सन् 1968 के अन्त में मुझे ईश्वरीय ज्ञान मिला लेकिन साकार बाबा को देखने का सौभाग्य नहीं मिला। ज्ञान मैंने हैदराबाद, आन्ध्र प्रदेश से लिया। हैदराबाद की कुलदीप बहन के मम्मी-पापा उसी समय बाबा के आदेश अनुसार हैदराबाद में सेवाकेन्द्र खोलने आये थे। जब मुझे ज्ञान मिला तब मैं मेडिकल पढ़ रही थी। मुझे यह ज्ञान अपनी लौकिक बहन के द्वारा प्राप्त हुआ। पढ़ाई के दिनों में मुझे बहुत डर लगता था लेकिन ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त करने के बाद, योग का अभ्यास करने लगी तो मेरे में बहुत ताक़त आने लगी और निर्भय होकर पढ़ाई पढ़ने लगी। लौकिक में मेरा लक्ष्य था कि मैं अच्छी तरह पढ़ाई करूँ और जीवन को सच्चरित्र बनाये रखूँ। ज्ञान मिलने के बाद मेरा यह लक्ष्य, और मज़बूत हुआ।
कुलदीप बहन के पिता जी महेन्द्रसिंह जी ने एक दिन मुझे कहा कि बाबा के लिए अपना निश्चयपत्र लिखकर दो। मैंने घर में बैठ निश्चयपत्र लिखा और देने के लिए सेन्टर पर जा ही रही थी कि बाहर लौकिक पिता जी मिल गये। उन्होंने पूछा कि कहाँ जा रही हो? मैंने कहा, सेन्टर पर जा रही हूँ। उन्होंने कहा, बैठो यहाँ, आज के बाद कभी भी तुम सेन्टर पर नहीं जाओगी। मुझे बहुत दुःख होने लगा कि यह क्या हो गया? मैं तो कितनी अच्छी तरह ज्ञान में चल रही थी, रोज़ मुरली सुनने सेन्टर पर जाती थी, ज्ञान में कोई संशय नहीं था, मुझे पूरा निश्चय था कि निराकार शिव बाबा ब्रह्मा के साकार तन में आ चुके हैं। मुझे योग करना भी बहुत अच्छा लगता था। यह भी निश्चय था कि यह दुनिया बदलने वाली है। लेकिन पिता जी की बात माननी ही थी तो मैं अन्दर चली गयी। फिर मैंने दूसरा पत्र लिखा कि बाबा, मुझे ज्ञान में पूरा निश्चय है, मैं तो पूरी तरह से आपकी बन चुकी हूँ, आपकी ही बनकर रहूँगी, घर वाले तन को बन्धन डाल रहे हैं लेकिन मन को नहीं। मन से तो मैं आपकी हूँ और सारी ज़िन्दगी आपकी होकर रहूँगी। ऐसे बाबा को दोबारा पत्र लिखकर चुपके से सेन्टर पर जाकर दे आयी। दो-तीन दिन सेन्टर नहीं गयी, घर में ही रही। उसके बाद छुप-छुपके सेन्टर पर जाना शुरू किया।
एक दिन मन में आया कि कितने दिनों तक ऐसे चोरी-चोरी जाना है! मैं तो पढ़ी-लिखी हूँ। पढ़ाई से समझ और आत्म-विश्वास बढ़ता है, तो क्यों नहीं पिता जी से कहकर सेन्टर पर जाऊँ! दो दिन के बाद मैं पिता जी के पास गयी और कहा, पिता जी, भारत सरकार धर्मनिरपेक्ष है, उसकी प्रजा को कोई भी धर्म अपनाने का अधिकार है। ईश्वरीय ज्ञान से मुझे फ़ायदा हुआ है, मैं समझती हूँ कि मुझे इस में आगे बढ़ना चाहिए और बढ़ने का अधिकार भी मुझे है, इसलिए आप मुझे छुट्टी दे दीजिये। जब सरकार देती है तो आपको देने में क्या हर्जा है? उन्होंने कभी सोचा ही नहीं होगा कि मैं इस तरह की बातें उनके सामने कह सकती हूँ। उनको विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ये बातें उनकी बेटी कह रही है। घर में ऐसा वातावरण था कि बड़ों की हर बात बच्चों को माननी चाहिए और उनके सामने कुछ नहीं बोलना चाहिए लेकिन मेरी ये बातें सुनकर पिता जी ने समझ लिया कि यह बड़ी हो गयी है, समझदार बन गयी है, पढ़ी-लिखी है इसलिए इसको रोकना ठीक नहीं है। तो उन्होंने कहा कि बच्ची, भले तुम वहाँ जाओ लेकिन किसी से यह नहीं कहना कि मैं शादी नहीं करूँगी, वहीं रहूँगी। चुपचाप वहाँ जाते रहो, अपनी पढ़ाई करते रहो। उस दिन से मैं रोज़ सेन्टर पर जाने लगी, मुरली सुनती रही और लौकिक पढ़ाई भी पढ़ती रही।
ज्ञान में आने से पहले मैं रात को दो बजे तक बैठकर पढ़ती थी। जब ज्ञान में आयी तो अमृतवेले उठना पड़ता था तो अपनी दिनचर्या बदलनी पड़ी। रात दस बजे के अन्दर सोना शुरू किया और अमृतवेले तीन बजे उठना आरम्भ किया। उस समय मैं योग नहीं करती थी लेकिन तीन से पाँच बजे तक पढ़ाई पढ़ती थी, फिर नहा-धोकर सेन्टर पर जाती थी। शाम को भी सेन्टर पर जाती थी और जिज्ञासुओं को कोर्स कराती थी। मैंने सोचा कि केवल मेडिकल की पढ़ाई पढ़ने से मेरा भाग्य नहीं बनेगा, ईश्वरीय सेवा करने से बनेगा इसलिए मैं सुबह और दिन में कॉलेज की पढ़ाई पढ़ती थी और शाम को ईश्वरीय पढ़ाई और सेवा करने सेन्टर जाती थी। प्रतिदिन लगभग छह घंटे मैं सेन्टर पर रहती थी।
प्रश्नः ईश्वरीय ज्ञान में आपको क्या अच्छा लगा?
उत्तरः जब मुझे बताया गया कि भगवान आ गया है, उसका अवतरण हो चुका है-यह बात मुझे बहुत अच्छी लगी। क्योंकि अज्ञान काल में भी मैं एकान्त में चली जाती थी। छत पर जाकर अकेली बैठती थी और भगवान से कहती थी कि भगवान, आपकी यह दुनिया अच्छी नहीं है, इसको तोड़कर एक अच्छी दुनिया बनाओ। दो-दो घण्टे मैं छत पर बैठकर ऐसे-ऐसे सोचती थी। उन्हीं दिनों हैदराबाद में एक लहर चली थी कि संसार का विनाश होने वाला है। मेरी सहेलियाँ आदि बहुत डर रही थीं कि विनाश होगा तो हम क्या करें? यह बात सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई कि देखो, भगवान ने मेरी बात सुन ली। अच्छा है, विनाश होगा तो अच्छी दुनिया आयेगी। जब मैं कोर्स करने लगी, उसमें बताया गया कि परमात्मा आया हुआ है और वह इस पुरानी दुनिया का विनाश कर, नयी श्रेष्ठ दुनिया की स्थापना कर रहा है, तो मुझे बहुत ही ख़ुशी हुई। मुझे यह संकल्प भी आ गया कि भगवान अगर नयी दुनिया की स्थापना कर रहा है तो हमें इस कार्य में मदद करनी चाहिए और मैं करूँगी। कोर्स लेते समय मुझे ऐसा नहीं लगा कि यह ज्ञान मेरे लिए नया है या मैं पहली बार सुन रही हूँ। ऐसे लगा जैसे कि टेप में भरा हुआ है और उसको पुनरावृत्त कर रहे हैं। ज्ञान की कोई भी बात में मुझे, न संशय उठा और न प्रश्न उठा। सृष्टि-चक्र का ज्ञान सुनकर मुझे दो-तीन दिन रात को नींद ही नहीं आयी, चक्र का ज्ञान मुझे विशेष लगा। चक्र 5000 साल का है, मैंने सतयुग में देवी के रूप में पार्ट बजाया था, अभी ऐसी बनी हूँ, फिर मैं सतयुग में देवता बनूँगी, हर पाँच हज़ार वर्ष के बाद ऐसा ही चक्र पुनरावृत्त होगा – इन बातों ने मुझ में बहुत आश्चर्य और जिज्ञासा पैदा की।
प्रश्नः आप मधुबन पहली बार कब आयीं ?
उत्तरः सन् 1969 में जब साकार बाबा अव्यक्त हुए तो मैंने भी मधुबन आने के लिए कोशिश की लेकिन घर वाले नहीं माने। इतना दूर मुझे भेजने के लिए तैयार नहीं हुए। फिर जब शान्ति स्तम्भ और म्यूजियम का उद्घाटन था, उस समय मैं मधुबन आयी। उस समय मैं जिनको भी देखती थी, ऐसा लगता था कि इनको तो मैंने पहले भी देखा हुआ है, सब मेरे परिचित हैं। कई लोगों से मैं पूछती थी कि क्या आप मुझे पहचानते हैं? ख़ुशी के मारे, मैं एकदम सुधबुध भूली हुई थी क्योंकि सब अपने लगते थे, जाने-पहचाने लगते थे। मधुबन आकर मुझे बहुत मजा आया, अच्छे अनुभव हुए।
प्रश्नः आप तो श्री कृष्ण को मानने वाली थीं लेकिन इस ज्ञान में तो कहा जाता है कि परमात्मा, शिव है, तो आपके मन में उलझन पैदा नहीं हुई?
उत्तरः नहीं। मुझे यह स्पष्ट हुआ कि परमात्मा निराकार है, उसका कोई साकार रूप नहीं है, वह जन्म-मरण में नहीं आता। जो शरीरधारी है, वह जन्म- मरण में आता है। श्री कृष्ण के चरित्र में तो हम सुनते ही हैं कि उन्होंने जन्म भी लिया और मरण भी पाया। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि ‘शिव’ नाम कोई व्यक्तिवाचक नहीं है, कर्त्तव्यवाचक है, शिव माना कल्याणकारी। तो मुझे सहज रीति से निश्चय हुआ कि परमात्मा का नाम शिव है, वह निराकार है और श्री कृष्ण देवता है। भक्तिकाल में मैं यह सोचती थी कि श्री कृष्ण की दुनिया में हमें जाना है। वैकुण्ठ में इन्सान न भी बनें, एक फूल भी बन जायें, यह बड़ा सौभाग्य है। ज्ञान में आने के बाद मुझे यह मालूम पड़ा कि श्री कृष्ण की दुनिया में जाना क्या, उसके साथी बनेंगे। यह सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई और विश्वास भी हुआ। विश्वास माना पूरा विश्वास, उसमें कोई कमी नहीं थी। उस समय हैदराबाद में, पहली कुमारी होने के कारण मुझे सेन्टर पर सेवा के अनेक अवसर मिलते थे, कोर्स कराना, भाषण करना, मुरली सुनाना, सेवा-अर्थ इधर-उधर जाना आदि। लौकिक पढ़ाई और ईश्वरीय सेवा दोनों साथ-साथ चलती थीं।
प्रश्नः ईश्वरीय मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए और इसी मार्ग पर अटल रहने के लिए आपके मन में दृढ़ता कैसे आयी?
उत्तरः मैं लौकिक में भी ऐसी किताबें पढ़ती थी जिनमें ज्ञान, वैराग्य तथा ब्रह्मचारी जीवन की बातें होती थीं। उन पुस्तकों को पढ़ते समय मैं सारा दिन कमरे में ही रहती थी, वहीं खाना मँगाती थी, पानी या दूध आदि मँगाती थी। सिर्फ़ जब स्कूल जाना होता था, तब ही बाहर आती थी, नहीं तो सारा समय कमरे में धार्मिक पुस्तकें पढ़ने में ही बिताती थी। मुझे संन्यास स्वीकार करने की, योगी बनने की बहुत इच्छा थी लेकिन हमारे धर्म में स्त्री को संन्यासी बनने की अनुमति नहीं थी। हिन्दू समाज में माताओं और कन्याओं के लिए कोई ऐसा स्थान नहीं था कि वे भी आध्यात्मिक साधना कर सकें। जब मैंने ईश्वरीय ज्ञान पाया तो योगी बनने की मेरी इच्छा को सशक्त आधार मिला। योगी बनने की मेरी इच्छा को सशक्त आधार मिला। मुझे पूर्ण विश्वास हो गया कि मैं कन्या रहकर अपना जीवन बिता सकती हूँ, साधना कर सकती हूँ, अपना तथा समाज का कल्याण कर सकती हूँ। धीरे-धीरे मेरे में जो परिवर्तन हो रहा था, उसको प्रोत्साहन मिला और मैंने योगी जीवन जीने का पक्का फैसला कर लिया। लेकिन घर वालों को यह महसूस होने नहीं दिया कि ईश्वरीय ज्ञान और योग से ही मेरे में परिवर्तन आ रहा है। मैं पिता जी, माता जी से कहती थी कि यह दुनिया ठीक नहीं है, मुझे अन्य लोगों जैसे संसारी बनने की इच्छा नहीं है, मैं ब्रह्मचारिणी बनना चाहती हूँ, आप बताइये उसके लिए क्या करना पड़ेगा? पिता जी कहते थे कि ऐसा जीवन बिताना बहुत मुश्किल है, उसके लिए सफ़ेद कपड़े पहनने पड़ेंगे, सादा भोजन करना पड़ेगा, सफ़ेद अर्थात् दूध ही पीना पड़ेगा। वह जीवन बहुत कठिन मार्ग का है। मैं यह चाहती थी कि घर वालों को पता पड़े कि मैं गृहस्थ जीवन जीना नहीं चाहती, मैं पवित्र जीवन बिताना चाहती हूँ ताकि आगे जाकर ये मुझे सेन्टर पर जाने से रोकें नहीं।
प्रश्नः आपने मेडिकल कोर्स पूरा किया?
उत्तरः हाँ, सन् 1973 में मेडिकल की पढ़ाई पूरी की और दो साल प्रैक्टिस भी की।
प्रश्नः आपका विदेश सेवा-अर्थ जाना कैसे हुआ?
उत्तरः सन् 1970-75 की अवधि में विदेशों में बाबा के बहुत-से सेवाकेन्द्र खुले थे इसलिए विदेश सेवा के लिए बहनों की बहुत ज़रूरत थी। जब भी मैं मधुबन आती थी तो बड़ी दादी जी पूछती थी कि आपकी पढ़ाई कब पूरी हो रही है? आप कब सेवा के लिए सेन्टर पर आयेंगी? दादी जानकी जी की नज़र भी मेरे पर थी कि इसको सेन्टर पर ले आयें। मैंने कहा, दादी जी, मेरी लौकिक माँ भी ज्ञान में है, वह बूढ़ी है, उसकी देखभाल के लिए मेरी ज़रूरत है। तो दादी जी ने कहा कि उसको भी ले आओ। मैंने कहा कि दादी जी, लौकिक पिता ने इतना ख़र्च करा के डॉक्टरी (एम.बी.बी.एस.) पढ़ाया है अगर प्रैक्टिस नहीं करूँगी तो वे पूछेंगे कि तुमने यह क्या कर दिया। दादी जी ने कहा कि आप अपने साथ सर्टिफिकेट भी ले आओ, आप जिस सेन्टर पर रहेंगी वहाँ सेवा भी करना और प्रैक्टिस भी करना। सन् 1975 में जब मैं मधुबन आयी थी, तब दादी जी ने मेरे से पूछा कि आप कब समर्पित होंगी? कब सेन्टर पर आयेंगी? मैंने कहा, दादी जी, हमारे परिवार में किसी कन्या की शादी करते हैं तो उसको बहुत दहेज देते हैं। मैं शादी तो नहीं करूँगी लेकिन मुझे जितना भी वे दें, उसे लेकर आना चाहती हूँ। दादी जी ने कहा, उसकी चिन्ता आप नहीं करो, आप आ जाओ। उसी समय मेरा विदेश जाने का प्रोग्राम बना। तब तक पिता जी ने शरीर छोड़ दिया था। मैं बाबा के घर आ गयी। मैं उस समय लन्दन के लिए वीजा लेने गयी। उन दिनों भारत में आपातकाल होने के कारण वीजा नहीं मिला तो मैं वापिस मधुबन आयी और यहीं रहने लगी। एक बार मुंबई की निम्मू बहन दादी जी से बात करके मुझे मुंबई लेकर गयी। वहाँ एक साल रही। उसी समय ग्याना सेन्टर खुलने वाला था तो मुझे वहाँ भेजा गया। मैं और मोहिनी बहन गये । ग्याना की सेवा के लिए मोहिनी बहन ही मुख्य थी, मैं तो डॉक्टर के नाते गयी थी। मैं यह सोचकर गयी थी कि वहाँ मेडिकल प्रैक्टिस भी करूँगी और बाबा की सेवा भी करूँगी। कोशिश भी ऐसी ही की लेकिन वहाँ भक्ति-भावना बहुत होने के कारण लोग बहुत आने लगे बाबा का ज्ञान सुनने, तो मुझे प्रैक्टिस करने के लिए फुर्सत ही नहीं मिली। फिर मैंने वह इच्छा छोड़ दी और रूहानी डॉक्टर ही बनकर सेवा करने का निश्चय किया। बाबा की सेवा में इतना व्यस्त हो गयी कि मुझे भूल ही गया कि मेरी मेडिकल की पढ़ाई व्यर्थ हो गयी। मुझे ऐसे लगने लगा कि मैं रूहानी डॉक्टरी में स्पेशलिस्ट बन गयी। वहाँ मैं लगभग तीन साल रही, उसके बाद ट्रिनिडाड में सेन्टर खोले, सूरीनाम, जमैका आदि में भी सेन्टर खुले।
प्रश्नः विदेश सेवा का क्या अनुभव रहा?
उत्तरः मैं तो यह सोचकर विदेश सेवा के लिए गयी थी कि मुझे एक साल ही वहाँ रहना है और फिर भारत वापिस आना है परन्तु ड्रामा में वहीं सेवा करने का पार्ट मूँधा हुआ था। ग्याना में शुरू-शुरू में बहुत डर लगता था क्योंकि मैं अकेली थी। अकेले रहना, अकेले जाना-आना होता था। लेकिन वहाँ के लोगों की बाबा के प्रति अटूट भावना, निश्चय, प्यार देखकर मेरा मन गद्गद होने लगा। जब उन पर विश्वास होने लगा तब फिर मुझे कोई तकलीफ़ नहीं हुई। बाबा ने मेरा डर ही निकाल दिया। उसके बाद मेरा कई देशों में जाना हुआ। हिन्दू, मुस्लिम, काले, गोरे सब के साथ मिलने जाना होता था लेकिन मुझे डर नहीं लगता था। मैं उनको इस दृष्टि और भाव से देखती थी कि ये आत्मायें भी बाबा के बच्चे हैं, प्रभु-प्यारे हैं। ये मेरे भाई-बहनें हैं, पाँच हज़ार वर्षों के बाद मिले हैं। जिनको भी हम वहाँ ज्ञान देते हैं, बाबा का परिचय देते हैं, वो सब बाबा के बच्चे नहीं बनते लेकिन हमें देखकर उनको बहुत खुशी होती है, अपनापन रहता है और वे हमारे कार्य में दिल से सहयोग देते हैं। ग्याना में तो हम स्टीव नारायण जी, जिनको अंकल कहते हैं, उनके अतिथि थे तो वहाँ बहुत अच्छी सेवा हुई। छोटे-छोटे प्लेन में जाकर हम गाँव-गाँव में ईश्वरीय सेवा करते थे। ग्याना और ट्रिनिडाड में भारत मूल के लोग होने के कारण उनमें परमात्मा के प्रति और भारत से आये हुए लोगों के प्रति बहुत आदर की भावना होती है। भारत वालों को वे अपने पूर्वजों के देश के समझते हैं। खासकर ब्रह्माकुमार-कुमारियों को तो बहुत सम्मान और स्नेह की दृष्टि से देखते हैं। भारत के दूसरे लोग जाते हैं तो वहाँ जाकर कहीं न कहीं फँस जाते हैं, चरित्रहीन हो जाते हैं। हमारे में पवित्रता, स्वच्छता, सादगी, शालीनता, अनुशासनता, संयम, नियम देखकर वे बहुत खुश होते हैं और हमें आदर्श मानते हैं।
प्रश्नः भारत में भी कई कन्यायें ज्ञान में हैं, उनको माता-पिता या भाई-जनों का बन्धन होता है। वे ईश्वरीय सेवार्थ समर्पित होना चाहती हैं लेकिन हिम्मत नहीं है, अपने अनुभव के आधार से उनके लिए आपका क्या सन्देश है?
उत्तरः मुझे तो बन्धन था भी और नहीं भी था। मैंने अपनी स्थिति से बन्धन तोड़ा। बन्धनमुक्त होने के लिए बाबा ने कई युक्तियाँ दी हैं। एक युक्ति बाबा ने यह कही है कि वे कितना भी बोलें, कितने भी बन्धन डालें लेकिन उनके प्रति आपकी भावना नहीं बदले, उनके प्रति सदा शुभभावना और श्रेष्ठ भावना रहे। यह बात मैंने पूरी रीति निभायी। पिता जी या अन्य ने मुझे कितने भी बन्धन डाले लेकिन उनके प्रति मैंने कभी घृणा भाव नहीं आने दिया। उनके प्रति सदा स्नेह और आदर भाव ही रखा। बन्धनों को हम बाबा के ज्ञान से, योग से और मधुर सम्बन्ध-सम्पर्क-व्यवहार से तोड़ सकते हैं। हमारे में अगर डर है तो वो डर उनमें हमारे प्रति और विरोध पैदा करता है, और डराने का भाव उत्पन्न करता है। परिवार वालों के साथ मीठे सम्बन्ध स्थापित करके रहने से उनके प्रति डर ख़त्म होता है, इससे उनमें विश्वास और प्रेम बना रहता है और धीरे धीरे हमारे चाल-चलन, विचार-व्यवहार देख वे ख़ुद समझ लेते हैं कि इनका रास्ता श्रेष्ठ है, इनकी मंज़िल ऊँची है, इनको हमें बाधा नहीं डालनी चाहिए। मैं यह समझती हूँ कि बन्धनों को तोड़ना बहुत बड़ा काम नहीं है, बस, हमें अपने में दृढ़ निश्चय रहना चाहिए। रोज़ बाबा की मुरली सुननी चाहिए, हर हालत में अमृतवेले का योग करना चाहिए और परिवार वालों के प्रति प्रेम से व्यवहार करना चाहिए। मैंने हमारे यहाँ आने वाली अनेक बाँधेली कन्याओं को देखा, वे इस अलौकिक जीवन के प्रति लगन से और युक्तियों से ही बन्धनमुक्त हुई हैं।
प्रश्नः आपने इतना ख़र्च करके, मेहनत करके डॉक्टरी पढ़ाई की लेकिन आपने प्रैक्टिस की नहीं तो उसका क्या फ़ायदा हुआ?
उत्तरः डॉक्टरी की पढ़ाई पैसे कमाने के लिए मैं नहीं कर रही थी। मुझे बचपन से ही ग़रीबों की सेवा करने की बहुत इच्छा थी। हमारे परिवार वालों को पैसे की कोई कमी नहीं थी। हमारे पिता जी बड़े व्यापारी थे। मैं रोगियों की सेवा करके उनका दुःख दूर करना चाहती थी इसलिए मेडिकल पढ़ी। लेकिन ईश्वरीय ज्ञान मिलने के बाद मैं रूहानी डॉक्टर बनी, रूहों की अर्थात् आत्माओं की सेवा करने लगी। आत्मा जो पाँच विकारों रूपी महारोग से पीड़ित है, अगर उसका उपचार हो जाये तो शरीर की बीमारी अपने आप कम हो जायेगी। ईश्वरीय सेवा से मेरे डबल लक्ष्य पूर्ण हो रहे हैं। एक लक्ष्य था, ग़रीबों का, रोगियों का उपचार करना और दूसरा था स्व और अन्य आत्माओं का आध्यात्मिक कल्याण करना। इसलिए मुझे खुशी है कि मैं डबल डॉक्टर हूँ। इस ज्ञान में आने के बाद जो ख़ुशी मुझे मिली है उसे मैं वर्णन नहीं कर सकती।
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