ब्र.कु.रजनी बहन जी का जन्म और पढ़ाई दिल्ली में हुई। वे सन् 1970 से राजयोग का नियमित अभ्यास कर रही हैं। उन्होंने सन् 1979 में लन्दन में सेवायें दीं। उसके बाद डेढ़ साल न्यूयार्क में भी रहीं। बाद में आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड में और सन् 1983 में फिलिपिन्स में सेवा के लिए निमंत्रण मिला तो वहाँ भी सेवा की। वर्तमान समय दीदी जी जापान और फिलीपिन्स की सेवाओं के निमित्त हैं। साथ-साथ कोरिया, ताइवान और हाँगकाँग की सेवाओं की भी देखरेख करती हैं। वे कहतीं हैं:
मेरी माँ श्रीकृष्ण की बहुत भक्ति करती थी परन्तु मैंने देखा कि उनके जीवन में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं था, उनको सदा तनाव रहता था। लौकिक में हम पाँच भाई-बहनें थे। कुछ समय के बाद, एक दिन देखा कि माताजी के हाव-भाव, वृत्ति-व्यवहार में परिवर्तन था। मैंने उनसे पूछा कि आप कहाँ जाती हो, क्योंकि आजकल आप गुस्सा नहीं करती हो? उसने कहा, मैं मेडिटेशन सीखने जाती हूं। मेडिटेशन से मेरे स्वभाव और चिड़चिड़ेपन पर कन्ट्रोल हो गया है। तब मुझे ऐसे लगा कि मेडिटेशन से इनका मन बदल सकता है तो मैं भी क्यों न सीखूं! फिर मैंने उनसे कहा कि आप मुझे भी मेडिटेशन सिखायेंगी? यह बात थी सन् 1962 की, तब मैं आठ साल की थी। तब माताजी मुझे ज्ञान सीखने ले गयी, सात दिन का कोर्स दिलवाया। दिल्ली राजौरी गार्डन में सुदेश दीदी थीं, वे हमारी टीचर थीं। हमने वहीं से सम्बन्ध रखा। फिर दिल्ली पाण्डव भवन में ट्रेनिंग ली, उसके बाद हम मधुबन आये। इस रीति, बचपन से ही हम सहज रीति से ज्ञान में आये। हमारे घर में ज्ञान के प्रति, शिव बाबा के प्रति अच्छी भावना, ब्रह्माकुमारियों के प्रति आदर भाव रहने के कारण और माताजी भी ज्ञान में रहने के कारण मुझे कोई बन्धन, रुकावट या विघ्न नहीं आया। ज्ञानमार्ग में हमारे पुरुषार्थ की यात्रा निर्विघ्न और सहज रीति से चलती रही।
प्रश्नः ज्ञान में आपको सबसे अच्छी कौन-सी बात लगी?
उत्तरः सबसे अच्छी बात मुझे स्व-परिवर्तन की लगी; क्योंकि इस ईश्वरीय ज्ञान के मार्गदर्शन से हम जीवन के सही लक्ष्य को चुन सकते हैं, जीवन को बदल सकते हैं अर्थात् जितना चाहें उतना श्रेष्ठ बन सकते हैं। ईश्वरीय ज्ञान मुझे बहुत अच्छा लगा। यह ज्ञान इतना सहज है कि बचपन से ही मुझे यह समझ में आता गया। सेवाकेन्द्र के पवित्र, शान्त और शक्तिशाली वातावरण ने मुझे बहुत प्रभावित किया। बचपन से ही मैंने अपने जीवन को अच्छे वातावरण में बिताया है। घर में भी अलौकिक वातावरण रहा।
प्रश्नः आपके परिवार में और कौन-कौन ज्ञान में चलते हैं?
उत्तरः हमारे परिवार में तीन पीढ़ियाँ ज्ञान में चलती हैं। पहले मेरी लौकिक माँ और मौसी, दूसरी मैं और मेरा मौसेरा भाई और बहन। तीसरी, मौसेरे भाई की बेटी सन्तोष बहन, जो वर्तमान समय रशिया में ईश्वरीय सेवा कर रही है।
प्रश्नः अव्यक्त बापदादा से पहली बार कब मिली थीं और क्या अनुभव हुआ?
उत्तरः सन् 1970 में मैं अव्यक्त बापदादा से पहली बार बाबा के कमरे में मिली थी। बाबा ने मुझे दृष्टि दी तो मुझे यह अनुभव हुआ कि भाग्यविधाता बाप मेरे भाग्य को बनाने के लिए, चमकाने के लिए आये हुए हैं। यह भी महसूस हुआ कि यही मेरे असली पिता हैं जो मेरी जन्मपत्री को जानते हैं। तीसरा अनुभव यह हुआ कि ये मेरे जाने-पहचाने हैं, कई बार मैं इनसे मिल चुकी हूँ। मैं समझती हूँ, कल्प पहले की स्मृति बहुत स्पष्ट रूप से प्रकट हुई थी।
एक बार मैं जापान से अव्यक्त बापदादा से मिलने आयी थी तो मिलते समय बाबा ने पूछा, आपको मेहनत महसूस होती है? हालाँकि मैंने बाबा से कुछ कहा नहीं था लेकिन बाबा ने ही मन की बात बतायी थी। बाबा ने कहा, बच्ची, जहाँ बाबा का प्यार है, मुहब्बत है, वहाँ मेहनत महसूस नहीं होती। इसलिए सदा बाबा के साथ हूँ- यह अनुभव करो। तब से मुझे यह अनुभव होता है कि सदा बाबा मेरे साथ है और सेवा में कितनी भी परिस्थितियाँ या परीक्षायें आयीं लेकिन मुझे मेहनत नहीं लगी, सहज रूप से मैंने उनको पार कर लिया।
प्रश्नः आपने सेवा कहाँ-कहाँ की? कैसे की?
उत्तरः सबसे पहले मैंने दिल्ली, पाण्डव भवन में तीन साल सेवा की। आबू के म्यूज़ियम में भी दो महीने सेवा की। सन् 1978 में एक साल लन्दन में रही और वहाँ ट्रेनिंग ली। उसके बाद मैं न्यूयार्क गयी। लन्दन में मेरी सेवा हिन्दी में थी। वहाँ के भारत वालों को, हिन्दी जानने वालों को कोर्स कराती थी लेकिन न्यूयार्क में भारत के मूल के लोगों से सम्बन्ध नहीं रहा। विदेशियों से अर्थात् अन्य धर्म वालों की ज्ञान से सेवा करनी पड़ी। वहाँ मैंने बहुत कुछ सीखा, जैसे कि, ईश्वरीय ज्ञान को कैसे अन्य धर्म वालों को समझाना है, सेन्टर को कैसे चलाना है, स्टूडेन्ट्स को कैसे संभालना है और किस प्रकार राजयोग सिखाना है आदि-आदि। उसके बाद मैं जापान की सेवा में गयी। जापान में धर्म अलग, संस्कृति अलग और मुझे वहाँ की भाषा भी नहीं आती थी। जाने के बाद थोड़ी वहाँ की भाषा सीखी। बाबा की मदद से, अपनी हिम्मत से सेवा करने लगी।
एक बार मैं टोकियो गयी थी। उस समय तो मुझे वहाँ की भाषा बिल्कुल नहीं आती थी। मैंने एक शब्द सीखा था। वो शब्द था ‘इक्की’। इक्की का मतलब है ‘जाना’, जैसे यह ट्रेन कहाँ जाती है? एक बार, किसी कारण से वहाँ हमारी ट्रेन छूट गयी। जिस बहन के साथ मुझे जाना था, वह आगे चली गयी। मैं वहाँ खड़ी होकर सोच रही थी कि इसी शब्द को इस्तेमाल करके कैसे भी घर पहुंचना है। मैंने किसी से पूछा कि यह ट्रेन कहाँ जाती है? मैंने देखा, अगर अपने में निश्चय है तो निश्चित रूप से हम सफलता पा सकते हैं। भाषा न आते हुए भी मैं घबरायी नहीं। अपने ही स्वमान में रहकर उस एक ही शब्द को इस्तेमाल करते, मैं अपनी जगह पहुँच गयी। भले ही स्थान नया हो, देश नया हो, सेवा नयी हो लेकिन अपने में और बाबा में निश्चय है और हिम्मत है तो कोई न कोई रास्ता निकल आता है। जापान का दूसरा मेरा बहुत सुन्दर अनुभव है कोबे भूकम्प का। सन् 1995 में कोबे में बहुत बड़ा भूकम्प आया था। सेन्टर पर मैं अकेली बैठी थी। सुबह के पौने छह बजे थे। मैं क्लास रूम में बैठकर बाबा का गीत सुन रही थी। बहुत ज़ोर से सारा मकान झूले की तरह हिला तो मैंने समझा कि यह बहुत बड़ा भूकम्प है। उस समय बीम के नीचे खड़े होकर मैं बाबा के साथ वार्तालाप करती रही कि बाबा, यह तो बहुत बड़ा भूकम्प है। शरीर को कुछ भी हो सकता है लेकिन मैं अविनाशी आत्मा हूँ, आपके साथ हूँ। शरीर छूटता है तो ठीक, नहीं तो आप की सेवा करती रहूँगी। मैंने देखा कि हमारा जो पहला पाठ है, पहली स्मृति है कि मैं अविनाशी आत्मा हूँ, इस संकल्प से मेरे को घबराहट नहीं हुई, अधीरता नहीं हुई और मन पर एकदम नियन्त्रण रहा। फिर मैंने सोचा कि मुझे क्या करना है। सर्दियों के दिन थे, काफी ठण्ड थी, बर्फ गिर रही थी। मुझे कोट पहनकर जल्दी से तीसरी मंजिल से पहली मंज़िल पर जाना था और अन्धेरा भी था। मैं बाबा को याद करते-करते उस अन्धेरे में ही बाहर आयी। बाहर एक छोटा बच्चा और उसके माँ-बाप थे। उनको थोड़ी मदद चाहिए थी, मैंने उनको मदद की। उसके बाद मैंने बाहर देखा कि सारे लोग बहुत घबराये हुए हैं, चारों तरफ़ बहुत मकान गिरे हुए थे। मैंने यह भी देखा कि मेरा मन क्लीयर (स्पष्ट) था, कोई घबराहट नहीं थी। बाबा के साथ मेरा सम्पर्क बहुत अच्छा और स्पष्ट था। उस समय वहाँ 70-80 भारत के लोग थे, उनके साथ मैं रही। उन्होंने कहा कि आप तो एकदम शान्त हैं, न घबरायी हैं, न रो रही हैं, न चिल्ला रही हैं। यह कैसे है? मैंने कहा, मैं मेडिटेशन करती हूं। फिर उन्होंने कहा, हमारा मन स्थिर नहीं हो रहा है, हमें भी मेडिटेशन सिखाओ। मैंने कहा, तेरह सालों से मैं आपको कह रही हूँ कि मेडिटेशन सीखो, आपने सीखा नहीं। इसलिए अभी आप जिसको मानते हैं, जिस पर विश्वास करते हैं, उनको याद करो। उन्होंने कहा कि हमें उनकी याद नहीं आ रही है, मन एकाग्र नहीं हो रहा है। उस समय मैंने यह अनुभव किया कि जीवन में हम जिस चीज़ का अभ्यास करते हैं, चाहे एक घंटा करो, चाहे कैसे दो घंटे करो, उसका ही बल हमारे में संग्रह हो जाता है। वही बल जीवन के ऐसे आपात् काल में काम आता है। मैंने पूछा, आप लोग इतने समय से भक्ति करते हैं तो उनकी याद क्यों नहीं आ रही है? उन्होंने कहा कि हम भक्ति में कइयों को याद करते थे, अभी किसको याद करें, यह समझ में नहीं आ रहा है। आप हमें मेडिटेशन सिखाओ। फिर मैंने कमेन्ट्री द्वारा उनको मेडिटेशन सिखाया, मन को स्थिर कराया।
मैंने देखा कि इन्सान जीवन में कितनी चीजें इकट्ठी करता है! जब ऐसा समय आता है तो उसको यह सब याद नहीं आता कि यह उठाऊँ या वह उठाऊँ लेकिन कैसे भी करके मैं बच जाऊँ यही याद रहता है। मुझे यह भी अनुभव हुआ कि संग्रहवृत्ति भी समय पर काम आने वाली नहीं है। अन्त में मन में यही एक संकल्प रह जाता है कि जो जीवन अभी मेरे पास है, वही बच जाये। तीसरी अनुभूति मुझे उस समय यह हुई कि बाबा के साथ हमारा कनेक्शन तथा कम्युनिकेशन (सम्बन्ध तथा सम्पर्क) बहुत स्पष्ट चाहिए। मेरे को अनुभव हुआ कि मैं तो अकेली थी। दैवी परिवार का कोई नहीं था, सब दूर-दूर थे, अपने-अपने परिवार वालों के साथ। वहाँ जो मौजूद थे वे सहयोगी और सम्बन्ध सम्पर्क वाले थे, वे भारत के थे। उन्होंने कहा कि हम लोग जा रहे हैं, आप क्या करेंगी? मैंने बाबा से पूछा कि बाबा, इनके साथ मैं जाऊँ या नहीं जाऊँ? फिर मैंने उनसे पूछा कि क्या आप मुझे साथ ले चलेंगे? वे दूसरे शहर जा रहे थे। उन्होंने कहा कि हम नहीं ले जा सकते क्योंकि हमारे पास गाड़ी में जगह नहीं है। फिर मैंने बाबा से कहा, बाबा, वे कहते हैं, जगह नहीं है तो मैं जाऊँ? अगर मुझे जाना है तो आप उनको प्रेरणा दीजिये। वो भाई जिससे मैंने पूछा था और जिसने ना कहा था, थोड़े समय के बाद ऊपर सेन्टर में आया। मैं तो बाबा के कमरे में बैठी थी। उसने कहा, रजनी बहन, मुझे एक शक्तिशाली प्रेरणा आयी है कि आपको साथ में ले चलना है, आप चलो हमारे साथ। मैंने देखा कि बाबा के साथ का हमारा स्पष्ट सम्पर्क जो है, वह हमारी सुरक्षा का एक बहुत बड़ा साधन है, शस्त्र है। बाबा के आदेश स्पष्ट रूप से समझ में आते हैं।
उस समय मेरे पास न खाना था, न पानी था लेकिन मन स्थिर था क्योंकि मन को एक ठिकाना मिला हुआ था बाबा को याद करने का और मेरे में दृढ़ विश्वास था कि मेरे साथ बाबा है, मेरा रक्षक बाबा है, वो जो ऐसे समय पर सबको सहारे की ज़रूरत होती है। अगर हम निर्भय और स्थिर होंगे तो उससे दूसरों को भी सहारा मिलता है। अपनी अवस्था से हम दूसरों की भी मदद करने का पार्ट अदा कर सकते हैं। कार द्वारा एक शहर से दूसरे शहर पहुँचने के लिए हमें 14 घंटे लगे थे। वैसे तो वह रास्ता केवल 45 मिनट का था। इस अनुभव से मुझे दृढ़ विश्वास हुआ कि आत्म-अभिमानी बनके रहने का, बाबा की याद में टिके रहने का जितना अभ्यास हम करते हैं उससे समय पर बहुत मदद मिलती है।
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