मेरा लौकिक जन्म ग्याना, दक्षिण अमेरिका में हुआ। सन् 1975, दिसम्बर में मैं ईश्वरीय ज्ञान में आयी। उस समय सिस्टर जयन्ती को ग्याना में निमन्त्रण मिला था। वो अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष था। ग्याना के प्रीस्ट (पादरी) ने जयन्ती बहन को निमन्त्रण दिया था कि आप आकर आध्यात्मिकता के बारे में यहाँ की महिलाओं को सम्बोधित करें। जयन्ती बहन के ग्याना आने से दो दिन पहले वो प्रीस्ट हमारे घर पर आये। मेरे पिता जी (स्टीव नारायण) और प्रीस्ट अच्छे मित्र थे। प्रीस्ट ने मेरी मम्मी से पूछा कि क्या आप मुझे अपनी कार में एअरपोर्ट ले चलेंगी, वहाँ से एक सिस्टर को रिसीव करना है। मेरी मम्मी ने कहा, ठीक है। फ्लाईट उस दिन सुबह तीन बजे पहुँचने वाली थी। उन दिनों मेरे पिता जी ग्याना सरकार में मंत्री थे। हमारे पास सरकारी गाड़ी तथा ड्राइवर था। ड्राइवर, प्रीस्ट तथा मेरी मम्मी एअरपोर्ट गये। जैसे ही मम्मी ने जयन्ती बहन को देखा, उनसे बहुत प्रभावित हो गयी, उनके स्नेह में खो गयी। मम्मी जयन्ती बहन को अपने घर ले आयी, तब तक सुबह के चार बज चुके थे। हमारा घर तीन मंजिल का था। सबसे ऊपर हम बच्चे रहते थे, जयन्ती बहन को बीच वाली मंजिल दी गयी। उसी समय मम्मी को फोन आया कि एक्सीडेंट में हमारे चचेरे भाई की मृत्यु हो गयी। सब क्रियाकर्म पूरा किया गया। उस मौके को देखकर जयन्ती बहन हमें आत्मा का ज्ञान सुनाने लगी। इस घटना से मैं ज्ञान में आयी। जयन्ती बहन हमारे घर आयी तो साथ-साथ बाबा भी उनके साथ हमारे घर आ गये। यह हमारा सौभाग्य था।
प्रश्नः आपका ईश्वरीय यज्ञ में समर्पित होने का क्या आधार रहा?
उत्तरः मुझे कभी लगा नहीं कि मैंने कुछ समर्पित किया है या मैं समर्पित हुई हूँ। मुझे यही लगा कि मैं तो बाबा की थी, बाबा की हूँ और बाबा की रहूँगी। यह ज्ञान, यह ब्राह्मण परिवार मुझे कोई नया नहीं लगा। मैं इस ज्ञान को पहले से ही जानती थी, इनसे मेरा पहले से ही सम्बन्ध था- ऐसा अनुभव हुआ। मैं तो स्वाभाविक रूप से मम्मी-पापा के साथ ज्ञान में चल पड़ी। सेवा करते-करते सेन्टर पर रहने लगी। लेकिन यह बहुत आश्चर्य की बात है कि जब जयन्ती बहन ज्ञान सुना रही थी, मुझे सब सहज लग रहा था, परिचित लग रहा था। जब उन्होंने ब्रह्मा बाबा का चित्र दिखाया, उसे देख मेरे दिल में ब्रह्मा बाबा के प्रति बहुत प्रेम उमड़ आया। बाबा के चित्र ने मुझे बहुत आकर्षित किया। जब भी मैं जाकर मेडिटेशन में बैठती थी, बहुत अच्छा लगता था। बाबा की अति समीपता का अनुभव होता था। मुझे ऐसे अनुभव होता था कि मैं ब्रह्मा बाबा के साथ रही हूँ और उनके साथ कभी नहीं खत्म होने वाले रिश्ते-नाते हैं। मैंने जीवन को इसीलिए समर्पित किया क्योंकि मुझे अनुभव हो रहा था कि शिव बाबा तथा ब्रह्मा बाबा का एक सपना (विज़न) है, उसको साकार करने में सहयोग देना मेरा कर्त्तव्य है। समर्पित होने का मेरा निर्णय केवल जीवन का प्रश्न नहीं है बल्कि यह मेरा श्रेष्ठ भाग्य है। इसको मैं त्याग नहीं कहती क्योंकि जिसके साथ मेरा जन्म-जन्म का सम्बन्ध है उसका तथा परमपिता परमात्मा शिव बाबा का जो विज़न है, उसको पूर्ण करने के लिए सहयोग देना – यह तो भविष्य बनाने का सुअवसर है। परमात्मा के प्रति मेरा प्यार मुझे इस पथ पर चलाने का आधार बना। मैं जानती हूँ कि बाबा भी मुझे बहुत प्यार करते हैं, वो ही इस आध्यात्मिक पथ पर मुझे चला रहे हैं। इसलिए इस मार्ग पर चलने में मुझे कोई मुश्किल या मेहनत नहीं हुई।
योग में मैंने बहुत ही आनन्द का अनुभव किया, सुख पाया। इस जीवन का मेरा लक्ष्य यही है कि जितना ज़्यादा हो सकता है उतना ज़्यादा से ज़्यादा बाबा के समीप रहूँ। जब मैं ज्ञान में आयी उस समय मेरी आयु 21 साल की थी। मेरी आरम्भिक तथा हाईस्कूल की शिक्षा ग्याना में हुई। जब मैं 17 साल की थी तब कॉलेज शिक्षा के लिए चार साल के लिए इंग्लैण्ड गयी। फिर ग्याना आयी और ग्याना युनिवर्सिटी में शिक्षा विभाग के डीन के एडमिनिस्ट्रेटिव असिस्टैण्ट के रूप में एक साल काम किया। मेरे दुनियावी दोस्त बहुत कम थे। जब मैं लन्दन पढ़ने गयी, वहाँ भी मैं कहीं हॉस्टल आदि में नहीं रही। वहाँ अपनी मौसी के पास रही। ज्ञान में आने के बाद मुझे लौकिक जीवन को त्याग करने में कोई तकलीफ नहीं हुई क्योंकि मेरे माता-पिता भी बाबा के बच्चे हैं और हमारा घर ही बाबा का घर है। मेरे पिता जी मिनिस्टर होते हुए भी, जीवन-शैली उच्च श्रेणी की होते हुए भी सबके साथ मिलकर चलते थे। पिताजी राजनैतिक सेवा करते थे और माताजी सामाजिक सेवा करती थी। मैं पिताजी को भी सहयोग देती थी और माताजी को भी। जब मुझे बाबा मिला और मेडिटेशन में बाबा से उच्च कोटि का प्यार पाया तो उसके बाद मुझे लौकिक की कोई आशा नहीं रही। मैंने कभी लौकिक जीवन जीने के बारे में सोचा ही नहीं।
जब मैं ग्याना युनिवर्सिटी में काम कर रही थी तभी ग्याना में सेन्टर खुल गया। मेरे उस पद पर रहने तक बाबा की बहुत सेवा हुई। बहनें मुझे प्रेरित करती थीं कि युनिवर्सिटी में यह कार्यक्रम आयोजित करो, वो कार्यक्रम आयोजित करो। मुझे लगता है कि बाबा की सेवा करने के लिए ही मुझे युनिवर्सिटी में नौकरी मिली थी।
प्रश्नः जब आपने पहली बार मेडिटेशन किया, उस समय का क्या अनुभव था?
उत्तरः तब तक मुझे शिव बाबा का परिचय नहीं मिला था। मेडिटेशन में मैं ब्रह्मा बाबा के नयनों को देखा करती थी क्योंकि उन नयनों से मुझे बहुत प्यार का अनुभव होता था। वे मुझे बहुत विशेष दिखायी पड़े, वे कोई सामान्य व्यक्ति नहीं लगे। जब मैं मेडिटेशन में बैठती थी, मुझे कोई न कोई विशेष अनुभव होता था। जैसे कि बाबा मुझे अपना सेवा-सहयोगी बनाना चाहते हैं, बाबा मुझे विशेष में भी अति विशेष दृष्टि से देखते हैं, वे मेरे से कोई अति विशेष सेवा कराना चाहते हैं। मेडिटेशन में मुझे यह भी अनुभव होता था कि मैं बाबा की सच्ची, स्पष्ट तथा साफ़ बच्ची हूँ। मुझे ऐसा लगता था कि बाबा पर मेरा पूर्ण अधिकार है और मेरे ऊपर बाबा का। मेरा मेडिटेशन ज़्यादातर बाबा के साथ मधुर वार्तालाप का ही होता था। उस 21 साल की आयु में मुझे योग की गहराई या योग तपस्या की जानकारी नहीं थी। मैं बाबा के साथ एक छोटी बच्ची बनकर हमेशा मधुर वार्तालाप करती थी। यह मेरा आरम्भिक मेडिटेशन था। इसके एक साल बाद ही मैंने ब्रह्मा बाबा के तन में शिव बाबा का क्या पार्ट है, उसको जाना। जब मैं दूसरों को ज्ञान सुनाने लगी, कोर्स कराने लगी तब मुझे पता पड़ा कि शिव बाबा कौन है! दूसरों को कोर्स कराते-कराते मैंने समझा कि शिव बाबा कौन है, वह ब्रह्मा बाबा के तन द्वारा कैसे यह महान् ज्ञान सुनाते हैं, अपने दिव्य कर्त्तव्य करते हैं।
प्रश्नः वतर्मान समय आप कहाँ रहती हैं और क्या सेवा करती हैं?
उत्तरः वर्तमान समय मैं न्यूयार्क में रहती हूँ। सन् 1978 से वहाँ रह रही हूँ। न्यूयार्क के दो सेन्टरों की संयोजिका हूँ। संयुक्त राष्ट्र संघ में मैं ब्रह्माकुमारिज का प्रतिनिधित्व करती हूँ। संयुक्त राष्ट्र संघ में रहने के कारण मैं सारी दुनिया के सम्पर्क में रहती हूँ। यू.एन. (संयुक्त राष्ट्र) के दुनिया भर में सम्मेलन होते हैं। उनमें भी हमें भाग लेना पड़ता है। यह पार्ट बड़ा चुनौतीपूर्ण होता है। विविध संस्थाओं के सिद्धान्तों के साथ अपने सिद्धान्तों को मिलाकर, उनके साथ कार्यक्रम करना बहुत ज़िम्मेदारी वाला कार्य होता है। यू.एन. में मेरा पार्ट है, आध्यात्मिकता तथा राजनीति में समन्वय स्थापित करना। इस विषय पर वहाँ मुझे सिर्फ बोलना ही नहीं होता परन्तु लिखना भी होता है क्योंकि पेपर प्रेजेन्टेशन भी करना होता है। यह कार्य बड़ा महत्त्वपूर्ण भी है, प्रेरणादायी तथा उमंग-उत्साह बढ़ाने वाला भी। ईश्वरीय विश्वविद्यालय मुझे इसीलिए अच्छा लगा कि यहाँ हरेक आत्मा विद्यार्थी है और परमात्मा एक ही सबका टीचर है। यहाँ हर दिन सीखना होता है। यह आध्यात्मिक समुदाय एक ऐसा समुदाय है जिसमें रहने वाले को निरन्तर सीखना होता है, जीवन की अन्तिम घड़ी तक सीखना होता है। यह मुझे बहुत विशेष तथा प्रिय लगा। मेरा लौकिक वातावरण भी राजनैतिक वातावरण था और अलौकिक वातावरण आध्यात्मिक तथा राजनैतिक है।
प्रश्नः किस हद तक इस कार्य में आपने सफलता पायी है?
उत्तरः मैं समझती हूँ, हमने बहुत ही सफलता पायी है। अस्सी के दशक में हम यू.एन. से, मधुबन में होने वाले अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में बहुत-से डेलिगेट्स ले आये थे। उसके बाद ‘मिलियन मिनिट्स’ प्रोग्राम में भी यू.एन. के साथ हमारी बहुत बड़ी भागीदारी थी। उसके बाद नब्बे के दशक में ‘ग्लोबल कोऑपरेशन फॉर ऍ बेटर वर्ल्ड’ कार्यक्रम किया। उसके बाद हमने “शेअरिंग वैल्यूस फॉर बेटर वर्ल्ड प्रोग्राम” किया। यह कार्यक्रम बड़ा ही रुचिपूर्ण था। उन्हीं दिनों यू.एन. ‘सामाजिक विकास’ पर एक विश्व सम्मेलन (World Conference on Social Development) करने वाला था। जो व्यक्ति इस सम्मेलन के आयोजन के निमित्त था, वह सामाजिक विकास के लिए उपयोगी मूल्यों की तलाश में था। उसने कहा कि जब तक समाज में हम वैश्विक मूल मूल्यों (Universal Core Val- ues) के प्रति ध्यान नहीं देंगे, तब तक समाज का विकास हो नहीं सकता। मूल्यों के आधार पर ही समुदाय में परिवर्तन हो सकता है। समुदाय के परिवर्तन से ही समाज का परिवर्तन यानि विकास होता है। हमने तो पहले से ही अपने कार्यक्रमों में इनका परीक्षण तथा प्रयोग किया था। तो यू.एन. के विश्व भर में आयोजित उन सम्मेलनों में भाग लेने के लिए हमें निमन्त्रण मिला। ब्राज़ील का पृथ्वी संरक्षण सम्मेलन (Earth Summit) हो, कालगणना सम्मेलन (Conference on Aging) हो, टर्की में आयोजित आवास सम्मेलन (Conference on Habitat) हो, कोपनहेगन तथा जिनेवा में आयोजित सामाजिक विकास (Conference on Social Development) सम्मेलन हो, बीजिंग में आयोजित महिला सम्मेलन हो, उन सबमें ब्रह्माकुमारियों का विशेष पार्ट रहा। इन सब सम्मेलनों में हमें बहुत अच्छा परिणाम मिला। भले ही, उन सम्मेलनों में आये हुए प्रतिनिधि राजयोग सीख नहीं पाये लेकिन ब्रह्माकुमारियों के आध्यात्मिक सिद्धान्त तथा विचारों को जान लिया। जब भी यू.एन. में मूल्यों की बात आती है तो वे मानते हैं कि मूल्यों के क्षेत्र में ब्रह्माकुमारियों का एक बड़ा संगठन है। यू.एन. में जब सहस्राब्दि शान्ति सम्मेलन (Millennium Peace Summit) हुआ, तब उन्होंने दादी जानकी जी को आमंत्रित किया था। जब भी वे महिलाओं के कार्यक्रम करते हैं, उनमें हमें बहुत बड़ी भागीदारी देते हैं। वहाँ हम ईश्वरीय ज्ञान तथा राजयोग नहीं सिखाते लेकिन उनके कार्यों में आध्यात्मिकता तथा मूल्यों को प्रयोग करने की विधि बताते हैं। वे हमारे से आध्यात्मिक, नैतिक तथा मूल्यनिष्ठ विधि-विधान की सलाह लेते हैं। वे हमारे से ज्ञान तथा योग की शिक्षा नहीं चाहते परन्तु हमारी धारणा तथा सेवा के विधानों का उपयोग लेते हैं अर्थात् वे हमारी शक्तियों तथा मूल्यों को (Powers and Virtues) चाहते हैं।
प्रश्नः यू.एन. की सेवा के अलावा आप और कौन-सी सेवायें करती हैं?
उत्तरः वहाँ एक स्थान है जिसको क्वीन प्लेस कहते हैं, जहाँ स्पैनिश समुदाय रहता है, वहाँ हम नियमित रूप से राजयोग कोर्स चलाते हैं। उनके स्कूल-कॉलेजों में सकारात्मक चिन्तन तथा तनावमुक्त जीवन आदि के कोर्स चलाते हैं। इसमें विद्यार्थियों के साथ उनके माता-पिता तथा शिक्षक शामिल रहते हैं। हमारी कुछ लाइब्रेरियाँ हैं। अमेरिका में आये हुए शरणार्थी अनेक धर्म, संस्कृतियों के हैं, वे ज़्यादातर तनाव से ग्रस्त रहते हैं। उनको मानसिक रूप से सशक्त बनाने की ज़रूरत होती है। उन लाइब्रेरियों द्वारा उस समुदाय के लोगों की मानसिक क्षमता बढ़ाने की सेवा करते हैं। क्वीन प्रदेश में समय-समय पर गली उत्सव (Street Festivals) होते हैं। उनमें भाग लेने के लिए हमें निमन्त्रण मिलते हैं। हम भी उनमें भाग लेकर अपने साहित्य का प्रदर्शन करते हैं। अमेरिका में एक सामाजिक संस्था है जिसका नाम है: YMCA (Young Men Christian Association)। वह सारी दुनिया में बहुत प्रसिद्ध संस्था है। रोटरी क्लब, लाइन क्लब जैसे सामाजिक कार्य करती है। वे लोग अपने सदस्यों को मेडिटेशन सिखाने के लिए हमें अनेक बार निमन्त्रण देते हैं। इसके अलावा हम उन संस्थाओं के साथ भी काम करते हैं जो दुःखी परिवारों की, रोगियों की सहायता करते हैं। वे जिन लोगों की सहायता करते हैं, उनको हम राजयोग मेडिटेशन का कोर्स कराते हैं।
प्रश्नः आपके परिवार में सबसे पहले ज्ञान में कौन आये ?
उत्तरः मम्मी। पादरी के निमन्त्रण पर जब जयन्ती बहन ग्याना आयी थीं, तब वे हमारे घर में ही ठहरी थीं और हम सब परिवार वालों को सुबह ज्ञान सुनाती थीं। मेरे पिताजी उस समय बहुत व्यस्त थे इसलिए दिन के भोजन के लिए जब आते थे, तब जयन्ती बहन उनको कोर्स कराती थीं। लगभग हमारा सारा परिवार एक ही समय पर ज्ञान में चल पड़ा। पूरे दिसम्बर महीने जयन्ती बहन ग्याना में हमारे साथ थीं। मन्दिरों में, युनिवर्सिटी में, स्कूल-कॉलेजों में उन्होंने भाषण किये। उन सब कार्यक्रमों के आयोजन में ज्ञान को पूरा न समझते हुए भी, हम सहयोग देते थे। बाहर की सेवा के साथ-साथ, जयन्ती बहन हमें रोज़ ज्ञान-योग सिखाती थीं कि कैसे बाबा को याद करना है, कैसे बुद्धि को एकाग्र करना है आदि। फरवरी में दादी गुलज़ार जी हमारे यहाँ आयीं। वे पहली दादी थीं, जो पहली बार हमारे पास आयीं। उनका आना, हमारे जीवन में शीघ्र तथा विचित्र परिवर्तन लाया। हमारा पूरा घर, हमारी जीवन-शैली सब बदल गये। यह हमारा सौभाग्य था कि माताजी के साथ-साथ पिताजी ने भी ईश्वरीय ज्ञान को समझा और हम बच्चों को भी बहुत सहज और स्वाभाविक लगा। हमारे घर से मैं अकेली ही समर्पित हूँ परन्तु मेरे भाई-बहनों का बाबा के प्रति अटूट विश्वास है।
प्रश्नः मधुबन की पहली यात्रा आपने कब की थी?
उत्तरः सन् 1976, अगस्त में पिताजी को रूस सरकार से निमन्त्रण आया था। पिताजी भारत होकर रूस जाना चाहते थे। तो उन्होंने मेरे से पूछा कि शिव बाबा से मिलने भारत चलोगी? मैंने कहा, शिव बाबा से मिलने? हाँ, ज़रूर चलूँगी। उस ग्रुप में हम सात लोग थे। मैं, मेरे माता-पिता, मेरी एक बहन, एक भाई और मेरी मौसी तथा उनकी एक बेटी। भारत मूल के होने के कारण भारत आना हमारे में उत्सुकता पैदा कर रहा था। हम भारत सरकार के अतिथि भी थे। हम मधुबन पहुँचे तब रात हो चुकी थी। जब हम मधुबन के आँगन में आये, बड़ी दीदी, दादी और दादी गुलज़ार वहाँ थीं। उन सबने हमारा स्वागत किया। आकाश में तारे चमक रहे थे, ठंडी-ठंडी हवा के झोंके आ रहे थे, मधुबन के उस शान्त वातावरण को देख हमें अति प्रसन्नता हो रही थी। हमें शान्ति स्तम्भ के पास इन्द्रप्रस्थ में ठहराया गया। अनेक सफ़ेद वस्त्रधारी बहनों को देख मुझे ऐसा लगा कि मैं फ़रिश्तों की दुनिया में आ गयी हूँ जिसको मैंने जीवन में कभी नहीं देखा था। क्लास के बाद बड़ी दादी जी ने हमसे पूछा, आप लोग इन दिनों कैसे आये? हमने कहा, बाबा से मिलने। दादी ने कहा कि इन दिनों तो बाबा आता नहीं है। मैंने मन में कहा कि ऐसे कैसे हो सकता है! मुझे पता नहीं था कि बापदादा का आगमन उनके दिये हुए प्रोग्राम अनुसार होता है। मैं सोचने लगी कि जब हम बच्चे बाबा से मिलने इतने दूर से आये हैं तो बाबा को आना ही चाहिए। अगले दिन, पिता जी को रशिया जाना था और हमें कुछ दिन रुकना था। इसलिए दीदी और दादी जी उन्हें विदाई दे रहे थे, उस समय पिता जी का चेहरा एकदम उतरा हुआ था, एक तरह से दुःख के लक्षण उनके मुख पर दिखाये पड़ रहे थे। मुझे भी बहुत दुःख हो रहा था और मैं बाबा से कह रही थी कि बाबा, हम आपसे मिलने आये हैं, आप हमसे मिलने नहीं आयेंगे? पिताजी चले गये। अगले दिन गुरुवार था तो गुलज़ार दादी भोग लेकर बाबा के पास गयीं। बाबा ने बताया कि ठीक है, मैं एक घंटे के लिए आऊँगा। बाबा हिस्ट्री हॉल में आये थे। उस समय मधुबन निवासी और हम ही थे। मैं तो बाबा के बहुत नज़दीक बैठी थी। मैं तो कभी नहीं देखे हुए दृश्य को देख रही थी और कभी अनुभव नहीं किये हुए अनुभव का अनुभव कर रही थी। बापदादा दादी गुलज़ार के तन में आये और हमें बहुत मीठी दृष्टि दी। हमें और नज़दीक आने के लिए कहा। मेरे में तो बहुत उत्सुकता भरी हुई थी। मैं बाबा को ही देख रही थी और मुझे वही अनुभव हो रहा था जो मैंने पहली बार ब्रह्मा बाबा के नयनों को देखकर किया था। मुझे पक्का निश्चय हुआ कि ये वही हैं जिनके साथ मेरे अमिट रिश्ते-नाते हैं। उस समय बापदादा ने मेरे से पूछा कि आप जानते हो कि बाबा को आपके लिए आना पड़ा तो उसके रिटर्न में क्या करना पड़ेगा? मैं मुस्कराती रही और मन में ही कहती रही कि बाबा, आप हमारे लिए आये, यही बहुत है। भविष्य में क्या करना पड़ेगा, वो भविष्य में देखा जायेगा। जब बाबा मम्मी से मिल रहे थे तो मुट्ठी भर टोली देते हुए कहा कि बच्चे को (मेरे पिताजी को) यह टोली देना और कहना कि बाबा से मिलने का समय उनका अभी नहीं था। बाबा के आने से एक दिन पहले दादी गुलज़ार हम सबको बाबा के कमरे में ले गयी थीं। वे ट्रान्स में गयीं और वापिस आने के बाद उन्होंने कहा कि मैंने बाबा से आने के लिए कहा तो उन्होंने ‘ना’ कह दिया। मुझे तो बहुत तकलीफ़ भी हुई और दुःख भी हुआ। मन में मैंने बाबा से कहा कि बाबा, अगर आप का हमारे में विश्वास है तो आपको आना ही पड़ेगा। मेरी लौकिक बहन ने दादी गुलज़ार से पूछा कि बच्चों को बाप से ज़्यादा प्यार होता है या बाप को बच्चों से ज़्यादा प्यार होता है? हम बाबा से मिलने के लिए इतने दूर से आये हैं, तो बाबा बच्चों से मिलने क्यों नहीं आते? शाम को जब बाबा आये, तो मेरी लौकिक बहन से पूछा कि किसका प्यार ज़्यादा है, बाप का या बच्चों का? ये बाबा के साथ की बहुत अमूल्य घड़ियाँ थीं। बाबा ने बच्चों के प्रति अपने प्यार और विश्वास की प्रत्यक्षता की थी और बच्चों ने भी बाप के प्रति अपने प्यार और विश्वास की प्रत्यक्षता की थी। जीवन में मेरे आगे बढ़ने के लिए मूल कारण यही रहा। बाबा के इस प्यार और विश्वास ने हमें जीवन की अनेक परीक्षाओं तथा परिस्थितियों को सहज पार करने की ताक़त तथा हिम्मत दी।
लौकिक में एक दूसरे के संस्कार तथा सम्बन्धों के साथ व्यवहार करना बहुत मुश्किल का काम होता है। बाबा की पालना तथा प्यार ने मुझे आगे बढ़ने की शक्ति प्रदान की। सदा मैंने बाबा की रक्षा का अनुभव किया है। बाबा ने मुझे अनेक वरदान दिये हैं। पहले बाबा रात भर बैठते थे बच्चों से मिलने के लिए। बच्चे बापदादा के लिए बहुत-सी सौगातें ले आते थे। बापदादा के जाने तक मैं बाबा के पीछे ही बैठी रहती थी और उन सौगातों को टेबल से उठाकर साइड में रखना मेरा काम था। एक बार मैं सारी चीज़ों को उठाकर जाने वाली थी तो मुझे लगा कि शायद बाबा मुझे देख रहे हैं। सच में बाबा मुझे दृष्टि दे रहे थे और मैं भी लेने लगी। कुछ देर के बाद बाबा ने पूछा, भक्त सारी रात गायत्री मंत्र क्यों जपते हैं, पता है? मुझे क्या उत्तर देना है, समझ में नहीं आ रहा था तो मैं चुप खड़ी हो गयी। बाबा ने ही कहा कि आप सारी रात बापदादा के साथ जाग रही हो ना, इसलिए वे सारी रात आपके नाम का मंत्र जपते हैं। मैं तो ख़ुशी से अवाक् रह गयी। एक बार बाबा ने पूछा कि सतयुग में श्रीकृष्ण मुँह में सोने का चम्मच लेकर जन्म लेता है, आपने जन्म लिया तो क्या लेकर लिया? मैं सोच रही थी, क्या उत्तर दूँ? आख़िर बाबा ने कहा कि आपने बापदादा की रक्षा रूपी डबल रोटी मुँह में लेकर जन्म लिया है। जैसे साया शरीर के साथ-साथ चलता है, वैसे बापदादा का रक्षा-कवच सदा आपके साथ चलेगा ।
प्रश्नः लौकिक में आपका लक्ष्य क्या था?
उत्तरः मैं डिप्लोमैट (हाईकमिशनर; कूटनीतिज्ञ) बनना चाहती थी। विशेष रूप से मुझे विदेशनीति में बहुत रुचि थी। डिग्री पूरी होने के बाद मैं डिप्लोमैसी पढ़ना चाहती थी, उतने में बाबा ने अपना बना लिया। मैं लौकिक डिप्लोमैट नहीं बन सकी लेकिन आध्यात्मिक डिप्लोमैट ज़रूर बन गयी। क्योंकि मेरी सेवा ही है राजनैतिक तथा आध्यात्मिक नेताओं के और उनके कार्यकलापों के साथ तालमेल स्थापित करना।
प्रश्नः शिव बाबा के साथ कौन-सा सम्बन्ध आपको अति प्रिय है?
उत्तरः फादर का। परमात्मा मेरा परमप्रिय पिता है। जब मैं उसके सामने रहती हूँ, पिता के अलावा और कोई सम्बन्ध मैं जोड़ ही नहीं सकती। वो मेरा प्यारा, अति प्यारा पिता है। वही सम्बन्ध मुझे क्यों अति प्रिय है, इसका कारण है कि वह मेरा संरक्षक है, वह मेरा गाइड है, वह मेरा आदर्श है। लौकिक पिता के साथ भी मेरा इसी तरह का सम्बन्ध था, वही सम्बन्ध शिव बाबा के साथ जुड़ गया। पिता बच्चों को बहुत अच्छी तरह जानता है। बाप ही बच्चों को आगे बढ़ाता है। उसकी (परमात्मा की) बेटी होने के कारण मुझे वह आगे बढ़ाता है और मेरे उत्कर्ष के बारे में ही सोचता रहता है। यह काम पिता ही कर सकता है क्योंकि बच्चे उसकी रचना हैं। माँ भी ऐसी होती है लेकिन पिता शक्तिशाली होता है, उसके पास शक्ति, अधिकार होता है।
प्रश्नः आपके दादा-परदादा कहाँ के थे?
उत्तरः भारत के थे। निश्चित रूप से वे किस स्थान के थे- यह मुझे पता नहीं है लेकिन दक्षिण भारत के थे। मेरी मम्मी के परिवार वाले भारत के राजस्थान के थे परन्तु किस स्थान से थे, मुझे पता नहीं। मम्मी के दादा जी ने यहाँ एक बड़ा शिव मन्दिर बनाया, वे शाकाहारी थे तथा बड़े धार्मिक वृत्ति वाले थे। मेरे पिताजी के परिवार वाले थोड़ा बहुत आधुनिक सम्प्रदाय वाले थे। पढ़े-लिखे थे। मम्मी के परिवार वाले ज़्यादातर कृषि करने वाले थे, ज़मीनदार थे।
प्रश्नः ज्ञान में आने से पहले भारत के प्रति आपकी क्या भावनायें थीं?
उत्तरः हमें तो भारत के प्रति बहुत प्यार था। धर्म का दूसरा नाम हम भारत मानते थे। भारत को हम अपने पूर्वजों की मातृभूमि समझते थे। समझते थे कि भारत हमारे पूर्वजों का देश है, तो हमारा भी मूलस्थान है। भले ही वर्तमान की 2-3 पीढ़ियाँ वहाँ की हैं लेकिन हमारे दादा-परदादा भारत के थे। भले ही हमने भारत को देखा नहीं था लेकिन भारत के साथ हमारा भावनात्मक तथा धार्मिक सम्बन्ध तो था ही। शिवरात्रि पर हम सब सुबह तीन बजे उठकर ठण्डे पानी से स्नान करते थे। हमारे घर में भारत के सब त्यौहार मनाते थे, जैसे कि दीपावली, होली, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी इत्यादि। मैं भी मम्मी के साथ मन्दिर जाती थी, उनके कहने अनुसार भक्ति की कुछ रस्में निभाती थी लेकिन मन में कोई भक्ति भावना नहीं थी। बड़े कह रहे हैं इसलिए करती थी। हम शिवलिङ्ग की पूजा ही ज़्यादा करते थे।
प्रश्नः आप भारतवासियों से क्या कहना चाहती हैं?
उत्तरः भारतवासी बड़े भाग्यशाली हैं क्योंकि भारत महान् पवित्र भूमि है, बहुत प्राचीन देश है। जब हम भारत की धरनी पर भ्रमण करते हैं तो हमें पता पड़ता है कि भारत कितना पुराना देश है। भारत देवी-देवताओं का स्थान है, उनकी पवित्रता की ख़ुशबू किसी न किसी रूप से हमें आती है। ऐसे स्थान पर आप लोगों ने जन्म लिया है और निवास कर रहे हैं इसलिए आप बड़े भाग्यशाली हैं। भारत की भौतिक प्रगति के लिए वहाँ के लोग बहुत प्रयत्न कर रहे हैं। आज भारत का नाम सूचना प्रौद्योगिकी में बहुत बड़ा है, अपनी रोशनी फैला रहा है। वैसे भी भारत अपने अनिवासी भारतीयों द्वारा विश्व भर में अपनी संस्कृति की सुगन्धी फैला रहा है। व्यापार तथा विज्ञान के क्षेत्र में भारत ने विश्व में अपना नाम बनाया है परन्तु भारतवासियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत की सच्ची रोशनी, सच्ची शान उसकी आध्यात्मिकता में है। इस आध्यात्मिकता के प्रकाश के सामने अन्य वस्तुओं का कोई मूल्य नहीं। भारत को अपने सर्वोन्मुखी विकास के साथ-साथ अपने आध्यात्मिक विकास को भी नहीं भूलना चाहिए। यही भारतवासी भाई-बहनों के लिए मेरी सविनय सम्पन्न राय है, आशा है।
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