ब्रह्मा बाबा के बाद यज्ञ में सबसे पहले समर्पित होने वाला लौकिक परिवार दादी शान्तामणि का था। उस समय आपकी आयु 13 वर्ष की थी। आपमें शुरू से ही शान्ति, धैर्य और गंभीरता के संस्कार थे। बाबा आपको ‘सचली कौड़ी’ और ‘हर की पौड़ी’ कहते थे। बोर्डिंग के निमित्त पाँच चिड़ियाओं (बहनों) में आप भी एक थीं। कम से कम साधनों में भी आप सदा साधनामूर्त रहीं। कभी भी यह ऐसा, वह वैसा, इन बातों में नहीं आईं। जीवन-भर आपके दिल में “बाबा और मुरली” के अलावा और कुछ रहा ही नहीं। पिताव्रत और सतीव्रत का सच्चा पालन किया। झाड़ के चित्र में मम्मा-बाबा के साथ तपस्यारत अष्ट रत्नों में आप भी विराजमान हैं। शान्तिवन निर्माण में आपकी मनसा सेवा का विशेष योगदान रहा। बीमारी में भी आपके चेहरे पर शान्ति और मुस्कराहट झलकती रही। 87 वर्ष की आयु में 15 जून, 2010 को आप देह के हद के बंधन से मुक्त हो बापदादा की गोद में समा गईं।
जैसे समुद्र ऊपर से धीर-गम्भीर होते हुए भी, अपने अंदर विशाल सामुद्रिक सम्पदा समाए रहता है, इसी प्रकार का व्यक्तित्व था दादी शान्तामणि का। शान्ति और शीतलता की चैतन्य मूर्ति बन, शान्तिवन के बेहद प्रांगण में वरदानी भवन में सदा वरदान लुटाती हुई दादी के अंदर प्रेम, सत्यता, करुणा, मिलनसारिता, सहनशीलता, नम्रता जैसे अनेक गुणों की अपार संपदा समाहित थी। आपका चेहरा ही चैतन्य म्यूजियम बन सदा सबको आकर्षित करता रहा। आपका मौन निमंत्रण ऐसा था कि कोई भी आत्मा निःसंकोच आपसे मिलकर तृप्त हो जाती थी। कम शब्दों में, मुस्कान भरे चेहरे से दृष्टि-मिलन करते हुए आप हर मिलने वाले के दिल पर गहरी छाप छोड़ देती थीं। चेहरे का नूर और वाणी का ओज-आपकी बढ़ती आयु को सदा ही झुठलाते रहे। आपका कद, चेहरा और स्वर मातेश्वरी जगदम्बा से काफी समानता रखता था। आपसे मिलकर मातेश्वरी जगदम्बा से मिलने का अनुभव हो जाता था।
सिंध-हैदराबाद के एक प्रभावशाली तथा प्रतिष्ठित सखरानी परिवार में आपका जन्म हुआ था। आपके दादा जी का नाम प्रताप सखरानी था जो बहुत ही भद्र, सरल और आस्तिक थे। पिताजी का नाम रीझूमल सखरानी और माताजी का नाम सती सखरानी था। लौकिक माता-पिता का जीवन बहुत सुखमय था और उनको देख सब कहते थे कि, ये तो जैसे श्रीलक्ष्मी और श्रीनारायण की जोड़ी है। आपके पिताजी कठोर परिश्रमी और बुद्धिमान थे। उनका व्यवसायिक केन्द्र श्रीलंका में था, जो बहुत सफल था इसलिए लौकिक परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी। आप पाँच बहनें और एक भाई थे। भाई सबसे बड़े थे, उनका नाम जगूमल सखरानी था। आपकी बहनों के नाम थे- देवी, कला, लीला (दादी शान्तामणि), लक्ष्मी (दादी सन्देशी) और भगवती (अलौकिक नाम ज्योति)। आपकी एक मौसी थी जिनका नाम रोचा (रुक्मिणी) था जो असमय ही विधवा हो गई थी। उनकी तीन बच्चियाँ थी। बड़ी बच्ची पार्वती जिसकी शादी हो चुकी थी, फिर राधे (जगदम्बा सरस्वती) और फिर गोपी थी। इस प्रकार, आप जगदम्बा सरस्वती की मौसेरी बहन थीं। आपकी दूसरी मौसी का नाम ध्यानी था, वह भी शुरू से ही यज्ञ में समर्पित थीं। ध्यान में जाने के कारण उनका नाम ध्यानी पड़ा। बाबा उन्हें मिश्री कहते थे क्योंकि वे बहुत मीठी थी। इस प्रकार आप, यज्ञ के आदिकालीन पूर्ण समर्पित परिवार की एक विशेष समर्पित सदस्या थीं।
लौकिक जीवन में आपके पिताजी बड़े गुरुभक्त थे। मकान में एक विशेष कोठरी को गुरुघर कहा जाता था। रोज़ शाम को पिताजी के निर्देशानुसार सभी बच्चे उस कमरे में प्रार्थना करते थे और प्रार्थना के पश्चात् माँ प्रतिदिन ‘गुरुमुखी ग्रंथ’, ‘जप साहेब’, ‘सुखमणि’ आदि धर्म पुस्तकें पढ़कर समझाती थीं। इस प्रकार छोटी आयु से ही आप सत्संग प्रेमी और धर्म-प्रेमी थीं। ब्रह्मा बाबा के साथ आपके पिताजी का बहुत अच्छा संबंध था। हैदराबाद में सत्संग की शुरूआत के बाद ब्रह्मा बाबा जब एकांतवास के लिए कश्मीर गये, तब वहाँ आपके पिताजी की मुलाकात ब्रह्मा बाबा से हुई। ब्रह्मा बाबा ने उनको ‘बेटा’ शब्द से संबोधित किया। यह संबोधन सुनकर उन्हें आश्चर्य हुआ क्योंकि वे दोनों ही समान उम्र के थे। वास्तव में ब्रह्मा बाबा के तन में अवतरित परमात्मा शिव ने उन्हें ‘बेटा’ कहकर संबोधित किया था। उसके बाद बाबा की दृष्टि द्वारा आपके पिताजी ने दिव्य धाम का साक्षात्कार किया। इस साक्षात्कार के बाद आपके पिताजी के साथ-साथ आपके सारे परिवार की दिशा ही पूर्णतः बदल गई और तन-मन-धन सहित आपका संपूर्ण परिवार ‘ओम मण्डली’ में समर्पित हो गया।
सन् 1936 में जब आपने अपनी लौकिक माँ के साथ ब्रह्मा बाबा को देखा तो आपको जन्म-जन्म के सच्चे पिता के मिलने की अनुभूति हुई और बाबा को स्थूल नेत्रों से ही श्रीकृष्ण के रूप में देखा। फिर तो आप रोज़ स्कूल से लौटते हुए, बाबा के पास जशोदा निवास में जाती रहीं। बाबा ने ही आपको आत्म-अनुभूति कराई। बाबा ने कहा, आत्मा ही शरीर को चलाती है। मन, बुद्धि, संस्कार की मालिक आप आत्मा हैं। बाबा ने शरीर रूपी बाजे की तुलना हारमोनियम से करके समझाया। बाबा ने अच्छे-बुरे संस्कारों का ज्ञान दिया। बाबा ने अपने हस्तों से एक कागज़ पर देवलोक, मनुष्य लोक और पाताल लोक का चित्र बनाया और पूछा, अभी आप मनुष्य लोक में हो, बताओ, कहाँ जाना चाहते हो? देवलोक में या पाताल लोक में? आपकी बुद्धि ने फौरन निर्णय दिया कि देवलोक में जायेंगे। बाबा ने कहा, अगर देवलोक में जाना है तो देवी-देवताओं जैसा बनना है और दैवी गुण-संस्कार धारण करने हैं, पढ़ाई पढ़नी है। आपका उसी दिन से ईश्वरीय पढ़ाई से बहुत प्यार हो गया और नियमित बाबा के पास जाती रहीं और बहुत ही लगन से ईश्वरीय पढ़ाई पढ़ती रहीं।
ईश्वरीय ज्ञान की शुरूआत से पहले ब्रह्मा बाबा ने लौकिक स्कूल के लिए एक बिल्डिंग बनाई थी। बाद में उसे ही ओम निवास कहा गया। बाबा ने कश्मीर में रहते ही उस भवन में बोर्डिंग खोलने की तथा सत्संग में आने वाली माताओं के बच्चे-बच्चियों को रूहानी तथा जिस्मानी दोनों प्रकार की शिक्षा देने की योजना बनाई। सन् 1937 में दीवाली के दिन बाकायदा बोर्डिंग का उद्घाटन हुआ। बच्चों को पढ़ाने के निमित्त जिन पाँच दादियों को नियुक्त किया गया, उनमें से आप भी एक थीं। बाबा आपकी टीम को पाँच चिड़ियायें कहकर संबोधित करते थे। तब आपकी आयु 14 वर्ष की थी।
झाड़ के चित्र में मम्मा-बाबा के साथ तपस्यारत अष्ट रत्नों में आप भी विराजमान हैं। आप करांची में यज्ञ कारोबार भी संभालती थीं। आपका शुरू-शुरू में ध्यान-दीदार का भी पार्ट रहा। बाद में वह पार्ट हल्का हो गया। बाबा कहते थे, इस बच्ची ने जब से यज्ञ में कदम रखा है, अपने शान्त स्वरूप के द्वारा अपनी अनेक विशेषताओं को प्रकट किया है। आपके गुणों को देख बाबा आपको सचली कौड़ी (बहुत सच्ची और साफ दिल) कहा करते थे। आप बहुत ही मिलनसार तथा गुणग्राही होकर यज्ञ में चलीं। हर बात में संतुष्ट रहना और संतुष्ट करना, आपका विशेष गुण रहा। बाबा आपको ‘हर की पौड़ी’ भी कहते थे। यूँ तो गंगा बहती जाती है और भक्तों की भावना पूर्ण करती जाती है परंतु गंगा का एक ऐसा हिस्सा भी है जो ‘हर की पौड़ी’ कहलाता है। वहाँ गंगा स्थिर रहती है, दूर-दूर से, दिशा-दिशा से भक्तजन वहीं आकर डुबकी लगाते हैं और अपनी प्यास बुझाते हैं। आप भी मधुबन महातीर्थ पर, विश्व के कोने-कोने से आने वाले ब्रह्मावत्सों को, ‘हर की पौड़ी’ बन ज्ञान-डुबकी लगवाती रहीं, शान्ति और शीतलता के वरदान लुटाती रहीं।
यज्ञ के माउंट आबू में स्थानांतरित होने के बाद, अन्य दादियों की तरह आप भी लखनऊ में सेवार्थ गई और अनेक परीक्षाओं को पार करते हुए, एक बल एक भरोसे रह, 17 वर्षों तक आप वहाँ सेवारत रहीं। बाबा ने एक बार आपको कोलम्बो (श्रीलंका) भी सेवार्थ भेजा था जहाँ आप ईश्वरीय सेवा का बहुत अच्छा बीज बोकर आईं। प्यारे बाबा के अव्यक्त होने के बाद आप मधुबन में ही स्थाई रूप से निवास करने लगीं। कर्त्तापन के भान से परे
शान्तिवन निर्मित होने के बाद, पिछले 15 वर्षों से आप विशाल शान्तिवन प्रांगण में निरंतर सेवारत रहीं। आप कभी भी यह ऐसा-वह वैसा; इन बातों में नहीं आईं। किसी को देख यह भी नहीं सोचा कि उसको यह मिला, मुझे क्यों नहीं। कम से कम साधनों में सदा साधनामूर्त रही। कभी क्यों, क्या, कैसे नहीं कहा। कोई भी समस्या लेकर आता तो अपने शान्त स्वरूप द्वारा उसे हल्का कर देती थीं और कहती थीं, बाबा सदा साथ है। आपने याद और सेवा के द्वारा सबके दिलों में अपना यादगार बनाया। बाबा और मुरली के अलावा, जीवन भर आपके दिल में और कुछ रहा ही नहीं। पिताव्रत और सतीव्रत का पक्का पालन किया। आपमें समाने की शक्ति बहुत थी। जो बात आपको बता दी, वह आपके सिवाय आगे कहीं नहीं जाती थी। बाबा को सुनाने के अलावा आप किसी की बात को इधर-उधर नहीं करती थीं। किसी ने आपको कभी कड़वा या जोर से बोलते नहीं देखा। आपने कभी किसी को आँख नहीं दिखाई। सबको प्यार दिया, शान्ति दी और कारोबार ऐसे किया जैसे कुछ कर नहीं रही हैं। कर्त्तापन के भान में न होने के कारण हरदम शान्ति की शक्ति से भरपूर रहीं। एक बार आपकी बाजू में तकलीफ थी पर कोई घबराहट नहीं। आप सहनशीलता की देवी थी। इस पुराने शरीर को कई बार टांका चत्ती लगे पर आप सदा शान्ति की एकरस अवस्था में साक्षीदृष्टा बन पार्ट बजाती रहीं।
पिछले एक वर्ष से आपका स्वास्थ्य ऊपर-नीचे रहता था परंतु चेहरे से कभी नहीं लगा कि आपको कोई तकलीफ है, कभी भी मुख से नहीं कहा। पेशेन्ट होते भी आप अद्भुत पेशेन्स में रहीं। सारे ब्राह्मण परिवार की दुआएं आपको सदा ही मिलती रहीं। पंद्रह जून, 2010 को आप देह के हद-बंधन से मुक्त हो बापदादा की गोद में समा गईं। आप 87 वर्ष की थीं। अब आप बेहद की सेवा में उपस्थित हो शान्तिवन सहित सारे विश्व को सकाश देती रहेंगी। आपके दिव्य कर्त्तव्यों की स्मृतियाँ, रूहानी नूरानी नज़रें, धरती जैसा धैर्य और सहनशीलता सदा हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे। यह श्रद्धानत लेखनी आपके गुण-स्तंभ जैसे जीवन को कोटि-कोटि प्रणाम करती है।
शान्तिवन के ब्र.कु. किशन दत्त भाई, दादी शान्तामणि जी के बारे में इस प्रकार लिख रहे हैं –
दादी शान्तामणि जी महातपस्विनि थी। उस चैतन्य मणि के सानिध्य में मैंने कई बार गहन शान्ति के प्रकम्पन अनुभव किये। मैंने यह अनुभव किया कि कर्मक्षेत्र में उनकी उपस्थिति से कठिन से कठिन कार्य भी आसान हो जाता। उनका अलौकिक व्यक्तित्व ‘शान्ति के चुम्बक’ के समान था।
जिनकी आस्था प्रगाढ़ होकर सम्पूर्ण समर्पणता में परिणत हो जाती है, वे वास्तव में शक्तिशाली आत्माएँ होती हैं। निराकार अदृश्य शक्ति परमपिता परमात्मा के प्रति उनका अटल विश्वास था। शान्तिवन के उनके निर्देशन काल के लगभग 15 वर्षों में मैंने यह देखा कि उनके सामने जो भी जटिलताएँ या समस्याएँ आती थीं, उन्हें वे यह कहकर हल्का कर देती थीं कि ‘कोई बात नहीं, बाबा बैठा है।’ ऐसी समर्पण भावना से मैंने देखा कि वे सबके मन को हल्का कर देती थीं। सभी के मन में नई आशा का संचार हो जाता था, परमात्मा के प्रति गहरी आस्था का जन्म हो जाता था और विस्मृत चेतना में स्मृति का दीपक जल उठता था।
समाने की शक्ति की उपमा सागर से की जाती है। हमने यह कई बार देखा कि दादी शान्तामणि जी का व्यक्तित्व सागर के समान था। उनमें समाने की अद्भुत शक्ति विद्यमान थी। दिव्य बुद्धि की विशालता अपने साथ कई दिव्य शक्तियों को समाये हुए रखती है। जब भी उनके सामने कोई बात आती थी, वे उसे स्वयं में ऐसे समा लेती थीं जैसे सागर अपने अन्दर सभी प्रकार की चीजों को समा लेता है। देखते ही देखते यह अनुभव होता था कि बात कुछ भी है ही नहीं। सब कुछ स्वतः ही सरल हो जाता था।
उनके साथ कई बार ज्ञान चर्चा करने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनका विशेष निष्कर्ष रहता था कि बिन्दु बन बिन्दु बाप को याद करना है, इसमें ही सब सार आ जाता है। ज्ञान से बड़ा है योग, ऐसा कहकर वे योगी बनने की प्रेरणा देती थी। मुझे सेवा के लिये कई बार बाहर जाना होता था। जब उनके पास छुट्टी लेने जाता था तो वे रूहानी दृष्टि देते हुए मुस्कराते हुए यह कहकर छुट्टी देती थीं कि अच्छा है, सेवा के लिये छुट्टी है, कोई मना नहीं है। आपको सेवा निमित्त बन कर करनी है और बाबा का नाम बाला करना है।
दादी जी को मैंने सदा ही अनासक्त भाव में स्थित देखा। कई बार कई प्रकार से ऐसी परिस्थितियाँ बनीं कि ऐसा लगता था कि वैचारिक या भावनात्मक स्तर पर आसक्ति की स्थिति निर्मित हो जायेगी। लेकिन क्या देखा कि उनके अन्तः स्थल को आसक्ति तनिक भी स्पर्श नहीं कर पायी। वे सदा ही सर्व प्रकार के विरोधाभासों से अप्रभावित रहीं। अपने अन्दर ऐसा धैर्य धारण किये हुए रहती थीं कि उनके द्वारा कभी भी कैसी भी बात में प्रतिक्रिया का आभास नहीं होता था। एक बार मैंने उनके पास जाकर कहा कि दादी जी फलां व्यक्ति यह-यह कहता है। उन्होंने मुझे समझाया कि वह तो छोटे और बड़े सबको ही ऐसा कहता है। यह तो उसका संस्कार है। आपका संस्कार क्या है? आप अपने स्वमान में रहो और एकरस रहो। उनके ऐसा कहते ही वह बात हल्की हो गयी। वह बात मेरी बुद्धि से ऐसे भूल गयी कि जैसे कभी थी ही नहीं। इस प्रकार मैंने देखा कि उनकी स्थिति सदा ही निन्दा-स्तुति, मान-अपमान, हानि-लाभ, जय-पराजय में एकरस रहती थी।
दादी शान्तामणि जी देह त्याग के अन्तिम दिनों तक भी आत्म-जागृत स्थिति में रहीं और सर्व मिलने वालों को आत्मिक दृष्टि देती रहीं। उन्हें देखने से ऐसा लगता था कि उनकी देह और देह की दुनिया (प्रकृति) की चेतना (स्मृति) लगभग विस्मृत हो चुकी है। ऐसा लगता था कि वे “सम्पूर्ण आत्म-जागृति” के बहुत निकट थीं। यह उनकी योग तपस्या का ही फल था।
दादी शान्तामणि जी वैसे अब साकार रूप में हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनके जीवन के उज्ज्वल चरित्रों की कल्याणकारी स्मृतियाँ सदा हमारे साथ रहेंगी। वे सदा हमारे लिए आध्यात्मिक प्रेरणा की सरिता थीं, हैं और रहेंगी। ईश्वरीय कार्य की योजना अनुसार वे जहाँ भी होंगी वहाँ अपनी सम्पूर्ण पवित्र वृत्ति से अनेक आत्माओं में पवित्र भावनाओं का संचार करने के निमित्त बनेंगी। आप अपनी अलौकिक आभा के प्रकाश की उपस्थिति से लाखों आत्माओं के जीवन में जीवन्तता का अनुभव कराती रहीं है और भविष्य में भी कराती रहेंगी। आप सतयुग स्थापना के पुनीत कार्य को सम्पन्न करने में अपनी अद्वितीय भूमिका निभाने के निमित्त बनेंगी, आपके प्रति हमारे हृदय की अथाह गहराइयों से निकली यही शुभभावना और शुभकामना है। ऐसी आध्यात्मिकता की मशाल और सम्पूर्ण सृष्टि रूपी कल्पवृक्ष की आधार स्तम्भ अलौकिक आत्मा को हमारी भावभीनी श्रद्धांजलि और कोटि-कोटि नमन !
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