की हर श्रीमत को सच्चाई और सफाई से पूर्ण रूप से पालन करने की कोशिश करता रहा जिस कारण बापदादा की हर प्रकार से मदद भी मुझे मिलती रही और इस कारण सफलता भी मिलती रही।

मातेश्वरी जी का देह-त्याग

24 जून, 1965 में प्यारी मम्मा ने अपनी पुरानी देह का त्याग किया। उसके बाद 12 फरवरी, 1968 को मुंबई में भाऊ विश्वकिशोर ने देह का त्याग किया, उनका अंतिम संस्कार मुंबई में हुआ। 

बाबा अव्यक्त हुए

अठारह जनवरी, 1969 को प्यारे ब्रह्मा बाबा सवेरे क्लास में नहीं आये। शाम को बाबा ने आधा घण्टा बहुत अच्छी मुरली चलाई और फिर अंत में याद-प्यार नमस्ते कहने के बाद कहा, अच्छा, अब छुट्टी। यह ‘छुट्टी’ पहले बाबा कभी नहीं कहते थे। उस दिन यह ‘छुट्टी’ अक्षर बोलकर क्लास के बाहर आये। उस समय लगभग रात्रि के नौ बजे थे। मैं भी क्लास से उठकर बाहर आया। बाबा ने मुझे देखकर कहा, बच्चू, डॉक्टर को बुलाओ, मुझे चेक करके जाये। मैंने उसी समय जमुनाप्रसाद भाई को साइकिल पर भेजा (उन दिनों हमारे पास एक भी कार नहीं थी) और उसको कहा कि जल्दी ही अभी-अभी डॉक्टर को यहाँ ले आओ, बाबा को चेक करके जाये। जमुनाप्रसाद भाई उसी समय साइकिल पर गया और डॉक्टर को चलने के लिए कहा। उन दिनों सिविल हॉस्पिटल के डॉक्टर अरोड़ा जी थे। उस समय वे घर में ही थे। डॉक्टर ने कहा, हाँ, बस सिर्फ चाय पीकर चलता हूँ। इधर बाबा आकर अपने पलंग पर लेट गया। बाबा के कमरे में दादी प्रकाशमणि और अन्य थोड़ी बहनें और मैं खड़े हुए थे। मैं बाबा को देखता रहा। मैंने देखा कि बाबा अपना एक हाथ हार्ट पर रखकर कभी लेट जाते थे और कभी बैठ जाते थे। मैंने ऐसे अनुभव किया कि बाबा को बहुत दर्द है और रेस्टलेस फील कर रहे हैं। मैं जल्दी-जल्दी कमरे से बाहर आया कि जमुनाप्रसाद को फोन करूँ कि जल्दी डॉक्टर को ले आओ। मैने हॉस्पिटल में फोन किया परंतु वहाँ किसी ने फोन नहीं उठाया। उस समय डॉक्टर के घर में फोन नहीं था। फिर मैंने सरदार नेवन्द सिंह की दुकान पर फोन किया जो हॉस्पिटल के सामने ही थी। वहाँ सरदार जी का बच्चा दयाल सिंह बैठा था, उसको कहा कि आप जाकर जल्दी ही डॉक्टर को भेजो, बाबा को अधिक तकलीफ है। वह तुरंत ही डॉक्टर के पास गया। उस समय डॉक्टर चाय पी चुके थे और तुरंत अपने स्कूटर पर यहाँ आये। मैने इसके बीच ही कोरामिन की इंजेक्शन निकाल कर रखी और सिरिंज भी उबाल कर रखी थी। मैंने सोचा कि शायद डॉक्टर को इस इंजेक्शन की आवश्यकता हो। फिर आकर बाहर गेट पर खड़ा हो गया, उसी समय डॉक्टर आ गया। मैंने डॉक्टर को कहा, आप जल्दी ही अंदर चलिये, बाबा को बहुत दर्द हो रहा है। डॉक्टर अंदर आया, कमरे में अंदर आते ही बाबा की तकलीफ को देखकर डॉक्टर डर गया। डॉक्टर सवेरे भी बाबा को चेक करके गया था, उस समय ऐसा कुछ नहीं था। मैं भी डॉक्टर के साथ ही था तो क्या देखा कि बाबा का बायाँ हाथ अपने हार्ट पर है और दायाँ हाथ दादी प्रकाशमणि के हाथों में है, आँखें बंद हैं। ऐसा दृश्य देखकर डाक्टर ने तुरंत मेरे से कोरामिन इंजेक्शन लेकर बाबा को इंजेक्शन लगाया लेकिन बाबा तो पहले ही देह का त्याग कर ऊपर सूक्ष्म वतन में चले गये थे। फिर तो बाबा को पलंग पर लिटा दिया। डॉक्टर को भी बड़ा दुख हो रहा था कि मैंने आने में देरी की। अगर थोड़ा जल्दी आ जाता तो ऐसा नहीं होता। तो वह ‘सॉरी’ बोलकर चला गया। डॉक्टर अरोड़ा के पहले इस हॉस्पिटल में लेडी डॉक्टर थी, जिसने रिटायर होकर अपनी प्राइवेट हॉस्पिटल खोली थी। फिर उस लेडी डॉक्टर को बुलाया गया कि वह भी चेक करे कि सचमुच बाबा ने देह का त्याग किया है या श्वास कहाँ रुका हुआ है। उसने भी कन्फर्म किया कि बाबा ने शरीर छोड़ दिया है। फिर तो सारे बंगले में यह सूचना फैल गई और सभी के चेहरे और दिलों में दुख की लहर आने लगी। बाबा नौ बजे क्लास के बाहर आये और साढ़े नौ बजे शरीर छोड़ दिया। 

फिर दादी प्रकाशमणि जी सभी सेन्टर्स पर यह सूचना देने के लिए फोन करने आई। उसी रात को ही कोई भाई इलाहाबाद गया और जाकर बड़ी दीदी को समाचार दिया। बड़ी दीदी ने उसको कहा, यह हो नहीं सकता, तुम हमारे से मजाक करते हो। दीदी को थोड़ा शक पड़ा, इसलिए उसी समय मधुबन में फोन किया। पता लगने पर तुरंत इलाहाबाद से दिल्ली में पहुँची और वहाँ भी यही बात सुनी। दीदी ने वहाँ यह भी सुना कि कई भाई-बहनें पहले से ही मधुबन चले गये हैं। फिर दीदी दिल्ली से पहली ट्रेन से ही आबू आकर पहुँच गई। दीदी 20 तारीख को आकर पहुँची और पहुँचते ही सीधी छोटे हॉल में गई, जहाँ बाबा के शरीर को रखा हुआ था। बाबा के शरीर को पहले दिन तो बाबा के कमरे में ही रखा था परंतु दूसरे दिन छोटे हॉल में रखा था, जिससे सभी भाई-बहनें बाबा के शरीर को देख सकें। वहाँ बाबा के शरीर को देखकर, दीदी जी काफी देर खड़ी होकर पता नहीं क्या-क्या सोचती रही जैसे कि अपने शरीर से न्यारी होकर, अशरीरी होकर खड़ी थी।

उन्नीस जनवरी को सभी तरफ की बहनें और भाई आने लगे। एक हजार से अधिक भाई-बहनें इकट्ठे हो गये। इतने लोगों के रहने की जगह तो थी नहीं। उन दिनों ट्रेनिंग सेक्शन बन रहा था। नीचे वाले कमरे बन गये थे, बाकी ऊपर वाले कमरों की दीवारें उठ चुकी थी, छत पड़ना बाकी था। तो भाई-बहनों को जहाँ भी थोड़ी जगह मिलती थी वहीं बैठ जाते थे और सो जाते थे। उस समय ठंडी भी बहुत थी लेकिन थोड़ी- सी जगह में भी संतुष्ट थे। 

उन्नीस तारीख को सन्तरी दादी के तन में अव्यक्त बापदादा की प्रवेशता हुई और मुरली चलाई और बच्चों को सांत्वना दी कि मैं कहीं नहीं गया हूँ, मैं तो आपके साथ हूँ और सदा आपके साथ ही रहूँगा, साथ में ही हम सभी वतन में चलेंगे। मैंने सिर्फ ये व्यक्त पार्ट बदलकर अव्यक्त पार्ट बजाना शुरू किया है। अव्यक्त बापदादा ने दादियों से भी अलग बैठकर उन्हों को डायरेक्शन दिये कि इसके बाद कैसे-कैसे कारोबार चलानी है, कौन-कौन इसके लिए निमित्त बनेंगे आदि-आदि। ब्रह्मा बाबा की देह के अंतिम संस्कार के लिए भी डायरेक्शन दिये कि लौकिक बच्चा नारायण और अलौकिक बच्चा विश्वरत्न दोनों मिलकर अंतिम संस्कार करें। 

यह तो मैंने पहले भी सुनाया है कि इस मकान के कंपाउंड में दो टेनिस कोर्ट थे। एक टेनिस कोर्ट पर छोटा हॉल और कमरे आदि बने। दूसरा जो टेनिस कोर्ट था, उस पर बाबा ने कंस्ट्रक्शन नहीं करने दिया था। बाबा ने बोला, यह टेनिस कोर्ट ऐसे ही रहने दो। बाकी इसके साइड में भले कमरे बनाओ। तो उसके पास ही यह ट्रेनिंग सेक्शन बनाना आरंभ किया था। बीच में यह टेनिस कोर्ट की जगह खाली थी। तो अब सोचा गया कि इसी टेनिस कोर्ट के बीच में बाबा के शरीर का अंतिम संस्कार किया जाये और यहाँ ही स्मृति के रूप में यादगार बनायें। यहाँ बंगले के अंदर अंतिम संस्कार करने की छुट्टी सिरोही में पुलिस सुपरिन्टेंडेंट से ले ली गई। फिर तो उस टेनिस कोर्ट के बीच में एक थल्ला बनाया गया और अन्य सभी तैयारियाँ की गई। 

जनवरी की 21 तारीख को अंतिम संस्कार के लिए एक अर्थी बनाई गई और बाबा के शरीर को तैयार करके टेनिस ग्राउंड के पास अर्थी पर लाकर रखा गया। अर्थी को खूब फूलों से सजाया गया था। चारों तरफ बड़ी दादियाँ और बड़ी टीचर्स आदि बैठ गईं। सभी आये हुए भाई-बहनें भी खड़े हो गये। कुछ समय सभी बापदादा की याद में बैठे। फिर कुछ भाइयों ने मिलकर अर्थी को कंधे पर उठाया, आगे-आगे नारायण भाई और मैं (विश्वरत्न) था। अर्थी को उठाकर पोस्ट ऑफिस, बाज़ार आदि चक्कर लगाकर, नक्की लेक से होते हुए वापस आकर पांडव भवन पहुँचे और उस थल्ले पर लाकर रखा। थल्ले पर पहले से संस्कार के लिए लकड़ियाँ आदि रखी हुई थी। फिर ऊपर से लकड़ियाँ रखी गई। टेनिस कोर्ट के चारों तरफ उन दिनों दीवार आदि नहीं थी, इसलिए रस्सियाँ चारों तरफ लगाई गई थी और डायरेक्शन दे दिया था कि रस्सी के अंदर कोई नहीं आये। सभी भाई-बहनें रस्सियों के बाहर ही खड़े थे। सभी भाई-बहनें नंबरवार आकर चंदन की लकड़ी डालकर बाहर जाकर खड़े होते जाते थे। फिर चंदन की लकड़ी और घी आदि डालकर मुखाग्नि दी गई।

बाहर से जो भाई-बहनें आये थे, उनमें से कोई-कोई उसी दिन ही वापस चले गये और कोई दूसरे दिन वापस चले गये क्योंकि यहाँ आबू में ठण्डी बहुत थी और रहने की जगह भी इतनी नहीं थी, इसलिए सभी जाते रहे। तीन दिन के बाद बाबा की राख वहाँ ही थल्ले पर फैला कर रखी। बाद में समाधि की डिजाइन बनाई गई और मार्बल आदि मँगाकर उन पर बाबा के द्वारा उच्चारे गये विशेष महावाक्य लिखवाकर यह यादगार बनाया गया, जिसका नाम रखा गया ‘शान्ति स्तम्भ (Tower of Peace)‘। ऐसे यह सर्व प्रिय यादगार हमारे ब्राह्मण परिवार के भाई-बहनों के लिए तो क्या परंतु बाहर के लोगों के लिए भी एक तीर्थ स्थान बन गया।

संतरी दादी के तन में इन तीन दिनों में रोज़ बापदादा की प्रवेशता होती रही और बापदादा की मुरली रोज़ चलती रही। बड़ी दादियों को भी बापदादा विशेष डायरेक्शन देते रहे। बाद में तो बापदादा समय प्रति समय गुलजार दादी के तन में प्रवेश कर मुरली चलाते रहे और आज तक भी चलाते रहते हैं। ऐसे ही बापदादा हम सभी बच्चों के साथ हैं और साथ ही हम सभी को वापस ले जायेंगे।

बापदादा के डायरेक्शन अनुसार बड़ी दीदी और दादी प्रकाशमणि ईश्वरीय कारोबार और ईश्वरीय सर्विस की जिम्मेवारियाँ अच्छी रीति संभालती रहीं। साथ में बड़ी दादियाँ, बड़े भाई, बड़ी टीचर्स बहनें मददगार रहे और हैं भी। बापदादा सभी बच्चों को सकाश देते श्रेष्ठ पालना देते रहते हैं, जिससे ईश्वरीय सेवा वृद्धि को पाती जा रही है और देश-विदेश में नये-नये सेन्टर्स खुलते रहते हैं।

रमेश भाई चार्टर्ड एकाउंटेंट थे और मुंबई में उनका अपना ऑफिस था, जो कई बड़ी-बड़ी कंपनियों आदि का ऑडिट करते थे। सन् 1973 में एक दिन रमेश भाई ने दादी जी को आकर कहा कि गवर्मेन्ट का कायदा निकला है कि इंस्टीट्यूशन को भी अपने आय-व्यय का हिसाब रखना है और वर्ष के अंत में सरकार के पास देना है। तो सभी सेन्टर्स को भी यह हिसाब-किताब रखना ही है। हर मास का पोतामेल फार्म भरकर सभी सेन्टर्स वाले यहाँ मधुबन में भेजें। फिर यहाँ हम सभी सेन्टर्स का ऑडिट करके इकट्ठा हिसाब बनायेंगे। रमेश भाई ने दादी जी को कहा कि ऑडिट तो मैं कर लूँगा लेकिन मधुबन का कोई एक हेण्ड चाहिए, जो सभी सेन्टर्स के पोतामेल यहाँ आयें, उनको चेक करके भूलें आदि ठीक करा लेवे। उन दिनों में पक्के सेन्टर्स केवल 200-250 थे। हर मास में करीब 250 पोतामेल आयेंगे तो औसतन 10 पोतामेल प्रतिदिन चेक करने होंगे। यह केवल 15-20 मिनट का ही काम है। कोई ऐसा हेण्ड हो जो रोज़ 15-20 मिनट यह कार्य करे। दादी जी ने उनको कहा, विश्वरत्न को कहो, वह यह कार्य करेगा। फिर तो सन् 1973 में यह एकाउंट्स का कार्य मेरे को मिला और मैंने शुरू किया।

एकाउंटस का कार्य बढ़ता ही गया तो मुझको डिस्पेन्सरी आदि का कार्य छोड़ना पड़ा और वह कार्य अन्य डॉक्टर्स आदि संभालने लगे। वर्ष के अंत में रमेश भाई और मैं सभी सेन्टर्स के जोनल हेड क्वार्टर्स में चक्कर लगाते हुए उस जोन के संबंधित सेन्टर्स की ऑडिट वहीं करते थे। ऑडिट के लिए आवश्यक पेपर्स आदि सभी साथ में ले जाते थे।

बाकी एक ड्यूटी जो मैं 15-20 वर्ष से करता आया था, वह है अमृतवेले संदली पर बैठकर योग कराने की। यह ड्यूटी जब से प्राण बापदादा ने मीठी दीदी-दादी के द्वारा मुझे दी थी, वह अच्छी तरह से पूर्ण रीति से बजाता रहा परंतु कुछ वर्ष से यह ड्यूटी अन्य भाई-बहनें संभाल रहे हैं।

दादी जानकी, दादा विश्वरत्न के बारे में इस प्रकार सुनाती हैं –

दादा विश्व रत्न को मैं बचपन से जानती हूँ कि कैसे यज्ञ में समर्पित हुआ। कॉलेज में पढ़ने वाला कुमार था। यह एक ही भाई था जिसके लिए बाबा ने कहा था, बच्ची, यह सुखदेव है। हम सब कुमारियाँ, मम्मा के साथ कुंज भवन में रहती थी, यह भाई बीच में रहता था हमारे साथ। बाबा कहता था, इसका कभी ख्याल नहीं करना। इतनी इसकी पवित्र दृष्टि, वृत्ति थी, कभी चंचलता नहीं देखी। देह-अभिमान नहीं देखा। कभी हँसते हुए बोलते नहीं देखा। सदा योगयुक्त मुसकराते हुए देखा। ये प्रेरणा देने वाली बातें हैं। जब झाड़ बनाया, दादा डिजाइन करता था। सारा झाड़ उसकी इन्वेन्शन है। बाबा मुरलियाँ चलाता था, उस अनुसार यह बनाता जाता था। हम सबको बिठाता था, एक-एक पत्ते में हम रंग भरते थे। यह योगी था, हम भी इसके संग से योगी बनेंगे, बहनों को ऐसे मन में आता था। रात भर झाड़ बनाने की सेवा करते, विश्व रत्न दादा के संग में योग लगाने का हम बहनों को बड़ा अच्छा चांस मिला।

हर प्रकार की सेवा में ‘हाँ जी’

बाबा की मुरली एक्यूरेट लिखने में हैन्डराइटिंग बड़ी अच्छी थी। जब हम आबू आये, इसने हर प्रकार की यज्ञ-सेवा की होगी। रोटी पकाने वाला कोई नहीं है, दादा हाजिर हो जायेगा। फटाफट रोटी पकाएगा। पहले मैं नर्स थी, फिर विश्व रत्न ने ड्यूटी उठाई। किसी को कुछ भी बीमारी आये, इसके पास जाता था। इंजेक्शन लगाना सीख गया। हाथ इतना साफ था, बाबा को भी इंजेक्शन लगाता था। हर बात में एक्सपर्ट था। एकाउंट संभालता था, लास्ट तक भी उसके साइन से सारे बैंक का कारोबार चला। कुछ समय पहले से ऐसा हो गया था कि साइन नहीं कर सकता था, अंगूठे से अपना काम उतार देता था।

इतना सच्चा और समझदार, रात को दो बजे, तीन बजे उठकर गर्म पानी करता था। हम बहनों को गर्म पानी की बाल्टी देता था। तब नलके में गर्म पानी नहीं आता था। बाबा पोस्ट लिखता था, विश्व रत्न लिफाफे पर एड्रेस डालता जाता था। स्टैम्प लगाता था एक्यूरेट। फिर साइकिल पर पोस्ट ऑफिस जाकर पोस्ट डालकर आता था। एक्यूरेसी दादा में देखी। कभी खाने पर बोलते नहीं देखा। शान्ति से थाली लेकर कोने में बैठेगा, खाना खायेगा।

स्वच्छताप्रिय और यज्ञ रक्षक

एक ही यह भाई था जो बाबा की तरह टांग पर टांग चढ़ाकर हिस्ट्री हॉल में अमृतवेले योग कराता था। अन्तिम समय में, खाना नहीं खा सकता था, बहुत शरीर ऐसा ढीला हो गया था पर कैसी भी कंडीशन में क्लास में जरूर बैठता था। एक बार पांडव भवन में मैं इसके कमरे में गई थी, इसकी अलमारी को देखा, कपड़े इतनी अच्छी तरह से रखे हुए, इतनी स्वच्छता, ऐसी खटिया, ऐसा जैसे बाबा का रूम देखते हैं। ये जो गुण, विशेषतायें हैं, लगता है जैसे बाप के कदम पर कदम रखने का दृढ़ संकल्प रखा है कि जो बाबा करता है, वही मुझे करना है। कभी इसने नहीं कहा होगा, मुझे खाना यह चाहिए, यह नहीं चाहिए। कभी इसने बाहर जाकर सेवा नहीं की। बाबा को था कि विश्व रत्न बैठा है ना तो यज्ञ का रक्षक बैठा है। बाबा बॉम्बे, दिल्ली जाता था, विश्व रत्न के हवाले सारा यज्ञ कर जाता था। ऑफिस की संदली पर सोता था। उसके योग में कभी सुस्ती नहीं देखी। 

मेरे कारण किसी का व्यर्थ ना चले

एक बार बाबा ने मेरे को कहा, बच्ची, इसको पूना बुलाओ। मैंने बुलाया। मैंने कहा, मुझे एक बात सुना दो, आप सदा ही योग में कैसे रह सकते हो? ऐसे मैं मम्मा से भी पूछती थी। कहने लगे, मुझे यह प्रश्न ही नहीं उठता है कि यह बात कैसे होगी, सब बाबा करा रहा है। मैंने कहा, फिर भी सबके साथ कनेक्शन में तो आते हो और फिर भी योगयुक्त रहते हो? बोले, सच बताऊँ, मैं सदा ख्याल रखता हूँ, मेरे कारण किसी का व्यर्थ ख्याल न चले। किसी का व्यर्थ संकल्प चले, उसका मैं कारण न बनूँ; मानो, कोई अच्छे नोट्स लेती है, मेरे को लगता है, मैं इसकी नोटबुक पढूँ, अच्छी है, मैंने पढ़ी, पर वहाँ नहीं रखी, वो ढूँढ़ेगी, मेरी नोटबुक कहाँ गई। मैने उसका व्यर्थ चिन्तन चलाया, मेरा योग नहीं लगेगा। कोई चीज़ काम में लूँ तो फिर यथास्थान पर रख दूं या मुझे कहीं जाना है तो बता दूं मेरे लिए कोई पूछे नहीं, कहाँ है फलाना, ऐसी अच्छी- अच्छी बातें सुनाई। वो मुझे भूलती नहीं हैं। हम जो क्लास में बैठे थे, सब बहुत प्यार से सुन रहे थे।

मनसा बड़ी ऊँची थी

हुज्जत वाला काम (जिस पर हक लगे) बाबा दादा विश्वरतन से कराता था। जैसे बाबा ने मुरली बलाई, बाबा कहेगा, मम्मा तक पोस्ट जब तक पहुँचे, जाओ, मम्मा को बॉम्बे में मुरली देकर आ जाओ। उसी घड़ी ट्रेन पकड़कर, देकर आ जायेगा। जब बाबा अव्यक्त हो गया, विश्व रत्न को चलते देख, कई मेरे से पूछते थे, बाबा ऐसे चलता था क्या? दादा चलते-फिरते किसी से बात नहीं करता था। कोई भी सेवा हो, मनसा बड़ी ऊँची थी। कभी-कभी फॉरेनर्स को क्लास कराता था। क्लास में और बातें नहीं सुनाता था, योगी बना देता था। अंतिम समय में दादा को हॉस्पिटल लाने लगे, रास्ते में ही शरीर छोड़ दिया। पहले से ही तैयार थी आत्मा। इसका एक भाई है, मित्र-संबंधी भी हैं, भाई बड़ा रिगार्ड करता है। यह कभी मिलने नहीं गया, वो इससे मिलने आये होंगे। हैं तो साधारण बातें, पर बाबा कैसा हमारा जीवन बना रहा है, ऐसा कोई सबूत सामने आ जाए, इसलिए सुना रही हूँ। कभी इसने किसी की इन्सल्ट नहीं की होगी। ब्रह्मा का बच्चा भी, ब्रह्मा जैसा प्रैक्टिकल हो, वो था दादा विश्व रत्न।

ब्रह्माकुमार रमेश शाह, मुम्बई दादा विश्वरत्न के साथ के अपने अनुभव इस प्रकार सुनाते हैं –

दादा विश्वरतन अपने आप में एक महान और आदर्श व्यक्तित्व वाले थे। उन्होंने हर कार्य में हाँ जी का पाठ पक्का किया हुआ था। एक जमाना था जब यज्ञ में स्नान के लिए गर्म पानी की बाल्टियाँ भर-भरकर सबके बाथरूम में पहुँचानी पड़ती थी, वह कार्य भी दादा ने किया। सब्जियाँ खरीदकर लाने का और यज्ञ की सुरक्षा के लिए सारी रात जागकर पहरा देने का कार्य भी उन्होंने किया। जो भी बीमार होता, उसे दवाइयाँ, इंजेक्शन देने का कारोबार भी उन्होंने किया तो यज्ञ के आधारभूत चित्र झाड़ और त्रिमूर्ति आदि बनाने का श्रेय भी उन्होंने प्राप्त किया। इस प्रकार, ईश्वरीय ज्ञान को झाड़ और त्रिमूर्ति के चित्रों द्वारा विश्व के सामने प्रसिद्ध करने का महान कर्त्तव्य उन्होंने किया।

मुझे याद है कि जगदीश भाई ने एक बार मुझे कहा था कि विश्व के सभी धर्मों को एक कल्प वृक्ष के रूप में प्रस्तुत करना, यह बहुत गुह्य ईश्वरीय ज्ञान है और आज तक अन्य किसी भी धर्मस्थापक या पथप्रदर्शक ने यह कार्य नहीं किया जिसे दादा विश्वरत्न ने संपन्न किया।

आलराउंड पर्सनैलिटी

दादा विश्वरत्न की आलराउंड पर्सनैलिटी थी। सन् 1962 में मकर संक्रांति के दिन मैं आबू में था। साकार बाबा ने मुझसे पूछा, मकर संक्रांति के दिन आप बच्चे लौकिक में क्या करते हैं? हमने कहा था, हम तो पतंग उड़ाते हैं। साकार बाबा ने दादा विश्वरत्न को कहा कि बच्चे, बाजार से पतंग और धागा लेकर आना ताकि बाबा बच्चों के साथ पतंग उड़ा सके। दादा विश्वरत्न बाजार में जाकर पतंग, धागा आदि सब खरीदकर लाये और हमने प्यारे बाबा के साथ हिस्ट्री हॉल की छत पर पतंग उड़ाई। पतंग कैसे उड़ानी चाहिए, वह कला भी दादा को आती थी।

मैनेजमेंट कमेटी के सदस्य

सन् 1973 से सरकार ने इन्कम टैक्स के कानून में परिवर्तन किया और सभी संस्थाओं के लिए हिसाब-किताब लिखने की जिम्मेवारी अनिवार्य कर दी। तब मैंने दादी जी से पूछा था कि यज्ञ में हिसाब-किताब लिखने का कारोबार कौन करेगा, मुझे इसके लिए साथी चाहिए तब आदरणीया दादी प्रकाशमणि जी ने मुझे दादा विश्वरत्न साथी के रूप में दिया और कहा, दादा हिसाब लिखेगा। मेरे मन में संकल्प चला कि दादा एकाउंटस लिखना तो जानते नहीं तो फिर कैसे लिख सकेंगे। तब दादी जी ने दादा विश्वरत्न के लिए सर्टीफिकेट दिया कि दादा बिल्कुल एक्यूरेट हैं और एकाउंटस में सबसे ज्यादा जरूरत तो एक्यूरेसी की होती है और इसलिए आपको पूर्ण रूप से मददगार दादा बनेंगे। दादा ने यह नया रोल बहुत ही अच्छी रीति से अपने जीवन के अंत तक निभाया। सौ प्रतिशत एक्यूरेसी के साथ यज्ञ का हिसाब उन्होंने लिखा, बैंकों का कारोबार भी किया, सेवाकेन्द्रों पर पोस्ट आदि भेजना तथा वहाँ से जो एकाउंटस के फॉर्म्स आदि आते थे, उनको संभालने का कारोबार दादा ने इतनी सुंदर रीति से किया कि दादी जी ने उन्हें यज्ञ की मैनेजमेंट कमेटी का सदस्य बनाया और यज्ञ के एकाउंटस के ऊपर यज्ञ की ओर से हस्ताक्षर करने की जिम्मेवारी भी उनको दी। इस प्रकार से पुरुषार्थ करके दादा ने हर बात में आगे नंबर लिया।

प्रेम से समझाकर कार्य किया

इंकम टैक्स के कानूनी कारोबार के लिए दादा हर स्थान पर, हर समय मेरे साथी बनकर उपस्थित रहे। पहले तो हम ऑडिट के लिए विभिन्न सेवास्थानों पर जाते थे तब भी दादा हमारे साथ चलते थे और बहुत अच्छी रीति से हर कार्य में मददगार रहते थे। सेवाकेन्द्र के सभी बहन-भाइयों को भी दादा अपने अनुभवों से लाभान्वित करते थे। इस प्रकार, सब प्रकार की आलराउंड सेवा करने में वो हर प्रकार से मददगार रहे। हम उनके बहुत-बहुत शुक्रगुजार हैं। जब तक दादा जीवित थे, तब तक हम एकाउंटस डिपार्टमेन्ट से निश्चिन्त रहते थे, कारण कि दादा सबको बहुत अच्छी रीति से, प्रेम से समझाकर अपना कार्य करते थे और सबके सहयोग से सफलतापूर्वक कार्य होता था। दादा के अक्षर बहुत सुन्दर थे। इतने सुंदर कि हमें टाइप कराने की भी जरूरत नहीं पड़ती थी। दादा के कारण दादी प्रकाशमणि भी हर बात में निश्चिन्त रहती थी और मैं समझता हूँ कि दादी जी ने जो विश्वास दादा में रखा और दादा के हाथों में यज्ञ का एकाउंटस का कारोबार सौंपा तो दादा जैसा कोई अन्य साथी उस समय पर यज्ञ में मिलना संभव ही नहीं था। ऐसे हमारे श्रेष्ठ अनुभवी दादा विश्वरत्न थे। अपने जीवन के अंत तक वे हमारे साथ कारोबार में साथी बनकर चले, मैं उनको अपने श्रद्धासुमन अर्पित करता हूँ।

मुख्यालय एवं नज़दीकी सेवाकेंद्र

अनुभवगाथा

Bk kamlesh didi bhatinda anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी कमलेश बहन जी, भटिण्डा, पंजाब से, अपने साकार बाबा के साथ के अनमोल अनुभव साझा करती हैं। 1954 में पहली बार बाबा से मिलने पर उन्होंने बाबा की रूहानी शक्ति का अनुभव किया, जिससे उनका जीवन हमेशा के लिए

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Bk janak didi sonipat anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी जनक बहन जी, सोनीपत, हरियाणा से, जब पहली बार ब्रह्मा बाबा से मिलीं, तो बाबा के मस्तक पर चमकती लाइट और श्रीकृष्ण के साक्षात्कार ने उनके जीवन में एक नया मोड़ लाया। बाबा की शक्ति ने उन्हें परीक्षाओं के

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Bk sheela didi guvahati

शीला बहन जी, गुवाहाटी, असम से, मीठे मधुबन में बाबा से मिलकर गहरी स्नेह और अपनत्व का अनुभव करती हैं। बाबा ने उन्हें उनके नाम से पुकारा और गद्दी पर बिठाकर गोद में लिया, जिससे शीला बहन को अनूठी आत्मीयता

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Dadi allrounder ji

कुमारियों को दादी ऐसी पालना देती थी कि कोई अपनी लौकिक कुमारी को भी शायद ऐसी पालना ना दे पाए। दादी कहती थी, यह बाबा का यज्ञ है, बाबा ही पालना देने वाला है। जो पालना हमने बाबा से ली

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Bk sister denise anubhavgatha

सिस्टर डेनिस का जीवन अनुभव प्रेरणा से भरा है। ब्रिटिश व्यवसायी परिवार से जन्मी, उन्होंने प्रारंभिक जीवन में ही महिला सशक्तिकरण के विचारों को आत्मसात किया और आगे भारतीय संस्कृति और ब्रह्माकुमारी संस्थान से जुड़ीं। ध्यान और योग के माध्यम

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Dadi sandeshi ji

दादी सन्देशी, जिन्हें बाबा ने ‘रमणीक मोहिनी’ और ‘बिंद्रबाला’ कहा, ने सन्देश लाने की अलौकिक सेवा की। उनकी विशेषता थी सादगी, स्नेह, और ईश्वर के प्रति अटूट निष्ठा। उन्होंने कोलकाता, पटना, और भुवनेश्वर में सेवा करते हुए अनेकों को प्रेरित

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Dadi bhoori ji

दादी भूरी, यज्ञ की आदिकर्मी, आबू में अतिथियों को रिसीव करने और यज्ञ की खरीदारी का कार्य करती थीं। उनकी निष्ठा और मेहनत से वे सभी के दिलों में बस गईं। 2 जुलाई, 2010 को दादी ने बाबा की गोदी

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Bk sister kiran america eugene anubhavgatha

बी के सिस्टर किरन की आध्यात्मिक यात्रा उनके गहन अनुभवों से प्रेरित है। न्यूयॉर्क से लेकर भारत के मधुबन तक की उनकी यात्रा में उन्होंने ध्यान, योग और ब्रह्माकुमारी संस्था से जुड़े ज्ञान की गहराई को समझा। दादी जानकी के

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Bk sudarshan didi gudgaon - anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी सुदर्शन बहन जी, गुड़गाँव से, 1960 में पहली बार साकार बाबा से मिलीं। बाबा के दिव्य व्यक्तित्व ने उन्हें प्रभावित किया, बाद उनके जीवन में स्थायी परिवर्तन आया। बाबा ने उन्हें गोपी के रूप में श्रीकृष्ण के साथ झूला

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Experience with dadi prakashmani ji

आपका प्रकाश तो विश्व के चारों कोनों में फैला हुआ है। बाबा के अव्यक्त होने के पश्चात् 1969 से आपने जिस प्रकार यज्ञ की वृद्धि की, मातृ स्नेह से सबकी पालना की, यज्ञ का प्रशासन जिस कुशलता के साथ संभाला,

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Bk prabha didi bharuch anubhavgatha

प्रभा बहन जी, भरूच, गुजरात से, सन् 1965 में मथुरा में ब्रह्माकुमारी ज्ञान प्राप्त किया। उनके पिताजी के सिगरेट छोड़ने के बाद, पूरा परिवार इस ज्ञान में आ गया। बाबा से पहली मुलाकात में ही प्रभा बहन को बाबा का

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Dada anandkishore ji

दादा आनन्द किशोर, यज्ञ के आदि रत्नों में से एक, ने अपने अलौकिक जीवन में बाबा के निर्देशन में तपस्या और सेवा की। कोलकाता में हीरे-जवाहरात का व्यापार करने वाले दादा लक्ष्मण ने अपने परिवार सहित यज्ञ में समर्पण किया।

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Didi manmohini anubhav gatha

दीदी, बाबा की ज्ञान-मुरली की मस्तानी थीं। ज्ञान सुनते-सुनते वे मस्त हो जाती थीं। बाबा ने जो भी कहा, उसको तुरन्त धारण कर अमल में लाती थीं। पवित्रता के कारण उनको बहुत सितम सहन करने पड़े।

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Dadi gange ji

आपका अलौकिक नाम आत्मइन्द्रा दादी था। यज्ञ स्थापना के समय जब आप ज्ञान में आई तो बहुत कड़े बंधनों का सामना किया। लौकिक वालों ने आपको तालों में बंद रखा लेकिन एक प्रभु प्रीत में सब बंधनों को काटकर आप

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Bk sudha didi - moscow anubhavgatha

ब्रह्माकुमारी सुधा बहन के जीवन की कहानी प्रेरणा देती है—दिल्ली में शुरू हुआ ज्ञान, समर्पण से बढ़ते हुए रूस में सेवा का विस्तार। जानें उनके जीवन की यात्रा, जगदीश भाई और दादी गुलज़ार से प्राप्त मार्गदर्शन, और कैसे उन्होंने कठिनाइयों

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