Light The Lamp Of Divinity This Diwali (Part 2)
Discover the deeper meaning of Diwali: from lighting diyas to overcoming ego and negativity, each tradition embodies spiritual transformation.
वर्तमान समय में, लोगों का जन्मदिन मनाने का रिवाज़ बहुत प्रचलित है। शायद यह प्रथा हमारे पूज्य महापुरूषों व देवताओं के जन्मदिन मनाने से ही प्रेरित हुई होगी। भारतवर्ष में, कभी स्वामी विवेकानन्द जी, कभी महावीर जी, कभी गाँधीजी, कभी तिलक जी की जयंती और कभी सुभाषचंद्र बोस जी का जन्मदिन मनाया जाता है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि दूसरे जो प्रसिद्ध व्यक्ति हुए हैं, जिनके जन्मदिन एक सार्वजनिक उत्सव बन गये हैं, वे कोई जन्म से ही पूज्य या महान नहीं थे। वे रत्न-जड़ित स्वर्णमुकुट से भी सज्जित नहीं थे और ना ही वे ‘महाराजाधिराज-श्री’ की उपाधि से तथा ‘पवित्र-श्री’ अथवा ‘पूज्य-श्री’ की उपाधि से युक्त थे। अतः ‘श्रीकृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव’ इस दृष्टिकोण से अनुपमेय है, क्योंकि श्रीकृष्ण को तो भारत के राजा भी पूजते हैं और महात्मा भी महान एवं पूज्य मानते हैं। जैसे कि हम सभी जानते हैं कि स्वामी विवेकानन्द संन्यास लेने के बाद ही महान माने गये। महात्मा गांधी प्रौढ़ अवस्था में ही एक राजनीतिक नेता के रूप में प्रसिद्ध हुए। यही बात संत तुलसी, संत कबीर एवं वर्धमान महावीर जी आदि के बारे में भी कही जा सकती है। परन्तु श्रीकृष्ण की विशेषता है कि उनके जन्म के समय भी उनकी माता को विष्णु चतुर्भुजका साक्षात्कार हुआ और वे जन्म से ही पूज्य पदवी को प्राप्त थे। आप उनके किशोरावस्था के चित्रों में भी उन्हें रत्नजड़ीत ताज और लाइट् के ताज से सुशोभित देखते होंगे। उनकी बाल्यावस्था के जो चित्र मिलते हैं, उनमें भी वे मोरपंख, मणि-जड़ित आभूषण तथा प्रभामण्डल से युक्त देखे जाते हैं।
भारत देश में मनाये जाने वाले पर्व और जयन्ति मनुष्य को उसकी विवेचना करने, उनकी महानताओं को आत्मसात करने तथा स्मृतियों को ताजा करने के होते हैं। वैसे जन्म तो हर एक मनुष्य का मनाया जाता है परन्तु कुछ महापुरुष अथवा देवपुरुष ऐसे हैं जिससे लोगों को अलौकिक एवं आध्यात्मिक शक्ति तथा महान कर्म करने की प्रेरणा मिलती है। यही कारण है कि विज्ञान के युग में भी इसकी महत्ता दिनों-दिन बढ़ती जाती है। ऐसे भी, आज के युग में श्रीकृष्ण की जयंति मना लेना ही पर्याप्त नहीं बल्कि उनके द्वारा किये महान कर्मों के बारे में गहराई से चिंतन करने की आवश्यकता है। उनका जन्म एक ऐसे वक्त पर हुआ जब संसार में अधर्म, पापाचार, अत्याचार, पारिवारिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न होना, आसुरी वृत्ति का बोलबाला, सत्यता लुप्त होकर झूठ का साम्राज्य था। उनकी बाल-लीलाओं तथा प्रत्येक कर्मों की आध्यात्मिक व्याख्या मनुष्य के लिए सन्देश है।
यह भी सत्य है कि जिन व्यक्तियों की जयंतियां मनाई जाती हैं वे 16 कला सम्पन्न नहीं थे। श्रीकृष्ण में शारीरिक आरोग्यता और सुंदरता थी, आत्मिक बल और पवित्रता थी तथा दिव्य गुणों की पराकाष्ठा थी। सतयुग से लेकर कलियुग के अंत तक मनुष्य चोले में जो सर्वोत्तम जन्म हो सकता है वह उनका था, अन्य कोई शारीरिक य आत्मिक दोनों दृष्टिकोणों से उतना सुंदर, आकर्षक,प्रभावशाली व्यक्ति ना ही हुआ और न ही हो सकता है। श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व इतना महान और आकर्षक था कि यदि आज भी वे इस पृथ्वी पर कुछ देर के लिए प्रकट हो जाएँ तो सभी प्राणी उनके सामने नत-मस्तक हो जाएंगे और मंत्रमुग्ध हो उनकी छवि निहारते खड़े रह जाएंगे। अगर सामान्य तौर पर देखा जाये तो उनका जन्म, केवल एक साधारण मनुष्य की जन्म की तरह दिखायी देगा परन्तु जब हम तार्किक और उनके कर्तव्यों की व्याख्या करेंगे तब उनके मानवीय कल्याणकारी संदेशों का आभास होने लगेगा।
गीता में कृष्ण ने अर्जुन को मानवीय धर्म का विस्तृत वर्णन कर युद्ध के लिए प्रेरित करना, परमात्मा में विश्वास के लिए जगत नियंता परमात्मा के असली स्वरूप का साक्षात्कार कराना-मनुष्य को गहराई से सोचने के लिए काफी है। श्रीकृष्ण एक ऐतिहासिक महापुरूष थे इसका स्पष्ट प्रमाण ‘छान्दोग्य उपनिषद’ में मिलता है। इसके (3.17.6) अध्याय में कहा गया है कि देवकी पुत्रश्रीकृष्ण को महर्षि आंगिरस ने निष्काम कर्म रूप उपासना की शिक्षा दी थी, जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण तृप्त अर्थात् सम्पूर्ण पुरुष हो गए थे अर्थात् वे ईश्वर के तुल्य महान कर्म करने वाले बन गये थे।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को मनुष्यों के देह से ऊपर उठते हुए आत्मकेन्द्रित होने के लिए आत्मा और उसकी सम्पूर्ण क्रियाओं का विवेचन किया था। अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा था कि “जिनको तुम अपना समझ रहे हो और जिन्हें सगे-सम्बन्धी कह रहे हो, ये सब केवल शारीरिक रूप में हैं। ये तो पहले से ही मरे हुए हैं। आत्मा कभी मरती नहीं और संसार में जितने भी लोग हैं वे सभी आत्मायें है,शरीर नहीं।” वास्तव में, अर्जुन अर्थात् ज्ञान का अर्जन करने वाला। इसलिए आज प्रत्येक मनुष्य को अर्जुन बनने की आवश्यकता है। श्रीकृष्ण ने प्रत्येक मनुष्य की मनःस्थिति की अवस्थाओं का रूप बताया है। महाभारत प्रत्येक घर की कहानी बतायी है। जिसका बिगड़ता रूप हर एक घर में देखा जा सकता है। आज हर घर में भाई-भतीजावाद की पराकाष्ठा है कि लालचवश एक-दूसरे की हत्त्या, व्यभिचार और अत्याचार की कोई सीमा नहीं है।
अब प्रश्न उठता है कि जबकि श्रीकृष्ण जन्म से ही महान थे तो अवश्य ही उन्होंने पूर्व जन्म में कोई महान पुरूषार्थ किया होगा। लोगों में एक छन्द भी प्रसिद्ध है जिसका अर्थ यह है कि ‘हे राधे तुमने कौन-सा ऐसा पुरूषार्थ किया था कि जिससे वैकुण्ठ नाथ श्रीकृष्ण तुम्हारे अधीन हो गये?’ तो जो बात राधे के बारे में पूछने योग्य है, वही श्रीकृष्ण के बारे में पूछी जा सकती है कि ‘वह कौन-सा सर्वश्रेष्ठ पुरूषार्थ था जिससे उन्होंने उस सर्वश्रेष्ठ देवपद को तथा राज्य-भाग्य को प्राप्त किया?’ श्रीमद्भागवत् में लिखा है कि कृष्ण योगीराज थे, वे योगाभ्यास किया करते थे। परन्तु सोचने की बात है कि योगाभ्यास या अन्य कोई पुरूषार्थ तो किसी अप्राप्त सिद्धि की प्राप्ति के लिए किया जाता है, परन्तु श्रीकृष्ण तो पूर्णतः तृप्त थे क्योंकि उन्हें धर्म, धन और जीवनमुक्ति सभी श्रेष्ठ फल प्राप्त थे। सोलह कला सम्पूर्ण देवपद से भला और क्या उच्च प्राप्ति हो सकती थी कि जिसके लिए श्रीकृष्ण योगाभ्यास करते? श्रीकृष्ण के जीवन में तो किसी दिव्य गुण की, आत्मिक पवित्रता या शक्ति की या श्रेष्ठ भाग्य के अन्तर्गत गिनी जाने वाली अन्य किसी वस्तु, भोग्य, आयु आदि की कमी नहीं थी कि जिसकी प्राप्ति के लिए वे योगाभ्यास करते? अतएव विवेक द्वारा तथा ईश्वरीय महावाक्यों द्वारा स्पष्ट है कि वास्तव में श्रीकृष्ण ने अपने पूर्व जन्म में अर्थात् श्रीकृष्ण पद प्राप्त होने से पहले वाले जन्म में योगाभ्यास किया था। श्रीकृष्ण के नाम के साथ तो श्री की उपाधि का प्रयोग करते हैं परंतु अपने जीवन में श्रेष्ठता लाने पर हमें विचार करना चाहिए। श्रीकृष्ण को मनमोहन अर्थात् मन को मोह लेने वाला कहा गया है क्योंकि उनका किसी व्यक्ति, वस्तु, वैभव में मोह नहीं था बल्कि सभी के मन को वे आकर्षित करने में सक्षम थे। कृष्ण शब्द का अर्थ है-आकर्षित करने वाला, बुराइयों से छुड़ाने वाला अथवा आनंद स्वरुप।
उक्ति प्रसिद्ध है कि ईश्वरीय ज्ञान द्वारा ‘नर को श्री नारायण और नारी को श्री लक्ष्मी पद की प्राप्ति होती है।’ तो स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण अपने श्री नारायण पद की प्राप्ति से पहले वाले जन्म में साधारण नर रहे होंगे और उसी जीवन में उन्होंने गीता-ज्ञान की धारणा की होगी। गीता में ये ईश्वरीय वाक्य हैं कि ‘हे वत्स्! इस ज्ञान और योग द्वारा तू स्वर्ग में राजा बनेगा’ और कि ‘तू इस योग द्वारा श्रीमानों के घर में जन्म लेगा।’ इससे सिद्ध है कि ‘श्री’ की देवोचित उपाधि का अधिकारी बनने से पूर्व तथा वैकुण्ठ का देवराज पद प्राप्त करने से पूर्व के जन्म में ही श्रीकृष्ण ने गीता-ज्ञान और योगाभ्यास रूपी पुरूषार्थ किया होगा। लोग यह वाक्य भी प्रायः प्रयुक्त किया करते हैं कि ‘न जाने नारायण किस साधारण रूप में आ जायें?’ इससे भी संकेत मिलता है कि श्री नारायण पहले साधारण रूप में होंगे और तब उन्होंने श्री नारायण पद दिलाने वाला पुरूषार्थ किया होगा।
आज लोग अपने संस्कारों को नहीं बदलते और जीवन को पवित्र नहीं बनाते, केवल श्रीकृष्ण का आह्वान करते हैं, परन्तु सोचने की बात है कि क्या श्रीकृष्ण आज के इस दूषित वातावरण में जन्म ले सकते हैं? आज तो संसार में तमोगुण की प्रधानता है और सभी में काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार की प्रचुरता है, मानो सभी शूद्र हैं। ऐसे लोगों के बीच क्या श्रीकृष्ण पधार सकते हैं?
हम देखते हैं कि श्रीकृष्ण के मन्दिरों में हर प्रकार से स्वच्छता बरती जाती है, शुद्ध भोजन का भोग लगाया जाता है और लोग अशुद्ध संकल्पों एवं व्यवहारों से तथा विकारों से भी बचकर रहते हैं। फिर मन्दिर में धूप-दीप जगाकर वातावरण को सुगन्धित तथा प्रकाश से आलोकित किया जाता है। अत: श्रीकृष्ण का आह्वान करने के लिए पहले तो आहार-व्यवहार-विचार के शुद्धिकरण की आवश्यकता है।
आज तो भारत में श्रीकृष्ण के पधारने के लिए तो कोई जगह ही खाली नहीं है, कोई सिंहासन ही नहीं है। सभी के हृदय रूपी सिंहासन पर किसी न किसी विकार का अधिकार जमा हुआ है, तब एक नगर के दो राजा कैसे हो सकते हैं? इसलिए भले ही श्रीकृष्ण का आप लाख बार आह्वान कर लीजिए परन्तु जब तक हर नर-नारी का मन मन्दिर नहीं बना है, जब तक यहाँ दिव्य गुणों की अगरबत्ती से वातावरण सुगन्धित नहीं हुआ है, जब तक उनका मन ज्ञान द्वारा आलोकित नहीं हुआ है तब तक श्रीकृष्ण, जो कि देवताओं में भी श्रेष्ठ और शिरोमणि हैं, यहाँ नहीं आ सकते!
आज लोग जन्माष्टमी का उत्सव मनाते हैं तो बिजली के सैंकड़ों बल्ब जगाकर खूब उजाला करने का यत्न करते हैं। परन्तु आज आत्मा रूपी बल्ब तो फ्यूज हो चुका है! आज बाहर तो रोशनी की जाती है परन्तु स्वयं आत्मा रूपी चिराग के तले अन्धेरा है और उस अन्धेरे में विकार रूपी चोर छिपे बैठे हैं। अत: आज आवश्यकता है इस ओर ध्यान देने की कि श्रीकृष्ण ने गीता-ज्ञान तथा राजयोग के अभ्यास द्वारा ही वह श्रेष्ठ पद प्राप्त किया था। परन्तु आज लोग श्रीकृष्ण का गायन-पूजन तो करते हैं और उनकी महिमा तथा महानता का बखान करते हैं परन्तु जिस सर्वोत्तम पुरूषार्थ द्वारा उन्होंने वह महानता प्राप्त की थी और पदमो-तुल्य जीवन बनाया था, उस पुरूषार्थ पर अथवा ज्ञान-योग रूपी साधन पर वे ध्यान नहीं देते। वे यह नहीं सोचते कि श्रीकृष्ण हमारे मान्य पूर्वज थे। अतएव हमारा कर्तव्य है कि हम उनके उच्च जीवन से प्रेरणा लेकर अपना जीवन भी वैसा उच्च बनाने का यथार्थ पुरूषार्थ करें।
अत: प्रश्न उठता है कि श्रीकृष्ण ने कौन-सा यज्ञ, कौन-सा दान-पुण्य अथवा कौन-सा युद्ध किया था? जिसके फलस्वरुप उनको ऐसा सर्वोत्तम, दो-ताजधारी पूज्य देव पद प्राप्त हुआ कि जिसका आज तक गायन-वन्दन है? परमपिता परमात्मा शिव ने अब इसके विषय में समझाया है कि श्रीकृष्ण ने प्रजापिता ब्रह्मा के रूप में ईश्वरीय ज्ञान धारण करके, ‘ज्ञान यज्ञ’ रचा था। उन्होंने अपना तन,मन और धन सम्पूर्ण रीति से उस यज्ञार्थ ‘ईश्वरार्पण’ कर दिया था। उन्होंने अपना जीवन मनुष्य मात्र को ज्ञान-दान देने में लगा दिया था और जन-मन को परमपिता परमात्मा से योग-युक्त करने तथा उन्हें सदाचारी बनाने में व्यतीत किया था। उन्होंने काम, क्रोध,लोभ, मोह तथा अहंकार, जिन्हों का उस समय समस्त भू-मण्डल पर अखण्ड राज्य था, को ज्ञान-तलवार तथा योग के कवच के प्रयोग से जीता था।
इसी के फलस्वरुप उन्होंने भविष्य में सृष्टि के पवित्र हो जाने पर, सतयुग के आरम्भ में श्रीकृष्ण के रूप में अटल, अखण्ड और अति सुखकारी तथा दो ताजधारी स्वर्गिक स्वराज्य तथा पूज्य देव पद प्राप्त किया था। इससे हमें यह बोध होता है कि ‘ज्ञान-यज्ञ ही सभी यज्ञों में से श्रेष्ठ है।’ ज्ञान-दान ही सर्वोत्तम दान है। विकारों को जीतना ही सबसे बड़ा युद्ध करना है और मनुष्यमात्र को सदाचारी एवं श्रेष्ठ तथा योगयुक्त करना ही सर्वोच्च सेवा करना है और इस सर्वोत्तम ज्ञान-यज्ञ, दान, सेवा तथा युद्ध का अमोलक अवसर संगमयुग में ही मिल सकता है जबकि परमपिता परमात्मा शिव प्रजापिता ब्रह्मा के तन में अवतरित होकर सत्य ज्ञान देते हैं।
परन्तु लोगों ने श्रीकृष्ण का जन्म द्वापर युग में बताकर तथा ‘उनके जीवन काल में भी कंस, शिशु-पाल, महाभारत युद्ध, रोग आदि हुए’, ऐसा कहकर श्रीकृष्ण पद की महिमा को बहुत कम कर दिया है। और कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं है कि श्रीकृष्ण ने वह जीवनमुक्त देव पद कैसे प्राप्त किया था? इन दोनों बातों का परिणाम यह हुआ है कि भारतवासी हर वर्ष जन्माष्टमी मनाने, प्रतिदिन मन्दिरों में श्रीकृष्ण की पूजा करने, सैंकड़ों बार श्रीकृष्ण की जीवन-कथा सुनने के बावजूद भी अपने जीवन को दिव्य नहीं बना पाये और उन्हें यह भी मालूम न होने के कारण कि वर्तमान समय कौन-सा है तथा भविष्य में कौन-सा समय आने वाला है, वे अज्ञान-निद्रा में सोये पड़े हैं तथा पुरुषार्थहीन हैं।
अब यदि उन्हें यह सत्यता मालूम हो जाए कि वर्तमान समय ही कलियुग के अन्त और सतयुग के आदि का संगम समय है जबकि परमपिता परमात्मा शिव, प्रजापिता ब्रह्मा के तन में अवतरित होकर पुन: गीता-ज्ञान एवं राजयोग की शिक्षा दे रहे हैं और निकट भविष्य में श्रीकृष्ण का सच्चा, दैवी स्वराज्य शुरू होने वाला है और श्रीकृष्ण तो सोलह कला सम्पूर्ण, पवित्र एवं मर्यादा पुरूषोत्तम थे तो वे भी अब इस ज्ञान तथा योग की धारणा करेंगे तथा भविष्य में श्रीकृष्ण के दैवी एवं स्वर्गिक स्वराज्य में देव पद प्राप्त करने का पुरूषार्थ करने लगेंगे जैसे कि ‘ब्रह्माकुमारी प्रजापिता ईश्वरीय विश्वविद्यालय’ द्वारा इन रहस्यों को समझने वाले हज़ारों-लाखों नर-नारी यह सर्वोत्तम पुरूषार्थ करके अपने जीवन को पावन बनाकर हर्षित हो रहे हैं।
इसी बात में है कि आज की परिस्थिति में प्रत्येक मनुष्य अर्जुन बनें, श्रीकृष्ण की विशेषताओं को आत्मसात करें तथा सच्ची-सच्ची गीता का अध्ययन और विवेचन कर उससे जीवन में उतारने का प्रयास करें। ये विचार करने की बात है कि, कोई भी मनुष्य किसी का शत्रु नहीं होता है। इसका स्पष्ट उल्लेख भागवद्गीता में मिलता है जिसमें श्रीकृष्ण ने कहा है कि हे अर्जुन! मनुष्य के अन्दर व्याप्त काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार ही मनुष्य के शत्रु है। जब हम इन पर विजय प्राप्त करेंगे तभी हम सुख-शान्ति से रह सकेंगे तथा एक सुखमय साम्राज्य की स्थापना कर सकेंगे। आप जरा इस पर विचार करें कि जब मनुष्य “काम” के वशीभूत होता है तब अत्याचार और व्यभिचार करता है। “क्रोध” में आता है तब हिंसा और “लोभ” के कारण लूटपाट तथा हत्या करता है। “मोह” के कारण जंजाल में जकड़ना तथा “अहंकार” के कारण अपनी अच्छाइयों को त्याग देता है। जब हम इन विकारों से मुक्त हो जायेंगे तब मन के अन्दर जो अच्छाइयों और बुराइयों का महाभारत चल रहा है उससे मुक्ति मिलेगी। ऐसी परिस्थिति से निपटने के लिए हमें बाहरी हथियारों का नहीं बल्कि आत्मिक और ईश्वरीय हथियारों के उपयोग से सबसे पहले अपने अन्दर छिपे उन महाशत्रुओं को नष्ट करना होगा जिनके प्रभाव से हम गलत काम करते हैं।
श्रीकृष्ण का आध्यात्मिक संदेश था कि, मनुष्य का जीवन एक खेल की तरह है। इसमें कोई विशेष युद्ध करने के लिए किसी योजना की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि जो दिखता है उसके साथ तो युद्ध आसानी से किया जा सकता है परन्तु जो अदृश्य है उसके साथ युद्ध करने के लिए हमें अपने अंदर की यात्रा करके, यथास्थिति को समझते हुए उसे समाप्त करना होगा। दैनिक दिनचर्या में रहते हुए अपने अन्दर छिपे उन तमाम अदृश्य शत्रुओं का एक-एक कर नाश करना होगा जिनकी वजह से आज संसार श्मशान में तब्दील हो रहा है। जैसे; श्रीकृष्ण ने आसुरी साम्राज्य को समाप्त करने के लिए बाल-लीलाओं का उपयोग किया था। गोपी-गोपिकाओं के साथ खेल-खेल में ही उन्होंने अकासुर, बकासुर, कालिया नाग तथा पूतना आदि का वध कर दिया था। वास्तव में, ये नाम विकारों के अलग-अलग रूपों का ही वर्णन करते हैं। दिव्य गुणों के आधार पर, देवता अथवा पांडव कहलाए जाते हैं इसलिए श्रीकृष्ण ने सदा पांडवों का साथ दिया। कौरव और पांडव के नाम की भी आध्यात्मिक व्याख्या है। ‘कौरव अर्थात् परमात्मा से विपरीत बुद्धि तथा पांडव अर्थात् परमात्मा में निष्ठा रखने वाले प्रीत बुद्धि।’ इसलिए हम इन विकारों पर विजय प्राप्त तभी कर पायेंगे जब परमात्मा के साथ प्रीत बुद्धि होंगे।
आने वाली श्रीकृष्ण जयन्ति पर यही ईश्वरीय संदेश है कि श्रीकृष्ण के अन्दर जो मूल्य और विशेषतायें हैं उन्हें अपने जीवन में उतारने का प्रयास किया जाये तथा गीता में वर्णित मनुष्य के अन्दर छिपे शत्रुओं का नाश करें, तभी छोटी-मोटी बातों के लिए हर घर में जो महाभारत चल रही है उसे समाप्त कर सकेंगे और तभी श्रीकृष्ण जयन्ति का पर्व सच्चे अर्थों में सार्थक हो सकेगा।
ऐसी मुबारक जन्माष्टमी के लिए हम आपको अग्रिम बधाइयाँ देते हैं। आज तक आप जिस प्रकार जन्माष्टमी मनाते आये हैं, वह कोई प्रैक्टिकल मनाना नहीं था। परन्तु अब जब भारतवासी सच्चे गीता-ज्ञान की बंसी सुनकर आनन्द रस में मस्त होंगे और राजयोग द्वारा योगीराज बनेंगे तब निश्चय ही निकट भविष्य में श्रीकृष्ण का पावन एवं दैवीय जन्म होगा। और वह होगी श्रीकृष्ण की वास्तविक और सजीव झांकी। और हमें उस ‘सुन्दर’ एवं मनमोहक झांकी को देखने के योग्य बनने के लिए अभी अपनी दृष्टि को दिव्य जन्म देना होगा, स्वयं को ज्ञान-योग के चन्दन से रंगना होगा। ऐसे शुभ पुरूषार्थ के लिए, ऐसी शुभ जन्माष्टमी के लिए एक बार फिर अग्रिम बधाइयाँ।
‘ओम शांति’
ब्रह्माकुमारी प्रजापिता ईश्वरीय विश्वविद्यालय
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